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भारत
राजनीति
केदारनाथ में भक्तिभाव कम दिखावा अधिक!
यह एक डेमोक्रेटिक देश के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता कि वह अपनी निजी धार्मिक आस्थाओं का यूँ प्रदर्शन करे। मगर वे जाते हैं और ख़ासकर तब जब चुनाव होने वाला हो।
शंभूनाथ शुक्ल
06 Nov 2021
Modi in Kedarnath
फ़ोटो बीजेपी उत्तराखंड के ट्विटर हैंडल से साभार

अभी पाँच नवंबर को प्रधानमंत्री जिस ताम-झाम और अहंकारी भाव से केदारनाथ गए, उससे लगा नहीं कि वे हिंदू आस्था के प्रतीक इस मंदिर में भक्ति की भावना से गए। वे अपने सात वर्ष के प्रधानमंत्रित्त्व काल में पांच बार केदारनाथ की यात्रा कर आए हैं। और हर बार पूरे वैभव के साथ। हो भी क्यों न हो आख़िर वे भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री जो हैं। यह एक डेमोक्रेटिक देश के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता कि वह अपनी निजी धार्मिक आस्थाओं का यूँ प्रदर्शन करे। मगर वे जाते हैं और ख़ासकर तब जब चुनाव होने वाला हो।

यह भी दिलचस्प है कि हर बार उनकी केदारनाथ यात्रा विवादों में आती है। ताज़ा केदार यात्रा में कहा गया है, कि उन्होंने जूते पहन कर केदारनाथ की परिक्रमा की। इसके पहले वे 2019 मई में गए थे। 2014 से आज तक वे पांच बार पूरे राजसी वैभव के साथ केदारनाथ घूम आए हैं।

2017 की 20 अक्टूबर को भी वे केदारनाथ गए थे। अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी बार-बार भोले बाबा को याद करते हैं। परंतु यदि वे यात्राएँ बिना किसी शोर-शराबे और प्रचार के करें तो ही बेहतर रहेगा। जैसे 2017 में वे वहाँ काला चश्मा लगा कर गए थे। जबकि वहाँ ऐसा करना निषिद्ध है। ग्यारह हज़ार फीट से कुछ ज्यादा ही ऊँचाई पर स्थित यह केदारनाथ मंदिर हिंदू आस्था का सर्वाधिक पवित्र प्रतीक है। यहाँ जाने के लिए मन में आस्था चाहिए न कि पर्यटन का भाव। लेकिन प्रधानमंत्री ने अपने स्वभाव के अनुकूल हर बार प्रदर्शन अधिक किया आस्था कम जताई। नरेन्द्र मोदी कहाँ आस्था जताते हैं और कहाँ प्रदर्शन, यह पता तो नहीं चलता लेकिन केदारनाथ में उनके चेहरे के भाव प्रदर्शन के ही ज्यादा थे।

याद करिए जब वे पहली बार वाराणसी गए थे अथवा जब वे संसद गए तब कैसे विनम्र थे। किन्तु इसके विपरीत अब उनके चेहरे से अहंकार झलकता है जो किसी भी नेतृत्त्व के लिए शुभ नहीं है। उनके हाव-भाव से लगा नहीं कि वे भोले बाबा से आशीर्वाद लेने आए थे। बल्कि ऐसा लगा मानों वे भोले बाबा के समक्ष अपने वैभव का प्रदर्शन कर रहे थे। हर मंदिर की अपनी गरिमा और अपने नियम-कायदे होते हैं वहां जाने पर उनकी पालना अपरिहार्य है। मगर प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। तब प्रश्न उठता है कि प्रधानमंत्री को वहां जाना ही क्यों चाहिए। बिना आस्था किसी भी धार्मिक स्थल पर जाना, उसे मानने वालों का अपमान ही समझा जाएगा।

