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महामारी का यह संकट पूंजीवाद के लिए किसी अंधी गली का प्रतीक क्यों बन गया है
अगर महामारी का यह झटका ख़त्म हो भी जाता है, तब भी दुनिया उस अति-उत्पादन के संकट में फ़ंसेगी, जिसकी चपेट में वह पहले से ही थी।
प्रभात पटनायक
29 Aug 2020
COVID-19

यह एक आम नज़रिया है कि पूंजीवाद का मौजूदा संकट बड़े पैमाने पर उत्पादन में आयी कमी और उससे पैदा होने वाली बेरोज़गारी के बढ़ने का नतीजा है। इस संकट की वजह महामारी को बताया जा रहा और माना जा रहा है कि जैसे ही यह महामारी ख़त्म होगी, तो चीज़ें "सामान्य" हो जायेंगी।

यह नज़रिया दो कारणों से पूरी तरह ग़लत है। पहला, जिसकी चर्चा अक्सर इस स्तंभ में की जाती रही है और वह यह है कि कि महामारी से पहले भी दुनिया की अर्थव्यवस्था सुस्त थी। वास्तव में, हाउसिंग के बुलबुले के फूटने के बाद, यानी 2008 के वित्तीय संकट के बाद से दुनिया की वास्तविक अर्थव्यवस्था कभी भी पूरी तरह पटरी पर नहीं लौट पायी थी।

छोटे-मोटे क्षेत्र भी बहुत जल्द ध्वस्त हो गये थे; और संयुक्त राज्य अमेरिका की जिस न्यून बेरोजगारी दरों को 2008 के बाद की न्यून कार्य भागीदारी दर से काफी हद तक समझा जा सकता था, जिसने ट्रंप की जीत को बहुत हद तक आसान कर दिया था। वास्तव में, अगर हम 2020 में उसी कार्य भागीदारी दर (महामारी से पहले) को मान लेते हैं, जैसा कि इस वित्तीय संकट के ठीक पहले स्तर पर थी, तो उस समय अमेरिका में बेरोज़गारी दर 8% से भी उच्च थी, जो कि आधिकारिक आंकड़ों में उल्लेखित दर से 4% कम थी।

यह सुस्त नवउदारवादी पूंजीवाद के उस प्रबंधन का ही एक नतीजा है, जिसने वास्तविक मज़दूरी दरों के घटक को अपरिवर्तित रखते हुए देशों के भीतर और विश्व,दोनों ही स्तरों पर बड़े पैमाने पर उत्पादन में आर्थिक अधिशेष की हिस्सेदारी को बढ़ा दिया है। यहां तक कि श्रम उत्पादकता के इस घटक में भी बढ़ोत्तरी हुई है। अधिशेष की हिस्सेदारी में इस वृद्धि, या मज़दूरी से अधिशेष में इस बदलाव और इसलिए, कुल मिलाकर संपूर्ण मांग ने खपत की वस्तुओं के लिए कुल मांग के स्तर को कम कर दिया है, चूंकि श्रमिक अधिशेष पारिश्रमिक के मुक़ाबले आय की एक इकाई के बाहर अपनी खपत पर ज़्यादा ख़र्च करते हैं।

इसी पृष्ठभूमि में महामारी पैदा हुई है, जिससे कि महामारी ख़त्म हो भी जाती है, तब भी दुनिया उस अति-उत्पादन के संकट में फ़ंसेगी, जिसकी चपेट में वह पहले से थी।

इस संकट से बाहर निकलने के लिए सरकारी ख़र्च का इस्तेमाल ज़रूरी है, बशर्ते कि इस तरह के ख़र्च को पूंजीपतियों पर लगाये जाने वाले करों या वित्तीय घाटे से वित्तपोषित किया जाये। श्रमिकों पर लगाये जाने वाले करों से वित्तपोषित सरकारी ख़र्च इसमें कोई मदद नहीं कर पायेगा, क्योंकि श्रमिक वैसे भी अपनी आय का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा उपभोग कर लेते हैं, ताकि सिर्फ़ सरकारी मांग सकल मांग को शामिल किये बिना ही श्रमिकों की मांग की जगह ले ले।

