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न्याय के लिए दलित महिलाओं ने खटखटाया राजधानी का दरवाज़ा
“नेशनल ट्रिब्यूनल ऑन कास्ट एंड जेंडर बेस्ड वायोंलेंस अगेंस्ट दलित वीमेन एंड माइनर गर्ल्स” जनसुनवाई के दौरान यौन हिंसा व बर्बर हिंसा के शिकार 6 राज्यों के 17 परिवारों ने साझा किया अपना दर्द व संघर्ष।
राज वाल्मीकि
30 Mar 2022
national tribunal

आजादी के 75 साल बाद भी दलित महिलाएं और लड़कियां जाति और लिंग के आधार पर बलात्कार और अत्याचार की शिकार हो रहीं हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार हर दिन 9 दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। यह यौन  अत्याचार दलित महिलाओं को अन्य महिलाओं से अलग करता है।

ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव अबिरामी कहती हैं कि यह बहुत ही दुखद है कि अभी भी हमारे यहाँ छुआछूत बरती जाती है। हम दलित महिलाओं के  साथ यौन हिंसा की जाती है।

प्रशासन की जातिवादी मानसिकता के कारण  हमारे केस ही दर्ज नहीं किए जाते। और किए भी जाते हैं तो सही धाराओं के अंतर्गत केस दर्ज नहीं किए जाते। अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धाराएं नहीं लगाईं जातीं। मुख्यधारा का कहा जाने वाला मीडिया हमारी खबरें प्रकाशित नहीं करता है।

यह बात उन्होंने “नेशनल ट्रिब्यूनल ऑन  कास्ट एंड जेंडर बेस्ड वायोंलेंस अगेंस्ट दलित वीमेन एंड माइनर गर्ल्स”  जनसुनवाई  के दौरान कही। यह जनसुनवाई 29 मार्च 2022 को दिल्ली के कान्स्टीटूशन क्लब में हुई।  

इसमें 6 राज्यों के 17 परिवारों ने अपने  ऊपर हुई हैवानियत का दुःख-दर्द व्यक्त किया। जिन छह राज्यों से ये पीड़ित दलित परिवार आए थे वे राज्य हैं बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली।  

इन पीड़ितों ने बताया कि हमें न्याय मिलना तो दूर उलटे दबंग जाति के लोगों ने हमीं पर काउंटर केस कर दिए। पुलिस वाले भी दबंगों और उच्च जाति के लोगों का ही साथ देते हैं। उनका कहना था कि एक तरफ तो दबंग हम पर अत्याचार करते हैं और दूसरी ओर  हमसे समझौता करने का दबाव बनाते हैं।

ऐसे में हम न्याय के लिए जाएं तो कहां जाएं। पीड़ितों का कहना है कि हमें जान से मारने की धमकी दी जाती है। महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार करने की धमकी जाती है।

अत्याचारों की इतनी दर्दनाक दास्ताने हैं कि पीड़ित बताते-बताते रोने लगते हैं।

बलात्कार, मारपीट और धमकाने की वारदात आए दिन होती रहती हैं। इसके खिलाफ न्याय की आस में पीड़ितों ने अपनी व्यथा जूरी के सामने रखीं।

इस जनसुनवाई के जूरी पैनल में  थीं – अरुणा रॉय अध्यक्ष एनएफआईडब्ल्यू, अधिवक्ता अनास्तिया गिल दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की पूर्व सदस्य, भाषा सिंह कंसल्टिंग एडिटर न्यूज़क्लिक, प्रोफ़ेसर शशिरानी दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क, दिल्ली यूनिवर्सिटी, देवयानी श्रीवास्तव सीएचआरआई, अधिवक्ता दिशा वाडेकर, सुप्रीम कोर्ट।

नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की कन्वेनर विमल थोरात ने कहा कि हजारों साल से दलितों को अछूत समझा जाता है जबकि बाबा साहेब के द्वारा बनाया गया संविधान हमें बराबरी का अधिकार देता है। पर क्या अभी भी हमें समता, गरिमा, बराबरी का हक़ मिला है?

