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भारत
राजनीति
भाजपा सरकार को परेशान करने फिर लौटा रफाल का भूत
फ्रांस की पब्लिक प्रोसीक्यूशन सर्विस (पीएनएफ) की वित्तीय अपराध शाखा ने दो सरकारों के बीच हुए 7.8 अरब यूरो के इस कुख्यात सौदे के मामले में भ्रष्टाचार, धन शोधन, पक्षपात, प्रभाव के दुरुपयोग तथा अनुचित कर छूटों के विभिन्न आरोपों में औपचारिक छानबीन शुरू कर दी है।
डी. रघुनन्दन
12 Jul 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
रफाल

शेक्सपियर के  प्रसिद्घ नाटक, मैकबेथ में इसी नाम का सामंती लॉर्ड पहले अपने मित्र बोन्को की हत्या कर देता है, ताकि एक संभावित प्रतिद्वंद्वी को अपने रास्ते से हटा सके। उसके बाद राजा की हत्या कर देता है और खुद तख्त पर बैठ जाता है। लेकिन, मैकबेथ की अंतरात्मा उसे परेशान करती है और उसे बोन्को का भूत दिखाई देने लगता है, जो बार-बार सार्वजनिक रूप से उसे परेशान करने के लिए सामने आ जाता है। बोन्को के भूत की तरह, भाजपा सरकार को परेशान करने के लिए रफाल घोटाला पिछले दिनों फिर सामने आकर खड़ा हो गया है।

फ्रांस की पब्लिक प्रोसीक्यूशन सर्विस (पीएनएफ) की वित्तीय अपराध शाखा ने दो सरकारों के बीच हुए 7.8 अरब यूरो के इस कुख्यात सौदे के मामले में, जिसके तहत फ्रांसीसी विमान कंपनी, दसां एविएशन भारत को 36 पूरी तरह से शस्त्र-सज्जित, युद्घ के लिए रफाल लड़ाकू विमान देगी; भ्रष्टाचार, धन शोधन, पक्षपात, प्रभाव के दुरुपयोग तथा अनुचित कर छूटों के विभिन्न आरोपों में औपचारिक छानबीन, 14 जून से शुरू कर दी है। भारत के प्रधानमंत्री ने अचानक फ्रांस में इस सौदे का एलान किया था और इस पर भारत में बहुत भारी विवाद उठ खड़ा हुआ था क्योंकि इसके लिए भारत ने हठात, पहले से चले आ रहे उस समझौते को खारिज कर दिया था, जो देश के डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसीजर (डीपीपी) के तहत, 126 रफाल जैट विमानों की खरीद के लिए किया गया था। इनमें से 108 विमान भारत में ही, बंगलौर में स्थित हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स लि0 (एचएएल) में, दसां से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की व्यवस्था के अंतर्गत बनाए जाने थे। इसकी जगह, नये सौदे में अचानक ऑफसैट्स साझेदार के तौर पर अनिल अंबानी की रिलायंस एअरोस्पेस को घुसा दिया गया था, जिसका एअरोनाटिक्स के क्षेत्र में काम का इससे पहले का कोई अनुभव ही नहीं था। इसके ऊपर से यह फर्म वित्तीय रूप से संकट की स्थिति में थी और उसके पास ऐसी परियोजना के लिए कोई बुनियादी ढांचा भी नहीं था।

फ्रांस में न्यायिक जांच शुरू होने की खबर सबसे पहले, 2 जुलाई 2021 को फ्रांसीसी खोजी समाचार वैबसाइट, मीडियापार्ट ने दी। इस वैबसाइट ने इससे पहले पिछले दो वर्षों के दौरान, इसी सौदे के विभिन्न छुपाकर रखे गए पहलुओं पर अपनी ही विशद खोज-बीन के आधार पर, एक पूरी लेखमाला प्रकाशित की थी। अब इस जांच के लिए एक सेवारत न्यायाधीश को नियुक्त किया गया है। यह जांच फ्रांसीसी एनजीओ, शेरपा की शिकायत के आधार पर की जा रही है, जो शासन में वित्तीय गड़बडिय़ों की पर ही खुद को केंद्रित करता है। जाहिर है कि इस शिकायत में, मीडियापार्ट की उक्त रिपोर्टों को और खासतौर पर हाल की उसकी रिपोर्टों में हुए रहस्योद्ïघाटनों को शामिल किया गया है।

