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भारत
राजनीति
क्या मोदी सरकार राज्य सरकार के स्वामित्व वाले खनिज संसाधनों को कॉरपोरेट्स को बेचना चाह रही है? 
खनिज मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया अधिसूचना का प्रारूप कहता है, खनिज खदानों की नीलामी राज्य सरकारों द्वारा नहीं, बल्कि केंद्र सरकार के ज़रिए की जाएगी
अयसकांत दास 
18 Feb 2021
खनिज संसाधन

नई दिल्ली: केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार जाहिर तौर पर कॉरपोरेट घरानों को देश के प्राकृतिक संसाधनों की बड़ी कचौड़ी दिलाने में मदद करने के उद्देश्य से एक नई विधि का विधान किया है। इसके मुताबिक केंद्र सरकार, खास तौर पर राज्य सरकार के दायरे में आने वाली, खनिज खदानों की नीलामी कर सकती है। केंद्रीय खनिज मंत्रालय ने 9 फरवरी को खनन क्षेत्र में सुधार की एक  पूरी श्रृंखला का प्रस्ताव करते हुए अधिसूचना का एक प्रारूप/मसौदा जारी किया है, जिसमें खदानों की नीलामी का अधिकार केंद्र को हस्तांतरित किए जाने का प्रस्ताव भी शामिल है।

खदानों और खनिजों (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 में संशोधन कर “केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह खदानों की नीलामी में राज्य सरकार के समक्ष चुनौतियां आने पर अथवा उसके इस काम में विफल रह जाने की स्थिति में नीलामी कर सकती है।”  अन्य कई सुधारों में, सरकार ने खदानों से, खास कर निजी/स्व उपयोगी (कैप्टिव) खदानों से, निकाले गए कोयले के 50 फ़ीसदी हिस्से के कारोबार की इजाजत देने का भी प्रस्ताव किया गया है। केंद्र ने ताजा आकलन करने की और सफल नए बोली-दाता पुराने पट्टाधारकों से खनिज खदानें लेने पर इसकी मंजूरी लेने, दोनों की अनिवार्यता खत्म करने की मांग की है।

यद्यपि अधिसूचना का मसौदा पूरी तरह स्पष्ट करता है कि केंद्र द्वारा खनिज खदानों की नीलामी से होने वाली सभी आय राज्य सरकारों को ही प्राप्त होगी। लेकिन यह दावा किया जा रहा है कि प्रस्तावित प्रावधान/विधान से देश के संघीय ढांचे को कमतर किया जा रहा है: राज्य सरकारें न केवल खनिज संपदाओं (केवल कोयला और यूरेनियम छोड़कर) की मालिक हैं बल्कि उन्हें यह भी तय करने का हक हासिल है कि वे उन खनिज संसाधनों का कब और कैसे उपयोग करें। 

विशेषज्ञों ने केंद्र की इस मंशा पर सवाल किया है कि जब नीलामी से मिलने वाला सारा धन संबद्ध राज्यों को ही मिलेगा, तो नीलामी की श्रम-साध्य प्रक्रिया में शामिल होने और उस पर होने वाले सारे खर्च का वहन केंद्र क्यों करेगा?  सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख ने कहा,“राज्य सरकारें खनिज संसाधनों की न्यासी (ट्रस्टी) हैं। वे अपनी जरूरतों के मुताबिक खनिज-खदानों की नीलामी में अपने अधिकार का उपयोग कर सकती हैं।”

खनिज मंत्रालय ने सभी खनिज-खदानों की नीलामी का अधिकार लेने के अपने प्रस्ताव को इस आधार पर युक्तिसंगत ठहराया है कि राज्य सरकारें खनिज संसाधनों की नीलामी करने में सुस्त रहीं हैं। अधिसूचना कहती है कि केंद्र सरकार के पास अन्वेषण एजेंसियां हैं- जिन्होंने  2015 से 143 खनिज खदानों की भूगर्भीय रिपोर्ट सौंप चुकी हैं और जो अब विभिन्न सरकारों द्वारा नीलामी किये जाने के लिए तैयार हैं।  हालांकि, उस सूची में से अब तक मात्र 7 खदानों की नीलामी ही की जा सकी हैं।  अधिसूचना मसौदा  334 खनिज खदानों को लीज पर दिए जाने की बात कहता है।  इनमें से 40 खदानें जिनमें अभी खनन का काम जारी है,  उनके लीज की अवधि मार्च 2020 में बीत गई है।  अधिसूचना में कहा गया है कि,  केंद्र द्वारा बार-बार तगादा करने के बाद, अब तक  केवल 28 खदानों की नीलामी की जा सकी है।  खदानों की बड़ी संख्या में नियमित तौर पर नीलामी का विचार इस  परिकल्पना के आधार पर उचित ठहराया गया है कि  इससे देश में खनिजों की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित होगी।  इसमें कहा गया है कि नीलामी के काम में की गई देरी ने  खनिजों की उपलब्धता और उनके मूल्य पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है। 

