NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कृषि
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
नए कृषि क़ानून: किसानों को छोटा बनाम बड़ा में क्यों बांट रही है सरकार?
नए कृषि कानूनों पर अजीबोगरीब बयान देकर केंद्र सरकार कहीं-न-कहीं छोटे और बड़े किसानों में फूट डालने की कोशिश कर रही है, ताकि उनमें वर्ग विभाजन हो और किसानों का आंदोलन कमज़ोर किया जा सके।
शिरीष खरे
11 Feb 2021
नए कृषि कानून छोटे किसानों का संरक्षण नहीं करते हैं। फ़ाइल फ़ोटो: शिरीष खरे
नए कृषि कानून छोटे किसानों का संरक्षण नहीं करते हैं। फ़ाइल फ़ोटो: शिरीष खरे

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दस फरवरी को लोकसभा में कृषि कानूनों पर एक लंबा भाषण दिया। इस दौरान उन्होंने छोटे किसान के बरक्स बड़े किसान को रखते हुए एक थ्योरी दी। उन्होंने अपनी थ्योरी को स्थापित करने के लिए कुछ आंकड़े भी दिए। इन आंकड़ों में बताया गया कि देश भर में 12 करोड़ छोटे किसान हैं। प्रधानमंत्री का पूरा जोर इस बात पर था कि नए कृषि क़ानूनों से देश के छोटे किसानों को बड़ा लाभ होगा। हालांकि, उन्होंने कहीं भी यह बात स्पष्ट नहीं की कि नए कृषि क़ानून यदि लागू हुए तो विभिन्न राज्यों के छोटे किसानों को इससे किस प्रकार लाभ होगा।

प्रश्न है कि क्या वाकई नए कृषि कानूनों से ख़ासकर छोटे किसानों का भाग्य बदलने वाला है? जहां तक आंकड़ों की बात है तो पिछले कई वर्षों से छोटे किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वजह भी स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत में ज़मीन के लगातार बंटवारे के कारण छोटे किसानों की संख्या बढ़ रही है। कृषि सूचकांक, 2015 पर दृष्टि डालें तो देश में दो हेक्टेयर ज़मीन तक के किसानों की संख्या 68 प्रतिशत है। वहीं, चार हेक्टेयर ज़मीन तक के किसानों की संख्या 87 प्रतिशत है। इसी तरह, आठ और दस हेक्टेयर ज़मीन तक के किसानों की संख्या क्रमशः 95 और 99 प्रतिशत है। यानी भारत में दस हेक्टेयर से अधिक ज़मीन वाले किसान जिन्हें बड़े किसान कहा जा सकता है उनकी संख्या मुश्किल से एक प्रतिशत है।

प्रश्न है कि ख़ुले बाज़ार में व्यापारियों को उपज़ बेचने से छोटे किसानों को लाभ होता तो बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश का पूर्वी, बुंदेलखंड, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र का विदर्भ, खानदेश और मराठवाड़ा से लेकर शेष भारत जहां बड़ी संख्या में चार हेक्टेयर तक खेत वाले किसान हैं उन्हें उनकी उपज़ का सही दाम क्यों नहीं मिल पा रहा है? इन क्षेत्रों में सरकारी मंडियां कमज़ोर हैं और छोटे किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपनी उपज़ नहीं बेच पाते तो क्यों ख़ुले बाज़ार के बड़े व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक दाम पर छोटे किसानों की उपज़ नहीं ख़रीद रहे हैं। यदि इसी वर्ष की बात करें तो बिहार में ख़ुले बाज़ारों में धान उत्पादक किसानों ने प्रति क्विंटल 900 रुपए की दर पर अपना धान बेचा। जबकि, छत्तीसगढ़ में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर प्रति क्विंटल करीब 1,400 रुपए की दर से धान उत्पादक किसानों से उनकी उपज ख़रीदी। ज़ाहिर है कि यदि ख़ुले बाज़ार में छोटे किसानों को उनकी उपज़ का उचित दाम मिल रहा होता तो अब तक मिल चुका होता। वे बड़ी संख्या में अपने राज्यों से पलायन करके हर साल पंजाब और हरियाणा में मज़दूरी करने क्यों जाते, जहां उन्हें चार-पांच सौ रुपए दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती है।

यदि कानूनी रुप से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दी गई तो इसका सबसे अधिक लाभ छोटे किसानों को होगा। फ़ाइल फ़ोटो: शिरीष खरे 

