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साम्राज्यवादी एजेंडे के सामने मोदी के कृषि विधेयकों का साष्टांग दंडवत
साम्राज्यवाद, भारत जैसे देशों को खाद्य पदार्थों के आयात पर निर्भर बनाने और उन खाद्यान्न फ़सलों को पैदा करने वाली ज़मीन में बदल देने के लिए प्रेरित कर रहा है, जो साम्राज्यवादी देशों में नहीं पैदा हो सकती हैं।
प्रभात पटनायक
28 Sep 2020
हरियाणा में कृषि बिल के विरोध में किसान
हरियाणा में कृषि बिल के विरोध में किसान | फ़ोटो,साभार: ट्विटर

पिछले हफ़्ते संसद के ज़रिये दो विधेयकों को हर लिहाज से आपत्तिजनक बताया गया था। सच्चाई तो यही है कि मत विभाजन की मांग के बावजूद मत डाले बिना राज्यसभा के ज़रिये जिस तरह से ज़बरदस्ती इस विधेयक को पारित किया गया, वह पूरी तरह अलोकतांत्रिक था। केंद्र का इस तरह उस कृषि विपणन व्यवस्था में एकतरफ़ा और मौलिक बदलाव करना, जो कि संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में आता है, संघवाद के ख़िलाफ़ एक झटका था।

ये विधेयक आज़ादी के पहले वाली उस व्यवस्था को फिर से बहाल करने जैसा है, जिसके तहत किसानों को राज्य के समर्थन के बिना पूंजीवादी बाज़ार के सामने बेबस छोड़ दिया गया था, और जिसने 1930 के दशक के महामंदी के दौरान किसानों को तबाह कर दिया था। सही मायने में ये विधेयक आज़ादी के वादे के साथ विश्वासघात है। मुट्ठी भर निजी ख़रीदारों की ताक़त के सामने लाखों छोटे किसानों को गड्ढे में डालने जैसा है,क्योंकि इन विधेयकों में इसी तरह  के प्रस्ताव हैं, विधेयक का पारित होना किसानों को एकाधिकारवादी शोषण के सामने छोड़ देने जैसा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेशक यह दावा करते रहे हैं कि राज्य किसानों को इन एकाधिकारवादियों की दया के हवाले नहीं कर रहा है और वे यह भी दावा कर रहे हैं कि सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) व्यवस्था जारी रहेगी। लेकिन, इन विधेयकों में इसे लेकर कुछ भी नहीं है; और सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के मुताबिक़ एमएसपी पाने के लिए एमएसपी को लागत C2 प्लस 50% रखने के किसानों के अधिकार को इस क़ानून में शामिल करने से इंकार करती है, जो कि सरकार की बदनियती को बयां करता है।

संक्षेप में, किसानों को किसी उपनिवेशवादी व्यवस्था के तहत एक ऐसे बाजार की दया के हवाले किया जा रहा है, जहां क़ीमत में उतार-चढ़ाव बहुत ज़्यादा रहता है; और ऐसे में वे आने वाले समय में ऋण और तबाही के गर्त में गिरने के ख़िलाफ़ अपने लड़ाई को बिल्कुल सही तरीक़े से आगे बढ़ा रहे हैं।

हालांकि, इस पूरी बहस में एक महत्वपूर्ण आयाम छूट गया है। यह बहस पूरी तरह से किसान के हालात को लेकर है। लेकिन,खाद्य सुरक्षा के उस सवाल को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, जो तत्काल साम्राज्यवाद को इस परिदृश्य में ले आता है।

साम्राज्यवाद लंबे समय से भारत जैसे देशों को खाद्य-आयात पर निर्भर बनाने और इस समय इसके भूमि क्षेत्र पर जो खाद्यान्न पैदा किये जा रहे है, उसकी जगह ऐसी फ़सलों को पैदा करने के प्रेरित कर रहा है, जिन्हें साम्राज्यवादी देश नहीं उगा सकते हैं, क्योंकि ये केवल उष्णकटिबंधीय और अर्ध-उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाये जा सकते हैं। हालांकि, इसका मतलब यह होगा कि उष्णकटिबंधीय और अर्ध-उष्णकटिबंधीय देश खाद्य सुरक्षा जैसे सवालों को छोड़ देंगे।

भारत जैसे देश में खाद्य सुरक्षा के लिए खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता ज़रूरी है। कई कारणों से खाद्य आयात घरेलू खाद्य उत्पादन का विकल्प नहीं है। पहला, जब भी भारत की तरह कोई विशाल देश खाद्यान्न आयात के लिए विश्व बाज़ार का रुख़ करता है, तो विश्व स्तर पर क़ीमतों में उछाल आ जाती हैं, जिससे आयात बेहद कम हो जाता है।

दूसरा, इस तथ्य से अलग एक तथ्य यह भी है कि इस तरह के आयात के लिए देश के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं हो सकती है, इसके अलावा, यह भी हो सकता है कि लोगों के पास इतनी ज़्यादा क़ीमतों पर आयातित खाद्य पदार्थ ख़रीदने के लिए पर्याप्त क्रय शक्ति न हो।

