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भारत
राजनीति
बंगाल में भाजपा के मायने- हिंदू राष्ट्र की ओर एक और क़दम
“पिछले 50 सालों में मोटे तौर पर बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति नहीं रही। अब जो बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति की नई प्रजाति आई है, वह राज्य के बाहर से आई है। उत्तर भारत में जिस तरह की सांप्रदायिक राजनीति है, वह पश्चिम बंगाल में पहुंच गई है।”
दिपांजन सिन्हा
21 Apr 2021
Translated by हिमांशु शेखर
 बंगाल में भाजपा के मायने- हिंदू राष्ट्र की ओर एक और क़दम

जाने-माने राजनीति विज्ञानी, कोलकाता स्थिति सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक और कोलंबिया विश्वविद्यालय में एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर पार्था चटर्जी से पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव, प्रदेश में एक बार फिर से सांप्रदायिक राजनीति के उभार और इस चुनाव के परिणामों से पड़ने वाले असर के बारे में स्वतंत्र पत्रकार दिपांजन सिन्हा ने लंबी बातचीत की। यहां प्रस्तुत है इसके संपादित अंशः 

दिपांजन सिन्हा: हाल तक ये कहा जाता था कि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा बंगाल और बंगालियों से मेल नहीं खाती। अब यह दावा किया जा रहा है कि भाजपा की राजनीति के लिए बंगाल में जगह है। ऐसे में सही कौन है और जो कहा जा रहा है, उसमें सच क्या है?

पार्था चटर्जी: भाजपा के मुताबिक हिंदू महासभा के सदस्य रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले जनसंघ (इससे ही बाद में भाजपा बनी) की स्थापना की थी। बहुत लोग भूल गए हैं कि महात्मा गांधी के निधन के वक्त जवाहरलाल नेहरू की सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी कैबिनेट मंत्री थे और उस वक्त देश के आम लोगों में हिंदू राष्ट्रवादियों के खिलाफ एक भावना थी। क्योंकि ऐसे ही कुछ लोगों का संबंध जनवरी, 1948 में हुई गांधी की हत्या से था। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा था। उस वक्त यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि हिंदू महासभा भारतीय संविधान का समग्रता से समर्थन करती है या नहीं। संघ पूरी तरह से भारत के संविधान के खिलाफ था। इसके सदस्य संविधान का समर्थन नहीं करना चाहते थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा की इस राय को नरम करने की कोशिश की लेकिन वे नाकाम रहे। इसके बाद उन्होंने अलग राजनीति दल भारतीय जनसंघ 1951 में बनाया। इसका सांगठनिक काम देखने वाले लोग संघ से थे। इसके गठन के कुछ ही समय बाद 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का निधन हो गया।

तब से ही संघ, जनसंघ और बाद में भाजपा के लिए बंगाल की राजनीति में कोई जगह नहीं रही। हालांकि, आजादी के पहले हिंदू महासभा के कुछ प्रमुख नेता बंगाल से थे। लेकिन आजादी के बाद इन संगठनों के लिए बंगाल में कोई स्थान नहीं रहा। हालांकि, बंगाल के कुछ हिस्सों में संघ की शाखा लगती थी लेकिन इस संगठन को जन समर्थन कभी नहीं मिला।

दिपांजन सिन्हा: हिंदू राष्ट्रवादी संगठन बंगाल में आख़िर इतने कमज़ोर क्यों हो गए?