मीडियापार्ट  ने 2019 में इसकी खबर दी थी कि पीएनएफ की पिछली मुखिया, एलिन हॉलेट ने शेरपा की ही पिछली शिकायत को किसी भी तरह की शुरूआती जांच-पड़ताल किए बिना ही और अपने ही स्टाफ के सदस्यों की सिफारिशों को भी अनदेखा करते हुए, खारिज कर दिया था। उन्होंने कहा था कि वह ऐसा, ‘फ्रांस के हितों की रक्षा करने’ के लिए कर रही थीं! विचित्र तरीके से, ‘राष्टï्रीय सुरक्षा हितों’ की ऐसी ही दुहाई का बार-बार भारत में भाजपा सरकार द्वारा भी सहारा लिया जा रहा था और सुप्रीम कोर्ट तक में सरकार द्वारा इस दलील का सहारा लिया गया था। भारत में इस दलील की आड़ में इस सौदे के संंबंध हर तरह की जानकारियों को छुपाए रहने की कोशिश की जा रही थी। इस दलील की आड़ में खासतौर पर इन विमानों की कीमत, सौदे से जुड़े अन्य विवरणों, डीपीपी के अंतर्गत समुचित प्रक्रिया के पालन तथा सौदे के अंतर्गत 50 फीसद दाम के ऑफसैट्स के विवरणों को छुपाया जा रहा था। इस सब की पर्दापोशी में इस समझौते में रखे गए गोपनीयता के प्रावधान भी सरकार की मदद कर रहे थे। याद रहे कि इस सौदे के लिए, रक्षा खरीद सौदों में जोड़े जाने वाले सामान्य भ्रष्टाचारविरोधी प्रावधानों को भी हटा दिया गया था।

बहरहाल, अब फ्रांस में पीएनएफ के नये प्रमुख, ज्यां फ्रांकोइस बोहनर्ट ने अपनी पूर्ववर्ती एजेंसी प्रमुख के फैसले को पलट दिया है और संभावित रूप से विस्फोटक खोजों के साथ जांच शुरू कर दी है। इस जांच में अन्य पहलुओं के अलावा फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांकोइस होलेंडे के कदमों की जांच-पड़ताल की जाएगी, जिनके कार्यकाल में भारत के साथ इस सौदे पर दस्तखत हुए थे। इसके साथ ही वर्तमान राष्ट्रपति इमेनुअल मैक्रां के तब के कदमों की जांच की जाएगी, जो अब भले ही एक नयी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं, उक्त सौदे के समय होलेंडे की सरकार में अर्थ व वित्त मंत्री की भूमिका संभाल रहे थे। इसके अलावा, वर्तमान विदेश मंंत्री, ज्यां वेइश लाद्रियां द्वारा उस समय रक्षा मंत्री की हैसियत से उठाए गए कदमों की भी जांच होगी।

नये आरोप

इस सौदे के सिलसिले में लगे आरोपों से भारत में हमारे ज्यादातर पाठक परिचित ही होंगे। इस सिलसिले में काफी व्यापक पैमाने पर खबरें आयी हैं और इस स्तंभ में भी काफी विस्तार से लिखा गया है, जिसमें मीडियापार्ट की खोज-बीन समेत बहुविध स्रोतों के  साक्ष्यों को रखा गया है। फिर भी, इसी साल अप्रैल तथा जुलाई में आयी मीडियापार्ट की रिपोर्टों में कुछ नये साक्ष्यों को रखा गया है। इनमें कुछ अब तक उजागर ही नहीं हुए दस्तावेज भी शामिल हैं, जो मीडियापार्ट के हाथ लगे हैं।

