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भारत
राजनीति
पत्रकारिता की प्रभाष परंपरा की प्रासंगिकता
पुण्य तिथि पर विशेष: प्रभाष जोशी की परंपरा सिर्फ लोकभाषा में एक अच्छा अखबार निकालने की ही नहीं है। उनकी पंरपरा 1857 की है जहां आजादी की लड़ाई में साझी विरासत और साझी शहादत है। उनकी परंपरा गांधीवाद की है। उनकी परंपरा आंदोलन की है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
05 Nov 2020
प्रभाष जोशी

आज हिंदी पत्रकारिता की दिशा बदल देने वाले प्रभाष जोशी की पुण्य तिथि है। आज ही के दिन रात में क्रिकेट मैच देखते हुए हैदराबाद में सचिन तेंदुलकर के आउट होने पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका पेस मेकर जवाब दे गया। उसके बाद उसे चालू नहीं किया जा सका और इस तरह क्रिकेट के एक दीवाने लेखक और हिंदी के विलक्षण संपादक का अंत हो गया।

सचिन तेंदुलकर ने इस खबर पर अफसोस जताया था। प्रिंट मीडिया के एक हिंदी संपादक का कद इतना बड़ा हो सकता है उसका अहसास दूसरे दिन हुआ जब महज दो एकड़ की जनसत्ता सोसायटी में तिल रखने की जगह नहीं थी और हम लोगों को अपनी गाड़ियां निकालना कठिन हो गया। शायद ही राजधानी का हिंदी और अंग्रेजी का कोई बड़ा- छोटा पत्रकार उनके दर्शन के लिए न आया हो। जो सोसायटी नहीं आ पाए वे गांधी शांति प्रतिष्ठान उनके अंतिम दर्शन के लिए आए और जो यहां नहीं जुटे वे इंदौर में पहुंचे जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया।

पत्रकारिता में प्रभाष जोशी के दो बड़े योगदान हैं। एक तो उन्होंने भाषा, साज सज्जा और सामग्री के लिहाज से हिंदी का ऐसा अखबार निकाला जिसने एकदम नई जमीन तोड़ी। इसे हम शिल्प संबधी योगदान कह सकते हैं। दूसरा योगदान है लोकतांत्रिक विचार संबंधी। उन्होंने एक ऐसे अखबार को खड़ा किया जहां हर प्रकार के विचार को फलने फूलने का मौका दिया।

मुझे याद है 1988 में जनसत्ता ज्वाइन करने से पहले हम लोग लखनऊ में जनसत्ता का सस्वर पाठ करते थे, कुछ मित्रों के साथ बैठकर और उनमें से कई मित्र कुछ समय बाद दिल्ली आकर जनसत्ता के पत्रकार बने। तब हिंदी में चाणक्य फांट में छह कालम का हिंदी का अखबार नहीं था और जनसत्ता ने लेआउट में एक नया प्रयोग करके आठ कालम के हिंदी अखबारों को चौंका दिया। हालांकि जनसत्ता में उसके नाते विज्ञापन लगाने में बड़ी दिक्कत आती थी। जनसत्ता ने बोलचाल की ऐसी भाषा चलाई जो हिंदी पत्रकारिता में दुर्लभ थी।

मुहावरों और लोकोक्तियों का खुलकर प्रयोग किया गया जिससे अखबार बेहद पठनीय बना। एक तरह से अखबार अपने पाठकों से सीधे बात करता था। शायद ही इससे पहले हिंदी पत्रकारिता में इतनी रचनात्मक, सीधी, सरल और चोट करने वाली भाषा लिखी जाती थी। उन्होंने अखबार में `द्वारा’ शब्द के प्रयोग को प्रतिबंधित कर रखा था और लोगों को इस बात का अभ्यास करना पड़ता था कि बिना द्वारा का प्रयोग किए हुए कोई वाक्य कैसे बनाया जाए। कई बार जनसत्ता के साथी एक दूसरे से मजाक में पूछते थे कि गुरुद्वारा और नाथद्वारा में द्वारा शब्द का प्रयोग किया जाए या नहीं। इसी तरह किसी के पूरे नाम में जनसत्ता श्री नहीं लगाता था।

`श्री’ तभी लगाया जाता था जब उसका उपनाम लिखा जाए। साथी मजाक करते थे कि अंदर के स्टाफ श्रीश मिश्र और श्रीभगवान सुजानपुरिया के नाम में श्री लगाया जाए या नहीं। लेकिन भाषा के इस प्रयोग के साथ प्रभाष जोशी की खासियत यह थी कि वे अपनी आलोचना को भी बर्दाश्त करने की क्षमता रखते थे। उसके लिए उन्होंने चौपाल जैसा कालम शुरू किया था। आलोचना वे भाषा जैसे अपने प्रिय प्रयोग की भी सुनने को तैयार रहते थे।