पार्था चटर्जी: इसकी दो वजहें रही हैं। हिंदू महासभा का बंटवारे के पहले अधिक प्रभाव था। क्योंकि उस वक्त बंगाल की राजनीति काफी सांप्रदायिक हो गई थी। 1930 के दशक के आखिरी सालों से लेकर 1947 में आजादी तक हम देखते हैं कि बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति रही है। एक तरफ मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग की जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस ने मध्य मार्ग अपनाया क्योंकि पार्टी अपने मुस्लिम समर्थकों को नाराज नहीं करना चाहती थी। ऐसे वक्त में हिंदू महासभा ने हिंदू सांप्रदायिक आंदोलन को मुस्लिम सांप्रदायिकता के खिलाफ नेतृत्व देने का काम किया। बंटवारे के बाद बंगाल में मुस्लिमों के लिए अलग राजनीतिक संगठन नहीं बचा क्योंकि इस समुदाय के अधिकांश नेता पूर्वी पाकिस्तान चले गए थे। जो मुस्लिम पश्चिम बंगाल में रहे, उनमें से अधिकांश किसान थे। मालदा, मुर्शिदाबाद और नादिया जैसे जिलों में ये लोग रहे और अब भी हैं। राजनीति में हिस्सा लेने वाले मध्य वर्ग के अधिकांश मुस्लिम लोग पाकिस्तान चले गए थे।

आजादी के बाद सांप्रदायिकता ने अपना महत्व खो दिया और सांप्रदायिक राजनीति बहुत मजबूत नहीं रही। इसके बदले बंगाल की राजनीति में शरणार्थियों की मदद को लेकर चला आंदोलन राजनीति में अहम बन गया। कोलकाता के आसपास शरणार्थी कॉलोनियां विकसित हुईं। इन लोगों ने मांग की कि जिस जमीन पर वे बसे हैं, उसके स्वामित्व से संबंधित कानूनी दस्तावेज उन्हें मिलने चाहिए। हालांकि, ये आधिकारिक शरणार्थी शिविर नहीं थे। वामपंथी लोगों ने जो अभियान चलाया, उसके मूल में यह मांग थी। बाद में इसमें से अधिकांश नेता पार्टी टूटने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई से सीपीआई-एम में चले गए। 1960 के दशक में चले खाद्य आंदोलन और सीपीआई-एम के नेता ‘शरणार्थी आंदोलन’ से निकले। 1960 के दशक के अंत तक कई आर्थिक मांगें उठने लगीं, नक्सलवादी प्रदर्शन करने लगे, किसानों का आंदोलन तेज हुआ और इन सबने बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति की जगह ले ली।

बंगाल में 1950 के दशक में कई सांप्रदायिक दंगे हुए। लेकिन सबसे बड़ा दंगा 1964 में हुआ। मैंने व्यक्तिगत तौर पर इसका अनुभव किया था। मेरी उच्च माध्यमिक परीक्षाएं हिंदू-मुस्लिम दंगे की वजह से स्थगित की गई थीं। यह दंगा पश्चिम बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान दोनों में साथ-साथ हुआ था। लेकिन बंगाल का यह आखिरी बड़ा सांप्रदायिक दंगा था।

देश के बंटवारे को लेकर जब बात चल रही थी और जब पंजाब के विभाजन का प्रश्न आया तो हिंदू महासभा की ओर से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह मांग की कि बंगाल का भी विभाजन होना चाहिए क्योंकि हिंदू बंगाली पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं। लेकिन शरत चंद्र बोस और बंगाल के प्रधानमंत्री रहे हुसैन शाहिद सुहारावर्दी ने इसका विरोध किया और संयुक्त बंगाल के गठन की मांग की। इन लोगों ने कहा कि बंगाल न तो भारत का अंग रहेगा और न पाकिस्तान का बल्कि एक स्वतंत्र देश रहेगा। इस प्रस्ताव पर कई दिनों तक चर्चा हुई लेकिन कोई प्रगति नहीं हुई। लेकिन एक सवाल उठा कि अगर संयुक्त बंगाल के मुस्लिम पाकिस्तान जाना चाहें तो उनका क्या होगा। ऐसे में जब श्याम प्रसाद मुखर्जी ने विभाजन का प्रस्ताव दिया तो इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। यह माना गया कि बंगाल के बंटवारे के लिए यह सही समय है। इस तरह से हम देखते हैं कि बंगाल के बंटवारे में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अहम भूमिका रही है। बंटवारे के बाद बंगाल में मुस्लिम लीग या किसी अन्य मुस्लिम अलगाववादी संगठन के नहीं रहने की वजह से मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति यहां खत्म हो गई। अब यह दावा किया जा रहा है कि श्याम प्रसाद मुखर्जी बंगाल के जनक थे और ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने सबसे पहले बंगाल विभाजन की मांग की थी।

दिपांजन सिन्हा: इतने लंबे समय बाद एक बार फिर से सांप्रदायिक राजनीति का उभार हुआ है। यह कैसे हुआ?