स्वाभाविक रूप से इस सौदे को लेकर अनेक आरोप, अचानक सामने आए दसां तथा रिलायंस एअरोस्पेस के बीच के ऑफसैट्स सौदे के गिर्द घूमते हैं। इसकी वजह एक ओर तो यह है कि यह रिलायंस कंपनी विमानन से जुड़े निर्माण के क्षेत्र में बिल्कुल नौसिखिया है और दूसरी ओर, विमानन निर्माण के क्षेत्र की इस नौसिखिया कंपनी के प्रमोटर अनिल अंबानी को भारत  के सत्ताधारियों के बहुत नजदीक समझा जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने पेरिस की अपनी यात्रा के दौरान 10 अप्रैल 2015 को नये सौदे की घोषणा की थी। भारत में तभी यह बिल्कुल स्पष्ट था कि इस एलान से देश के रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, एचएएल और यहां तक कि वायु सेना प्रमुख तक, बिल्कुल चकित रह गए थे। जाहिर है कि वायु सेना प्रमुख के लिए भारतीय वायु सेना की इन विमानों की जरूरत का 126 से घटाकर अचानक सिर्फ 36 कर दिया जाना, अवश्य ही एक तगड़ा झटका रहा होगा। प्रधानमंत्री के फ्रांस की यात्रा के लिए रवाना होने से पहले की गयी रस्मी समाचार ब्रीफिंगों में इसका जिक्र तक किया गया था कि मूल सौदे पर जिसके साथ एचएएल भी जुड़ा हुआ था, इस यात्रा के दौरान मोहर लगने की पूरी संभावना थी। 25 मार्च 2015 तक बंगलूरु में हुए एअरो इंडिया एअर शो के दौरान, दसां के सीईओ एरिक ट्रेप्पिअर, एचएएल के अध्यक्ष तथा भारतीय वायु सेना प्रमुख की मौजूदगी में यही कह रहे थे कि दसां तथा एचएएल के बीच के सहमति की सभी मुश्किलों को सुलझाया जा चुका था। यह तथ्य साफ तौर पर आगे चलकर तथा बार-बार भाजपा की सरकार द्वारा पेश किए जाते रहे इस झूठे आख्यान का खंडन करता है कि ‘आपात स्थिति में’ दो सरकारों के बीच के  समझौते पर दस्तखत करने पड़े थे क्योंकि दसां तथा एचएएल के बीच सुलझ ही नहीं सकने वाले मतभेद पैदा हो जाने के चलते, डीपीपी के तहत रफाल विमानों की खरीद की प्रक्रिया तो बैठ ही गयी थी।

प्रधानमंत्री द्वारा जिस नये सौदे का एलान किया गया, उसका एक प्रमुख नतीजा यह था कि इस सौदे में अप्रत्याशित तरीके से रिलायंस एअरोस्पेस घुस गयी। 2016 के सितंबर में, नये सौदे के सिलसिले में दोनों सरकारों के बीच समझौते पर दस्तखत होने के दो महीने के अंदर-अंदर, नवंबर 2016 में दसां ने रिलायंस के साथ एक संयुक्त उद्यम खड़ा कर दिया--दसां रिलायंस एअरोस्पेस लि0 (डीआरएएल)। बहरहाल, जैसाकि बाद में आए रहस्योद्ïघाटनों से पता चला, रिलायंस तो इससे काफी पहले से ही तस्वीर में आ चुका था। इसका पता अन्य चीजों के अलावा अनिल अंबानी के ‘संयोगवश’ उसी समय पर पेरिस में और दसां से जुड़े अन्य आयोजनों में जा पहुुंचने से लगता है।

बहरहाल, मीडियापार्ट ने अपनी हाल की रिपोर्ट में दावा किया है कि उसके पास दस्तावेज हैं, जो दिखाते हैं कि वास्तव में दसां तथा रिलायंस ने एक गठबंधन के समझौते पर, जिसमें दोनों पक्षों की जिम्मेदारियां सूत्रबद्घ की गयी थीं, 26 मार्च 2015 को ही दस्तखत भी कर दिए थे यानी प्रधानमंत्री के पेरिस में नये सौदे का एलान करने से सिर्फ दो हफ्ते पहले। यह साफ तौर पर दिखाता है कि दसां तथा रिलायंस एअरोस्पेस को पहले से इसका पता था कि एक नया सौदा किया जाने वाला है, जिसमें एचएएल को हटा दिया जाएगा और उसकी जगह पर अनिल अंबानी की कंपनी को लाया जाएगा।

