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ख़बरों के आगे-पीछे: पंजाब पुलिस का दिल्ली में इस्तेमाल करते केजरीवाल
हर हफ़्ते की महत्वपूर्ण ख़बरों को लेकर एक बार फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
अनिल जैन
24 Apr 2022
Kejriwal
फ़ोटो- Arvind Kejriwal Facebook Page

अब साफ हो गया है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने की मांग क्यों करते रहे हैं। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनते ही पंजाब पुलिस का स्थायी डेरा दिल्ली में हो गया है। आम आदमी पार्टी या केजरीवाल के खिलाफ सोशल मीडिया में लिखने वालों के पीछे पंजाब पुलिस लगा दी गई है। गौरतलब है कि दिल्ली में पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है इसलिए आम आदमी पार्टी के नेता हमेशा इस बात का रोना रोते रहते थे कि उनके पास पुलिस नहीं है इसलिए दिल्ली की कानून व्यवस्था ठीक नहीं हो पा रही है। लेकिन पंजाब में उन्हें पुलिस मिली तो उसका इस्तेमाल उन्होंने अपने विरोधियों के खिलाफ शुरू कर दिया। अरविंद केजरीवाल पर कई आरोप लगाने वाले उनके पुराने सहयोगी कुमार विश्वास और कांग्रेस नेता तथा आम आदमी पार्टी की पूर्व विधायक अलका लांबा के घर भी पंजाब पुलिस पहुंच गई। इससे पहले भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर पाल सिह बग्गा के घर पर भी पंजाब पुलिस पहुंची थी। उन्होंने सोशल मीडिया में केजरीवाल के खिलाफ कोई टिप्पणी की थी। भाजपा के अन्य नेताओं नवीन कुमार जिंदल और प्रीति गांधी के खिलाफ भी पंजाब पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया है। असल मे मोहाली में पंजाब पुलिस के साइबर सेल मे सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं और उसके बाद पुलिस पीछे लगी दी जा रही है। हैरानी की बात है कि एक तरफ आम आदमी पार्टी के नेता केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगा रहे हैं और दूसरी ओर पंजाब में पुलिस मिलते ही उन्होंने उसका दुरुपयोग शुरू कर दिया।

जहांगीरपुरी पर केजरीवाल की चुप्पी का क्या मतलब?

आम आदमी पार्टी पर भाजपा की बी टीम होने का आरोप यूं ही नहीं लगता है। दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में सांप्रदायिक हिंसा और उसके बाद अतिक्रमण हटाने के नाम पर दिल्ली नगर निगम द्वारा लोगों के मकान-दुकान तोडे जाने के मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की चुप्पी से भी इस आरोप को बल मिला है। यह सही है कि दिल्ली की कानून व्यवस्था राज्य का विषय नहीं है और यह मामला सीधे-सीधे केंद्र सरकार के पास है। लेकिन केजरीवाल पिछले साढ़े सात साल से दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। वे इतने लोकप्रिय हैं कि दिल्ली के लोगों ने उन्हें लगातार दो बार भारी-भरकम बहुमत से सत्ता सौंपी है। वे खुद भी अपने को दिल्ली का बेटा बताते हैं। इसके बावजूद उन्होंने दंगा रूकवाने, शांति कायम करने और वहां हुई तोड़फोड़ को रूकवाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। लोकप्रिय नेता की पहचान तो ऐसे ही वक्त में होती है। वह लोगों से अपील करता है, लोगों के बीच जाता है, उनकी समस्याएं सुनता है। लेकिन केजरीवाल ने ऐसा कुछ नहीं किया। यह काम किया उस वामपंथी जमाम के नेताओं वृंदा करात और रवि राय ने, जिसे आमतौर पर समाज का खाया-अघाया तबका गरियाता है और उन्हें अप्रासंगिक करार देता है। भाजपा और केंद्र सरकार ने तो अपना चेहरा बचाने के लिए जहांगीरपुरी हुई तोड़फोड़ को अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई करार दिया लेकिन केजरीवाल इस मुद्दे पर चुप रहे और उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं ने इस मामले में रोहिंग्या मुसलमानों के मुद्दे का प्रवेश करा कर इस मामले को खुल कर सांप्रदायिक रंग देते हुए परोक्ष रूप से तोडफोड को जायज ठहरा दिया। 

