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भारत
राजनीति
केवल डोरेस्वामी ही नहीं, भारतीय स्वतंत्रता के विचार को अस्थिर किया जा रहा है
भारत के स्वतंत्रता संग्राम को महत्वहीन बताना हिंदुत्व के जीन में है। हिंदुत्व, तानाशाही में यक़ीन रखता है, स्वतंत्र गणराज्य में नहीं।
सुभाष गाताड़े
11 Mar 2020
डोरेस्वामी

हालांकि यह पागलपन है, फिर भी इसकी एक तय प्रक्रिया है।

- विलियम शेक्सपियर(हैमलेट)

ख़ुद से असहमत और अलग नज़रिया रखने वालों को बदनाम करने के लिए भगवा बिग्रेड हमेशा तैयार रहती है। पर इस बार उनका स्तर और नीचे चला गया।

शायद यह आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे निराश करने वाला दिन है, कर्नाटक के एक बीजेपी विधायक ने 102 साल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एच डोरेस्वामी को फ़र्ज़ी सेनानी कहते हुए उन्हें पाकिस्तान का एजेंट बताया है।

डोरेस्वामी का जन्म 10 अप्रैल, 1918 को मैसूर राज्य में हुआ था। वे पहली बार भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के चलते 1942 में डोरेस्वामी जेल गए। वे विस्फोटक बनाने वाले एक समूह से जुड़े हुए थे। उन्हें 14 महीने जेल में रहना पड़ा। जेल से छूटने के बाद भी उन्होंने अपना मिशन जारी रखा। आज़ादी के बाद उन्होंने बेघर लोगों, ग़रीब भूमि विहीन किसानों, मोचियों और भार ढोने वालों के लिए काम किया। उन्होंने खुद को राजनीति से दूर रखा।

1975 में उन्होंने आपातकाल लगाए जाने के चलते प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का विरोध किया। उन्हें बेहद भयावह ''डिफेंस ऑफ़ इंडिया रेगुलेशन एक्ट'' में जेल भी जाना पड़ा। बेहद बुजुर्ग होने के बावजूद जनमुद्दों के प्रति उनका उत्साह कभी ठंडा नहीं पड़ा। ग़रीब और भूमिविहीन किसानों को ज़मीन का हक दिलवाने का मुद्दा हमेशा उनके दिल से जुड़ा रहा।

हाल में नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वाले प्रमुख चेहरों में से डोरास्वामी एक थे। उन्होंने बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध किया था। यह दुखद है कि कर्नाटक के बाहर के शायद बहुत कम लोग इस बारे में जानते होंगे।

जिस बीजेपी विधायक के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है, उसका नाम बासानगौड़ा पाटिल यतनाल है। जब कर्नाटक विधानसभा में यह मुद्दा उठाया गया, तो माफ़ी की बात तो दूर, यतनाल अपने बयान पर अड़े रहे।  उन्हें अपने कई साथी विधायकों का समर्थन भी मिला। सरकार से किसी भी तरह की कार्रवाई की मांग करना बेमानी होगी। जबकि यतनाल के बयान से संविधान का उल्लंघन हुआ है। ध्यान रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन है।

जो लोग भगवा बिग्रेड की राजनीति पर नज़र रखते हैं, उन्हें यतनाल के व्यवहार पर बिलकुल अचरज नहीं हुआ।

एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का अपमान औपनिवेशिक संघर्ष के प्रति हिंदुत्व की घृणा दिखाता है, हालांकि यह घृणा हमेशा छुपी हुई होती है। हिंदुत्ववादियों के मुताबिक़ स्वतंत्रता संग्राम से छद्म-धर्मनिरपेक्षवादियों के पास सत्ता आ गई। इससे हिंदू राष्ट्र की योजना को गहरा धक्का लगा। हिंदुत्ववादी नेताओं द्वारा स्वतंत्रता सेनानी और उनके संघर्ष पर लांछन लगाने या  इतिहास की दूसरी अवधारणाएं बनाने की कोशिश जैसी कई चीजें इस घृणा को दिखाती हैं।

