मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी ने कहा था- “एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर/ हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।” शकील बदायुनी ने इसके जवाब में लिखा- “एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है।” इसी ज़मीन में आज के हालात में नये शब्दों, नये अर्थों और संदर्भों में मुकुल सरल ने कहा- “एक शहंशाह ने हुकूमत का सहारा लेकर/ हम ग़रीबों की हिम्मत को चुनौती दी है।” आइए किसान आंदोलन के संदर्भ में पढ़ते और सुनते हैं उनकी यह नयी नज़्म
मेरे महबूब यहीं आके मिला कर मुझसे
एक शहंशाह ने हुकूमत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की हिम्मत को चुनौती दी है
मेरे महबूब यहीं आके मिला कर मुझसे
यहां जहां सदा-ए-इंक़लाब उठती है
जहां ज़ुल्म की ज़ंजीर भी खनकती है
जहां से उगने वाला नया सवेरा है
जहां मेहनतकशों ने डाला डेरा है
जहां किसान अपने हक़ के लिए बैठे हैं
रात और दिन के ज़ुल्म सहते हैं
बूढ़े बच्चे और जवां भी हैं यहां
दोस्त सारे ओ बहने, मां भी यहां
मेरे महबूब यहीं आके मिलाकर मुझसे
जहां हाकिम ने उठा दी हैं ऊंची दीवारें
खोद के सारी सड़क खाई बना दी है जहां
पांव के नीचे बिछा दी हैं कंटीलीं तारें
रौंद दी घास हरी और उगा दीं कीलें
ऐसे जैसे कि हो दुश्मन की सरहद
ऐसे जैसे कि हो ऐलान-ए-जंग
बस उसी सरहद पर
लोहे के क़िले के आगे
तोप के मुहाने पर
मौत के दहाने पर
सड़क के बीचो-बीच
मिला करेंगे सनम
अपनी बेख़ौफ़ जवानी ओ आज़ादी के लिए
एक नया इश्क़ हम करेंगे सनम
अपना वादा है, हम निभाएंगे
नग़मा ए इंक़लाब गाएंगे
इन्हीं मेहनतकशों की आँखों में
उम्मीद बनके खिलखिलाएंगे
मेरे महबूब यहीं आके मिलूंगा तुझसे
मेरे महबूब यहीं आके मिलाकर मुझसे
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मुकुल सरल
3 फरवरी, 2021
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