आज़ादी के 75 साल बाद भी दलित महिलाओं पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं। बलात्कार जैसे जघन्य अपराध होते हैं। आखिर हम कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे? हमारा सभ्य समाज कब तक चुप रहेगा? कब तक हमारी दलित महिलाएं और लड़कियां इस तरह अत्याचार सहती  रहेंगी?

आखिर हम कब ऐसा माहौल तैयार कर पायेंगे जब हमारी महिलाएं-लड़कियां स्वतंत्र होकर निश्चिन्त होकर पढ़-लिख सकेंगी और अपना जीवन गरिमा के साथ जी सकेंगी?

उन्होंने कहा कि वर्ष 2014  से अब तक अत्याचारों का यह आंकड़ा और बढ़ा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2014 से 2019  में  5,12,868  दलित महिलाओं और लड़कियों पर अत्यचार हुए हैं। इनमें से 2, 82, 818 दलित महिलाओं और लड़कियों से साथ बलात्कार की घटनाएं हुई हैं।

सवाल है कि इन अत्याचारों को कैसे रोका जाए?  

कई मामलों से जानकारी हुई कि कथित उच्च जाति के लोग यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि दलित उनकी बराबरी करें। जब दलित उनकी गुलामी करने से मना कर देते हैं  तो उन्हें यह बर्दाश्त नही होता। इसका परिणाम यह होता है कि दलित पर अत्याचार होने लगते हैं।

यहाँ जूरी ने विभिन्न अपराधों के बारे में पीड़ितों को न केवल कानून के बारे में जानकारी दी और उन्हें सही रास्ता दिखाया। उन्हें बताया गया कि वे आगे किस तरह कारवाई करें। क्या-क्या सावधानी बरतनी हैं। उन्हें बताया गया कि सिर्फ मौखिक बातें कानून में नहीं मानी जातीं। हर बात के लिए जहाँ तक संभव हो सबूत जुटाने का प्रयास करें। बातचीत का वीडियो या ऑडियो रिकॉर्ड बनाया जाए। इस से कानूनी करवाई में सुविधा होती है।

सामाजिक कार्यकर्त्ता और एनएफआईडब्ल्यू की अध्यक्ष अरुणा रॉय ने कहा कि दलितों पर अत्याचार न हों इसके लिए जरूरी है कि दोषियों को सजा मिले। पर दबंगों को सजा दिलवाने के लिए जरूरी है कि दलितों के लिए काम करने वाले एनजीओ और आन्दोलनों की मदद ली जाए। यहाँ दलित एकता बहुत जरूरी है। दलितों के पक्षधर मीडिया, एनजीओ और कानूनी जानकारी रखने वाले मिलकर प्रयास करें तभी इस तरह के अन्यायों पर लगाम लग सकेगी।

जूरी सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने कहा कि मैं इन दलित महिलाओं को सलाम पेश करती हूँ कि इन्होनें अपने साथ हुए अन्याय एवं अत्याचार के खिलाफ राजधानी दिल्ली के द्वार पर दस्तक दी। और यह बताने के लिए आईं कि हमारा समाज कितना असंवेदनशील है। किस तरह फासीवादी ताकतें उनका जीवन दुश्वार करती हैं। किस तरह महिलाएं और बच्चियां इनका इजी टार्गेट होती हैं। ये अपराधी कानून से बेख़ौफ़ होते हैं। किस तरह क़ानून के रखवालों से इनकी सांठ-गाँठ होती है। किस तरह अपराधियों का मीडिया अपराधियों के पक्ष में खड़ा होता है। जातिवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था यहाँ हावी होती है। और किस तरह पीड़ितों पर यहाँ समझौता या  compromise करने के लिए दबाब बनाता है  - इन गरीब कमजोर और मजलूम दलितों पर। फिर भी इनका अपनी मानवीय गरिमा के लिए संघर्ष ही है जो ये हार नहीं मानते, समझौता नहीं करते और न्याय पाने के लिए दिल्ली तक आते हैं।