हर धर्म अपने उपासना स्थलों पर विधर्मियों के प्रवेश पर रोक लगाता है। इसके पीछे तर्क होता है कि उपासना स्थल पर्यटन हेतु नहीं बनाए गए इसलिए वहां अगर आप जाएंगे तो उनकी मर्यादा के अनुकूल चलना पड़ेगा। मसलन किसी गुरूद्वारे में प्रवेश के पूर्व सर ढकना अनिवार्य होता है उसी तरह कुछ मन्दिरों में धोती पहनना। देव प्रतिमा के समक्ष विनम्रता का प्रदर्शन तो करना ही चाहिए इसीलिए काला चश्मा लगाकर प्रतिमा के समक्ष जाना ठीक नहीं समझा जाता।

चूँकि प्रधानमंत्री का अपना प्रोटोकाल होता है इसलिए कोई टोक नहीं सकता। लेकिन क्या खुद प्रधानमंत्री को नहीं सोचना चाहिए कि आदि शंकराचार्य ने किन मुश्किल हालात से निपटते हुए आज से करीब हज़ार वर्ष पूर्व केदारनाथ के भूले-बिसरे अवशेषों को इकठ्ठा किया और कलचुरी राजाओं से आग्रह कर यहाँ मंदिर निर्माण कराया।

फिर इस बार दीपावली के अगले रोज़ तो वे वहाँ उन आदि शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण करने गए थे, जिन्होंने पूरे देश के लोगों को जोड़े रखने के निमित्त ही जिन चार धामों की यात्रा को हिंदुओं के लिए आवश्यक बताया उसमें सबसे ऊपर केदारनाथ ही हैं। बद्री-केदार धाम एकदम उत्तर में हिमालय के शिखर पर तो रामेश्वरम सुदूर दक्षिणी छोर पर। पूरब में समुद्र तट पर जगन्नाथ और पश्चिम में अरब सागर के तट पर द्वारिका। जो हिंदू इन चारों धामों की यात्रा करता है, मान्यता है कि उसके लिए मोक्ष का द्वार खुला है। ऐसे धाम में किसी के द्वारा भी अपने वैभव का प्रदर्शन उचित तो नहीं ही कहा जाएगा।

बेहतर होता प्रधानमंत्री को अगर एक आस्थावान हिंदू की तरह केदारनाथ जाना ही था तो वे भी 14 किमी की यात्रा पैदल ही पूरी करते। बाबा तब शायद खुश होते। क्योंकि केदार दर्शन के उपरांत प्रधानमंत्री ने जो शो किया वह फीका रहा, बद्री-केदार के बारे में किम्वदंती है कि जिस किसी ने भी बद्री-केदार के दर्शन कर लिए उसकी समस्त मनोकामनाएँ हर-हाल में पूरी हो जाती हैं, लेकिन यहाँ तो उलटा हुआ। प्रधानमंत्री शुक्रवार को केदार यात्रा के बाद जब बाहर निकले तो वैसा स्वागत नहीं हुआ, जैसी उन्होंने सोचा था। मालूम हो कि चार महीने बाद उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। और हर जगह उनकी पार्टी पस्त दिख रही है।

बीजेपी को याद रखना चाहिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जो अभूतपूर्व विजय मिली थी उसके पीछे मोदी करिश्मे का असर तो था लेकिन हिंदू सैंटीमेंट्स भी थे। दरअसल वृहत हिंदू समाज के दिमाग़ में यह भर दिया गया था, कि लोगों को लग रहा था कि कांग्रेस की यूपीए सरकार हिंदुओं के प्रति एक वितृष्णा का भाव रखती है। कांग्रेस की मनमोहन सरकार के कुछ मंत्रियों ने अपनी बयानबाज़ी से कुछ गदाबादियाँ भी कर दी थीं। खासकर साल 2004 में ऐन दीवाली के दिन 11 नवम्बर को कांची कामकोटि के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी का बहुत ख़राब असर पड़ा था। स्वामी जयेंद्र सरस्वती को जिस हत्या के आरोप में पकड़ा गया था, उसमें पुलिस पर्याप्त तथ्य नहीं जुटा पाई और गवाहों के मुकर जाने तथा सबूतों के अभाव में मुक़दमा ढीला पड़ता गया और अंत में 27 नवम्बर 2013 को पुद्दुचेरी सेशन कोर्ट से स्वामी जी बरी हुए। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उन दिनों कहा था, कि सरकार का यह कदम बेहद अफसोसनाक था।

