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काम की स्थिति और शर्तों पर नया कोड  : क्या कार्य सप्ताह में चार या छह दिन होने चाहिए?
तीन दिनों की छुट्टी की गारंटी दिये बिना चार दिनों तक निरंतर लंबे समय तक काम करने की स्थिति में सभी श्रमिकों की सेहत पर गंभीर असर पड़ेगा।
आंचल सिंह, गौरवजीत नरवान
05 Mar 2021
काम की स्थिति और शर्तों पर नया कोड  : क्या कार्य सप्ताह में चार या छह दिन होना चाहिए?
Image Courtesy: Bloomberg Businessweek

काम की परिस्थितियों और शर्तों पर यह नया कोड अपने ख़ुद के नियमों के साथ ही टकराता है और दोनों के बीच  ज़मीनी हक़ीक़त के साथ कोई तालमेल नहीं दिखता है। ये कोड और नियम नियोक्ताओं को हर हफ़्ते अन्य दिनों में लंबे समय तक काम करने के बदले ज़्यादा दिनों तक अवकाश रखने का विकल्प देते हैं। लेकिन, सवाल है कि भारत में काम के घंटों और दिनों पर जितने बेशर्म नियम, जो शान से चलते हैं, इनका हिसाब-किताब कौन देगा? आंचल सिंह, गौरवजीत नरवान उस आदर्श स्थिति की छानबीन कर रहे हैं, जो मुमकिन हक़ीक़त के उलट है।

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यों की स्थितियां और शर्त कोड, 2020 (OSHW कोड) उन तेरह क़ानूनों को मिलाकर और संशोधित करके लाया गया है, जो अब तक प्रतिष्ठानों में काम करने की स्थितियों और शर्तों पर लागू होते थे।

श्रम और रोज़गार मंत्रालय ने इस ओएसएचडबल्यू कोड, 2020 के लिए मसौदा नियमों को अधिसूचित किया है ताकि काम के घंटे, वार्षिक छुट्टियां और पारिश्रमिक को विस्तार से सुनिश्चित किया जा सके। इस सिलसिले में हाल ही में मंत्रालय ने चार दिन का कार्य-सप्ताह भी प्रस्तावित किया था, जिसमें हर रोज़ बारह घंटे काम करना शामिल होगा, जिसमें कर्मचारियों को हर हफ़्ते तीन भुगतान अवकाश दिवस मिलेंगे।

धारा 25 (1) (a) प्रति दिन अनिवार्य कार्य-समय के घंटे को आठ घंटे तय करती है। हालांकि, इन मसौदा नियमों के नियम 28 के साथ लिखित यह धारा नियोक्ताओं को इन काम के घंटों को बारह घंटे तक बढ़ाने की गुंज़ाइश देता है। हर सप्ताह काम के अधिकतम घंटे, अड़तालीस घंटे तय किये गये हैं और इस नये कोड के ज़रिये इसे सही ठहराया गया दिखता है। इसलिए, अगर कोई नियोक्ता सप्ताह में छह कार्य दिवस रखना चाहता है, तो इसका मतलब यही है कि एक दिन में काम के आठ घंटे होंगे और अगर नियोक्ता सप्ताह में चार कार्य दिवस की व्यवस्था करता है, तो हर रोज़ काम के घंटे, बारह घंटे होंगे।

नियोक्ता के पास विकल्प

यह ठीक है कि एक हफ़्ते में कार्य दिवसों की संख्या चुनने का विकल्प नियोक्ता के पास है। कोई नियोक्ता पारंपरिक छह-दिवसीय कार्य-सप्ताह वाले प्रारूप के साथ रहना चाहे,तो उस प्रारूप को चुन सकता है।

हालांकि, जब इस कोड और इस नियम को एक साथ पढ़ा जाता है, तो काम के घंटे से सम्बन्धित प्रावधान संदिग्ध और अस्पष्ट लगते हैं। इस कोड की धारा 25 (1) (a) में इस्तेमाल की गयी भाषा ख़ास तौर पर बताती है कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रतिष्ठान या प्रतिष्ठान समूह में "एक दिन में आठ घंटे से ज़्यादा समय तक" काम करने की ज़रूरत नहीं होगी, और…

