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भारत
राजनीति
ग्राउंड रिपोर्ट: महंगाई-बेरोजगारी पर भारी पड़ी ‘नमक पॉलिटिक्स’
तारा को महंगाई परेशान कर रही है तो बेरोजगारी का दर्द भी सता रहा है। वह कहती हैं, "सिर्फ मुफ्त में मिलने वाले सरकारी नमक का हक अदा करने के लिए हमने भाजपा को वोट दिया है। सरकार हमें मुफ्त में चावल-दाल और तेल के साथ नमक भी दे रही है।
विजय विनीत
19 Mar 2022
up

बनारस का एक छोटा सा गांव है ढखवां। शहर से करीब 25 किमी दूर। निषाद समुदाय की बस्ती। यहीं रहती हैं 45 वर्षीय तारा देवी। इनके घर पर भाजपा का झंडा अब भी लहरा रहा है। यह झंडा भी इस बात की तस्दीक कर रहा है कि समूचा परिवार भाजपाई है। तारा के कच्चे मकान के आगे दो बोरे में रखे उपलों को देखकर हमने सवाल किया, "रसोई गैस नहीं है क्या?" इस सवाल पर तारा देवी थोड़ी ठिठकीं। कहा, "हुजूर, महंगाई बहुत है। जब सब्जी के लिए तेल ही नहीं है तो रसोई गैस के लिए हजार रुपये कहां से लाएंगे? कहीं काम भी नहीं मिल रहा है। पाई-पाई के लिए मोहताज हैं।" महंगाई है, बेरोजगारी है और जिंदगी भी कठिन है। फिर वोट किसे दिया? तारा का जवाब था, "मोदी को...भाजपा को...।"

तारा को महंगाई की चिंता साल रही है तो बेरोजगारी का दर्द भी सता रहा है। वह कहती हैं, "सिर्फ मुफ्त में मिलने वाले सरकारी नमक का हक अदा करने के लिए हमने भाजपा को वोट दिया है। सरकार हमें मुफ्त में चावल-दाल और तेल के साथ नमक भी दे रही है। भाजपा को वोट नहीं देते तो नमकहराम ही तो कहे जाते...।हमारी बिरादरी पहले से ही भाजपा के साथ थी। समूची निषाद बस्ती ने कमल की बटन दबाई, फिर हम दूसरों को वोट कैसे देते?"

ढखवां गांव के बीचो-बीच तारा का आधा मकान कच्चा है, आधा पक्का। कई बरस पहले इंदिरा आवास योजना के तहत इन्हें एक छोटा सा कमरा मिला था। दशकों बीत गए, पर उसपर सीमेंट-बालू का पलस्तर नहीं चढ़ सका। तारा बताती हैं, "चुनाव में कोई नेता हमारा दुखड़ा सुनने नहीं आया। निषाद बिरादरी के कुछ लोग भाजपा के लिए वोट मांगने जरूर आए। नए और पक्के मकान का भरोसा दे गए हैं। देखिए कब बनता है?"

तारा के पास खड़ीं उनकी देवरनी माधुरी देवी भी यही बात दुहराती हैं। वह कहती हैं, " हमारी बेटी विकलांग हैं। दुश्वारियां ज्यादा हैं। हमें सरकार से नहीं प्रधान से ज्यादा शिकायत है। हम जानते हैं कि पांच किलो राशन से जिंदगी नहीं चलेगी। हमारी असल समस्या नाली की है। चुनाव लड़ने वाले जीतकर चले गए। अब भला हमें कौन पूछेगा? नमक का हक अदा करने के लिए सभी ने भाजपा को वोट दिया तो हमने भी कमल का बटन दबाया।" 

