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भारत
राजनीति
बीजेपी शासन में आंकड़े दिल्ली पहुंचते हैं और ग़ायब हो जाते हैं!
एनएसएसओ, पशुधन गणना, एनसीआरबी और यहां तक कि जनगणना के आंकड़े भी देरी के चलते धीरे-धीरे दबाए जा रहे हैं। इन आंकड़ों में से इच्छा के अनुसार ख़ास आंकड़ों को हटा दिया जा रहा है।
सुबोध वर्मा
28 Oct 2019
data and modi government
प्रतीकात्मक तस्वीर

पिछले साढ़े पांच वर्षों में कई प्रमुख आंकड़े जारी हुए लेकिन वे निकाल दिए गए, उनके साथ हेरा-फेरी की गई, ठंडे बस्ते में डाल दिए गए या दबा दिए गए हैं। चूंकि ये सभी केंद्र सरकार के समर्पित विभागों द्वारा तैयार, इकट्ठा और प्रक्रियाबद्ध किए गए हैं इसलिए यह कल्पना से परे नहीं है कि इसके पीछे कोई इरादा ज़रूर है।

पशुधन गणना में आवारा पशुओं की संख्या

हाल ही में जारी 20वें पशुधन गणना के प्रमुख सूचक इस आंकड़े के हेरफेर के नवीनतम उदाहरण हैं। ये गणना 1919 से समय-समय पर की गई है। नवीनतम गणना अक्टूबर 2018 से शुरू की गई थी। पहली बार एक पूर्ण ऑनलाइन प्रणाली को डिज़ाइन किया गया था और इसका इस्तेमाल 80,000 फ़ील्ड स्टाफ़ द्वारा किया गया था, जो प्रत्येक गांव व शहर में जाकर लगभग 27 करोड़ परिवारों की गणना की। डिजिटल तकनीक के चलते इसके परिणाम एक वर्ष में उपलब्ध कराए गए।

हालांकि सभी सामान्य पहलुओं जैसे कि विभिन्न जानवरों-मवेशियों, भैंसों, विभिन्न अन्य पालतू जानवरों, मुर्गों आदि की संख्या की गणना की गई है और संक्षिप्त परिणाम जारी किए गए हैं जबकि एक प्रमुख विषय ग़ायब है। ये ग़ायब विषय है आवारा पशुओं की संख्या।

ऑनलाइन उपलब्ध प्रशिक्षण नियमावली के अनुसार अनुसूची के 3.1 ब्लॉक में आवारा पशुओं और कुत्तों की संख्या दर्ज करने के लिए जगह थी। आवारा पशुओं को पैरा 3.27.7 में परिभाषित किया गया है। उनकी परिभाषा इस तरह दी गई है वे पशु जिनके कोई मालिक नहीं हैं और सड़क या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भटकते हैं वे आमतौर पर बिना किसी उचित स्थान के चलते हैं या भटकते हैं या उनका कोई आश्रय स्थल नहीं है। यह कहा जा सकता है कि परिभाषा के अनुसार वे मवेशी जिनके स्वामी मंदिर, गौशाला या अन्य संस्थाएं हैं उन्हें आवारा पशु में गिनती नहीं किया जाना चाहिए। इस जानकारी के स्रोत गांव/वार्ड के जानकार व्यक्ति जैसे ग्राम प्रधान, शिक्षक आदि होंगे।

चूंकि डेटा को टैबलेट के माध्यम से इतनी कुशलता से एकत्र किया जा रहा था और एक समर्पित सॉफ़्टवेयर के माध्यम से प्रक्रियाबद्ध किया गया था कि उपलब्ध न होने या अप्रमाणित होने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है। फिर भी सरकार द्वारा हाल ही में जारी किए गए प्रमुख सूचकों का कोई उल्लेख नहीं है।

पिछली (19वीं) पशुधन गणना में क़रीब 52.8 मिलियन आवारा पशुओं की गणना की गई थी। यह कुल मवेशियों की आबादी का लगभग 25% है। यह किसी भी हद तक एक मामूली संख्या नहीं है। इसके अलावा सरकार द्वार गाय पर ध्यान दिए जाने के बावजूद देश में इन पशुओं की हालत जानने के लिए ये आंकड़ा अहम है।