इस आठ घंटे के कार्यदिवस नियम को अनिवार्य बनाने के बाद "और" के साथ “आवश्यकता होगी" वाले शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इसके बावजूद ये नियम नियोक्ताओं को काम के घंटे को बारह घंटे तक बढ़ाने की आज़ादी देते हैं। चूंकि इस अस्पष्टता को लेकर कोई अन्य मार्गदर्शन या स्पष्टीकरण नहीं है, इसलिए इस कोड और इन अनुपूरक नियमों को मिलाकर इसलिए पढ़ने की ज़रूरत है, ताकि यह समझा जा सके कि उन नियोजकों द्वारा इन नियमों को किस तरह लागू किया जायेगा, जो काम के दिनों की संख्या को छह से घटाकर चार करना चाहते हैं।

इस बदलाव को वक़्त की ज़रूरत और मज़दूर वर्ग के बीच जीवनशैली में आये बदलाव के अनुरूप बनाये रखने की तरह प्रचारित किया गया है। इसके लिए, मौजूदा प्रणाली में एक दिन की छुट्टी के उलट, प्रस्तावित व्यवस्था में छोटे कार्य-सप्ताह के साथ दो अतिरिक्त दिनों की छुट्टी को ज़रूरी बना दिया जायेगा।

ज़मीनी हक़ीक़त तो यह है कि ये नये श्रम क़ानून ख़ास तौर पर तथाकथित विश्व-प्रसिद्ध या उन अत्याधुनिक तकनीकों से लैस प्रतिष्ठानों के लिए ही नहीं हैं,जिनमें शिकायत निवारण तंत्र के कई स्तर हो सकते हैं। ये क़ानून उन श्रमिकों और प्रतिष्ठानों पर भी लागू होते हैं,जो बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

क़ानूनों का उपहास करते ज़्यादातर प्रतिष्ठान

इसके अलावा, भारत की श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा उन प्रतिष्ठानों में काम करता है, जो काग़ज़ पर भले ही व्यवस्थित दिखते हों, लेकिन धरताल पर व्यवस्थित नहीं हैं। इसके अलावा, ख़ासकर छोटे और मझोले प्रतिष्ठानों की कार्य संस्कृति में आमतौर पर ओवरटाइम पारिश्रमिक के नियमों की धज्जियां उड़ायी जाती हैं।

इस तरह के प्रतिष्ठानों में इन नये नियमों के तहत मज़दूरों को सप्ताह में चार दिन तक अधिकतम बारह घंटे काम करते हुए देखा जा सकता है और फिर भी उन्हें पर्याप्त मुआवज़े से वंचित करते हुए देखा जा सकता है। सप्ताह में अड़तालीस घंटे काम करने की सख्त शर्त का उल्लंघन तो नहीं किया जा सकता, लेकिन व्यवहार में इससे भी ज़्यादा घंटे का काम लेते हुए देखा जा सकता है।

अगर मान भी लें कि ज़्यादतर कर्मचारियों को अपने सेक्टर या उद्योग या उनके नियोक्ताओं की इच्छाओं के स्थापित मानदंडों पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उन कर्मचारियों के एक छोटे वर्ग को तो अपने रोज़गार खोने का डर सता ही सकता है, जो काम के लंबे घंटों के बजाय छोटे कार्य-सप्ताह की भी मांग करते रहे हैं। एक ओर, जहां ये नये क़ानून "निश्चित अवधि के रोज़गार" का प्रावधान करते हैं, जिसमें कि एक नियोक्ता अपनी सनक और पसंद के हिसाब से जब-तब किसी श्रमिक को रोज़गार से बाहर कर सकता है, वहीं दूसरी तरफ़, इन नियमों का मानना है कि शोषणकारी नियोक्ताओं के ख़िलाफ़ श्रमिकों को पर्याप्त सशक्त बनाया गया है।

