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भारत
राजनीति
आगामी जीटीए चुनावों पर टिकी है दार्जिलिंग हिल्स की राजनीति
भाजपा और उसके सहयोगी जीएनएलएफ के विरोध के साथ यहाँ पर चुनाव एक संवेदनशील मुद्दा बन सकता है, जो इसके ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ के पक्ष में हैं।
रबीन्द्र नाथ सिन्हा
23 Nov 2021
local body poll
प्रतिनिधि तस्वीर।

कोलकाता: दार्जिलिंग हिल्स में आने वाले कुछ हफ़्तों में राजनीतिक रुख गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) के लंबित चुनावों पर टिकी रहने वाली है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 26 अक्टूबर को घोषणा की थी कि 2017 से लंबित पड़े चुनावों को मतदाता सूची के संशोधन का काम पूरा हो जाने के बाद आयोजित किया जायेगा। कुर्सियांग में हुई एक प्रशासनिक बैठक के दौरान उन्होंने कहा था “फिलहाल, मतदाता सूची को संशोधित करने का काम किया जा रहा है। एक बार यह काम संपन्न हो जाने के बाद हम जीटीए चुनावों का रुख करने जा रहे हैं।” राजनीतिक दलों के नेताओं को उम्मीद है कि जनवरी के पहले सप्ताह तक संशोधन का काम पूरा हो जायेगा।

जीटीए का गठन 2012 में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान केंद्र, राज्य सरकार एवं गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) द्वारा हस्ताक्षरित त्रिपक्षीय समझौते के तहत किया गया था। तब तक जीजेएम नेता बिमल गुरुंग, हिल्स में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के प्रमुख सुभाष घीसिंग, जिनके कई वर्षों के निरंतर संघर्ष के परिणामस्वरूप वाम मोर्चा सरकार के तीसरे कार्यकाल के दौरान 1988 में दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) का गठन किया गया था, को अपदस्थ कर प्रमुख राजनीतिज्ञ के तौर पर उभर चुके थे।  

चुनावों को संपन्न कराए जाने की जरूरत पर आपस में विभाजित विभिन्न राजनीतिक दलों की वजह से यह चुनाव एक संवेदनशील मुद्दा बन सकता है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उसके सहयोगी दल के तौर पर जीएनएलएफ के विचार में जीटीए प्रयोग अपने योगदान में विफल रहा है। इनके द्वारा चुनावों का विरोध किया जा रहा है, इसके स्थान पर वे इसका एक ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ (पीपीएस) चाहते हैं, जो पहाड़ के लोगों को संसद की मंजूरी के साथ संविधान के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत पर्याप्त रूप से सशक्त बना सकता है।

वहीँ दूसरी ओर, अधिकांश राजनीतिक दलों का मानना है कि इन चुनावों के जरिये जमीनी स्तर पर लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सकता है, भले ही यह सीमित अर्थों में हो, और साथ ही विकास योजनाओं की योजना एवं क्रियान्वयन में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित कर पाना संभव हो सकेगा। 2000 के बाद से एक भी ग्राम पंचायत चुनाव आयोजित नहीं किये जाने की वजह से उन्हें लगता है कि इन चुनावों के माध्यम से प्रशासन में स्थानीय लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सकता है।

चुनाव समर्थकों का यह भी मानना है कि बहु-प्रचारित पीपीएस को लेकर बेहद भ्रामक स्थिति बनी हुई है और किसी को भी इसकी रुपरेखा के बारे कोई जानकारी नहीं है। बनर्जी ने भी राज्य के विभाजन/ केंद्र शासित क्षेत्र के गठन की मांग का कड़ा विरोध करते हुए पीपीएस का समर्थन किया है।