हमारी चिंता मोदी को भी होनी चाहिए

दरअसल बनारस शहर से करीब 25 किमी दूर है ढखवां बस्ती। गंगा के किनारे बसी इस बस्ती को डाल्फिन मछलियों की वजह से भी जाना जाता है। यूपी सरकार इस गांव को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित कर रही है। यहां गंगा के किनारे मंदिरों की श्रृंखला है और उसके ठीक नीचे गंगा, जिसकी मझधार में डाल्फिन मछलिया हर वक्त करतब दिखलाती रहती हैं। निषाद बस्ती के लोग पर्यटकों को नौका विहार कराते हुए डाल्फिन मछलियों का करतब दिखाया करते हैं। नौकायन ही इस बस्ती के तमाम युवकों की आजाविका का साधन है। ढखवां बस्ती के लोगों की जिंदगी में अनगिनत मुश्किलें हैं, लेकिन नमक का कर्ज उतारने के लिए सत्तारूढ़ दल को वोट देने में इन्हें तनिक भी एतराज नहीं है। 

ढखवां की कांति देवी को इस बात ज्यादा चिंता है कि गंगा कटान के चलते उनका घर नदी में समा जाने की कगार पर पहुंच गया है। कांति कहती हैं, "नाला बन जाता तो हमारा घर बच जाता। चुनाव बीत गया और अब हम किसे खोजेंगे? गद्दी पर बैठने के बाद भला कौन आता है। महंगाई चपी हुई है। 12 किलो सरकारी राशन मिलता है, जिसमें से दो किलो कोटे वाला काट लेता है। आखिर कहां लगाएं गुहार और किससे करें फरियाद। हमने नमक का कर्ज अदा किया है तो मोदी को भी हमारी चिंता होनी ही चाहिए।"

ढखवां के पास है चंद्रावती गांव। वाराणसी-गाजीपुर हाईवे पर स्थित इस गांव के ज्यादतर मकानों पर भाजपा के झंडे अभी तक लहरा रहे हैं। यहां मिले विजय कुमार मौर्य। ये कृषक सेवा केंद्र चलाते हैं। इनका समूचा परिवार भाजपाई है, लेकिन इन्हें मोदी-योगी की रीति-नीति पसंद नहीं है। विजय कहते हैं, "हमें समझ में नहीं आ रहा है कि लोग भाजपा के पीछे क्यों भाग रहे हैं? मुफ्त का राशन लोगों को काहिल बना रहा है। यही राशन जब गुलाम बना देगा तब क्या होगा? डबल इंजन की सरकार अगर सचमुच गरीबों का हित चाहती है तो मुफ्त की रोटी नहीं, रोजगार दे। हर आदमी को काम दे, तभी अच्छा समाज बनेगा। महंगाई आसमान छू रही है। समूचे बनारस में साड़ों का जखेड़ा घूम रहा है। फिर भी झूठा दावा किया जा रहा है कि किसानों की आदमनी दोगुनी होगी। मुफ्त का राशन और नमक देकर गरीबों को भरमाया जा रहा है। किसानों, मजदूरों और गरीबों का भ्रम टूटेगा तो तब क्या होगा?" 

दरअसल, विजय कुमार मौर्य शिक्षित हैं और सपन्न भी। वह कहते हैं, "मतगणना से पहले तक हमें यकीन नहीं था कि अबकी भाजपा फिर सत्ता में आएगी। हमारी बस्ती में साइकिल को वोट भी पड़े, पर समझ में नहीं आया कि भाजपा कैसे चुनाव जीत गई? बड़ी संख्या में लोगों ने चुपके से भाजपा को वोट दे दिया। हमें भी यही लगता है कि भाजपा के नमक बांटने की युक्ति सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई।"

