11 सितंबर को करीब़ 3 बजे गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी के इस्तीफ़े की ख़बर आई। उनके कार्यकाल में अभी 15 महीने का समय बचा था। अगली ही कुछ मिनटों में खब़र की पुष्टि भी हो गई और रुपाणी के इस्तीफा देते हुए तस्वीर वायरल हो गई। अलग-अलग प्रतिक्रियाओं के साथ बहुत सारे लोगों ने इस कदम का स्वागत किया, वहीं कुछ लोग हैरान थे क्योंकि यह भारतीय जनता पार्टी की भाषा में "शांति से की गई कार्रवाई" थी। रविवार शाम 4 बजे भूपेंद्र पटेल को गुजरात का नया मुख्यमंत्री चुन लिया गया। राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह हैरान करने वाला नहीं था, क्योंकि लंबे वक़्त से रुपाणी की विदाई का अंदाजा लगाया जा रहा था। हालांकि इस तरह के सत्ता हस्तांतरण बीजेपी में मोदी-शाह के युग में नए नहीं हैं।
लगातार बदलते मुख्यमंत्री
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 27 मार्च, 1998 को लोकसभा में कहा, "स्वतंत्रता के बाद एक खास पार्टी केंद्र और राज्य में सत्ता में रही। इससे कई अनियिमितताएं पैदा हुईं। स्थिति इतनी खराब हो गई कि मुख्यमंत्रियों को केंद्र द्वारा नामित किया जाने लगा।" वाजपेयी के इस भाषण की अब उनकी ही पार्टी धज्जियां उड़ा रही है और कांग्रेस की राह पर आगे बढ़ रही है। पिछले 6 महीने में बीजेपी 5 मुख्यमंत्री बदल चुकी है और उनके नाम की घोषणा "केंद्रीय पर्यवेक्षक" द्वारा की गई।
मुख्यमंत्री बदलने का यह कार्यक्रम उत्तराखंड से इस साल मार्च में शुरू हुआ था। शुरू में खबर आई कि राज्य में सब कुछ सही नहीं है। कुछ ही दिनों के भीतर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपना पद लोकसभा सांसद तीरथ सिंह रावत के हवाले कर दिया। उन्हें जुलाई में एक संवैधानिक संकट रोकने के लिए अपना इस्तीफ़ा देना पड़ा, क्योंकि उन्हें उपचुनाव से जीतकर आने में मुश्किल हो रही थी। इसके बाद विधायक पुष्कर सिंह धामी को कमान दी गई, जो अब तक कार्यकाल में बने हुए हैं। इस साल असम विधानसभा चुनाव बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी की घोषणा के बगैर ही लड़ा। जीत के बाद राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा सर्बानंद, सोनोवाल की जगह मुख्यमंत्री बने।
पिछले महीने कर्नाटक में वयोवृद्ध नेता और दक्षिण में पार्टी के एकमात्र मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की बारी आई। उन्हें अपनी कमान अपने शिष्य बासवराज बोम्मई को देनी पड़ी। रुपाणी के इस्तीफ़े की वज़हों के पीछे लगाए जा रहे अनुमानों में कोवि़ड कुप्रबंधन सबसे प्रबल है। उनके जाने के बाद यह साफ़ हो चुका है कि बीजेपी अपने ताकतवर राज्य को जोख़िम में डालना नहीं चाहती। क्योंकि अतीत में बीजेपी इस तरह की स्थिति झारखंड में झेल चुकी है, जहां अलोकप्रिय मुख्यमंत्री अपना चुनाव तक हार गए थे। वहीं हरियाणा में भी मनोहर लाल खट्टर की गिरती लोकप्रियता की वज़ह से बीजेपी की सीटें कम आईं थीं। लेकिन चुनाव बाद हुए गठबंधन में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद दिया गया। गुजरात और उत्तराखंड में अगले साल चुनाव होने हैं और सीएम बदलने की इस कवायद से ऐसे लगता है कि बीजेपी अपनी पिछली गलतियों से सबक ले चुकी है और पुराने घोड़ों पर ही दांव लगाकर जोख़िम लेने के लिए तैयार नहीं है।
मुख्यमंत्रियों का मनोनयन
मौजूदा बीजेपी दो स्तरों पर वाजपेयी के 1998 के वक्तव्य के विरोधाभास में जाती दिखती है- "बदलते हुए मुख्यमंत्री" और "मनोनीत किए गए मुख्यमंत्री।" 2014 के चुनावों के बाद बीजेपी में यह आम रहा है कि प्रदेश में मुख्यमंत्री "केंद्र का आदमी" रहेगा, "ना कि जनता का", लेकिन इस नियम से बीजेपी को कई जगह नुकसान उठाना पड़ा है और इससे पार्टी की प्रदेश ईकाईयों में कई तरह की दिक्कतों के साथ गुटबाजी बढ़ी है।
2014 चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत के बाद हरियाणा पहला बीजेपी शासित प्रदेश था, जहां बीजेपी के केंद्रीय आलाकमान ने अपने आदमी का मनोनयन किया और पहली बार विधायक बने मनोहर लाल खट्टर मुख्यमंत्री बने। खट्टर ने करनाल विधानसभा से चुनाव जीता था, जहां स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं और बीजेपी समर्थकों ने उनके खिलाफ़ चुनाव से पहले हस्ताक्षर अभियान चलाया था और पार्टी से स्थानीय उम्मीदवार को टिकट देने की मांग की थी। केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह और हरियाणा के गृहमंत्री अनिज विज जैसे मजबूत नेताओं को नज़रंदाज कर खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया था।