जब जनसत्ता होली पर मजाक करते हुए झूठी खबरों से भरा अखबार निकालता था तो सन 1989 में होली के दिन पेज दो पर लगभग पूरे पेज का एक लेख छपा जिसका शीर्षक था `और कुछ छींटे अपने पर भी’। उसमें एक लेखक ने जनसत्ता की मुअत्तल और बर्खास्त जैसी उर्दू प्रभावित भाषा का मजाक उड़ाया था। संयोग से उस लेख में लेखक का नाम नहीं जा पाया था। बाद में छपा तो पाठकों को पता चला कि उसके लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक आशुतोष मिश्र थे।

जनसत्ता की भाषा पर अगर टिप्पणी की जाए तो उसमें डा राम मनोहर लोहिया जैसे राजनेता, भवानी प्रसाद मिश्र जैसे कवि, रामविलास शर्मा, आचार्य किशोरी दास वाजपेयी और दलित लेखक डा धर्मवीर जैसे भाषाविदों की पूरी छाप मौजूद थी। अगर डॉ लोहिया की देसज राजनीतिक भाषा में जनसत्ता खबरें और विश्लेषण लिखता था तो भवानी बाबू की वह पंक्ति जनसत्ता पर चरितार्थ बैठती थी कि `जैसा तू  बोलता है वैसा तू लिख, जैसा तू सोचता है वैसा तू दिख’।

इसी तरह रामविलास शर्मा का `भाषा और समाज’ और आचार्य किशोरी दास वाजपेयी का `हिंदी शब्दानुशासन’ जनसत्ता की भाषा और व्याकरण की संचालन शक्ति बना हुआ था। बाद में जब इस लेखक ने डा धर्मवीर की `हिंदी की आत्मा’ पढ़ी तो लगा कि जनसत्ता तो वही प्रयोग कर रहा है जो डा धर्मवीर सुझा रहे हैं।

वैसे तो पूरे जनसत्ता पर प्रभाष जोशी की भाषा की छाप थी लेकिन उनकी अपनी भाषा बेजोड़ थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कबीर वाणी के डिक्टेटर थे। भाषा उनके आगे कुछ लाचार सी लगती थी। वे उससे जो चाहते थे कहलवा लेते थे। बन गया तो सीधे सीधे नहीं तो दरेरा देकर।

कुछ ऐसी ही बात प्रभाष जोशी के बारे में कही जाती थी। कानपुर से आने वाले जनसत्ता के कई साथी तो प्रभाष जोशी की भाषा पर आपत्ति करते हुए कहते थे उनकी हिंदी में कई अशुद्धियां होती हैं। क्योंकि कानपुर के लोग मानते हैं कि हिंदी पत्रकारिता में मानक हिंदी वे ही लिखते हैं। लेकिन प्रभाष जोशी की वही भाषा लोकप्रिय हुई और उसी से जनसत्ता परवान चढ़ा।
 
जनसत्ता अखबार की खासियत यह थी कि वह आंदोलन से निकला हुआ अखबार था और उसमें विभिन्न आंदोलनों से आए हुए लोग पत्रकारिता कर रहे थे। कोई नक्सली, कोई कम्युनिस्ट, कोई सर्वोदयी, कोई समाजवादी, तो कोई संघी धारा से निकल कर जनसत्ता की पत्रकारिता कर रहा था। इसीलिए कुछ लोग जनसत्ता को मानव बम कहते थे तो कुछ लोग खाड़कू।

इन सभी को अपने अपने नजरिए को रखने और उन आंदोलनों पर खबरें लिखने का पूरा अधिकार था। एक तरफ इंडियन एक्सप्रेस का व्यवस्था विरोधी तेवर और दूसरी ओर विभिन्न आंदोलनों के प्रति जनसत्ता की संवेदनशीलता, यह सब मिलकर जनसत्ता अखबार को लोकतांत्रिक परंपरा का विशिष्ट अखबार बनाते थे।

प्रभाष जी की विशेषता यह थी कि वे अपने साथियों पर अपने विचार थोपते नहीं थे। अगर उसी अखबार में वे स्वयं सांप्रदायिकता के विरोध में लिखते थे तो उनके कई साथी हिंदूवादी लेखन भी करते थे। इससे अखबार तो संतुलित होता ही था साथ ही प्रभाष जोशी की अपनी विचारधारा की स्पष्टता भी बनी रहती थी।