चंद्रावती में कृषक सेवा केंद्र पर यूरिया उर्वरक खरीदने पहुंचे थे उगापुर के लालजी यादव। लालजी पहड़िया मंडी में पल्लेदारी का काम करते हैं। इन्हें लगता है कि भाजपा ईमानदारी से चुनाव नहीं जीती है। चुनाव में गड़बड़झाला हुआ है। वह सवाल करते हैं कि नमक खिलाकर कोई उसका हक अदा करने की बात भला कौन करता है? लालजी कहते हैं, "चुनाव से पहले बनारस से लगायत कैथी तक सड़क के किनारे आवारा पशुओं का जखेड़ा घूमा करता था। इलेक्शन में सांड जब मुद्दा बनने लगे तो वो अचानक गायब कैसे हो गए? गांवों में बने ज्यादातर गो-आश्रय स्थल भी खाली हैं। गौर करने वाली बात यह है कि किसानों के लिए दिन-रात जी का जंजाल बने ये सांड़ आखिर लापता कैसे हो गए?" 

लालजी से सवालों का जवाब नियार गांव के बेचन सिंह देते हैं। वह बताते हैं, "पूर्वांचल जब इलेक्शन में आया तो शासन के निर्देश पर पशुपालन विभाग ने विकास भवन में छुट्टा पशुओं के बाबत नियंत्रण कक्ष खोल दिया। वहां ढेरों शिकायतें पहुंचीं तो छुट्टा पशुओं की धर-पकड़ का अभियान चला। पकड़े गए आवारा पशु कहां रखे गए हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन उनके आतंक से छोड़ी राहत जरूर मिली है?"

हमने नमक का हक अदा किया

कैथी गांव में उगापुर के 34 वर्षीय राज कुमार गोंड एक किसान के यहां काम में जुटे थे। इनके पांच बच्चे हैं। वो बताते हैं, "पूर्वांचल में गोंड समाज की आबादी काफी कम है। सपा ने हमारी बिरादरी को कभी अहमियत नहीं दी। चुनाव के समय भी और चुनाव से पहले भी। इसका मतलब यह नहीं है कि हम कई पीढ़ियों तक सामंतों की गुलामी करते रहें। भाजपा सरकार आई तो हमें आवास मिला और राशन भी। बाबा के बुल्डोजर की सुरक्षा भी मिली। हमारी बिरादरी तो पहले से ही ऐसी है कि जिसका नमक खाती है, उसका हक भी अदा करती है। धरसौना, चोलापुर, दानगंज, हाजीपुर, दमड़ीपुर, रौना गोड़ बिरादरी बहुतायत है और चलकर पूछ लीजिए, हमने मोदी के नमक का हक अदा किया है या नहीं? गोंड समाज ने तो थोक में भाजपा को वोट डाला। सपा तो सिर्फ हवा में ही चुनाव लड़ रही थी, जो हार गई।"

कैथी पुल के पास फूलों की माला बेचने वाले छित्तनपुर के 48 वर्षीय बरसाती सोनकर को लगता है कि सपा ने ज्यादातर अयोग्य और नाकारा प्रत्याशियों को मैदान में उतार दिया। खासतौर पर उन्हें जिनके पांव जमीन पर कभी दिखे ही नहीं। सपा प्रत्याशी सुनील सोनकर कभी वोट मांगने आए ही नहीं तो फिर उन्हें वोट क्यों दे देते। इन्हीं के पास फूलों की माला बेचने वाले सोनू सोनकर भाजपा सरकार के कामकाज पर सवाल खड़ा करते मिले। वह कहते हैं, "पूर्वांचल में मुफ्त के राशन और नमक पर लोग फिदा है। लोगों को यह पता नहीं कि सरकार एक ओर देती है तो दूसरी तरफ से वह पैसा गरीबों की जेब से ही खींच लेती है। चाहे खाने-पीने का सामान महंगा करके या फिर डीजल-पेट्रोल का दाम बढ़ाकर। मीडिया भी निष्पक्ष नहीं। वो भी भाजपा सरकार की भाषा ही बोलती है। किस पर यकीन करें और किसपर नहीं? हम तो दिन भर फूलों की माला बेचते हैं, तब मुश्किल से कमा पाते हैं दो-ढाई सौ रुपये।" 