पिछले कुछ वर्षों से उत्तरी राज्यों की रिपोर्टों में आवारा पशुओं द्वारा खड़ी फसलों को पहुंचाए गए नुकसान की बार-बार चर्चा की गई है। ये समस्या तब से बढ़ गई है जब से गौ-रक्षकों ने धमकाना शुरू कर दिया है। यहां तक कि (कुछ मामलों में) वो उन लोगों को मार रहे हैं जो मवेशियों का व्यापार कर रहे थे या एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहे थे या यहां तक गाय की हत्या करने या गोमांस रखने की अफ़वाह भी फैलाई गई थी। किसानों ने बेकार होने पर खेतों या आसपास के शहरों में गायों को छोड़ना शुरू कर दिया। गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने और किसानों को डराने की मौजूदा नीति से बेहतर नीति की ज़रूरत है।

फिर भी कम से कम अभी तो आवारा पशुओं का महत्वपूर्ण डाटा ग़ायब ही है। इसे "प्रमुख सूचक" नहीं माना जाता है!

लिंचिंग, गौ हत्या और नफ़रत की घटनाएं

अपराध से संबंधित आंकड़ों को गृह मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा संकलित किया जाता है। यह लगभग एक साल के समय अंतराल पर आंकड़ा प्रकाशित करता है। इसलिए, 2017 का आंकड़ा 2018 में आम तौर पर दिसंबर तक जारी किया जाना था। इसे इस वर्ष अक्टूबर में ही जारी किया गया।

सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि कई नए पहलू जिन पर आंकड़े इकट्ठा किया गए थे वे सामने नहीं आए। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार हाल के वर्षों में नफ़रत वाली घटनाएं, गोहत्या और लिंचिंग पर आंकड़ों में वृद्धि दर्ज की गई। इसे इकट्ठा किया गया लेकिन 2017 की रिपोर्ट में यह शामिल नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, मंत्रालय के अधिकारियों ने दावा किया कि यह विश्वसनीय नहीं था और इसलिए हटा दिया गया था।

इसके अलावा, "ऑनर किलिंग" और धर्म के नाम पर हत्या का आंकड़ा भी एकत्र किया गया था लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया।

इस रिपोर्ट से पता चलता है कि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ़) द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के आंकड़ों के साथ-साथ पत्रकारों, आरटीआई कार्यकर्ताओं और व्हिसलब्लोवर्स के ख़िलाफ़ अपराध को भी शामिल नहीं किया गया। इसे मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए मंत्रालय के अधिकारी ने स्वीकार किया।

सैद्धांतिक हेर-फेर

इन सभी ग़ायब आंकड़ों में आम विचार स्पष्ट है। ये मुद्दे हिंदू कट्टरपंथी स्वरुप के साथ अच्छी तरह से मेल नहीं खाते हैं जो वर्तमान भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार को प्रेरित और निर्देशित करते हैं। इस तरह के आंकड़े जारी करने से सरकार की नीतियों के बुरे प्रभाव का पता चलता है जो इस विचारधारा से प्रेरित थे।

उदाहरण के लिए यदि आवारा पशुओं की संख्या में वृद्धि हुई है तो यह पवित्र गाय की देखभाल के सरकार के बदतर रुख को दर्शाता है। यदि लिंचिंग में वृद्धि हुई है तो यह समाज पर सत्तारूढ़ विचारधारा के प्रभावों और अपराध के बारे में बताता है। यदि धार्मिक हत्याएं और भीड़ हिंसा बढ़ गई है तो यह भी सभी प्रकार के कट्टरपंथियों द्वारा फैलाई जा रही ज़हरीली नफ़रत के प्रभाव को दर्शाता है, लेकिन ये हिंदुत्व के तरफ़दारों द्वारा अधिक प्रभावी ढंग से दर्शाता है।

इस निष्कर्ष पर पहुंचना ज़रूरी है कि सरकार और उसके विचारक इस भ्रम में हैं कि वास्तविकता को छिपाने (आंकड़ों को नष्ट करने) से उनकी छवि साफ़ रहेगी। वास्तव में, यह खेल तेज़ी से खेला जा रहा है और न केवल इन आंकड़ों के साथ, बल्कि सभी प्रकार के आर्थिक आंकड़ों को भी इसी तरह किया जा रहा है। आज के दौर में कुछ भी छिपा नहीं रहता है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Under BJP Govt, Data Comes to Delhi… and Dies

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Hate Crimes
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