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भारत
राजनीति
मोदी सरकार और नेताजी को होलोग्राम में बदलना
बोस की सच्ची विरासत को उनकी होलोग्राफिक छवि के साथ खत्म कर देना : बिना किसी सार और तत्व के प्रकाश तथा परछाइयों का खेल। यह लगातार मोदी सरकार की वास्तविक विरासत बनती जा रही है!
प्रबीर पुरकायस्थ
28 Jan 2022
bose

मोदी सरकार और भाजपा के सामने हर वर्ष इसी समय एक गंभीर संकट खड़ा हो जाता है। वह (भाजपा) हमेशा से राष्ट्रवादी पार्टी की संस्थापक होने का दावा करती आई है, जबकि कटु सत्य तो यह है कि उसके पास उस कद का कोई नेता ही नहीं है जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी राज का सामना किया हो। यही कारण है कि वे किसी भी अन्य राजनीतिक धाराओं से संबंधित किसी भी नेता को हड़पने का प्रयास करते हैं। यह सब सरदार पटेल और स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के साथ शुरू हुआ; तत्पश्चात डॉ. आंबेडकर की 125वीं जयंती पर यह क्रम जारी रहा; और अब सुभाष चंद्र बोस की बारी है।

जाहिर है, भाजपा बहुत वैधता के साथ सावरकर पर अपना दावा ठोक सकती है। भले ही ब्रितानियों के खिलाफ संघर्ष के शुरुआती इतिहास में सावरकर ने उनके विरुद्ध संघर्ष किया हो, लेकिन बाद में उन्होंने अपने कारावास के दौरान अंग्रेजी राज के सामने माफी की गुहार लगाते हुए उसे अनेक पत्र लिखकर उसके प्रति अपनी निष्ठा की कसम खाते हुए अपनी छवि को बुरी तरह मिट्टी-मिट्टी कर दिया था। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में कांग्रेस से लेकर समाजवादियों, कम्युनिस्टों, द्रविण और दलित आंदोलनों तक की किसी भी धारा की महान हस्तियों के समूह के खिलाफ आप कब तक बार-बार एक ही राष्ट्रवादी प्रतीक (आइकन) के सहारे अपनी रोटियां सेक सकते हैं? भाजपा के लिए मुश्किलें और भी बदतर हैं, क्योंकि उसे न केवल राष्ट्रीय आंदोलन के अतीत को गढ़ना है जो कि उसके पास नहीं है, बल्कि इन महान नायकों (आइकन्स) द्वारा आरएसएस और हिंदू महासभा (जन संघ का उस समय अस्तित्व नहीं था, उसकी स्थापना गांधी की हत्या के बाद 1951 में हुई थी) की अपने भाषणों और लेखन के जरिये सार्वजनिक रूप से जो भर्त्सना की गई थी उसके विपरीत जाकर भी उसे (भाजपा) इन्हें अपने पक्ष में हड़पना होगा। ये विचार एकतरफा नहीं थे, आंबेडकर और भारतीय संविधान के उनके संचालन को आरएसएस द्वारा बहुत ही गहरी घृणा की दृष्टि से देखा गया था, आरएसएस चाहता था कि संविधान मनु स्मृति के आधार पर बने (द ऑर्गनाइजर, 30, नवंबर 1949)।

मोदी का हमेशा से यह मानना रहा है कि तड़क-भड़क से भरा प्रदर्शन उनके दावों के खोखले आधार पर हावी हो सकता है। यही वजह है कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की महिमा और उसके विशाल आकार पर तकरीबन 3000 करोड़ रुपये खर्च किए गए। यह कुछ ऐसा था जो स्वयं सरदार पटेल को पूरी तरह से फिजूल लगता। प्रतिमा का यह आकार पटेल के जीवनभर कांग्रेस का नेता बने रहने और गांधी की हत्या के बाद आरएसएस को प्रतिबंधित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को ढकने के लिए था। ऐसा लगता है कि इस बार नेताजी के बारे में विचार बहुत देर से आया : इस बार वह प्रतिमा नहीं, बल्कि एक होलोग्राम बन कर रह गए! प्रतिमा की अनुपस्थिति में, मोदी ने नेताजी की प्रतिमा की होलोग्राफिक छवि की नौटंकी का सहारा लिया, जिसे उनके चुनाव अभियानों से नकल किया गया था। जो कुछ भी इस इवेंट के लिए किया था वह क्या दिखाने के लिए किया गया था : जाहिर है, एक ऐसे नेता को अपने पक्ष में हड़पना था जिसके मन में आरएसएस और उसके नेताओं की सोच के प्रति सदा ही गहरा तिरस्कार रहा था।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी की एक विरासत योजना समिति (प्लानिंग कमिटी) का गठन भी थी, जिसका गठन उस समय किया गया था जब वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे। भौतिक विज्ञानी और कम्युनिस्टों के करीबी मेघनाद साहा ने इस प्लानिंग कमेटी के गठन के लिए बोस के साथ मिलकर काम किया था। बोस ने नेहरू को, एक समाजवादी साथी के रूप में, जैसा कि वह स्वयं को भी देखते थे, योजना समिति का नेतृत्व करने के लिए कहा। सन 1938 में बोस द्वारा गठित यह योजना समिति स्वतंत्रता के बाद योजना आयोग बनी।