बनारस के जाने-माने समाजसेवी बल्लभ पांडेय के घर मिले बलिया के रेवती निवासी विजय कुमार पांडेय। इन्होंने कुछ ही देर में चुनावी नक्शा खींच दिया। साफ-साफ कहा, "इलेक्शन जीतना भी एक ट्रिक है। हमें लगता है कि भाजपा के नमक का ट्रिक सबसे असरदार रही। हालांकि सियासी निजाम को देखेंगे तो पाएंगे कि यूपी में हर आठवां विधायक ब्राह्मण है। कम आबादी के बावजूद 403 सीटों में 52 ब्राह्मण और 46 ठाकुर विधायक बने। कुर्मी समाज के लोग गोलबंद हुए तो इस बिरादरी के 41 विधायक चुनाव जीत गए, जबकि इनसे ज्यादा आबादी होने के बावजूद यादव बिरादरी के सिर्फ 27 विधायक चुने गए। यूपी में 34 मुसलमान, 29 जाटव-पासी जीते। वैश्य समुदाय के 22, लोध 18, जाट 15, मौर्य-कुशवाहा 14 निषाद, कश्यप, बिंद मल्लाह सात, तेली, कलवार, सोनार जातियों के छह, गुर्जर सात, भूमिहार पांच, राजभर चार, खटिक पांच, कायस्थ तीन के अलावा सिख व वाल्मीकि समुदाय के लोग एक-एक सीट पर काबिज हुए हैं। वैश्य, ब्राह्मण, राजपूतों के अलावा ज्यादातर गैर-यादव पिछड़ों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया, जिससे भाजपा का मतदान 43 फीसदी तक पहुंच गया।" 

विजय कुमार पांडेय कहते हैं, "आवास और राशन के साथ बांटे जाने वाले नमक ने इस चुनाव में अहम भूमिका अदा की। खासतौर पर महिलाओं ने नमक का हक अदा किया। अति-पिछड़ी जातियां इसलिए भाजपा के पक्ष में लामबंद हुई क्योंकि उसने लगातार पांच साल तक दलितों और पिछड़ों के घरों में पहुंचकर हिन्दुत्व और देशभक्ति की अलख जगाई। कोई ऐसी बिरादरी नहीं थी, जिनके बीच भाजपा और उनके अनुषांगिक संगठन आरएसएस व विहिप के लोग न गए हों। सपा नेता तो तब दिखे जब इलेक्शन नजदीक आया। पता ही नहीं चला कि वो साढ़े चार साल कहां गायब थे? सपा के खाते में जितनी भी सीटें आईं वो किसान आंदोलन की बदौलत आईं। योगी के बुल्डोजर पर ज्यादा लोग रीझे। सपा ने टिकट भी बांटा तो ऐसे जैसे कोटे की दुकान में गेहूं-चीनी बिकती है। सपा के जो नेता टिकट के लिए महीनों से मुंह बाए खड़े थे, वो निराश लौटे तो भी उनका गुस्सा ठंडा नहीं हुआ। सपा की अंतर्कलह उसके प्रत्याशियों की नाव डुबोता चला गया। हमें लगता है कि अखिलेश ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव से सिर्फ राजनीतिक दांव-पेंच ही नहीं एक बुरी आदत भी सीखी है। उनके इर्द-गिर्द अब चाटुकारों की एक बड़ी फौज रहती है, जिसके चलते साइकिल का पहिया पंचर होता जा रहा है। अखिलेश को अगर सचमुच लंबी रेस का घोड़ा बनना है तो चाटुकारों से उन्हें थोड़ी दूरी बनानी होगी।"  