पार्था चटर्जी: हाल के दिनों में दो मुद्दे चर्चा में अए हैं। बंगाल की युवा पीढ़ी को बंटवारे की वजह से पैदा हुई त्रासद स्थिति के बारे में बहुत अंदाज नहीं है। उन्हें बंगाल में हुए भीषण दंगों के बारे में बहुत नहीं पता। इसलिए वे इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीति को रोकना कितना जरूरी है।

भाजपा की ओर से दूसरा मुद्दा उठाया जा रहा है ‘बाहरी’ का, जो बांग्लादेश से आए हैं और जिन्हें भारत की जनगणना में शामिल नहीं किया गया। भाजपा के समर्थक यह अफवाह फैला रहे हैं कि बंगाल में मुस्लिम आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और निकट भविष्य में एक और बंटवारा होने वाला है। पिछले 15-20 सालों से ऐसे दावे बंगाल और असम में लगातार किए जा रहे हैं। जबकि सच्चाई बिल्कुल अलग है। बांग्लादेश के रंगपुर और मेमनसिंह जैसे इलाकों के लोग सरहद पार करके बड़ी संख्या में असम में बसे हैं। इन लोगों ने जंगलों को काटकर खेती की जमीन बनाई है। 1960 के दशक में इन लोगों को हटाने के लिए बंगाल में आंदोलन ने जोर पकड़ा। असम के सांस्कृतिक नेताओं और राजनीतिक नेताओं को लग रहा था कुछ सालों में असमिया लोग अपने ही घर में अल्पसंख्यक होकर रह जाएंगे। यह एक हिंसक आंदोलन था। 1960 के दशक की शुरुआत में दंगे हुए। लेकिन यह तब बंद हुआ जब कांग्रेस पार्टी ने यह निर्णय लिया कि इस नफरत को नहीं बढ़ने देना है। दूसरी बात यह कि बंगालियों के खिलाफ चले इस आंदोलन को मुस्लिम-विरोधी आंदोलन के तौर पर भी देखा गया। कांग्रेस इस समाज का समर्थन नहीं खोना चाहती थी। ब्रह्मपुत्र घाटी में जो नए बंगाली प्रवासी आए हैं और जो मूलतः खेती पर आश्रित हैं, इनमें से तकरीबन 90 फीसदी मुस्लिम हैं। कछार क्षेत्र में आए प्रवासी मुख्य तौर पर बंगाली बोलने वाले हिंदू रहे हैं। असमिया और बंगालियों के बीच के इस संघर्ष ने बाद में ‘भारतीय’ बनाम ‘विदेशी’ का स्वरूप ले लिया और इसे सीमावर्ती राज्य में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बना दिया गया। ऑल असम स्टूडेंट यूनियन यानी आसू ने बाद में इस आंदोलन को चलाया। इसी संगठन से बाद में असम गण परिषद नाम की पार्टी बनी। जब राजीव गांधी सत्ता में आए तो एक समझौते पर दस्तखत हुआ। फिर नागरिकों के एक रजिस्टर यानी एनआरसी बनाने की बात आई। इसके बाद से लगातार ‘विदेशियों’ की पहचान करके उन्हें उनके देश में भेजने की बात चल रही है। यह मांग सबसे पहले असम से शुरू हुई।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा ने जो अभियान चलाया, उस दौरान भाजपा और संघ ने यह दावा करना शुरू किया कि जो प्रक्रिया असम में शुरू हुई है, उसी तरह से बांग्लादेश से सटे प्रदेश के जिले मालदा, मुर्शिदाबाद और नादिया में ‘विदेशियों’ या अवैध प्रवासियों के पहचान का काम शुरू होगा। कभी इन दावों का प्रचार जोर-शोर से किया गया तो कभी दबी जुबान से। हालांकि, पिछले दस सालों में अवैध प्रवासियों की पहचान करने की मांग कई बार उठी। पिछले तीन-चार सालों में भाजपा के प्रचार अभियान में यह बेहद अहम हो गया। राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के उभार की यह एक वजह है। हालांकि, भाजपा कहती है कि यह अभियान अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए है लेकिन सच्चाई यह है कि ये अभियान मुसलमान विरोधी है। इसके जरिए ही बंगाल में हिंदू सांप्रदायिक राजनीति की एक नई शुरुआत हुई है। पिछले 40-50 सालों में बंगाल में मोटे तौर सांप्रदायिकता नहीं थी।