लेकिन, वित्त पूंजी को न तो राजकोषीय घाटे और न ही पूंजीपतियों को कर भाता है, इसलिए संकट-विरोधी उपाय के रूप में सरकारी ख़र्च को ख़ारिज किया जाता है। इसका मतलब तो यही है कि इस महामारी के ख़त्म हो जाने के बाद भी न सिर्फ़ संकट जारी रहेगा, बल्कि कम से कम जब तक यह नवउदारवादी पूंजीवाद बना रहता है, तबतक तो यह बिना किसी जवाबी उपाय के ऐसा ही करता रहेगा। इसलिए, यह संकट नवउदारवादी पूंजीवाद के लिए एक ऐसी गली का प्रतीक बन गया है, जिसका रास्ता आगे से बंद है।

हालांकि, एक दूसरा कारण यह है कि किसी भी तरह महामारी ख़त्म हो जाती है, तब भी पूंजीवाद किसी न किसी संकट में घिरा ज़रूर रहेगा। इस बात का आधार यह है कि भले ही उपभोक्ता वस्तुओं की मांग उस स्तर तक पटरी पर लौट आये, जहां यह महामारी से पहले थी, तब भी निवेश वस्तुओं का उत्पादन वही रहेगा, जहां वह था। और यही सच्चाई इस बात को भी सुनिश्चित कर देगी कि उपभोक्ता वस्तु उत्पाद उस स्तर पर वापस नहीं आ पायेगा,जिस स्तर पर यह महामारी से पहले था। ऐसा तभी होता है, जब किसी अर्थव्यवस्था को एक बड़ा झटका मिलता है। यह महामारी विश्व अर्थव्यवस्था के लिए उसी तरह का झटका है।

एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। मान लीजिए कि महामारी से पहले अर्थव्यवस्था 2% प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही थी। तब 2% की दर से वृद्धि की उम्मीद कर रहे पूंजीपतियों के पूंजीगत स्टॉक में भी 2% की वृद्धि हो रही होती। अगर पूंजीगत स्टॉक 500 था, आउटपुट 100 था, तो निवेश 10 होता, और खपत 90 होती। मान लें कि कर-पश्चात लाभ और कर-पश्चात मज़दूरी का कुल निजी कर-पश्चात आय में हिस्सा 50:50 है; और यह भी मान लें कि सभी पारिश्रमिक और 75% मुनाफ़े का इस्तेमाल उपभोग में हो जाता है। अगर सरकारी खपत (सरलता के लिए संतुलित बजट मानकर) 20 हो जाती है, तब यह 90 की खपत तीन भागों में विभाजित हो गयी होती, यानी 20 सरकार द्वारा, 30 पूंजीपतियों द्वारा  और 40 श्रमिकों द्वारा।

अब तर्क की ख़ातिर मान लीजिए कि महामारी के बाद, खपत बढ़कर 90 हो जाती है। इसे सभी मौजूदा पूंजी स्टॉक द्वारा उत्पादित किया जा सकता है, जिसमें अतिरिक्त निवेश की ज़रूरत नहीं हो। इसके अलावा, ऐसा कोई कारण नहीं है कि पूंजीपतियों को अगले साल में 2% उत्पादन के बढ़ने की उम्मीद करनी भी चाहिए; इसलिए वे बाक़ी 10 शेयरों को पूंजी स्टॉक में नहीं डालेंगे, जैसा कि उन्होंने महामारी से पहले किया था। आइए हम मान लेते हैं कि वे सिर्फ़ 5 कैपिटल स्टॉक को जोड़ते हैं, और यह देखने के लिए इंतजार करते हैं कि कैपिटल स्टॉक में किसी और को जोड़ने का फ़ैसला लेने से पहले क्या होता है।

ऐसे हालात में दो चीज़ें होंगी। सबसे पहले तो पूंजीगत वस्तु क्षेत्र में उत्पादन महामारी से पहले के उत्पादन का महज़ आधा रह जायेगा। इसी तरह, पूंजीगत वस्तु क्षेत्र में क्षमता उपयोग इस महामारी से पहले की क्षमता उपयोग का आधा रह जायेगा।

दूसरा, 90 की खपत मांग भी नहीं बनी रह सकती। ऊपर जिन अनुपातों की चर्चा की गयी है, उसे मानते हुए, 5 का निवेश, जिसे निजी बचत के बराबर होना चाहिए, उससे 55 (सरकार के 20 + 20 के कुल कर लाभ में से पूंजीपतियों के 15 +श्रमिकों के 20) की कुल खपत मांग पैदा होगी। कुल उत्पादन, 55 की खपत और 5 के निवेश मिलकर सिर्फ़ 60 के बराबर होगी।