अधिवक्ता पारिख ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा ,“अगर सभी खनिज संसाधनों की नीलामी एक साथ की जाएगी तो अंतरजन्य समता की अवधारणा फिर कहां रह जाएगी? खनिज संपदा का उत्खनन हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। अन्यथा अंधाधुंध दोहन से तो भावी पीढ़ी के लिए खनिज संपदा ही नहीं बचेगी। विगत में, ऐसे भी उदाहरण मिले हैं, जब फर्जी लेटरहेड वाली कंपनियां कोयला खदानें खरीदती रही हैं, जबकि उनका किसी भी तरह की विनिर्माण की गतिविधियों से कोई सरोकार नहीं होता था। त्वरित और थोक भाव में खनिज-खदानों की नीलामी का परिणाम यह होगा कि बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन कॉरपोरेट घरानों के नियंत्रण में आ जाएंगे, जिनके पास इस समय अकूत धन है, बल्कि उनके पास नीलामी को जीतने की पूरी ताकत भी है। इसका स्थानीय पर्यावरण पर भी कई रूपों में बुरा प्रभाव पड़ेगा, जब सभी खनिज-खदानों में एक समय में ही उत्खनन होगा।” 

यह अनुमान लगाया गया है कि केंद्र द्वारा राज्य सरकारों के अधिकार लेने के किसी भी प्रयास, जहां तक खनिज-संपदाओं के स्वामित्व और प्रबंधन का संबंध है- का पुरजोर विरोध किया जाएगा।  केंद्र सरकार द्वारा देश के संघीय ढांचा, जो भारत के संविधान की बुनियादी संरचना है, में संशोधन कर उसे किसी तरह कमजोर करने की कोशिश का, जैसी कि संभावना है, राज्य सरकारें अदालत में विरोध करेंगी। इसका परिणाम यह होगा कि नीलामी-प्रक्रिया पूरी तरह से पटरी से उतर जाएगी। वहीं दूसरी ओर, केंद्र के लिए एक विकल्प बचता है ई-नीलामी की प्रक्रिया में राज्यों के प्रति सहयोग का हाथ बढ़ाना यह त्वरित और सस्ती प्रक्रिया होगी, अगर वहां पर अधिक खनिज-संसाधनों को बेचने की आवश्यकता है।

प्रस्तावित संशोधन अधिनियम में एक प्रावधान यह भी बनाया गया है, जिसमें पट्टाधारकों को यह इजाजत दी गई है कि वे निजी उपयोग के खदानों से किसी भी खास वर्ष में आवश्यकता भर उपयोग के बाद बाकी उत्खनित खनिजों का 50 फीसद हिस्सा केंद्र सरकार द्वारा तय की गई अतिरिक्त रॉयल्टी का भुगतान करने के बाद उसे बेच सकते हैं। इस प्रावधान के जारी रहने  से निजी कोयला खदान के पट्टाधारक खनिज का 50 फीसद हिस्सा व्यावसायिक कारोबार के लिए उपयोग करने में अधिकार सक्षम हो जाएंगे।  केंद्र द्वारा यह प्रस्ताव इस परिकल्पना पर युक्तिसंगत ठहराया गया है कि इससे कोयला के आयात बिल में कमी आएगी और यह भारत के व्यवसाय घाटे को पाटने का काम करेगा।

भारत सरकार के पूर्व सलाहकार (कोयला)  आरके सचदेवा ने कहा, “भारत में बहुत सारे  ताप ऊर्जा संयंत्र (थर्मल पॉवर प्लांट) हैं, जिन्हें इस तरह से डिजाइन किया गया है कि उसमें केवल आयातित कोयले का ही उपयोग किया जा सकता है। इनमें से कई ताप ऊर्जा संयंत्रों को सोच-समझ कर देश के तटवर्ती इलाकों में बनाया गया है, जिससे कि समुद्री मार्ग से आयातित कोयले का उनमें उपयोग किया जा सके।  इन संयंत्रों को कभी भी घरेलू कोयले के उपयोग लायक नहीं बनाया जा सकता है। दूसरे, उत्खनन की मांग की पूर्ति हो जाने के बाद शेष कोयले (या अन्य किसी भी खनिज) के व्यवसाय के लिए अतिरिक्त रायल्टी चार्ज करने का सरकार के पास और कोई कारण नहीं होना चाहिए। ऐसा हुआ तो यह खनिजों की कीमत में बनावटी बढ़ोतरी की तरफ ले जाएगा और अतिरिक्त रॉयल्टी का बोझ आखिरकार उपभोक्ताओं के पल्ले ही पड़ जाएगा।  यह आत्मनिर्भर भारत की भावना के विरुद्ध है। लिहाजा, सरकार को पट्टाधारकों को बांध कर रखने वाली इन सभी शर्तों को वापस ले लेना चाहिए।”