इस अभियान के साथ कई और आयाम जुड़ गए हैं। नामशूद्र समुदाय के मतुआ लोगों की मांग से जुड़ा आयाम है। इनमें से कई लोग 1947 के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आए और फिर 1971 में बांग्लादेश के जन्म के वक्त भी ये लोग आए। इसके बाद भी इस समुदाय के लोग बंगाल में आए। बंगाल आने वाले दूसरे समुदायों की तरह इन लोगों के पास भी कोई दस्तावेज नहीं था। पीढ़ियों से यहां रहने के कारण दूसरे भारतीयों की तरह इनका राशन कार्ड, आधार कार्ड, पैन कार्ड आदि बना। उनके पास नागरिकता का कोई सबूत नहीं है। यह मामला फिर से उठा है। लेकिन किसी के पास अलग से नागरिकता का कोई सबूत है क्या? नागरिकता के सबूत की मांग के पीछे असम का एनआरसी कारण है। यह लोगों को साबित करना है कि वे भारत के नागरिक हैं या नहीं। उन्हें यह साबित करना है कि उनका या उनके माता-पिता का जन्म कहां हुआ था। लेकिन कौन नागरिक है या और कौन नहीं, इसे मनमाने ढंग से निर्धारित किया जा रहा है।

एनआरसी की वजह से असम में जो भयावह स्थिति पैदा हुई, उससे हम सब वाकिफ हैं और एनआरसी की वजह से अब यही बंगाल में होने वाला है। संशोधित कानून की मूल बात यह है कि अगर आप मुस्लिम नहीं हैं तो आप अवैध प्रवासी नहीं है और आप बगैर कोई सबूत दिए हुए भारत के नागरिक मान लिए जाएंगे। संशोधित कानून में हिंदू और मुस्लिम के बीच यह भेदभाव किया गया है। बंगाल के कुछ जिलों में इस अभियान ने जोर पकड़ा है और सांप्रदायिक रंग ले लिया है। मैं इस संदर्भ में एक और बिंदु जोड़ना चाहता हूं। भाजपा भी यह जानती है कि चुनावी राजनीति में वह सिर्फ सांप्रदायिक मुद्दे पर खुद को आगे नहीं ले जा सकती। भाजपा दूसरे मुद्दों को भी अहमियत दे रही है। भाजपा कह रही है कि अगर केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार हो तो इससे आर्थिक तौर पर फायदा होगा और नई दिल्ली से विवाद करने का कोई मतलब नहीं बनता। इसका मतलब यह हुआ कि भाजपा को चुनावी रणनीति के तहत सांप्रदायिकता के अलावा दूसरे मुद्दों को अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। मैं एक बार फिर से दोहराना चाहता हूं कि आजादी के बाद और खास तौर पर 1960 के दशक के बाद से बंगाल में जो सांप्रदायिकता नहीं थी, उसने एक बार फिर से वापसी कर ली है।

दिपांजन सिन्हा: भाजपा का विरोध करने वाली पार्टियां यह दावा कर रही हैं कि बंगाली संस्कृति के साथ सांप्रदायिकता मेल नहीं खाती। लेकिन ये भी लगता है कि ये पार्टियां आम लोगों को बड़े पैमाने पर ये समझाने में सफल नहीं रही हैं। आप क्या कहेंगे?