गरीबों के बीच काम आया नमक

कारवां मैग्जीन में डाइवर्सिटी रिपोर्टिंग फेलो सुनील कश्यप पूर्वांचल समेत समूचे उत्तर प्रदेश में खासतौर पर उन जातियों पर काम करते हैं जो समाज के आखिरी पायदान पर खड़ी हैं। वह कहते हैं, "गरीब तबके के लोगों में नमक ने ज्यादा काम किया। समाज में अभी भोले-भाले लोग ज्यादा हैं। लोग मानते हैं कि जिसका नमक खा लिया है तो उसे अदा करना है। जहां नेता वादे करके तोड़ते हैं, लेकिन गरीब तबका नमक की अदायगी में भी वफादारी दिखाता है। इस चुनाव में नमक की अदायगी का फैक्टर बहुत बड़ा था। चुनाव के समय मैं बनारस में था और एक रिक्शावाले से सवाल किया कि वो वोट किसे देगा? तो उसने तपाक से जवाब दिया कि जिसका नमक खा रहे हैं, उसकी अदायगी तो करनी ही होगी। इलेक्शन से पहले ही यह बात साफ हो गई थी कि नमक की बात बहुत अंदर तक पहुंच चुकी थी।"

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"कास्ट फैक्टर को लेकर जो काम कांशीराम ने किया, भाजपा ने उससे एक कदम आगे बढ़कर गरीब जातियों के उत्थान के लिए काम किया। सरकार ने माटी कला बोर्ड बनाकर कुम्हारों के बीच काम किया तो भेड़ कला बोर्ड बनाकर गड़ेरिय़ों को अपने साथ जोड़ा। इसी तरह नाइयों के लिए केश कला बोर्ड बनाया तो लोहार समुदाय के लिए विश्वकर्मा कला बोर्ड। निषादों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड दिया। अपनी पहचान के साथ ये जातियां जल्दी खड़े हो गईं। साल 2014 के बाद भाजपा के साथ ये जातियां जुड़ीं तो फिर बाद में हटी नहीं। इन जातियों में असुरक्षा का डर ज्यादा समाया रहता है। इनके लिए सामाजिक सुरक्षा एक बड़ा सवाल था, जिसके चलते गरीब तबके के लोगों ने योगी के बुल्डोजर पर ज्यादा भरोसा किया। हिंदू वर्ण व्यवस्था में निचले पायदान में होने के बावजूद, भाजपा के प्रति गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों का आकर्षण पहचान की राजनीति के फॉल्ट लाइन की ओर इशारा करता है।"

सुनील यह भी कहते हैं, "सामाजिक तौर पर जो जातियां सबसे निचले पायदान पर हैं उनके लिए अनाज और सुरक्षा सबसे बड़ी चीज है। खासतौर पर उन लोगों के लिए जिनके पास खेती-किसानी नहीं है। साल 1990 के बाद लोहार, बढ़ई, कुम्हार समुदाय को जजमानी के तौर पर हर साल मिलने वाला अनाज बंद हो गया था। गांवों में काम करने वाले शिल्पकारों को किसान पहले एक बार अनाज देते थे, जिससे उनकी आजीविका चला करती थी। कोरोना के संकटकाल में जब उनके सामने भोजन का संकट पैदा हुआ तो मुफ्त का अनाज ही जिंदा रहने का सबसे बड़ा जरिया बना। यह आरोप गलत है कि गरीब तबके के लोग पांच किलो अनाज पर बिक गए। सच यह है कि खाना हर किसी के लिए बेहद जरूरी है। दूसरी बात, यूपी में ऐसी तमाम जातियां हैं जिनकी आबादी अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। इन्हें न गांवों में सम्मान मिलता है और न ही ये ग्राम प्रधान, बीडीसी, जिला पंचायत सदस्य और ब्लाक प्रमुख बन पाते हैं। दूसरे समुदायों के मुकाबले ये पढ़ाई-लिखाई में भी बहुत पीछे हैं। ऐसे में इनके लिए पांच किलो राशन के साथ नमक की प्रतिबद्धता बड़ी चीज है।"