तीसरा, चूंकि साम्राज्यवादी देशों के पास खाद्य अधिशेष मौजूद है, यहां तक कि इसी तरह की बहुत ज़्यादा क़ीमतों पर खाद्य पदार्थ ख़रीदने के लिए भी साम्राज्यवाद की कृपा की ज़रूरत है। ऐसे में किसी देश को किसी अहम मोड़ पर खाद्य पदार्थ देने से इनकार कर देने की स्थिति सही मायने में साम्राज्यवाद के हाथों में इन देशों को मांगों के अधीन कर दिये जाने वाली बहुत बड़ी ताक़त सौंप देने जैसा है।

ये तमाम बातें कोई अमूर्त बातें नहीं हैं। भारत 1950 के दशक के उत्तरार्ध से पीएल-480 के तहत एक खाद्यान्न आयातक देश था। जब 1965-66 और 1966-67 में लगातार दो फ़सलें तबाही की शिकार हुईं थी, और ख़ास तौर पर बिहार को अकाल की स्थिति का सामना करना पड़ा था, तो भारत को खाद्य आयात के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने सही मायने में एक याचक बनने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

यह सही मायने में "जहाज़ों से रसोई" तक भोजन ले जाने का मामला बन गया था। उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तत्कालीन खाद्य मंत्री जगजीवन राम से खाद्य आत्मनिर्भरता की दिशा में अभियान को तेज़ करने के लिए कहा था और इसके बाद हरित क्रांति की शुरुआत की गयी थी।

देश सभी को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने को लेकर पर्याप्त अन्न पैदा करने के लिहाज से इस समय भी आत्मनिर्भर होने से दूर है। लेकिन,भारत अब कम से कम आयात पर निर्भर तो नहीं है। इसके उलट, लोगों के हाथों की क्रय शक्ति इतने निर्मम हाथों तक सिमटी हुई है कि हमारे देश में दुनिया के सबसे ज़्यादा भूखे लोग होने के बावजूद भारत हर साल नियमित और पर्याप्त निर्यात कर रहा है।

इसके विपरीत, साम्राज्यवाद ने अफ़्रीका को अपने घरेलू खाद्यान्न उत्पादन को छोड़ने और निर्यात फ़सलों की ओर मुड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। हाल के दिनों में लगातार पड़ रहे अकाल के सिलसिले में अफ़्रीका को जो नतीजा भुगतना पड़ा है, वह सबको मालूम है और ऐसे में ज़रूरी है कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में पहली वाली स्थिति बहाल की जाये।

1966-67 के बाद एमएसपी, ख़रीद मूल्य, निर्गम मूल्य, मंडियों में ख़रीद कार्यों, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्य सब्सिडी के सिलसिले में एक ऐसी व्यापक व्यवस्था तैयार की गयी थी, जो यह सुनिश्चित करने की कोशिश करती है कि उत्पादकों के हितों और उपभोक्ताओं के बीच समन्वय स्थापित हो और देश आयात को लेकर किसी भी तरह की ज़रूरत से बचने के लिए पर्याप्त अन्न पैदा करे।

यह व्यवस्था बुनियादी तौर पर नवउदारवाद की विरोधी व्यवस्था है। इसमें हैरत की बात नहीं कि एक सीमा रेखा के ज़रिये यह व्यवस्था बनायी गयी है, उदाहरण के लिए,1990 के दशक के मध्य में ग़रीबी रेखा से ऊपर (APL) और ग़रीबी रेखा के नीचे (BPL) की आबादी के बीच के अंतर किये जाने की शुरुआत हुई और सब्सिडी वाले खाद्यान्न के लिए सिर्फ़ ग़रीबी रेखा के नीचे (BPL) वाले लोगों की पात्रता को सुनिश्चित किया गया। इस तरह, इसने देश को विश्व अर्थव्यवस्था में खाद्यान्न को लेकर एक प्रकार से याचक बनने से रोके हुआ है।

साम्राज्यवाद ने इस व्यवस्था को ख़त्म करने के ज़ोरदार प्रयास किये हैं, जिसका सबसे बड़ा स्पष्ट सुबूत विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर पर केंद्रित वह वार्ता है, जहां अमेरिका यह तर्क देता रहा है कि पूर्व घोषित मूल्य पर भारत का ख़रीद अभियान स्वतंत्र व्यापार के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है और इसे रोका जाना चाहिए। भारत में अब तक कोई भी सरकार इस साम्राज्यवादी दबाव के चलते इतनी डरपोक या इतनी मासूम नहीं रही है, और यही कारण है कि दोहा दौर आगे नहीं बढ़ पाया है।