मीडियापार्ट की ताजा रिपोर्ट में दस्तावेजों के अंश भी प्रस्तुत किए गए हैं, जो यह दिखाते बताए जाते हैं कि 2016 के नवंबर में दसां और रिलायंस एअरोस्पेस के बीच जो शेयरहोल्डर्स एग्रीमेंट हुआ था, उसमें इस समझौते के वित्तीय ब्यौरे दिए ही नहीं गए थे। इसके बजाए ये ब्यौरे एक ‘‘साइड लैटर’’ में दिए गए थे, जिस पर भी उसी दिन दस्तखत किए गए थे। मीडियापार्ट का कहना है कि संयुक्त उद्यम के लिए दोनों कंपनियों ने 1-1 करोड़ यूरो लगाने का जो वादा किया था, उसके अलावा दसां ने शेयरों के लिए 4 करोड़ 30 लाख यूरो का अतिरिक्त फंड मुहैया कराने और ‘अधिक से अधिक 10.6 करोड़ यूरो का’ ऋण मुहैया कराने का भी वादा किया था। इस तरह, मीडियापार्ट के अनुसार दसां ने 15.9 करोड़ यूरो तक यानी 16.9 करोड़ यूरो के कुल निवेश में 94 फीसद लगाने का जिम्मा लिया था। इसलिए, मीडियापार्ट  का कहना है कि दसां ने रिलायंस को इस संयुक्त उद्यम का मुख्य लाभप्राप्तकर्ता बनाया, जो इस सौदे में पक्षपात किए जाने की ही पुष्टिï करता है। इसकी पुष्टिï बाद के घटनाविकास से भी होती है, जिसमें सामने आयी एक वीडियो रिकार्डिंग भी शामिल है जिसमें तत्कालीन राष्टï्रपति होलेंडे को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि फ्रांस को रिलायंस को साझीदार के तौर पर स्वीकार करना ही था क्योंकि भारत सरकार इसके लिए बजिद थी।

मीडियापार्ट की रिपोर्ट यह भी बताती है कि दसां ने इस सौदे के सिरे चढऩे के बाद, एक अनाम भारतीय बिचौलिए को 10 लाख यूरो का भुगतान करने का भी वादा कर रख था। इस भुगतान का सच फ्रांसीसी भ्रष्टïाचार विरोधी प्राधिकार, एजेंस फ्रांसेइस एंटी-करप्शन द्वारा किए ऑडिट में सामने आया था।

उम्मीद की जाती है कि फ्रंास में हो रही न्यायिक जांचों में अब ऐसी और अनेक सचाइयां उजागर होंगी, जिन्हें फ्रांस और भारत, दोनों में ही जनता से बड़ी कसरत से छुपाकर रखा गया है। हमारे देश में, भाजपा के प्रवक्ता और समर्थक, मीडियापार्ट के रहस्योद्ïघाटनों को हंसी में उड़ाते रहे हैं और इसके दावे करते रहे हैं कि यह तो सिर्फ फ्रांस का अंदरूनी मामला है और इसका भारत से तो कुछ लेना-देना ही नहीं है! पर वे यह भूल जाते हैं कि भारतीय जनता बखूबी जानती है कि ताली, हमेशा दो हाथों से ही बजती है!

भारत की प्रतिरक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए अर्थ

इन मनमाने निर्णयों और संभावित रूप से चोरी-छुपे किए गए सौदों के अलावा, यह याद दिलाना भी जरूरी है कि रफाल प्रकरण के भारतीय प्रतिरक्षा के लिए और आत्मनिर्भरता के गंभीर निहितार्थ हैं।

2015-16 में जब इस सौदे के जरिए एचएएल को बाहर किए जाने और रिलायंस एअरोस्पेस को इस सौदे में लाए जाने का पूरा खेल खेला जा रहा था, उसके बाद से भारत में बहुत कुछ हो चुका है। उस समय में सरकार, भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों को तथा प्रतिरक्षा शोध व विकास संगठन (डीआरडीओ) समूह की प्रयोगशालाओं को जो अब तक भारत में प्रतिरक्षा विनिर्माण व शोध की रीढ़ बने रहे थे, हाशिए पर धकेलने में और रक्षा विनिर्माण के क्षेत्र में निजी भारतीय कंपनियों को घुसाने में, बड़े जोर-शोर से जुटी हुई थी। सरकार अपनी इस विचारधारा को लेकर इतनी निश्चिंत थी कि उसने विदेशी बड़ी रक्षा उत्पादन कंपनियों को, हिस्सा पूंजी के बहुमत पर मिल्कियत तक की छूट देकर, इस क्षेत्र में भारत में निवेश करने के न्यौतना शुरू कर दिया था। यह इसकी झूठी उम्मीद में किया जा रहा था कि इससे हमारे देश में रक्षा उत्पादन की उच्च प्रौद्योगिकियां आएंगी और भारतीय कंपनियों के धीरे-धीरे देश के रक्षा क्षेत्र में प्रवेश करने के साथ, भारतीय कंपनियों में रक्षा उत्पादन की क्षमताएं निर्मित होंगी।