यह कैसी आत्म-निर्भरता?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हनुमान जयंती के दिन पुणे में 108 फीट ऊंची हनुमान प्रतिमा का अनावरण करते हुए देशवासियों से देश मे बनी चीजों का उपयोग करने की अपील की। उन्होंने कहा कि यही आत्म-निर्भरता का रास्ता है। लेकिन उसी रोज इस वर्ष के पहले तीन महीनों के भारत-चीन व्यापार के आंकड़े सामने आए, जिनसे जाहिर हुआ कि बीते जनवरी से मार्च तक भारत और चीन के आपसी कारोबार में 15.3 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। इस दौरान कुल 31.96 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ। इसमें 27.1 बिलियन डॉलर का भारत ने आयात किया। इसके पहले 2021 में भारत और चीन का आपसी कारोबार पहली 125 बिलियन डॉलर के ऊपर चला गया था। उसमें लगभग 98 बिलियन डॉलर का आयात था। यह सूरत तब है, जबकि 2020 में गलवान घाटी में दोनों देशों के बीच हुई सैन्य झड़प के बाद भारत सरकार ने चीन के आयात को सीमित करने के कई कदम उठाए और चीनी कारोबारियों के भारत मे निवेश पर सीमाएं लगाई गई हैँ। तो ऐसी सूरत में सवाल है कि आखिर आत्म निर्भरता के रास्ते पर भारत कितना आगे बढ़ रहा है? 

सरकार पर स्वामी के हमले और तेज होंगे 

राज्यसभा से रिटायर हो रहे भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर केंद्र सरकार के मुखर आलोचक रहे हैं। पार्टी मे रहते हुए अपनी ही सरकार की आलोचना करने को उन्होंने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल की एक टिप्पणी के जरिए उचित ठहराया है। स्वामी ने ट्वीट करके कहा कि चर्चिल ने 1930 में कहा था कि जब विपक्षी पार्टियों की जुबान सिल जाए तो उनके जैसे सरकारी दल के अधिकृत नेताओं को अपनी सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ बोलना चाहिए। चर्चिल की मिसाल देते हुए स्वामी ने मोदी सरकार पर हमला तेज किया। उन्होंने लद्दाख में पैंगोंग त्सो झील पर बन रहे चीन के पुल की खबर साझा की और लिखा कि 'क्या अब भी कोई आया नहीं, कोई गया नही।’ गौरतलब है कि दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीनी घुसपैठ को लेकर कहा था कि भारत की सीमा में कोई नहीं घुसा है। बहरहाल, स्वामी ने ताजा ट्वीट में मोदी सरकार के आठ साल के कामकाज पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा है कि 2016 के बाद से भारत की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट आ रही है और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में भी देश कमजोर हुआ है, जिसका नरेंद्र मोदी को कोई अंदाजा नही हैं। इस बार सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री मोदी का नाम लेकर हमला किया है। इससे पहले वे इशारों-इशारों में उन पर हमला कर रहे थे। संकेत साफ है कि आने वाले दिनों में वे मोदी के खिलाफ और ज्यादा मुखर होंगे।