लेकिन प्रधानमंत्री बनाने के बाद पिछले सात वर्षों में नरेंद्र मोदी ने और उनकी सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे यह प्रतीत होता कि यह सरकार यूपीए सरकार से गुणात्मक रूप से भिन्न रही। है। अगर नोटबंदी जैसे परपीड़क फैसलों को छोड़ दिया जाए जो जनता मोदी सरकार को अलग मानें। नोटबंदी से यह जरूर हुआ कि 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बन गई। यूपी में तो यूँ भी व्यक्ति यह मान कर चलता है कि उसकी भले उसकी एक आँख फूटे लेकिन पड़ोसी की दोनों फूट जाएं तो मज़ा आए। और यही हुआ खुद ने भले पांच सौ न देखे हों लेकिन पड़ोसी के हज़ार गए तो उसे अपार ख़ुशी हुई। और इसी ख़ुशी के चलते वह बीजेपी को वोट दे आया। भाजपा जिन हिंदू भावनाओं के रथ पर सवार होकर आई थी उनकी बेकद्री वह स्वयं कर रही है। इससे वही हिंदू जो मोदी को अपना नायक बताते थे अब मोदी के नाम से बिदकने लगे हैं।

नरेंद्र मोदी की केदारनाथ यात्रा में हिंदू आस्था का कतई ख्याल नहीं रखा गया और वहाँ जाकर उन्होंने हिंदू आस्थाओं का मज़ाक उड़ाया। केदारनाथ एक तीर्थ है और पूरे विश्व के हिंदुओं की आस्था का केंद्र भी। वहां प्रधानमन्त्री सूटेड-बूटेड गए और मीडिया में प्रचारित भी करवाया। क्या एक मन्दिर में खुद को हिंदू-ह्रदय सम्राट कहने वाले व्यक्ति का इस बाने में जाना उचित है? यह प्रधानमंत्री ने नहीं सोचा। मन्दिर में प्रवेश के पूर्व मोदीजी यदि धोती पहन लेते तो उनका कुछ घट न जाता लेकिन वे तो मानों हेलीकाप्टर पर सवार होकर वहां पिकनिक मनाने गए थे। अभी आठ वर्ष पहले केदारनाथ में जो हादसा हुआ था, उसके पीछे जो कारण बताए गए थे उनमें एक यह भी था कि लोगों ने इस तीर्थ को पर्यटन स्थल बना दिया है। मगर अब तो स्वयं भाजपा के प्रधानमन्त्री केदारनाथ का बाजारीकरण करने में जुटे हैं। उनकी ऐसी कवायद कहीं न कहीं उनकी पराजय-गाथा भी लिख रही है।

इसी तरह दीवाली पर अयोध्या में जो कुछ हुआ, वह और शर्मनाक था। अयोध्या में सरयू तट पर तमाशबीनों का मेला लगा। लाखों दिये तिल के तेल से जलाए गए, उनकी महक और उनकी आंच भाजपा को भले भायी हो लेकिन आम हिंदू लोगों को नहीं भायी। लोग जानते हैं कि वोट चाहने वाला धर्म का इस्तेमाल करता है फिर वे चाहे योगी हों या मोदी हों। वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो बढ़त मिली थी उसकी मुख्य वज़ह थी कांग्रेस के पास आक्रामक नेतृत्त्व का अभाव और मीडिया में उसके भ्रष्टाचार का खूब प्रचार। लेकिन अब भाजपा की नकारात्मकता है और उससे भी ज्यादा उसका हिंदू आस्था का मज़ाक उड़ाना भी एक अहम मुद्दा बन गया है। और यही भाजपा को भारी पड़ेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

KEDARNATH
Modi in Kedarnath
Modi's Kedarnath Visit
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