इस प्रस्तावित बदलाव में एक ऐसे उच्च शिक्षित और समझदार श्रमिकों की कल्पना की गयी है, जिसे अपने अधिकारों और सप्ताह में चार-कार्यदिवस प्रणाली के निहितार्थ की समझ है और इसके तहत यह मान लिया गया है कि ये श्रमिक ओवरटाइम मज़दूरी या भुगतान वाले अवकाश दिवस की मांग करने में सक्षम होंगे।

इसमें यह भी मान लिया गया है कि जो मौजूदा प्रणाली पहले से ही चल रही है, उसमें श्रमिकों का शोषण नहीं हो रहा था और उन्हें दिन में छह, या फिर सात घंटे तक ही काम करना होता था और किसी भी सूरत में उनके लिए आठ घंटे से ज़्यादा की कार्य अवधि नहीं थी।

क्या इससे काम की स्थितियां या शर्ते बेहतर होंगी ?

इस नये कोड का मक़सद कर्मचारियों की कार्य स्थितियों और उनके स्वास्थ्य का असरदार तरीक़े से ख़्याल रखना है। स्वास्थ्य में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल है। लेकिन, तीन दिनों की छुट्टी की गारंटी दिये बिना चार दिनों तक लंबे समय तक काम करने की परिस्थितियों में सभी श्रमिकों की सेहत पर गंभीर असर पड़ेगा।

यह कम भुगतान के बदले ज़्यादा काम करने के लिए मजबूर किये जाने वाले कर्मचारियों के लिए तबतक नुकसानदेह बना रहेगा, जब तक कि उन्हें यह गारंटी नहीं मिल जाती कि उनका शोषण नहीं किया जायेगा।

अगर कोई नियोक्ता उन कर्मचारियों के लिए भुगतान किये जाने वाले तीन अवकाशों की इस नयी व्यवस्था का पालन करना चाहता है, जो चार दिनों में अड़तालीस घंटे का काम करता है, फिर इसका मतलब तो यही होगा कि इन कर्मचारियों को ओवरटाइम मज़दूरी के एवज़ में आराम करने या तीन अवकाश दिवस मिलेंगे। जो कर्मचारी एक सामान्य कार्य दिवस से ज़्यादा काम करते हैं या अवकाश के दिन भी काम करते हैं, दरअस्ल वे ओवरटाइम के हक़दार होते हैं, और यह ओवरटाइम पारिश्रमिक आम पारिश्रमिक दर से कम से कम दोगुना होना चाहिए।

नतीजतन, कर्मचारियों की उत्पादकता में गिरावट इसलिए आ सकती है,क्योंकि वे काम के ज़्यादा घंटे के समय तक काम कर रहे होंगे। यह प्रतिष्ठानों के कार्य-उत्पाद पर भी असर डालेगा।

इसके अलावा, वह नियोक्ता, जो इन नियमों का पालन करता है, उसे ख़ास तौर पर महिला कर्मचारियों के लिए कार्यस्थल के लिए आने-जाने की सुविधायें, विस्तारित क्रेच सुविधायें और इसी तरह की दूसरी सुविधायें मुहैया करानी होंगी। इससे नियोक्ताओं की लागत में भी बढ़ोत्तरी हो जायेगी।

अगर कुल मिलाकर देखा जाये, तो यह प्रस्तावित बदलाव कर्मचारियों के साथ-साथ नियोक्ताओं के लिए भी ज़्यादा आकर्षक विकल्प दिखता है, लेकिन इसके साथ इस शर्त को सुनिश्चित करना ज़रूरी हो जाता है कि श्रमिकों का शोषण नहीं होगा और इस प्रक्रिया में श्रमिकों की कार्य क्षमता और उनकी सेहत के साथ किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया जायेगा।

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(आंचल सिंह और गौरवजीत नरवान दोनों नई दिल्ली में एडवोकेट हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

New Code on Work Conditions: Should a Workweek have Four Days or Six?

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