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अति राष्ट्रवाद के भेष में सांप्रदायिकता का बहरूपिया
राष्ट्रवाद का अर्थ है अपने देशवासियों से प्रेम न कि किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति समर्पण। अपने देश के संविधान को मानना और उस पर अमल करना ही राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव है।
शंभूनाथ शुक्ल
31 Oct 2021
Communalism
प्रतीकात्मक तस्वीर

इन दिनों राष्ट्रवाद की चर्चा ख़ूब गर्म है। जो भी सरकार की जन विरोधी नीतियों की आलोचना करता है, उसे फ़ौरन राष्ट्र विरोधी बता दिया जाता है, गोया राष्ट्रवाद का मतलब सरकार की अंध भक्ति है। प्रेमचंद ने लिखा है “सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद का नक़ाब ओढ़ कर आती है” और इस समय यही दिख रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर उग्र हिंदूवाद का परचम लहरा रहा है। सत्ताधारी राजनेता लोग महँगाई, बेरोजगारी और पुलिसिया उत्पीड़न को भूल कर सिर्फ़ मंदिर की चर्चा में मगन हैं। जैसे उन्हें अपने वोटरों की पीड़ा और तकलीफ़ों से कोई वास्ता नहीं है। लेकिन अब लोगों में इससे अरुचि होने लगी है। उन्हें लगता है उनकी मूल ज़रूरत भोजन-पानी है, रोज़गार है और आवास हैं। मिडिल क्लास में भारी बेचैनी है फिर चाहे वह शहरी मध्य वर्ग हो या ग्रामीण। इसीलिए लोगों को अब राष्ट्रवाद शब्द खोखला लगने लगा है। 

अभी गणेश शंकर विद्यार्थी के जन्मदिन (26 अक्तूबर) पर कानपुर में इस विषय पर एक बड़ा सेमिनार हुआ। इसे सुनने के लिए आई भीड़ को देख कर लगा कि लोगों में अब रुचि जगी है कि वे जानें कि उन्हें किन काल्पनिक मुद्दों में उलझा कर वास्तविकता से दूर किया जा रहा है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम ऐसे प्रतीकात्मक शब्द हैं कि उनसे किसी की निष्ठा अथवा अपने देश के प्रति उसके अनुराग को नापा नहीं जा सकता। राष्ट्रवाद का अर्थ है अपने देशवासियों से प्रेम न कि किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति समर्पण। अपने देश के संविधान को मानना और उस पर अमल करना ही राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव है। क्योंकि संविधान के बिना कोई राष्ट्र नहीं होता और उस राष्ट्र में रहने वाले ही उस राष्ट्र की चेतना हैं। इस शब्द का किसी समुदाय या संप्रदाय से कोई वास्ता नहीं है। अगर हम अपने राष्ट्र के लोगों के प्रति कोई भेद-भाव न करें तो यही राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा प्रमाण है। 

ये भी देखें: दिल्ली दंगे: साल हुआ, इंसाफ़ नहीं

1916-17 में कानपुर में मज़दूर सभा की स्थापना गणेश शंकर विद्यार्थी ने की थी। उन्होंने पाया कि मज़दूरों,ख़ासकर हिंदू मज़दूर अपेक्षाकृत कमजोर हैं। उन्होंने मालूम किया तो पता चला कि हिंदू मज़दूर अलग-अलग जातियों के चलते लंच के वक़्त खाना नहीं खाते थे क्योंकि किसी दूसरी जाति के मज़दूर के छू जाने की आशंका थी। जबकि मुसलमान मज़दूर साथ बैठ कर भोजन करते। उन्होंने मज़दूरों को आह्वान किया कि वे कारख़ानों में लंच की छुट्टी में खाना अवश्य खाया करें। जब काम समान है तो फिर काहे की छुआछूत! शुरू में मज़दूरों में हिचक हुई लेकिन धीरे-धीरे हिंदू मज़दूरों ने उनकी बात मान ली और वे मिल परिसर में लंच करने लगे। यह उनमें काम के आधार पर पहली एकता थी। इस तरह उनमें जाति का भेद ख़त्म हुआ और मुसलमान मज़दूरों के साथ भी उनकी एकता बढ़ी। इसी एकता के ज़रिए उन्होंने मज़दूरों की माँगों को माने जाने का दबाव कारख़ाना मालिकों पर बनाया। बाद में यही मज़दूर राजनीतिक आंदोलन से जुड़े। अर्थात पहले भेद को ख़त्म करो और लोगों में भाईचारा बनाओ, तब ही राष्ट्रवाद पनपेगा। लेकिन यहाँ तो राष्ट्रवाद का अर्थ एक विचारधारा विशेष में आस्था है। 

यहाँ बताता चलूँ कि विद्यार्थी जी कोई नास्तिक नहीं थे और न ही वे कम्युनिस्ट किंतु फिर भी हर एक के लिए उनके दरवाज़े खुले थे। 1930 में वे नैनी जेल में बंद थे। उसी समय जन्माष्टमी पड़ी और वे व्रत पर रहे। शाम को उन्होंने कहा कि व्रत के पारायण के लिए दही और पेड़ा चाहिए। उनके वार्डन, जो कि एक मुस्लिम था, ने उनकी चाहत पूरी की। वे जेल में डायरी भी लिखते थे और रामचरित मानस का पाठ भी। उन्हें उनकी धार्मिकता के लिए किसी दिखावे अथवा मनुष्यों में भेद करने की ज़रूरत कभी नहीं पड़ी। मज़दूर यूनियन के लिए उनके सबसे बड़े सहयोगी थे मौलाना हसरत मोहानी। दोनों के मिज़ाज एक जैसे और दोनों मज़दूरों की एकता के प्रबल पक्षधर। मौलाना ने तो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जी को मजबूर किया कि वे कांग्रेस के सम्मेलनों में मज़दूरों को भी आने दें। 1917 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में वालंटियरों ने मौलाना के साथ आ रहे मज़दूरों को रोका तो मौलाना अड़ गए। वालंटियरों ने उन पर लाठी चला दी तो घायल मौलाना की जगह उनकी बेगम ने ले ली। उनकी आवाज़ सुनकर नेहरू जी बाहर आए और माफ़ी मांगी। मौलाना मुस्लिम लीग में भी रहे और कांग्रेस में भी वे खुद को कम्युनिस्ट मानते थे लेकिन इस्लामी रवायतों का भी पालन करते थे। ये दोनों नेता हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। यह एकता ही राष्ट्रवाद की पहली सीढ़ी है। 