इस तरह, विश्व अर्थव्यवस्था में जिस खपत को लेकर हमने 90 तक पहुंचने की कल्पना की थी, वह भी हक़ीक़त नहीं बन पायेगी। उपभोग्य वस्तु क्षेत्र की उपयोग क्षमता महामारी से पहले स्तर का 61% (55 को 90 से विभाजित करने पर) होगा। यह महामारी से पहले की तुलना में निवेश वस्तु क्षेत्र के क्षमता उपयोग के अनुपात से कहीं ज़्यादा होगा (वास्तव में यह पहले से अब सिर्फ़ 50% रह जायेगा)।

पूंजीवादी प्रणाली के किसी भी गंभीर बाहरी झटके का यही प्रभाव होता है, यानी निवेश लंबे समय बाद ही ठीक पटरी पर लौट पाता है, और हालांकि निवेश के पटरी पर लौटने के मुक़ाबले खपत के दुरुस्त होने में कम समय लगता है,लेकिन यह समय फिर भी काफ़ी लंबा होता है।

दूसरे शब्दों में, भले ही महामारी से पहले विश्व पूंजीवाद पर अति-उत्पादन का कोई संकट नहीं होता, तब भी सिर्फ़ महामारी से हुए बाहरी आघात इस व्यवस्था को लंबे समय तक के लिए संकट में तो डाल ही दिया होता। महामारी से पहले मौजूद एक अति-उत्पादन के संकट ने हालात को बदतर बना दिया है।

ये हालात बिल्कुल उसी तरह के हैं,जैसे 1930 की महामंदी से उबरने को लेकर अमेरिका में थे। रूज़वेल्ट की उस न्यू डील के चलते उपभोग वस्तु क्षेत्र ने निवेश वस्तु क्षेत्र की तुलना में अपेक्षाकृत ज़्यादा तेज़ी से रिकवरी की थी, जिसके तहत सरकारी ख़र्चों को बढ़ा दिया गया था। निवेश वस्तु क्षेत्र की रिकवरी तभी हो पायी थी, जब युद्ध की तैयारी में हथियारों पर होने वाले ख़र्चों में बढ़ोत्तरी की गयी थी, इसी चलते कहा जाता है कि उस युद्ध ने महामंदी से रिकवरी को मुमकिन बना दिया था।

लेकिन, उस न्यू डील का मतलब बड़े सरकारी ख़र्चे से था, यही वजह है कि युद्ध से पहले ही कम से कम उपभोग वस्तु क्षेत्र कुछ हद तक ठीक हो गया था। वैश्विक वित्त पूंजी आज किसी भी अर्थव्यवस्था के भीतर बड़े सरकारी ख़र्च की अनुमति नहीं देती है। सिर्फ़ दो ही तरीक़े बच जाते हैं कि इस तरह के ख़र्चों से कुल मांग में बढ़ोत्तरी की जा सके और वे दो तरीक़े हैं-या तो पूंजीपतियों पर कर लगाना या फिर बड़े पैमाने पर राजकोषीय घाटे को बढ़ा देना। इसलिए, उपभोग वस्तु क्षेत्र में भी यह मंदी 1930 के दशक की मंदी से भी ज़्यादा समय तक बनी रहेगी, जिससे विश्व पूंजीवाद बहुत लंबे समय तक संकट में डूबा रहेगा।

भारत जैसी अर्थव्यवस्था में जहां सरकार वित्त पूंजी की हुक्मनामे को बहुत ही शिद्दत से पालन करती हो, वहां तो रिकवरी की संभावनायें बहुत ही धुंधली हो जाती हैं। अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों में से कोई भी उपाय मांग से जुड़े मुद्दे का हल नहीं दे पा रहा है, क्योंकि सरकार यह समझ ही नहीं पा रही है कि यह संकट अपर्याप्त कुल मांग के चलते है।

सही मायने में ये सरकारी उपाय ऐसे हैं कि इससे कुल मांग की कमी में ही बढ़ोत्तरी  होगी, जिससे संकट कम होने के बजाय और बढ़ेगा। हालांकि जैसे-जैसे संकट बढ़ता जयेगा, सरकार और भी ज़्यादा मज़बूती के साथ मेहनतकश लोगों के ख़िलाफ़ दमन का सहारा लेगी, और आगे अपने सांप्रदायिक एजेंडे में भी तेज़ी लायेगी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:

Why the Pandemic Crisis Marks a Dead-end for Capitalism

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