इसके बाद खट्टर-विज की टसल खुल्लम-खुल्ला चलती रही है। गुजरात में रुपाणी के जाने के बाद ऐसी चर्चाएं तेज हैं कि मुख्यमंत्री बदलने की बीजेपी की कवायद में अगला नंबर खट्टर का हो सकता है। उत्तराखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और फिर विधायक बने त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री चुना गया था, जिन्हें सतपाल महाराज जैसे मजबूत नेताओं के सामने हल्का माना जाता था। सतपाल महाराज के पास राज्य के धार्मिक नेताओं का समर्थन था। फिर चार धाम देवस्थानम प्रबंधन विधेयक पर RSS और विश्व हिंदू परिषद को नाराज़ करने के बाद, उनकी जगह दिल्ली ने तीरथ सिंह रावत और बाद में पु्ष्कर सिंह धामी की नियुक्ति कर दी।
इन सारी नियुक्तियों से सतपाल महाराज के धड़े ने अंदरुनी स्तर पर असहमति जताई है। सतपाल महाराज के पास एक दर्जन विधायकों का समर्थन हासिल है। गुजरात में हुए हालिया घटनाक्रम में भी मजबूत पाटीदार नेता और उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल को नज़रंदाज करते हुए पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री चुना गया।
राजस्थान केवल एक ऐसा राज्य रहा है, जहां वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली बीजेपी की प्रदेश ईकाई ने मोदी-शाह के चयन को नकार दिया था। 2018 विधानसभा चुनाव से पहले मोदी-शाह की पसंद केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के फ़ैसले पर वसुंधरा राजे ने केंद्रीय नेतृत्व से टक्कर ली थी। लेकिन इस पूरी कवायद से पार्टी कई धड़ों में बंट गई, जो आज तक राजस्थान में बीजेपी के लिए परेशानी की वज़ह बना हुआ है।
केंद्रीय नेतृत्व के दबाव से पैदा हुआ विभाजन अब कई बीजेपी प्रदेश ईकाईयों को नुकसान पहुंचा रहा है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान केंद्रीय नेतृत्व के समर्थन वाले नरोत्तम मिश्रा और नरेंद्र सिंह तोमर के समूह के साथ सामंजस्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि कर्नाटक में मीडिया द्वारा प्रचारित पीढ़ीगत बदलाव की बात को भूल जाएं तो वहां भी येदियुरप्पा के जाने के पीछे साथी विधायकों का समर्थन छूट जाना रहा। गोवा में मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे की भी लंबे समय से टसल जारी है।
बलि का बकरा खोजना
विजय रुपाणी के इस्तीफ़े के पीछे की कई वज़हों में से एक, कोविड का ठीक से प्रबंधन ना किया जाना बताया जा रहा है। इस कुप्रबंधन से बीजेपी के "विकास के गुजरात मॉडल" की पोल खुल गई। हाई कोर्ट द्वारा कई बार की गई आलोचना से भी रुपाणी के प्रशासनिक कौशल पर सवालिया निशान लगे। उनकी छवि राजनीतिक हलकों में हमेशा अपने वरिष्ठतम नेताओं के साथ "हां में हां" मिलाने वाले की रही है।
2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए और गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह को भी बीजेपी अध्यक्ष और बाद में गृहमंत्री के पर पदोन्नत कर दिया गया। तबसे राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा साफ़ चलती है कि यह दोनों नेता दिल्ली से ही गुजरात को चला रहे हैं और रुपाणी सिर्फ़ "रबर स्टांप" के तौर पर काम कर रहे हैं। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी राजनीतिक साथी आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया था, लेकिन उन्हें भी रुपाणी की तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। 2016 में उनके बाद रुपाणी मुख्यमंत्री बने थे।
इसलिए गुजरात में हालिया घटनाक्रम को रुपाणी के ऊपर कोविड "कुप्रबंधन बम" के गिरने के तौर पर दिखाया जा रहा है, जबकि दिल्ली में बैठे उनके बॉस सुरक्षित निकल गए।
केंद्रीयकृत प्रशासन के लिए मशहूर, मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी की कोरोना की दूसरी लहर में खूब आलोचना हुई। लेकिन इस भयावह असफलता की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई आगे नहीं आया। लेकिन कुछ हफ़्तों में ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को हटाकर मनसुखलाल मांडाविया को स्वास्थ्य मंत्रालय का जिम्मा दे दिया गया। कई दूसरे मंत्रियों को भी हटाया गया।
केंद्र सरकार और मोदी-शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी कृषि और नागरिकता कानूनों के खिलाफ़ लंबे वक़्त से चले रहे विरोध प्रदर्शनों से अपनी नज़र हटाकर चल रही है। इन सभी मुद्दों ने दो अहम- दिल्ली और पश्चिम बंगाल के चुनाव में अपने निशान छोड़े, जहां बीजेपी को शर्मनाक हार झेलनी पड़ी। एक बार फिर हार के डर से बीजेपी "नुकसान को नियंत्रित करने की प्रक्रिया" में है और सत्ता में वापस अपने सभी उपलब्ध विकल्प अपना रही है। यहां अपने प्रदेश नेतृत्व में लगातार बदलाव के साथ-साथ दल-बदल बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत रही है। क्या इनसे चुनावों में कुछ लाभ मिलेगा? यह देखना अभी बाकी रह गया।
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From Shuffling CMs to Finding a Scapegoat- the BJP's Attempt at Damage Control