प्रश्न है कि यदि छोटे किसानों के प्रति केंद्र सरकार को इतनी ही हमदर्दी है तो वह उनसे जुड़ी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं करती है? जैसे कि देश के जिन अंचलों में अधिक से अधिक छोटे किसान हैं वहां सरकारी मंडी बनाकर छोटे किसानों से सभी तरह की फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में लाकर उन्हें ख़रीदने का संकल्प क्यों नहीं लेती है। इसी तरह, उत्तर-प्रदेश में पिछले कुछ वर्षों से महाराष्ट्र से भी अधिक गन्ना उगाया जा रहा है। लेकिन, ऐसे किसानों का समय पर गन्ने का भुगतान तक नहीं होता है। पिछले वर्ष गन्ना उत्पादक किसानों को उनकी उपज़ का साढ़े सोलह हज़ार करोड़ रुपए बकाया है। इसमें ढाई हज़ार करोड़ रुपए ब्याज़ अलग है। जबकि, वर्ष 2016 में जिन दिनों उत्तर-प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहा था उन दिनों प्रचार के दौरान भाजपा के कई नेता लगातार यह कह रहे थे कि एक ओर सरकार शपथ लेगी तो दूसरी ओर गन्ना किसानों का भुगतान करेगी।

प्रश्न है कि ये छोटे किसान कौन हैं और इनके साथ अन्य कौन-सा वर्ग जुड़ा हुआ है? दरअसल, छोटे किसानों के साथ गांवों का वह बढ़ई, लोहार, कुंभार और भूमिहीन पशुपालक वर्ग भी शामिल हैं जो परोक्ष रुप से खेती पर निर्भर है। ये समुदाय किसानों से चारा लेता या ख़रीदता है और बदले में दूध बेचकर अपने बच्चे पालता है। हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद में डेयरी का बड़ा योगदान है। लेकिन, कोरोना-काल से पहले भैंस का जो दूध चालीस रुपए लीटर मिल रहा था वही कोरोना-काल में कई ज़गहों पर यह घटते हुए 26 रुपए लीटर तक आ पहुंचा। विरोध में कई छोटे किसान और पशुपालकों ने अपना दूध सड़कों पर ही फेंका। इस दौरान उपभोक्ता के दाम तो कम किए नहीं गए, फिर सहकारी समितियों द्वारा दूध के दाम क्यों कम करा दिए गए। यदि छोटे किसान और पशुपालकों की इतनी ही चिंता होती तो यह सरकार उन्हें कम-से-कम उनके दूध का ही उचित दाम सुनिश्चित करा देती। लेकिन, ऐसे पशुपालक परिवारों पर तो उत्तर-प्रदेश सरकार ने और भी बड़ी चोट मार दी। उत्तर-प्रदेश सरकार ने निर्देश दिया कि जो परिवार एक से अधिक पशु रखेगा वह कमर्शियल डेयरी के अंतर्गत आएगा। उन पर बिजली के कमर्शियल कनेक्शन लेने के लिए भी दबाव डाला जा रहा है। इसी तरह, देखा जाए तो छोटा किसान और पशुपालक एक आम उपभोक्ता भी है। लेकिन, जो सिलेंडर पहले वह 360 रुपए में ख़रीदता था उसी के लिए इस वर्ग को अब 700 रुपए देना पड़ रहा है। ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार छोटे किसानों को सीधा लाभ देने की बजाय उन पर दया दृष्टि दिखाते हुए उन्हें अपनी ओर खींचना चाहती है।