राष्ट्र तब ही बनेगा जब उसमें रहने वाले विभिन्न समुदाय के लोगों में एकता हो तथा उनकी निष्ठा या उनकी धार्मिक आस्थाओं पर हमला न हो। क्योंकि जब कोई भी समुदाय ख़ुद को अधिक श्रेष्ठ और स्वयं के समुदाय को ही राष्ट्र का प्रतीक मानेगा तो सांप्रदायिकता फैलेगी। इसको समाप्त करने की ज़िम्मेदारी बहुसंख्यक समाज की ज़्यादा होती है। क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय सदैव डरा हुआ रहता है। उसके इस भय को ख़त्म करने के लिए आवश्यक है कि उसके अंदर से स्वयं की कम संख्या होने के बोध को दूर किया जाए। कई बार यह लग सकता है कि हम उन्हें अधिक सुविधाएँ दे रहे हैं अथवा उनकी कट्टरता की अनदेखी कर रहे हैं किंतु यह सब ज़रूरी है, उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए। यह कुछ इसी तरह होगा जैसे कि समाज में पिछड़ चुके समुदायों के लिए आरक्षण की व्यवस्था होती है। 

 इसका एक अनुभव मेरा निजी है। वर्ष 1990 में जब विश्व हिंदू परिषद के उग्र कारसेवक अयोध्या कूच कर रहे थे और जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम तनाव चरम पर था, मुझे दिल्ली से कानपुर जाना पड़ गया। जिस दिन का मेरा प्रयागराज एक्सप्रेस में आरक्षण था उसी दिन दोपहर को गोमती एक्सप्रेस में सवार एक व्यक्ति को इसलिए क़त्ल कर दिया गया था क्योंकि उसने दंगाइयों को अपना धर्म बताने से मना कर दिया गया था। पत्नी ने कहा, कि ऐसे टेंशन में मत जाओ किंतु चचेरे भाई की शादी थी और मैं गया। प्रयागराज एक्सप्रेस रात नौ बजे नई दिल्ली स्टेशन से छूटती थी। मेरे कोच में 72 लोगों के शयन की व्यवस्था थी पर आए सिर्फ़ छह, मुझे लगाकर इन सभी छह लोगों को एक केबिन में शिफ़्ट किया गया था। मालूम हो कि स्लीपर क्लास में तब एक बंद केबिन होता था, जो महिलाओं के लिए रिज़र्व रहता था। किंतु महिला यात्री न होने पर वह पुरुषों को दे दिया जाता था। उस केबिन में मेरे अतिरिक्त सारे पाँच यात्री मुस्लिम थे, दाढ़ी वाले दो बुजुर्ग और तीन अधेड़, सब ख़ूब हट्टे-कट्टे। मैं कुछ डरा, यह शायद मेरे अंदर अकेले पड़ जाने के कारण था। लेकिन अब कोई चारा न था, ट्रेन चल चुकी थी और केबिन के बाहर घुप अंधेरा। मैं चुपचाप अपनी बर्थ पर लेटा रहा। वे लोग भी रात भर जागते रहे, कोई सोया नहीं। एक बुजुर्ग तस्बीह फेरते हुए मुझे देखते रहे थे। रात क़रीब तीन बजे मैं उठा और जूते पहनने लगा। ट्रेन साढ़े तीन पर कानपुर पहुँच जाती थी। उन्हीं बुजुर्ग ने पूछा, बेटा कानपुर आ गया? मैंने कहा, जी बस आने वाला है। वे सब भी उठ बैठे। 

बुजुर्ग ने मुझसे कहा, बेटा हम पाकिस्तान से आए हैं और कानपुर में छोटे नवाब के हाता में जाना है। यह सुनते ही एकदम से मेरा भय जाता रहा। मुझे अपने मुल्क में अपने बहुसंख्यक होने का अहसास हुआ तथा अपने उत्तरदायित्त्व का भी। मैंने कहा, चचा, यही मौक़ा मिला है इंडिया आने का। वे बोले, बेटा भतीजी की शादी है क्या करते? कानपुर में उतारने के बाद मैं उन सब लोगों को लेकर जीआरपी थाने गया और इंस्पेक्टर को कहा इन्हें छोटे नवाब का हाता भिजवाने का प्रबंध करिए। जब ये पहुँच जाएँ तो मुझे थाने में मैसेज करिए, तब तक मैं यहीं बैठूँगा। कोई एक घंटे बाद पुलिस का सिपाही उन्हें पहुँचा कर वापस आया, तब मैं वहाँ से अपने घर को चला। सांप्रदायिकता के यही दो रूप हैं। अल्पसंख्यक होने का और बहुसंख्यक होने पर। मगर यदि हम अपनी संख्या के मुताबिक़ बड़प्पन दिखाएं तब ही सच्चे अर्थों में हम सांप्रदायिकता को जीत लेंगे तथा तब ही राष्ट्रवादी बनेंगे।

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