महाराष्ट्र में राज ठाकरे का इस्तेमाल कर रही है भाजपा 

यह महारत भारतीय जनता पार्टी को ही हासिल है कि वह जिस राज्य में चाहे वहां की किसी पार्टी या उसके नेता का राजनीतिक इस्तेमाल कर सकती है। जैसे बिहार मे उसने चिराग पासवान का इस्तेमाल किया। चिराग के कारण बिहार में नीतीश कुमार की जनता दल (यू) तीसरे नंबर की पार्टी बन गई और अब भाजपा अपना मुख्यमंत्री बनाने का सपना देख रही है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बहुजन समाज पार्टी का इस्तेमाल किया। असदउद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी का इस्तेमाल तो भाजपा विभिन्न राज्यों में करती ही रहती है। फिलहाल वह महाराष्ट्र में राज ठाकरे का इस्तेमाल कर रही है। राज ठाकरे के जरिए भाजपा ने कट्टर हिंदुत्व का मुद्दा उछाला है। भाजपा और राज ठाकरे दोनों को पता है कि शिव सेना हिंदुत्व की चाहे जितनी बात करे लेकिन हकीकत यह है कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ रहने से उसका हिंदुत्व का एजेंडा कमजोर हुआ है। इसका फायदा उठा कर राज ठाकरे भी अपनी जगह बना सकते हैं  और भाजपा को भी फायदा हो सकता है। सो, राज ठाकरे मस्जिदो के बाहर लाउड स्पीकर लगा कर हनुमान चालीसा का पाठ करने के अभियान मे लगे हुए हैं तो जून के पहले हफ्ते में अयोध्या जाने का भी ऐलान कर दिया है। अब वे भी बाबरी मस्जिद के विध्वंस का श्रेय लेने का प्रयास करेंगे, क्योंकि उस समय वे भी शिव सेना का ही हिस्सा थे और शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने दावा किया था कि बाबरी मस्जिद उनके कार्यकर्ताओं ने ही ढहाई है। शिव सेना के लिए यह दुविधा वाली स्थिति है। उसे कांग्रेस और एनसीपी के साथ होने के बावजूद मुस्लिम वोट मिलने की संभावना कम है और ऊपर से कट्टर हिंदू वोट भी उससे छिटक सकता है।

भाजपा के लिए यह बड़ी चिंता की बात

भाजपा का उपचुनाव जीतने का रिकार्ड बहुत खराब है। उसे उपचुनावों में आमतौर पर हार का ही सामना करना पडता है, जिसे लेकर सोशल मीडिया में उसका खूब मजाक भी बनता है। अभी चार राज्यों में विधानसभा की चार और लोकसभा की एक सीट पर उपचुनाव हुआ था। सभी जगह भाजपा हार गई। कुछ दिनों पहले हिमाचल प्रदेश की चार विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ था तो भाजपा वहां भी सभी सीटों पर हारी। उससे पहले झारखंड में तीन सीटों पर उपचुनाव हुए और तीनों पर भाजपा हारी। आखिर क्या वजह है कि भाजपा चुनाव जीत जाती है लेकिन उपचुनाव नहीं जीत पाती? कहीं यह वजह तो नहीं कि उपचुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह प्रचार नहीं करते हैं? आमतौर पर राष्ट्रीय पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व उपचुनावों में प्रचार नहीं करता है। वैसे हर चुनाव मोदी के चेहरे पर और अमित शाह की रणनीति से लड़ा जाता है, लेकिन उपचुनाव में ये दोनों शीर्ष नेता रणनीति बनाने या प्रचार करने से दूर रहते हैं। अगर इसी वजह से भाजपा हार रही है तो यह उसके लिए बड़ी चिंता की बात होनी चाहिए। इसका मतलब यह है कि चुनाव जीतने के लिए पार्टी पूरी तरह मोदी और शाह पर निर्भर है और उसके दूसरे केंद्रीय और प्रादेशिक नेताओं की कोई हैसियत नहीं है। हाल ही में पश्चिम बंगाल की आसनसोल लोकसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा ने अपने 30 से ज्यादा नेताओं को प्रचार के लिए भेजा था लेकिन वहां वह तीन लाख से ज्यादा वोट से हार गई। इसीलिए भाजपा के नेता भी मजाक भी कह रहे हैं कि अब उपचुनाव में भी मोदी और शाह को ही प्रचार के लिए उतरना होगा।

कांग्रेस के आला नेता इतने बेखबर!