चुनाव कराये जाने को लेकर मतभेदों के अलावा, दार्जीलिंग हिल्स के राजनीतिक हालात का भी एक दिलचस्प पहलू है। गुरुंग और जीजेएम, जो शुरू से ही भाजपा समर्थक रहे हैं, ने कुछ महीने पहले ही पाला बदलते हुए टीएमसी को अपना समर्थन दिया था। जीजेएम गुट के नेता बिनोय तमांग और अनित थापा, जिन्होंने गुरुंग से किनारा कर लिया था, वे भी अब टीएमसी के समर्थक हैं। इन तीनों नेताओं ने आधिकारिक रूप से कहा है कि भाजपा से उनका मोहभंग हो चुका है, और उन्होंने बनर्जी और टीएमसी को भरोसेमंद पाया है।

कुछ हफ्ते पहले ही थापा ने भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) के अध्यक्ष तौर पर अपनी नई पारी शुरुआत की है और कार्यकर्त्ता अमर लामा को महासचिव के तौर पर नियुक्त किया है। तमांग ने सार्वजनिक तौर एक नया संगठन खड़ा करने के संकेत देते हुए अपने बयान में कहा था कि वे जल्द ही “अपने राजनैतिक जीवन के तीसरे चरण” की शुरुआत करने जा रहे हैं। वरिष्ठ राजनीतिज्ञ अजय एडवर्ड्स, जिन्होंने हाल ही में जीएनएलएफ का साथ छोड़ा है, की ओर से भी एक नई पार्टी की शुरुआत किये जाने के संकेत मिले हैं।

ऐसे में कई अनुत्तरित प्रश्न रह जाते हैं: क्या टीएमसी जीटीए चुनाव लड़ेगी? यदि बनर्जी कहती हैं तो क्या गुरुंग चुनाव लड़ेंगे? जन आंदोलन पार्टी के नेता हरकबहादुर छेत्री का क्या रुख रहने वाला है, जो संयुक्त जीजेएम से नाता तोड़ने से पहले लंबे समय तक इसके प्रवक्ता रहे हैं? क्या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) चुनाव लड़ेगी? क्या कांग्रेस पार्टी जीटीए चुनावों को अपनी दृष्टि में रख रही है? 

चुनावों में अपनी स्पष्ट छाप छोड़ पाने को ध्यान में रखते हुए कई राजनीतिक दल एक बार फिर से संगठित या आपस में विलय कर सकते हैं। थापा की बीजीपीएम, जिसका शुभारंभ 9 सितंबर को किया गया था, के लिए यह चुनावी गोता एक अवसर के रूप में हो सकता है। उन्होंने इस कार्यभार को पार्टी के मुख्य समन्वयक अनुभवी राजनीतिज्ञ तिलक चंद रोका के जिम्मे सौंपा है। यह पूछे जाने पर कि हिल्स की राजनीतिक स्थिति को वे कैसे देखते हैं, पर रोका का कहना था कि जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रकिया में भागीदारी से इंकार किये जाने के चलते आम लोग अधीर हो चुके हैं। 

आगामी अवसर को गंभीरता से लेते हुए बीजीपीएम खुद को जीटीए में सत्ता के लिए एक गंभीर दावेदार के तौर पर स्थापित करने की इच्छुक है। रोका ने कहा “हम सभी 45 सीटों के लिए उम्मीदवारों को खड़ा करने जा रहे हैं, और इसके लिए हम महिलाओं, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग के कार्यकर्ताओं को नामित करेंगे। हम मतदाताओं के दृष्टिकोण को भांपने की कोशिश कर रहे हैं और संभव है कि हम कुछ छोटे गुटों को अपनी छत्रछाया में लाने में कामयाब हो जाएँ।”