लेकिन इसी चक्कर में प्रभाष जोशी एक बार बुरे फंसे। सितंबर 1987 में राजस्थान के सीकर जिले के देवराला गांव में रूपकंवर नाम की एक युवती सती कर दी गई। उसके विरुद्ध पूरे देश में आक्रोश पैदा हुआ। लेकिन जनसत्ता ने संपादकीय लिखकर उस प्रथा को सही ठहराया।

संपादकीय में लिखा गया कि कुछ आधुनिकतावादी लोग इस पर हल्ला मचा रहे हैं। वे इस समाज और उसकी परंपरा को जानते नहीं हैं। यह संपादकीय जनसत्ता पर भारी पड़ा। पूरे देश में सती प्रथा के साथ ही जनसत्ता अखबार का भी विरोध हुआ।

लखनऊ में अमृलाल नागर के नेतृत्व में हुए एक विरोध में यह लेखक भी शामिल हुआ। दिल्ली में दूसरे दिन कई महिला संगठनों की महिलाएं संपादक के कार्यालय में घुस गईं और उन्होंने संपादक की मेज पर बैठकर हंगामा मचाया। कई प्रगतिशील और वामपंथी लेखकों ने जनसत्ता में न लिखने का संकल्प लिया। प्रभाष जोशी जहां भी जाते थे उन्हें सती प्रथा के समर्थन का संपादकीय घेरे रहता था।

लोग उनसे इस मसले पर सवाल करते थे। हालांकि प्रभाष जोशी ने अपनी जिद के मुताबिक न तो उस संपादकीय को वापस लिया और न ही उसे लिखने वाले अपने सहयोगी पर कार्रवाई की। उल्टे बनवारी ने संपादकीय पेज दो तीन किस्तों में लेख लिखकर यूरोप से आए नारीवादी आंदोलनों को बहुत कोसा। इस मामले पर काफी विवाद हुआ और जनसत्ता की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। लेकिन प्रभाष जोशी ने धीरे धीरे उस विरोध को ठंडा हो जाने दिया और उससे हुई बदनामी को अपनी प्रतिष्ठा के बूते झेल लिया।

जिस प्रकार इंडियन एक्सप्रेस अपनी खबरों के कारण खबरों में रहने वाला अखबार था उसी तरह जनसत्ता भी अपनी टिप्पणियों और खबरों के कारण विवाद में रहने वाला अखबार था। जनसत्ता जब भी घिरता था तो न तो माफी मांगता था और न ही अपने संवाददाता और संपादकीय सहयोगी पर कार्रवाई करता था। वह जमकर मोर्चा लेता था।

प्रभाष जोशी कहते भी थे कि खबर वह जो हम लिखते हैं। इसी हेकड़ी के साथ वे खुद भी रहते थे और उनके साथी भी। हालांकि कई बार वह खबर समाज को आहत करने वाली होती थी। एक बार साहिबाबाद में सफदर हाशमी की हत्या के बाद एक संवाददाता से कुछ कलाकारों का पंगा हो गया। उसके बाद जनसत्ता ने उस कांड में मारे गए रामबहादुर नामक नेपाली मजदूर का मामला उठा दिया और आरोप लगाया कि सफदर का सवाल उठाने वाले वामपंथी संगठन से जुड़े कलाकार उस गरीब की बात ही नहीं कर रहे हैं।

वामपंथियों से टकराने में जनसत्ता के दक्षिणपंथी पत्रकार काफी आगे थे। प्रभाष जोशी ने सफदर की शहादत को मुद्दा बना रहे लोगों के खिलाफ लिखा—-क्या हल्ला बोलेंगे ये हल्ला करने वाले। प्रभाष जोशी अतिरिक्त रूप से भावुक थे और उस भावना में क्रिकेट और राजनीति पर लिखते समय अपनी सारी संवेदनाएं निचोड़ कर रख देते थे। जनसत्ता के एक साथी तो कहा करते थे कि प्रभाष जी अपना कलेजा निचोड़ देते हैं।

सचिन तेंदुलकर के समर्थन में अपना कलेजा निचोड़ते हुए प्रभाष जोशी ने एक बार लिखा कि वे जिस धैर्य के साथ खेलते हैं वेसा धैर्य तो ब्राह्मणों में ही हो सकता है। उनकी इस टिप्पणी पर काफी विवाद हुआ। प्रभाष जोशी को ब्राह्मणवादी कहा गया। इसी तरह कई बार क्रिकेट पर उनकी टिप्पणी जातिवादी ही नहीं सांप्रदायिक भी हो जाती थी।