मोदी सरकार के शुरुआती कार्यों में सबसे पहला कार्य था - जिसकी प्रधानमंत्री के रूप में स्वतंत्रता दिवस के अपने पहले संबोधन में “उपयुक्त रूप से” घोषणा की गई थी – योजना आयोग को समाप्त करके उसे एक नख-दंतविहीन और खोखले नीति आयोग में तब्दील कर देना। बोस की सच्ची विरासत को उनकी होलोग्राफिक छवि के साथ खत्म कर देना : बिना किसी सार और तत्व के प्रकाश तथा परछाइयों का खेल। यह लगातार मोदी सरकार की वास्तविक विरासत बनती जा रही है!

आंबेडकर ने संविधान सभा को संबोधित करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि लोकतंत्र का अर्थ सामाजिक और आर्थिक, दोनों ही हैं। बोस, नेहरू और आंबेडकर, तीनों ने ही अपने विजन में स्पष्ट किया कि उन्होंने समाजवादी समाज की प्रेरणा सोवियत संघ से ली, भले ही वे साम्यवाद से सहमत नहीं थे। बोस ने भारत के औद्योगिक और कृषि के उत्थान के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण और योजना को परम आवश्यकता के रूप में देखा। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के लिए विकास के लाभों के पुनर्वितरण के एक साधन के रूप में भी इसे देखा। उन्होंने महसूस किया कि ब्रितानी औपनिवेशिक शासन द्वारा भारत पर थोपी गई चरम गरीबी, अकाल, जीवन-संभाविता की अति बुरी स्थिति (अबिज़्मल लाइफ एक्स्पेक्टन्सी) और निरक्षरता से मुक्ति के लिए अर्थव्यवस्था में केवल राज्य का हस्तक्षेप आवश्यक है।

जिन लोगों का राष्ट्रीय आंदोलन के साथ कोई इतिहास नहीं रहा है वे यह भूल जाते हैं कि दो सदियों के ब्रितानवी शासन ने भारत को इस हाल में छोड़ दिया था। उसने भारत के उद्योग को पूरी तरह से तबाह कर दिया था, लगभग सभी उन्नत औद्योगिक सामानों के मामले में भारत को आयातक बना दिया था, और अर्थव्यवस्था को अंग्रेजों के साथ सहबद्ध कर दिया था।

अंग्रेजों के चंगुल से आजाद होने के लिए भारत को तीन काम करने थे। उसे अपने आर्थिक संसाधनों की योजना बनाने की आवश्यकता थी, राज्य को भारी उद्योग सेक्टर के निर्माण की जरूरत थी, और उसे शिक्षा तथा अनुसंधान में निवेश द्वारा महत्वपूर्ण मानव संसाधनों का निर्माण करना था जिसकी किसी भी तरह के राष्ट्रीय विकास में अति आवश्यकता थी। यह वह विज़न था जिसकी बोस ने बुनियाद रखी और मार्च, 1938 में हरीपुरा कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में इसे रखा। उसी वर्ष कुछ महीनों बाद अगस्त में भारत की योजना और औद्योगिकीकरण के अपने विज़न के संबंध में मेघनाद साहा के साथ बातचीत में उन्होंने इसी दृष्टिकोण पुनः दोहराया। ये दोनों ही बातें दस्तावेजों में उपलब्ध हैं जिन्हें योजना आयोग ने 1997 में प्रकाशित किया था। उस समय मधु दंडवते योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे। इसके प्रकाशन का शीर्षक था – सुभाष चंद्र पायनियर ऑफ इंडियन प्लानिंग। भारतीय योजना और भारत के औद्योगिककीकरण का यह एक वह विज़न था जिसे साहा, बोस और नेहरू ने साझा किया था। उन्होंने अपनी यह प्रेरणा अक्टूबर क्रांति के बाद नियोजित विकास के संबंध में सोवियत के प्रयोगों से ली थी। बाद में नेहरू का अंग्रेजों और बड़ी भारतीय पूंजी के साथ समझौता करने पर साहा उनसे अलग हो गए और कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से भारतीय संसद के लिए चुने गए। जो लोग भारत के शुरुआती वर्षों में (आजादी के बाद) उसकी उपलब्धि को खारिज करना चाहते हैं और भारत के गैर-औद्योगिकीकरण में अंग्रेजों की भूमिका का कम करना चाहते हैं उनके लिए यहां कुछ आंकड़े हैं।