जीएनएलएफ की दार्जिलिंग ईकाई के महासचिव, संदीप लिम्बू को भी लगता है कि विकास की प्रकिया में सार्थक भूमिका के लिए आम लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं को नजरअंदाज कर दिया गया है। लेकिन भाजपा के सहयोगी जीएनएलएफ द्वारा जीटीए और चुनावों के विचार का विरोध किया जा रहा है। उन्होंने कहा “एक अवधारणा और एक राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर डीजीएचसी के स्थान पर जीटीए पूरी तरह से असफल साबित हुई है। हम इसे असंवैधानिक करार देते हैं क्योंकि इसे राज्य अधिनियम के तहत गठित किया गया था। घीसिंग ने जीटीए अधिनियम को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि इसकी क़ानूनी वैधता के लिए संविधान में ‘गोरखा क्षेत्रीय प्रशासन’ शब्द को ‘दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल’ से तब्दील कर दिया जाना चाहिए।

इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, 15 सितंबर, 2012 को कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक सुनवाई के दौरान, केंद्र ने स्वीकारा था कि इस अधिनियम को लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधन की जरूरत है और इस संबंध में एक विधेयक जल्द ही संसद में पेश किया जायेगा। लिम्बू ने कहा कि यह मामला अभी भी विचाराधीन है, और उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा कि उनकी पार्टी “जीटीए चुनावों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को आयोजित करेगी। हम संविधान के तहत पीपीएस की अपनी मांग पर अडिग हैं।”

जीएनएलएफ प्रवक्ता महेंद्र छेत्री ने कहा है कि लोग संविधान के तहत एक स्थिर व्यवहारिक व्यवस्था को वरीयता देते हैं। उनका कहना था कि ऐसे “ढेर सारे मसले लंबित पड़े हैं।” उन्होंने इस सन्दर्भ में 11 जनजातियों- भुजेल, गुरुंग, मंगर, नेवार, जोगी, खस, राय, सुनुवार, थामी, यक्का (देवान) और धीमाल को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने में “अत्यधिक देरी” का जिक्र किया। उनके अनुसार “1931 की जनगणना में उनके पास जनजाति का दर्जा हासिल था। हम राजनीतिक तौर पर जीटीए चुनावों के विरोध में हैं।”

यह पूछे जाने पर कि क्या क्या टीएससी जीटीए चुनावों हिस्सा लेने जा रही है, पर पार्टी की दार्जिलिंग जिला प्रमुख पापिया घोष का कहना था, “यदि ममता हमें कहेंगी तो हम चुनाव लड़ेंगे। फिलहाल, हम अपना सारा समय और उर्जा दार्जीलिंग ईकाई को मजबूत करने में लगा रहे हैं। ढेर सारे लोगों ने टीएमसी की सदस्यता के लिए आवेदन किया है, लेकिन हम चुनिंदा लोगों को ही सदस्यता दे रहे हैं। सिर्फ उन्हीं जिम्मेदार आवेदकों को सदस्यता दी जा रही है जिनके पास राजनीतिक कामकाज का रुझान है। हमें चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की आई-पीएसी से आवश्यक मदद प्राप्त हो रही है।”

अखिल भारतीय गोरखा लीग (भारती तमांग कैंप) के महासचिव, शक्ति प्रसाद शर्मा ने कहा कि उनकी पार्टी जीटीए चुनावों के विरोध में नहीं है। अपनी पार्टी की चुनाव लड़ने की संभावनाओं को दरकिनार करते हुए उन्होंने कहा, “2017 में पहला कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद से जीटीए को प्रशासकों के द्वारा चलाया जा रहा है। यह सब बंद होना चाहिए और मतदाताओं का भरोसा अर्जित करने वाले किसी राजनीतिक दल को आम लोगों के हित में जीटीए को चलाना चाहिए, जो इस अस्थाई व्यवस्था से आजिज आ चुके हैं।” हालाँकि उनकी पार्टी ऐसे संगठन को अपना समर्थन दे सकती है “जिसके बारे में हमें लगता है कि यह लोकतंत्र और लोगों के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध है।” उनका कहना था कि “हमें दार्जिलिंग को बहस और चर्चा के ढर्रे पर लौटने का इंतजार है।”

लेखक कोलकाता के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Politics in Darjeeling Hills Hinges on Upcoming GTA Polls

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