गत वर्ष मार्च में, कोविड-19 के कारण पूरे देश में लागू किए गए लॉकडाउन के पूरी तरह से हटने के बाद,  केंद्र सरकार ने नये खनन-पट्टाधारकों को दो  साल का अवकाश देते हुए एक अधिसूचना जारी की, जिसमें कहा गया कि वे पुरानी मंजूरी के आधार पर खनिजों को निकालना जारी रख सकते हैं, बशर्ते कि वे वर्ष 2022 तक नई मंजूरी प्राप्त कर लें।

ताजा अधिसूचना मसौदा नई मंजूरी प्राप्त करने की आवश्यकता को पूरी तरह से दूर करने का प्रस्ताव करती है: अनुमति के पुराने सेट का उपयोग नए पट्टाधारकों द्वारा तब तक किया जा सकता है, जब तक खनिज-खदानों में सभी संसाधन समाप्त नहीं हो जाते। इसमें कहा गया है कि नए पट्टाधारक नई इजाजत लेने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं, जो न केवल “लंबी प्रक्रिया” के कारण होता है, बल्कि इसमें “अधिक समय” भी लगता है। सचदेवा ने कहा,“ नई अनुमति नए पट्टाधारकों के लिए जरूरी नहीं बनाए जाने का प्रस्ताव उद्योग-समर्थक और विकास-समर्थक है। नई अनुमति पाने के लिए खनन के काम को रोकने से कारोबार की निरंतरता बाधित होगी।  फिर नई मंजूरी मिलने के बाद ही खदान संचालकों को पूरी कवायद शुरू करनी होगी। तब उनके लिए अयस्क को फिर से पाना कठिन हो जाएगा।” 

उद्योग  के  कई हिस्सों ने पूर्व की अनुमति के आधार पर ही उत्खनन के काम को जारी रखने के प्रस्ताव का स्वागत किया है, जबकि वे पर्यावरण और वानिकी के विषय हैं और खदान मंत्रालय के दायरे में नहीं आते हैं। 

खनन से पीड़ित होने वाले लोगों, संस्थाओं और समुदायों के गठबंधन खदानें, खनिजों और पीपल  के रिब्बाप्रगदा रवि कहते हैं “एक बार मिली पर्यावरणीय अनुमति खदानों के स्वामित्व में परिवर्तन के बावजूद वैध रहती है। लेकिन स्थापना और कामकाज शुरू करने की अनुमति की वैधता सीमित होती है और एक निश्चित अवधि के अंतराल पर इनका नवीकरण कराना पड़ता है। इसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, भारतीय खान ब्यूरो द्वारा किसी खनन योजना की दी गई अनुमति की आजीवन वैधता नहीं है। इसका प्रत्येक 5 साल पर नवीकरण कराना होता है। प्रत्येक परियोजना के समर्थक-अवयवों को अगले 20 साल तक की खनन योजना के साथ जमा करना पड़ता है, इसमें परियोजना को बंद करने का प्लान भी शामिल है। मूल योजना में छेड़छाड़ किए जाने की स्थिति में भारतीय खान ब्यूरो पूर्व दी गई अपनी अनुमति को खारिज करने का भी अधिकार सुरक्षित रखता है।”

पुरानी अनुमतियों के आधार पर ही उत्खनन जारी रखने  प्रसंग में कामगारों की जान की सुरक्षा को ले कर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।  ऐसे में जब पट्टाधारक धरती में गहरे जाकर खनिजों का उत्खनन करते हैं तो क्या एक तय अवधि के अंतराल पर सुरक्षा मानकों की  भी समीक्षा नहीं करनी चाहिए?  खदान सुरक्षा के महानिदेशक सुरक्षा मानकों का सम्यक पालन न होने या उसकी जानबूझकर की जा रही अवहेलना की स्थिति में अभियान को रद्द करने का अधिकार रखते हैं।

इसके अलावा, करार के जरिये लीज पर खनन अनुमति राज्य सरकारें देती हैं। यह इजाजत उसके खान और भूगर्भ निदेशालय द्वारा दी जाती है।

रवि ने कहा, “अगर स्वामित्व में परिवर्तन होता है, तो नये नियम और शर्तों के मुताबिक पट्टाधारकों को एक नया करार करना पड़ता है। इन शर्तों में रॉयल्टी की रकम एवं नियमित अंतराल पर खनन परमिट भी शामिल हैं। पट्टे की अवधि बढ़ाए जाने अथवा स्वामित्व में कोई भी बदलाव संबद्ध सरकारी विभाग के  आदेश द्वारा जारी किया जाना चाहिए, इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।”  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें ।

Is Modi Government Planning on Selling State Govt. Owned Mineral Resources to Corporates?

Mining in India
Environmental Clearance
EIA
climate change
Mineral Blocks
IBM
Ministry of Mines
Mines and Minerals Act
federalism
Centre State Mining Laws

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