इसका एक उदाहरण प्रधानमंत्री द्वारा 2014 में धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान दिए गए भाषण से भी लग सकता है। आरएसएस प्रचारक के तौर पर करियर की शुरूआत करने वाले मोदी जब नए-नए प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने कहा, ''बारह सौ साल की ग़ुलामी की मानसिकता हमें परेशान कर रही है। बहुत बार हमसे थोड़ा ऊंचा व्यक्ति मिले, तो सर उठाकर बात करने की ताकत नहीं होती''।

यहां मुख्य बात 1200 साल की ग़ुलामी है।

मोदी ने यहां इतिहास की एक नई अवधारणा प्रस्तुत की। स्कूलों में हमने जो पढ़ा, मोदी की अवधारणा उससे बहुत अलग है। हमने 200 साल की ग़ुलामी की बात पढ़ी है। यह वह साल थे, जब यहां अंग्रेजों का शासन था। लेकिन मोदी ने अब इस समय को बढ़ाकर 1200 साल कर दिया है। दरअसल यहां मोदी ने औपनिवेशिक ब्रिटिश राज और उससे पहले के रियासतों के शासन में कोई अंतर ही नहीं छोड़ा। इन रियासतों में कई का शासन मुस्लिम शासको के हाथ में था। यह आरएसएस की सोच है। उनका मानना है कि मुस्लिम भारत में बाहरी हैं और उन्होंने हमपर एक हजार साल तक शासन किया।

2014 में चुनावी जीत के खुमार में आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक सुरेश सोनी के एक बयान ने विवाद खड़ा कर दिया था।  161 बीजेपी सदस्यों के सामने दिल्ली के पास सूरजकुंड में आयोजित ट्रेनिंग कैंप में उन्होंने मोदी की जीत की भारत की आज़ादी से तुलना कर दी। उन्होंने कथित तौर पर कहा, ''16 मई को चुनाव परिणामों के दिन वैसा ही महसूस हुआ, जैसा 16 अगस्त 1947 को ब्रिटिश लोगों के भारत छोड़ने पर लगा था।''

इतिहास इस बात का गवाह है कि तिलक मांझी के संघर्ष (1757) से ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन (1942) या नौसेना विद्रोह (1946) तक 200 साल के ब्रिटिश काल में भारतीय समाज के बड़े तबके ने हिस्सा लिया। 

20वीं सदी की शुरुआती अर्द्धार्ध में अलग-अलग ब्रिटिश विरोधी ताक़तें कांग्रेस के बैनर तले आईं।  इनमें भगत सिंह के नेतृत्व वाला क्रांतिकारी आंदोलन, वामपंथी आंदोलन का उद्धव, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और दूसरे नेता शामिल थे। यह सभी औपनिवेशिक शासन के लिए गंभीर चुनौती थे। उस दौर में आज़ाद के नेतृत्व में इंडियन नेशनल आर्मी का उद्धव एक यादगार घटना थी। यह सभी घटनाएं और भारतीय लोगों की आज़ाद होने की महत्वकांक्षाएं भी हिंदुत्व विचारकों को अपने संगठन को आज़ादी के संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित नहीं कर पाईं।

जिसने भी स्वतंत्रता संग्राम पढ़ा है, वो जानता है कि सामान्य तौर पर हिंदुत्व और खासतौर पर आरएसएस के लिए यह चिंता की बात है। आरएसएस ने सिर्फ उस संघर्ष में हिस्सा ही नहीं लिया, बल्कि ''हिंदुओं को संगठित'' करने के काम में जुटा रहा और अपने लोगों से आंदोलन में शामिल न होने के लिए कहा। इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

आरएसएस के निर्माता केबी हेडगेवार की आत्मकथा लिखने वाले सीपी बिशिकर ने लिखा है, ''देशभक्ति न सिर्फ़ जेल जा रही है, बल्कि इस तरह की आलौकिक देशभक्ति से भटक जाना भी सही नहीं है।''