कांग्रेस ने असम में अपने पूर्व अध्यक्ष रिपुन बोरा को राज्यसभा का टिकट दिया था। कांग्रेस और सहयोगी एआईयूडीएफ को मिला कर 44 वोट थे, जबकि सीट जीतने के लिए 43 वोट की जरूरत थी। लेकिन रिपुन बोरा को सिर्फ 35 वोट मिले और वे हार गए। इसके लिए उन्होंने पार्टी को जिम्मेदार ठहराया, जबकि असल में यह उनके प्रबंधन की भी कमी थी। वे सब जानते हुए भी वोट एकजुट नहीं रख पाए। वे प्रदेश अध्यक्ष रहे थे और पार्टी ने उनको राज्यसभा की टिकट दिया था। ऐसे में यह उनकी जिम्मेदारी थी कि वे सीट जीतते। लेकिन वे चुनाव हार गए और एक हफ्ते के अंदर पार्टी पर आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी। तृणमूल कांग्रेस में चले गए। सवाल है कि मार्च के मध्य में उनको टिकट देते हुए पार्टी आलाकमान को क्या कोई अंदाजा नही था कि वे तृणमूल नेताओं के संपर्क में हैं और उनको टिकट नहीं देना चाहिए? वे पार्टी छोड़ कर गईं सुष्मिता देब के संपर्क में थे। लेकिन कांग्रेस को अंदाजा नहीं था। इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह के बारे में भी कांग्रेस को कोई भनक नहीं लगी। पार्टी ने उनको उत्तर प्रदेश के चुनाव में स्टार प्रचारक बनाया और स्टार प्रचारकों की सूची जारी होने के दो दिन बाद ही वे भाजपा में चले गए। अगर पार्टी के आला नेता सिर्फ आंख-कान खुले रखें तो उनको समय रहते पता चल सकता है कि उनका कौन नेता किस पार्टी के संपर्क में है और कब पार्टी छोड़ने वाला है।

मायावती का ब्राह्मण नेताओं से मोहभंग

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती का ब्राह्मणों से प्रेम और नफरत का सिलसिला पुराना है। फिलहाल चुनाव खत्म होते ही उनका अपनी पार्टी के ब्राह्मण नेताओं से मोहभंग हो गया है। उन्होंने पार्टी के ब्राह्मण चेहरों में से एक नकुल दुबे को पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया है। नकुल दुबे को बसपा के नंबर दो और ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्र का करीबी माना जाता है। सतीश चंद्र मिश्र का राज्यसभा का कार्यकाल भी अगले दो-तीन महीने में खत्म होने वाला है। उसके बाद वे भी पैदल हो जाएंगे। चूंकि बसपा का सिर्फ एक विधायक जीता है इसलिए वे अभी सतीश चंद्र मिश्र या किसी और नेता को कुछ भी देने में सक्षम नहीं हैं। बहरहाल, नकुल दुबे को पार्टी से हटाने से पहले मायावती ने लोकसभा मे पार्टी के नेता पद से रितेश पांडेय को भी पद से हटा दिया था। अंबेडकर नगर के सांसद रितेश पांडेय की जगह गिरीश चंद्र जाटव को पार्टी का नेता बनाया है। लोकसभा मे बसपा के 10 सांसद हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे 10 मार्च को आए थे और पांच दिन बाद 15 मार्च को मायावती ने रितेश पांडेय को हटा दिया था। माना जा रहा है कि अब उनका फोकस एक बार फिर अपने पारंपरिक दलित और उसमे भी खासतौर से जाटव वोट को एकजुट करने पर बन गया है। अब ब्राह्मण वोटों की राजनीति एक बार फिर 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले होगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार निजी हैं) 

ये भी पढ़ें: ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा में नंबर दो की लड़ाई से लेकर दिल्ली के सरकारी बंगलों की राजनीति

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