भारत की कृषि प्रणाली में बड़े और छोटे किसानों के बीच परस्पर आपसी संबंधों को एक तबका इन दिनों नए सिरे से दिखाने की कवायद कर रहा है। इसके अंतर्गत वह बड़े किसान को शोषक और छोटे किसान को शोषित के रुप में प्रचारित कर रहा है। कुल मिलाकर, इन दिनों एक ऐसी तस्वीर पेश की जा रही है जिससे यह संदेश जाए कि बड़ा किसान तो खुद छोटे किसानों के ख़िलाफ़ है। इसके पीछे मकसद यह है कि छोटा किसान बड़े किसानों के विरोध में खड़ा हो जाए। लेकिन, जो व्यक्ति ग्रामीण और विशेष रुप से कृषि अर्थव्यवस्था को बारीकी से जानता है वह बता सकता है कि छोटे और बड़े किसानों के बीच का आपसी संबंध आमतौर पर सुविधाओं से चलता है। उदाहरण के लिए, जब एक छोटी जोत का किसान अपनी फ़सल सींचने के लिए ढाई-तीन सौ रुपए खर्च करके बड़े किसान के ट्यूबवेल से पानी लेता है तो यह एक तरह की सुविधा है। लेकिन, यहां बड़े किसान की छवि शोषक की बनाई जा रही है। जबकि, सोचने वाली बात यह है कि क्या दो हेक्टेयर वाले किसान को ट्यूबवेल की आवश्यकता होती है। और यदि वह अपने छोटे खेत में पांच-सात लाख रुपए का ट्यूबवेल खोदे भी तो उसका क्या उपयोग या लाभ होगा। उल्टा इस निवेश के बदले उसे औसतन सालाना साठ हज़ार रुपए खर्च करने पड़ सकते हैं। इससे बेहतर यदि वह थोड़ा पैसा खर्च करके बड़े किसान के ट्यूबवेल से अपने खेत की फ़सल उगाने के लिए पानी लेता भी है तो इसे शोषण की व्यवस्था बताना ठीक नहीं है। सही मायने में छोटा किसान कम पैसा खर्च करके समझदारी से अपने लिए एक सुविधा ही जुटाता है।

दरअसल, केंद्र सरकार द्वारा छोटे किसान का मुद्दा महज रणनीति के स्तर पर उठाया जा रहा है। वजह है कि दिल्ली सीमा पर चल रहे आंदोलन में पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर-प्रदेश के किसानों की संख्या अधिक है। इस आधार पर एक धारणा यह बनाई जा रही है कि इसमें भाग लेने वाले आंदोलनकारी बड़े किसान हैं। लिहाजा, प्रधानमंत्री का बाकी देश के छोटे किसानों को यह संदेश देना कि कृषि कानून कम जोत वाले किसानों के लिए लाभदायक होंगे तो इसके पीछे का कारण दूसरा है। असल में यह सरकार जानती है कि कृषि सूचकांक के मुताबिक देश में चार हेक्टेयर तक की ज़मीन वाले 87 प्रतिशत छोटे किसान हैं। इसलिए समर्थन जुटाने की दृष्टि से यदि उन्हें विश्वास में ले लिया जाए तो इसका असर वोट बैंक आधारित चुनावी राजनीति पर पड़ेगा। यही वजह है कि नए कृषि कानूनों पर ऐसे बयान देकर केंद्र सरकार कहीं-न-कहीं छोटे और बड़े किसानों में फूट डालने की कोशिश कर रही है, ताकि उनमें वर्ग विभाजन हो और किसानों का आंदोलन कमज़ोर किया जा सके।

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं और उनके ये व्यक्तिगत विचार हैं।)

Farm bills 2020
Agriculture Laws
farmers crises
MSP
Poor farmers
Narendra modi

Related Stories

किसानों और सत्ता-प्रतिष्ठान के बीच जंग जारी है

अगर फ़्लाइट, कैब और ट्रेन का किराया डायनामिक हो सकता है, तो फिर खेती की एमएसपी डायनामिक क्यों नहीं हो सकती?

ब्लैक राइस की खेती से तबाह चंदौली के किसानों के ज़ख़्म पर बार-बार क्यों नमक छिड़क रहे मोदी?

किसान-आंदोलन के पुनर्जीवन की तैयारियां तेज़

ग्राउंड रिपोर्टः डीज़ल-पेट्रोल की महंगी डोज से मुश्किल में पूर्वांचल के किसानों की ज़िंदगी

MSP पर लड़ने के सिवा किसानों के पास रास्ता ही क्या है?

सावधान: यूं ही नहीं जारी की है अनिल घनवट ने 'कृषि सुधार' के लिए 'सुप्रीम कमेटी' की रिपोर्ट 

ग़ौरतलब: किसानों को आंदोलन और परिवर्तनकामी राजनीति दोनों को ही साधना होगा

उत्तर प्रदेश चुनाव : डबल इंजन की सरकार में एमएसपी से सबसे ज़्यादा वंचित हैं किसान

उप्र चुनाव: उर्वरकों की कमी, एमएसपी पर 'खोखला' वादा घटा सकता है भाजपा का जनाधार


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License