उन्होंने एक बार लिखा—और श्रीकांत के इडली डोसा ने इमरान खान के मुर्ग मुसल्लम में भुस भर दिया। उनमें राष्ट्रवाद भी कई बार चरम पर पहुंच जाता था। जैसे कि पंजाब समस्या के दौरान। इंदिरा गांधी की हत्या पर भी जनसत्ता ने राष्ट्र राज्य की गंभीर चिंता की। लेकिन सिखों के खिलाफ हुए दंगों की जबरदस्त रिपोर्टिंग करके जनसत्ता ने यह साबित किया कि उसके भीतर अच्छी पत्रकारिता का डीएनए मौजूद है।  
   
प्रभाष जोशी ने अपनी पत्रकारिता के दौरान सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से जिन तीन बड़ी चुनौतियों का सामना किया वे थीं सांप्रदायिकता, वैश्वीकरण और मंडल आयोग के माध्यम से होने वाला सामाजिक न्याय का आंदोलन। प्रभाष जोशी मंडल आयोग की रिपोर्ट के उस तरह से समर्थक नहीं थे जिस तरह से नवभारत टाइम्स के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह थे।

लेकिन उन्होंने उस तरह से उसका विरोध भी नहीं किया जिस तरह से इंडियन एक्सप्रेस के संपादक अरुण शौरी ने किया। उन्होंने एक संतुलन कायम किया और मंडल विरोध में आत्मदाह जैसे घृणित कार्य के लिए युवाओं को कतई नहीं उकसाया। लेकिन प्रभाष जोशी जिन दो अभियानों के लिए याद किए जाएंगे वे अभियान हैं पूंजी के वैश्वीकरण की आलोचना और हिंदू सांप्रदायिकता से टकराव।

यह विडंबना है कि प्रभाष जोशी के कई घनिष्ठ सहयोगी हिंदू सांप्रदायिकता के समर्थक रहे हैं। वे लोग जनसत्ता में बड़े पदों पर भी रहे और आज जब हिंदू कट्टरता अपने चरम की ओर जा रही है तब वे प्रभाष जोशी की परंपरा की रक्षा का सबसे ज्यादा दावा कर रहे हैं।

संयोग से वे लोग या तो मौजूदा सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर हैं या फिर सरकार के सहयोग से कमाऊ मीडिया के सरताज हैं। जिन्हें भी 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद प्रभाष जोशी की जनसत्ता में पहले पेज पर की गई टिप्पणी याद है वे प्रभाष जोशी की असली परंपरा को कैसे भूल सकते हैं।

उन्होंने सात दिसंबर 1992 को पहले पेज पर लिखा था `राम की अग्निपरीक्षा’। इस शीर्षक में कैफी आजमी और कुंवर नारायण की अयोध्या पर बाद में लिखी गई कविता की पंक्तियां ध्वनित होती हैं। हालांकि अंग्रेजी अखबारों ने भी बाबरी मस्जिद विध्वंस के विरोध में लिखा था लेकिन उनका वैसा असर नहीं हुआ जैसा प्रभाष जोशी के लेखन का हुआ।

इसके बाद जनसत्ता से अलग अलग कारणों से खिंचे रहने वाले कई वामपंथी बौद्धिक और लेखक प्रभाष जोशी के फैन हो गए। वे अपने कार्यक्रमों में उन्हें बुलाने लगे और उनकी बात सुनने लगे। उनमें से कई लोगों ने प्रभाष जी ने निधन पर संकलन निकाले।

उसके बाद प्रभाष जोशी निरंतर सांप्रदायिकता विरोधी लेखन करते रहे और जगह जगह बोलते रहे। इसका प्रमाण उनका महत्वपूर्ण ग्रंथ `हिंदू होने का धर्म’ है। उनकी खासियत यह थी कि वे संघ की सांप्रदायिकता पर सच्चे हिंदू होकर प्रहार करते थे और यह आघात संघ वालों को ज्यादा जोर से लगता था। वैसे जैसे गांधी का आघात उनसे सहन नहीं हुआ।

उन्होंने कहा भी था कि भारतीय समाज इतना जटिल और विशाल है कि यहां संघ भी ज्यादा से ज्यादा एक पंथ होकर रह जाएगा। वह पूरे समाज को कट्टर और सांप्रदायिक नहीं बना पाएगा। शायद उन्हें अपने समाज पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था। उनके इस हमले से तिलमिललाए संघ के लोग कहा करते थे कि दरअसल प्रभाष जी के ऐसा कहने और लिखने के दो कारण हैं।