आरएसएस के सरसंघसंचालक रहे एमएस गोलवलकर लिखते हैं, ''जो लोग शहीद होते हैं, वो महान हैं और उनका नज़रिया मर्दाना होता है। वह लोग उस आम आदमी से कहीं ऊपर होते हैं, जो अपने भाग्य को मान लेता है और डरकर किसी तरह का कदम नहीं उठाता। इस तरह के लोगों को हमारे समाज में आदर्श नहीं बनाया जा सकता। लेकिन हमने उनके शहीद होने को महानता की सबसे ऊंची नज़र से नहीं देखा। आख़िर वो अपने लक्ष्यों को पूरा कर पाने में नाकाम रहे थे। इस नाकामी का मतलब है कि उनमें कुछ दोष था।''

भले ही हमें वे कुछ भी यक़ीन दिलाना चाहें, लेकिन हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक ताक़तों में कई सारी समानताएं हैं। भारत छोड़ो आंदोलन में न तो वीर सावरकर और गोलवलकर के नेतृत्व वाली हिंदू सांप्रदायिक ताक़तें शामिल हुईं, न ही मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम सांप्रदायिक ताक़तें। दोनों ताक़तों का ब्रिटिश शासन को समर्थन इस बात से समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा मिलकर सरकार चला रही थीं। 

हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी, शाहिद सुहरावर्दी के नेतृत्व वाली सरकार के वरिष्ठ मंत्री थे। मुखर्जी की पार्टी के सुप्रीमो सावरकर पूरे देश में यात्राएं कर जनसभाएं कर रहे थे। वे हिंदू युवाओं से ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होने का आह्वान कर रहे थे। वे कहते- ''हिंदू धर्म का सैन्यकरण करो और राष्ट्र को हिंदू बनाओ।''

बल्कि उस दौर में आरएसएस ने घटिया काम किए। वो उस दौर में खुद के नाकारेपन को आज आसानी से पचा नहीं पाते हैं। इस मुश्किल से निपटने के लिए या तो वे उस दौर के किसी नेता को अपनाते हैं और हिंदुत्व के विचारों के साथ उनकी निकटता बताते हैं या फिर वे भारत के शहीदों की लानत-मलानत करते हैं।

हिंदुत्व अवधारणा के लिए चीजों को तोड़-मरोड़कर पेश करने का एक उदाहरण निर्मला सीतारमण का एक भाषण भी है। सीतारमण ने पिछले कार्यकाल में संसद में बोलते हुए कहा था कि ''गोरक्षा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के पीछे की भावना थी''। यह बात उन्होंने उत्तरप्रदेश में  बूचड़खानों पर प्रतिबंध के पक्ष में कही थी।

आगे इस बात को वास्तविकता में सही साबित करने की भी कोशिश की गई। हरियाणा के मुस्लिम पशुपालक किसान पहलू खान की हत्या करने वाले स्वघोषित गोरक्षकों की क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से तुलना की गई। एक वायरल वीडियो में राष्ट्रीय महिला गोरक्षा दलिन की अध्यक्ष कमल दीदी आरोपियों को आज का भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद बताती हैं। 

 किसी भी न्यायपसंद आदमी को हत्यारों की काली तस्वीरों को उजला किए जाने से दिक्कत होगी। इसी तरह कुछ साल पहले दादरी लिंचिंग केस के एक आरोपी के शव को तिरंगा लपेटा गया था।

जब हत्यारों को तिरंगे में लपेटकर महान व्यक्तित्व बताया जाता है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि एच डोरेस्वामी जैसे असली महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ''पाकिस्तानी एजेंट'' बताकर अपमानित किया जाता है।

इसमें कोई संशय नहीं है कि जो लोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को महत्वहीन या उसके आधार को बदलने की कोशिश से चिंतित हैं, उनके लिए यह एक और चिंता का पल है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

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