अधिवक्ता अनास्तासिया गिल ने अपनी टिपण्णी में कहा कि इन पीड़ित महिलाओं का जज्बा काबिले तारीफ है। पर मुझे लगता है कि जो ह्यूमन राइट्स डिफेंडर हैं जो इनके मुद्दों को उठाते हैं उनको भी थोड़ी ट्रेनिंग की जरूरत है। कानून मौखिक बातों को नहीं मानता। कानून के लिए सबूत जुटाना बहुत जरूरी होता है। तभी पीड़ित का पक्ष मजबूत होता है। इसके लिए उन्हें ट्रेनिंग की जरूरत है। अगर दिल्ली में वे ट्रेनिंग लेना चाहें तो मुझसे जो भी संभव सहायता होगी मैं करने को तैयार हूँ।

देवयानी श्रीवास्तव ने कहा कि जिस तरह दबंग जाति के लोग इनका वोट अपने पक्ष में डलवाने के लिए दबाब बनाते हैं वह गंभीर मुद्दा है। इस तरह वे इनके संवैधानिक अधिकार को ही छीन लेना चाहते हैं। जिस तरह वे इनकी जमीन पर कब्ज़ा करते हैं इसका मतलब है कि वे इन्हें कमजोर बनाए रखना चाहते हैं। आज भी इन्हें अपना गुलाम बनाए रखना चाहते हैं। दुखद है कि हमारी न्याय व्यवस्था भी इनके साथ न्याय नहीं कर पा रही है। पर हम मानवाधिकार कार्यकर्ता हम एनजीओ वालों को इनका साथ देना चाहिए। इनके साथ कदम से कदम मिला कर इनको न्याय दिलाना चाहिए।

दिल्ली स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क की प्रोफेसर शशि रानी ने कहा कि यह चिंता की बात है कि आजादी के 75 वर्ष होने पर भी दलितों के साथ सदियों पुराने अन्याय, अत्याचार, यौन हिंसा और उत्पीडन आज भी जारी हैं। आज जो महिलाऐं हमारे सामने अपने प्रति हो रहे अन्याय और अत्याचार को सामने लेकर आई हैं वे तो एक बानगी भर हैं। देश में हज़ारों लाखों महिलाओं के साथ इन तरह की बर्बर घटनाएं हो रही हैं। मैं इन महिलाओं के साहस को दाद देती हूँ कि इन्होने अपनी ऊपर होने वाले अत्याचारों की आवाज दिल्ली तक पहुंचाई और न्याय की गुहार लगाई।

मैं आल इंडिया दलित महिला आधिकार मंच को भी बधाई देती हूँ कि मंच ने इन महिलाओं को हमारे सामने रूबरू किया। निश्चित ही हम इन महिलाओं के साथ हैं और इनको न्याय दिलाने में पूरी-पूरी कोशिश करेंगे।  

इस जनसुनवाई के दौरान कई बातें स्पष्ट हुई जैसे कि हमारे देश में छुआछूत और जातिवाद तथा पितृसत्ता अभी भी बरकरार हैं और इनकी वजह से दलितों (पुरुष और महिलाओं) पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। पुलिस और अत्याचार करने वालों की आपस में सांठ-गाँठ होती है इसलिए दलितो के केस मजबूत नहीं हो पाते। दबंग पुलिस और गवाहों को रिश्वत देकर और धमका कर केश को मजबूत नहीं होने देते। दलितों को क़ानून की जानकारी का न होना भी दलितों के खिलाफ जाता है।

अच्छी बात यह है कि इन दलित पीड़ितों ने अपने खिलाफ हुए अत्याचारों  को खिलाफ न्याय पाने के लिए राजधानी दिल्ली का भी दरवाजा खटखटाया है। उम्मीद की जाने चाहिए कि जूरी पैनल द्वारा दिखाई गई राह उन्हें न्याय दिलाने में सहायक होगी।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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