एक तो यह कि वे निखिल चक्रवर्ती और दूसरे लोगों के साथ कारसेवा के मौके पर सरकार और संघ के बीच समझौता कराने वाले लोगों में थे। विहिप ने वादा करके भी उनकी बात नहीं मानी और वे चिढ़ गए। दूसरा कारण यह बताया जाता था कि वे राज्यसभा में जाना चाहते थे लेकिन भाजपा ने उन्हें भेजा नहीं और वे उससे बदला लेने लगे।

पहला आरोप तो एक हद तक सही हो सकता है लेकिन दूसरा आरोप बहुत हल्का है जो प्रभाष जोशी जैसे लिखने पढ़ने और भाषण देने में मगन रहने वाले पत्रकार पर चिपकते नहीं। वे सर्वोदयी धारा से निकले आंदोलनकारी थे और आंदोलन करते करते पत्रकारिता में आ गए थे। लेकिन उन्होंने जनांदोलनों से नाता कभी तोड़ा नहीं था। चाहे मेधा पाटकर का नर्मदा आंदोलन हो, अरुणा राय का तिलोनिया आंदोलन हो या वैश्वीकरण के विरुद्ध आजादी बचाओ या दूसरे आंदोलन हों, प्रभाष जी उसमें हिस्सेदारी करते थे और अपना पूरा समय देते थे।

यह टिप्पणीकार सन 1988 से 1998 तक जनसत्ता में काम करते हुए कभी भी उनका करीबी नहीं रहा। न ही किसी बड़े पद पर रहा। इस नाते उनसे थोड़ी दूरी ही रखता था और कई बार उनकी आलोचना भी करता रहता था। लेकिन वे अपने करीबियों के घेरे से बाहर जाकर उन लोगों को भी अपने से जोड़ लेते थे जिनमें उनकी विचारधारा मौजूद रहती थी।

उनके साथ दिल्ली, मेरठ, इंदौर जैसे कई शहरों में कई मंचों पर उपस्थित रहा और अपनी बात रखने का मौका मिला। कोई भी व्यक्ति अगर देशभक्ति और धर्मनिरपेक्षता की बात को दमदार तरीके से रखता था तो इससे प्रभाष जोशी प्रसन्न होते थे। उनके साथ आखिरी यात्रा मेरठ की हुई और उस समय उनका एक हाथ फ्रैक्चर था। लेकिन सत्तावन के इतिहासकार अमरेश मिश्र, जनस्वास्थ्य से जुड़े डा एके अरुण और इस लेखक के साथ छोटी सी आल्टो गाड़ी में वे गए और विश्वविद्यालय में भाषण करने के बाद रात को आठ बजे तक मेरठ के एक चौराहे पर 1857 से जुड़े कार्यक्रम में जमे रहे। भले पीछे बह रहे गंदे नाले के उन्हें मच्छर काटते रहे। उस कार्यक्रम में शम्शुल इस्लाम और नीलिमा शर्मा के निशांत नाट्य मंच ने भी भागीदारी की थी।

जाहिर है कि प्रभाष जोशी की परंपरा सिर्फ लोकभाषा में एक अच्छा अखबार निकालने की ही नहीं है। वे एक उच्च कोटि के कम्युनिकेटर हैं और अपने समाज के हितैषी और चिंतक। विवादों के बावजूद उनकी परंपरा अपने समाज को कट्टरता से बचाते हुए निरंतर उदार बनाए रखने की है। उनकी परंपरा देशभक्ति की है जिसमें विदेशी पूंजी से आक्रमण से देश और उसके किसानों, मजदूरों और उद्योगों की बचाने की छटपटाहट है।

उनकी पंरपरा 1857 की है जहां आजादी की लड़ाई में साझी विरासत और साझी शहादत है। उनकी परंपरा गांधीवाद की है। उनकी परंपरा आंदोलन की है। उनकी पत्रकारिता की परंपरा स्वाधीनता संग्राम की तरह सत्ता से टकराने की है। यहीं एक बात साफ होनी चाहिए कि उनकी परंपरा सत्ता से सटकर लाभ लेते रहने की नहीं है।

आज भारतीय पत्रकारिता उनकी परंपरा से विचलित हो गई है। वह सत्ता की ओर से चीखने चिल्लाने वाले अर्णव गोस्वामियों के हाथ में चली गई है। देखना है वह कैसे अपने ढर्रे पर वापस आती है। उसे वापस लाने का कोई भी प्रयास उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Prabhash Joshi
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