पार्था चटर्जी: अगर आप अतीत में देखें तो आजादी के पहले इस राज्य में सांप्रदायिक राजनीति और सांप्रदायिक विचारधारा मौजूद थी। हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता दोनों थी। पिछले 50 सालों में मोटे तौर पर बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति नहीं रही। अब जो बंगाल में सांप्रदायिक राजनीति की नई प्रजाति आई है, वह राज्य के बाहर से आई है। उत्तर भारत में जिस तरह की सांप्रदायिक राजनीति है, वह पश्चिम बंगाल में पहुंच गई है। इन राजनीतिक दलों के दूसरे प्रदेशों जैसे उत्तर प्रदेश आदि के नेताओं के विचार बंगाल में प्रचारित किए जा रहे हैं। उनके सांप्रदायिक नारे और विचार यहां पहुंच गए हैं।

‘जय श्रीराम’, ‘लव जिहाद’ और ‘गौ-रक्षक’ जैसे उनके नारों की जड़ें बंगाल में नहीं हैं। इन नारों और विचारों की बंगाल की संस्कृति में जगह नहीं रही। बंगाल के वैसे सार्वजनिक शख्सियतों का जो हिंदू रहे हैं, उनका हवाला देकर हिंदुत्व की विचारधारा को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है। स्वामी विवेकानंद और बंकिम चंद्र चटर्जी का उदाहरण ले सकते हैं। इन लोगों के विस्तृत लेखन में से अपनी सुविधा से कुछ अंश उठा लिए जा रहे हैं और उसका इस्तेमाल हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। विवेकानंद और बंकिम चंद्र बंगाल की संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं और कांग्रेस से लेकर वामपंथी दलों ने इनके लेखन का समर्थन किया है। ये दोनों किसी दल से जोड़कर नहीं देखे जाते थे लेकिन आज इनका इस्तेमाल भाजपा द्वारा किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि वे ही बंगाली संस्कृति के असली रक्षक हैं। यह कहा जा रहा है कि यही आपकी असली विरासत है। अपने हिंदू राष्ट्रवाद को इस प्रदेश में लाने के लिए भाजपा यह तर्क दे रही है कि बंगाली लोगों ने इन प्रमुख लोगों को भुला दिया है। मुझे लगता है कि भाजपा इसमें पूरी तरह से सफल नहीं रही है। उत्तर भारत की सांप्रदायिक राजनीति को भाजपा यहां ला रही है। भगवा पहने लोगों की यात्रा निकलना इस प्रदेश के लिए नया है। यहां तक की हिंदू महासभा के लोग भी भगवा नहीं पहनते थे। ‘जय श्री राम’ का नारा हिंदी से आया है और इसका उच्चारण उस तरह से नहीं किया जाता जिस तरह से बंगाली लोग करते हैं। इन नारों को लोकप्रिय बनाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है। राजनीति प्रोपेगैंडा फैलाने वाले बहुत सारे लोग हिंदी में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। यह बंगाल के लिए नया है। मुझे लगता है कि हिंदू राष्ट्रवाद के प्रसार की कोशिश बंगाल में सफल नहीं साबित हो रही है।

दिपांजन सिन्हा: लेकिन भाजपा के पक्ष में जो राजनीतिक समर्थन दिख रहा है, उसे रोका नहीं गया है। आपको क्या लगता है?