अपने नायकों पर रीझे दस्तकार

पत्रकार सुनील कश्यप बताते है कि उन्होंने यूपी चुनाव से पहले उस फॉल्ट लाइन को समझने की कोशिश की तो पता चला कि भाजपा ने गैर-यादव ओबीसी जातियों को ज्यादा अहमियत दी। खासतौर पर वो जातियां दो पीढ़ियों से दस्तकारी किया करती थीं। यूपी में इन जातियों में राजनीतिक और सामाजिक चेतना कांशीराम ने पैदा की तो उन्होंने भी अपने नायकों की तलाश शुरू कर दी। यादवों ने भगवान कृष्ण में अपने नायक को पाया तो कुर्मियों ने (जो अपने नाम के साथ पटेल, गंगवार, सचान, कटियार, निरंजन, कनौजिया आदि लगाते हैं) 17वीं शताब्दी के मराठा राजा शिवाजी और शाहुजी महाराज को अपना नायक माना। इसी तरह देश के पहले गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल के साथ कांग्रेस पार्टी की एक काल्पनिक नाइंसाफी की कहानी पटेल समाज को बीजेपी से जोड़ती है।" 

"मल्लाह जाति ने भी रामायण की कथा में राम को सरयू पार कराने वाले केवट में अपना नायक खोज लिया। ओबीसी मौर्य-कुशवाहा, शाक्य-सैनी ने पौराणिक पात्रों में नहीं, बल्कि ऐतिहासिक पात्रों में अपने-अपने नायक खोजे। इन्होंने अपनी पहचान पहले बुद्ध, चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक से मिलाई और फिर अपनी परंपरा के तार 19वीं शताब्दी के सामज सुधारक ज्योति राव फुले से जोड़ा। बुद्ध को अपना आदर्श मानने वाले मौर्य-कुशवाहा को बसपा के आंदोलन ने सामाजिक क्षितिज पर पहचान दिलाई। साल 2012 में इन्होंने समाजवादी पार्टी का साथ दिया। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य की मजबूत साख के चलते भाजपा को वोट दिया। गैर-यादव ओबीसी में कुर्मी और लोध पहले से ही भाजपा के साथ थे। गैर-यादव ओबीसी जातियों में मौर्य-कुशवाहा आरएसएस व बाह्मणों के सबसे प्रबल विरोधी हैं, लेकिन राजनीतिक भागेदारी की चाहत ने इन्हें साल 2017, 2019 और अब 2022 में भाजपा और आरएसएस के करीब ला दिया।" 

सुनील के मुताबिक, "भाजपा ने कश्यप, निषाद, गडेरिया, राजभर, चौहान और जायसवाल जैसी जातियों को रामायण और अन्य हिंदू कथाओं की छद्म परंपराओं के साथ गूंथ कर एक ऐसी माला तैयार की है जो सामाजिक न्याय की उसी मांग को ध्वस्त कर देती है जिसका पहला ही लक्ष्य ब्राह्मणवादी ऊंच-नीच से मुक्त होकर बराबरी वाले समाज का निर्माण करना है। गडेरिया जातियों को लुभाने के लिए भाजपा ने इस समाज की कुलदेवी महारानी अहिल्याबाई होलकर की प्रतिमा को काशी विश्वनाथ धाम में जगह देकर इस समाज के लोगों का दिल जीतने का काम किया है। अब से पहले तक कोई भी राजनीतिक दल गडेरिया समाज को यह प्रतिष्ठा और सम्मान नहीं देता था। गडेरिया समाज आमतौर पर पाल, बघेल, धनगर उपनामों से जाना जाता है। इसी तरह चौहानों को पाले में करने के लिए बीजेपी ने ऐतिहासिक नायक पृथ्वीराज चौहान का दामन थामा। 12वीं शताब्दी के अफगान शासक मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के राजनीतिक संघर्ष की ऐतिहासिक और लोक गाथाओं को भाजपा ने यूपी के चौहानों को अपने हिंदुत्व के उद्देश्यों के साथ जोड़ने के लिए इस्तेमाल किया। यूपी में एक अन्य ओबीसी जाति है कहार, धीवर, कश्यप। खांडसारी का कारोबार करने वाली ये जातिया हमेशा से उपेक्षित रही हैं। माना जाता है कि कश्यप समाज की जातियों का रुख जिस भी पार्टी की तरफ हुआ है वह पार्टी सत्ता में जरूर पहुंची है। इस बार के यूपी चुनाव में 17 वो जातियां निर्णायक साबित हुईं, जिन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करने के मामले में अदलती रोक लगा दी गई है।" 