मुगल भारत की वैश्विक अर्थव्यवस्था में तकरीबन 25-30 प्रतिशत भागीदारी थी (एंगल मैडिसन के अनुमान अनुसार)। ऐसा कतई नहीं है कि मुगल शासन के रहते वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की आर्थिक हिस्सेदारी में किसी प्रकार की गिरावट आई थी, जैसा कि आरएसएस, मोदी और भाजपा में अन्य लोग हमें विश्वास दिलाना चाहेंगे। इसमें केवल ब्रितानी औपनिवेशिक शासन के दौरान गिरावट आई जो वैश्विक अर्थव्यस्था में 25-30 प्रतिशत की हिस्सेदारी से गिरकर लगभग 7-8 प्रतिशत हो गई। इसके साथ ही 80 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए, और उस समय आयु-संभाविता (लाइफ एक्स्पेक्टन्सी) 32 थी और लोग बार-बार अकाल के शिकार होते थे। भारत 1947 में अपने औद्योगिक सामानों का 90 प्रतिशत आयात करता था, स्वतंत्रता और पंचवर्षीय योजना के साथ ही यह आयात 1960 में आधा रह गया और 1974 तक यह केवल 9 प्रतिशत रह गया। इस अवधि में लाइफ एक्स्पेक्टन्सी 32 से बढ़कर 52 हो गई।

इसके विपरीत अब इसकी तुलना आरएसएस के विज़न से करते हैं। उनके तमाम लेखनों में भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई जिक्र नहीं है जो स्वतंत्रता आंदोलन के सम्मुख प्रमुख मुद्दा थी। हिंदू भारत बनाने के अपने प्रयासों में गोलवलकर और उनके साथियों के लिए लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थी बल्कि मुसलमानों और धर्मनिरपेक्षकों के खिलाफ थी। जैसा कि हमने पहले भी लिखा है, जब गोलवलकर राष्ट्र को परिभाषित करते हैं – वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड (We or Our Nationhood Defined- हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) में – तो वह भूमि, नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा के बारे में बात करते हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था के बारे में कभी भी बात नहीं करते। राष्ट्र की उनकी अवधारणा में आर्थिक आजादी और भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने वाली विदेशी पूंजी कभी कोई मुद्दा ही नहीं रहे हैं। इसमें कोई हैरानी नहीं है कि आरएसएस ब्रिटिश पूंजी की भूमिका से काफी प्रसन्न था। उसने स्वतंत्र भारत की नीतियों, जिसने स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लक्ष्य को राज्य का प्रमुख कार्य बनाया था, के खिलाफ अड़गा लगाया। उनके लिए प्लानिंग (नियोजन) का अर्थ था समाजवाद से नफरत, और यही कारण है कि जीतने के बाद मोदी का पहला प्रमुख कार्य योजना आयोग को समाप्त करना था, जो कि जितनी नेहरू की विरासत थी उतनी ही बोस की भी थी। इसलिए भाजपा सरकार का यह दृढ़ विश्वास है कि हम प्रौदयोगिकी को अपने यहां विकसित करने की आवश्यकता के बजाय उसका आयात कर सकते हैं। भारतीय राज्य को भारत के विकास के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, विदेशी पूंजी स्वयं ही भारत को विकसित करेगी, लेकिन उसके लिए जमीन और श्रम को बहुत ही सस्ते में उपलब्ध करवाया जाएगा।

यही है मोदी सरकार का विज़न जिसकी बोस में विश्वास की सीमा मात्र उनकी एक अच्छी प्रतिमा या होलोग्राम तक है। यही कारण है कि अब हम स्वतंत्रता आंदोलन के लक्ष्य आत्म-निर्भरता से निकलकर रिलायंस और अन्य क्रोनी पूंजीपतियों की पार्टी की सत्ता के साथ भविष्य में दाखिल हो रहे हैं। यही कारण है कि हम देख रहे हैं कि भारत के शीर्ष 10 प्रतिशत का हिस्सा कुल राष्ट्रीय आय में बढ़कर 57 प्रतिशत हो गया है, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी घटकर 13 फीसदी हो गई है (ऑक्सफैम की विश्व असमानता रिपोर्ट, 2022)। यह मोदी का भारत है, जहां प्रकाश और परछाइयां हकीकत का स्थान ले लेती हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

To Modi Government, Netaji is Just a Hologram

Planning Committee
NITI Aayog
Subhas Chandra Bose
Modi hologram
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SARDAR PATEL
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famine in India
post-Independence economy of India
Oxfam inequality report India
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