पार्था चटर्जी: यह देखना होगा कि भाजपा को जो समर्थन मिल रहा है, उसमें कितना इस तरह के प्रोपेगैंडा की वजह से मिल रहा है और कितना मौजूदा तृणमूल सरकार से असंतोष की वजह से। बंगाल और शेष भारत के बीच तुलना की जा रही है। बंगाल के बाहर के लोग आर्थिक तौर पर बेहतर हैं। इसलिए इस प्रदेश के लोग अगर दूसरे राज्यों में जाते हैं तो उन्हें यह दिखता है। वे इस फर्क को महसूस करते हैं और यह सोचते हैं कि बंगाल की आर्थिक प्रगति क्यों नहीं हुई। उन्हें लगता है कि इन राज्यों के भाजपा नेता बदलाव ला सकते हैं। दस साल पहले भाजपा बंगाल में इतनी मजबूत नहीं थी। आज अगर यह मुख्य विपक्षी दल बनी है तो इसके लिए कई वजहें जिम्मेदार हैं। मुझे नहीं लगता कि बंगाल में भाजपा की सफलता सिर्फ सांप्रदायिकता की राजनीति और हिंदू राष्ट्रवाद की वजह से है।

दिपांजन सिन्हा: अगर भाजपा सत्ता में आती है तो किस तरह के बदलाव हम देख सकते हैं?

पार्था चटर्जी: यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। बंगाल के मतदाताओं को लुभाने के लिए भाजपा कई मुद्दे उठा रही है। ऐसे में अगर यह पार्टी बहुमत की सरकार बनाती है तो क्या होगा? यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि रातोरात बंगाल की अर्थव्यवस्था बदल जाएगी और यहां के लोग समृद्ध हो जाएंगे। यह भी नहीं माना जा सकता कि भाजपा के सत्ता में आते ही उद्योगपति यहां निवेश करना शुरू कर देंगे। अगर यहां निवेश करके लाभ कमाने का अवसर होता तो निवेश पहले ही हो गया होता। एक और दो नए कारखाने लगाने से कोई बड़ा अंतर नहीं होगा। अगर वित्तीय समृद्धि के लिए कोई नया सामाजिक आधार नहीं रहेगा तो यह सिर्फ सरकार के बदलने भर से हासिल नहीं किया जा सकता।

हालांकि, बंगाल में भाजपा सरकार सांस्कृति बदलाव लाने का काम कर सकती है। हिंदुत्व के सांस्कृति एजेंडे को उत्तर भारत में भाजपा में थोपा है, उसे यह यहां थोप सकती है। वैचारिक तौर पर देखें तो बंगाल पार्टी के लिए अहम है। उत्तर भारत में और पश्चिम भारत के गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भाजपा ने इस बात का प्रचार-प्रसार किया है कि हिंदू संस्कृति दूसरी संस्कृतियों से बेहतर है। यह विचार बंगाल में और दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में काफी हद तक नहीं है। कर्नाटक को एक अपवाद मानें तो भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों तक नहीं फैली। इसे फैलाने का अवसर भाजपा को बंगाल और असम में मिला है। असम के मुकाबले बंगाल भाजपा के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। भाजपा जिस तरह से उत्तर प्रदेश में हिंदू राष्ट्रवाद का प्रसार करने में सफल रही है, उसी तरह की सफलता अगर उसे बंगाल में मिलती है तो यह पूरे देश में हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की दिशा में पार्टी की कोशिशों का एक अहम कदम साबित होगा।

इसलिए भाजपा से बंगाली संस्कृति को बड़ा खतरा है। अगर पार्टी प्रदेश की सत्ता में आती है तो पार्टी निश्चित तौर पर उत्तर भारत की हिंदुत्व संस्कृति को बंगाल में स्थापित करने की कोशिश करेगी। यह पार्टी का प्रमुख लक्ष्य होगा। प्रदेश की अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव की किसी को उम्मीद नहीं करनी चाहिए। जो बदलाव आएगा, वह सांस्कृतिक बदलाव होगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

What a BJP Victory Would Mean for Bengal – a Step Closer to Hindu Rashtra

इसे भी देखें: 

 

Bengal Elections
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