पिछड़ों में राजभर समाज सियासी तौर अब उठ खड़ा हुआ है। भाजपा ने महाराजा सुहेलदेव राजभर के नाम पर ट्रेन चलाई और डाक टिकट जारी किया। साथ ही बहराइच में सुहेलदेव राजभर की युद्धस्थली में सुहेलदेव का मंदिर और कुठला झील को इस योद्धा के शौर्य और पराक्रम की स्मृतियों के तौर पर संजोने का कार्य शुरू किया। भाजपा ने निषाद, प्रजापति और जायसवाल जैसी गैर-ओबीसी जातियों को भी सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर वृहद ओबीसी एकता से दूर रखा, जो इस चुनाव में उसके लिए संजीवनी साबित हुई। हालांकि गैर-यादव अन्य पिछड़ा जातियों में सिर्फ जायसवाल ऐसी जाति है जिसके साथ बीजेपी का संबंध ज्यादा पुराना है। इस ओबीसी जाति के साहू, गुप्ता, तेली, हलवाई, कलवार, कलार और अन्य का सभी शहरों की व्यापार मंडलियों पर कब्जा है। नोटबंदी और बाद में जीएसटी से इस तबके को सर्वाधिक नुकसान हुआ, फिर भी भाजपा से इनका मोहभंग नहीं हुआ। 

सेल्फ सेंटर्ड राजनीति से हुई हार  

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "सपा सुप्रीमो अपने चुनावी रथ पर सावर होकर समूची यूपी नाप आए, लेकिन उनकी भीड़ से निकला संदेश गांवों और समाज के आखिरी आदमी तक नहीं पहुंच सका। 111 सीटें लेकर सपा गुमान कर सकती है, लेकिन यह नतीजा भविष्य के लिए सुखद नहीं है। अखिलेश के साथ अब न मीडिया है और न ही मुलायम सिंह यादव के जमाने वाले अलग-अलग जाति समूहों के कद्दावर नेता। अखिलेश के साथ अब बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, बृजभूषण तिवारी, मोहन सिंह, भगवती सिंह, सलीम इकबाल शेरवानी हैं, न आजम खां। इनकी सेल्फ सेंटर्ड राजनीति ने सपा का दिवाला पीटकर रख दिया, क्योंकि वह वह अपने आगे किसी को खड़ा नहीं होने देना चाहते।"

"भाजपा ने मुफ्त राशन, कोरोना वैक्सीन, नमक, तेल, पैसा के अलावा छुट्टा पशुओं को पकड़वाने का अभियान चलावाकर वोटरों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की, जबकि अखिलेश इस 'ग़ुस्से' को और भड़काने तथा चुनावी हवा का रुख अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब नहीं हो सके। कोरोना के संकटकाल में अखिलेश लोगों के बीच होते और उनके आंसुओं को पोछा होता तो जनता में यह भरोसा जरूर पैदा होता। अखिलेश बहुत देर से चुनावी मैदान में कूदे। इससे पहले मुफ्त राशन के साथ नमक का हक अदा करने की बात हर गरीब की झोपड़ी तक पहुंच गई थी। सपा का बेहद लचर और कमजोर संगठन भाजपा की नमक वाली मुहिम को बेअसर करने में नाकाम साबित हुआ।"

ये भी पढ़ें: यूपी चुनाव नतीजे: कई सीटों पर 500 वोटों से भी कम रहा जीत-हार का अंतर

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