लेकिन, दुभाग्य से पहली बार हमारे पास एक ऐसी सरकार है, जो इस मुद्दे पर साम्राज्यवाद का सामना करने से या तो बहुत डर गयी है या इसके नतीजे से बहुत अनजान है। "कृषि बाजारों को आधुनिक बनाने", "इक्कीसवीं सदी की तकनीक" और इसी तरह की दूसरी चीज़ों के नाम पर यह स्थिति हमें फिर से उस औपनिवेशिक दौर में वापस ले जा रही है, जब प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन घट रहा था, यहां तक कि ज़मीन को निर्यात फ़सलें पैदा करने की तरफ़ मोड़ी जा रही थी। ये तमाम कार्य सही मायने में साम्राज्यवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि नयी कृषि विपणन नीति के तात्कालिक लाभार्थी अम्बानी और अडानी ही होंगे, लेकिन वे अनुबंध कृषि व्यवस्था में खाद्यान्नों के लिए उस हद तक नहीं, जिस हद तक फलों, सब्जियों, फूलों और अन्य फसलों की एक श्रृंखला के लिए अनुबंध कृषि व्यवस्था में प्रवेश करेंगे, जिन्हें वे न सिर्फ़ घरेलू बाज़ार में बेचेंगे,बल्कि निर्यात के लिए भी संसाधित (process) करेंगे।

निजी एकाधिकारवादियों द्वारा अनुबंध खेती का एक ज़रूरी और स्वाभाविक नतीजा ठीक उसी तरह खाद्यान्न उगाने वाली फ़सलों से ग़ैर-खाद्यान्न उगाने वाली फ़सलों की तरफ़ रुख़ करना है, जिस तरह औपनिवेशिक काल में हुआ था, जब बंगाल प्रेसीडेंसी खाद्यान्न की जगह अफ़ीम और नील जैसी निर्यात फ़सलों को उगाने वाली ज़मीन में बदल दी गयी थी। याद कीजिए, जब दीनबंधु मित्रा के 19वीं शताब्दी के नाटक, ‘नील दर्पण’ में बहुत ही शानदार तरीक़े से नील व्यापारियों द्वारा किसानों के जिस शोषण को वास्तव में दिखाया गया है, आज किसान उसी तरह के शोषण को लेकर आशंकित हैं और बचने की कोशिश कर रहे हैं।

कृषि व्यवस्था को लेकर अब तक जो परेशान करने वाली बात रही है, वह यह है कि (हालांकि अपर्याप्त) किसानों के हितों को देखते हुए बड़े पैमाने पर ग़ैर-खाद्यान्न और निर्यात फ़सलों के लिए भूमि के इस्तेमाल से रोका गया है। उस व्यवस्था के ध्वस्त होने से न सिर्फ़ किसानों को नुकसान होगा, बल्कि खाद्यान्नों से ग़ैर-खाद्यान्न और निर्यात फ़सलों तक के भूमि-क्षेत्रों का विस्तार होगा, जिससे देश की खाद्य सुरक्षा कमज़ोर होगी।

मामला वास्तव में सरल है। चूंकि भूमि एक दुर्लभ संसाधन है, इसलिए ज़मीन का इस्तेमाल सामाजिक रूप से नियंत्रित होना ही चाहिए। इसे किसी के निजी फ़ायदे के ख़्याल से तय नहीं किया जा सकता है। यह सच है कि चूंकि ज़मीन किसानों के कब्ज़े में है, इसलिए ज़मीन के इस्तेमाल को सामाजिक रूप से नियंत्रित किये जाने के बावजूद भी उनका ख़्याल रखा जाना चाहिए। संक्षेप में, भले ही ज़मीन का इस्तेमाल को सामाजिक रूप से नियंत्रित किया जा रहा हो,फिर भी उन्हें एक पारिश्रमिक मूल्य तो मिलना ही चाहिए।

यह वही कुछ है, जिसे मौजूदा व्यवस्था ने हासिल करने की कोशिश की है, लेकिन अफ़सोस की बात है कि इसे  मौजूदा सरकार तबाह करना चाहती है; इसकी जो कुछ भी कमियां थीं, उन्हें व्यवस्था के दायरे में ही सुधारने की ज़रूरत है। ज़मीन के इस्तेमाल पर सामाजिक नियंत्रण की ज़रूरत को लेकर जागरूक किये बिना उस व्यवस्था को ही ख़त्म कर देना उसी तरह की मूर्खता है, जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार के साथ जुड़ी रही है। साम्राज्यवाद ऐसी ही तबाही चाहेगा; और भाजपा सरकार ख़ुशी से इस तबाही को लेकर अहसानमंद होती रहेगी।

संपूर्ण ग़ैर-समाजवादी तीसरी दुनिया का एकमात्र क्षेत्र केरल है, जिसने ज़मीन के इस्तेमाल पर सामाजिक नियंत्रण रखने की ज़रूरत को लेकर ज़बरदस्त जागरूकता दिखायी है, क्योंकि ज़मीन एक दुर्लभ संसाधन है, इसलिए केरल ने धान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी और मक़सद के लिए नहीं हो, इसके लिए क़ानून बनाया है। इस क़ानून के ज़रिये जिस तरह की समझदारी दिखायी गयी है, भाजपा सरकार के ये कृषि विधेयक उसके ठीक उलट है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Modi’s Farm Bills Totally Kowtow to Imperialist Agenda

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