लेकिन, बाद के घटनाविकास ने साफ तौर पर दिखाया है कि इस विचारधारा और इससे निकली नीतियों में, कोई तत्व ही नहीं था। उंगलियों पर गिने जाने लायक, बहुत थोड़े से अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो विदेशी बड़ी शस्त्र निर्माण कंपनियों और निजी क्षेत्र के उनके भारतीय साझीदारों के बीच, ‘रणनीतिक साझीदारी’ की बहुप्रचारित योजना से, कुछ निकला ही नहीं है। अनमने तरीके से ही सही, इस सरकार को रक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों को भारतीय ‘रणनीतिक साझीदारों’ की श्रेणी में शामिल करना पड़ा है। ऐसा होने के दोनों कारण रहे हैं, एक तो भारतीय निजी कंपनियों के पास रक्षा उत्पादन की क्षमता का अभाव है और दूसरे, विदेशी बड़े शस्त्र निर्माता, उन्नत प्रौद्योगिकियों का तबादला करने के प्रति अनिच्छुक हैं।

खुद इस रफाल सौदे में भी, रिलायंस एअरोस्पेस की भूमिका बाकायदा एक जूनियर पार्टनर की ही है, जो उप-ठेके के कामों की जिम्मेदारी संभालेगा और दसां के ही असैनिक फाल्कन जैट विमानों के हिस्से-पुर्जे तथा सब-एसेंबलीज़ बनाएगा, जिस सब का रफाल विमान से या किसी भी तरह के प्रतिरक्षा संबंधी निर्माण से, कुछ लेना-देना ही नहीं होगा। 50 फीसद की ऑफसैट्स की जो शर्त है, उसके अन्य अंशों का क्या होने जा रहा है। यह अभी स्पष्ट नहीं है, तब भी नहीं था। संशोधित डीपीपी के प्रावधानों के अनुसार, इस मामले में विदेशी आपूर्तिकर्ता को चयन की पूरी स्वतंत्रता रहने जा रही है और ऑफसैट्स का मामला सौदे की अवधि के बाद तक जा सकता है, जिसमें भारत के लिए सौदेबाजी की कोई गुंजाइश ही नहीं होगी। रफाल निर्माता कंपनी दसां तथा उसके फ्रांसीसी साझीदार, भारत में ऑफसैट्स के लिए काम तथा साझीदार चुनने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होंगे और इसके चलते हमारे देश में रक्षा उत्पादन की व्यवस्था को, शायद ही कोई उल्लेखनीय लाभ हासिल होंगे।

हालांकि, सरकार तो रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों तथा डीआरडीओ की कटाई-छंटाई करने की अपनी कोशिशों पर कायम है, फिर भी इसके संकेत हैं कि खासतौर पर सशस्त्र बलों के बीच, उनकी भूमिका के महत्व को पहचाने जाने की कुछ वापसी हो रही है और उन्होंने एक देसी रक्षा विनिर्माण आधार के फायदों को रेखांकित करना शुरू कर दिया है।

उच्चतम स्तर पर, सरकार ने मल्टी रोल लड़ाकू विमानों की भारतीय वायु सेना की जरूरत, जो वर्षों के श्रमसाध्य अध्ययन से निकलकर आयी थी, मनमाने तथा मनमौजी तरीके से, 126 रफाल विमानों से घटाकर सिर्फ 36 विमानों तक जो सीमित कर दी थी, उसकी गलती को भारतीय वायु सेना तथा भारत की रक्षा तैयारी की बढ़ती वेध्यता ने बेरहमी से बेनकाब कर दिया है। नये रफाल सौदे पर दस्तखत होने के कुछ ही समय में, भारत को 114 लड़ाकू विमानों के लिए फिर से एक और प्री-टेंडर जारी करना पड़ा। विडंबना यह है कि इस बार भी विमानों की अपूर्ति के लिए कमोबेश पहले वाले ही प्रतिस्पद्र्घी होंगे और विमानों के मिलने में और भी देरी होगी जबकि इस बीच भारतीय वायु सेना का जहाजों का बेड़ा खतरनाक तरीके से सिकुड़ रहा होगा और कमजोर हो रहा होगा। और यह सवाल भी अपनी जगह ही है कि क्या 114 लड़ाकू विमानों के प्रस्तावित नये सौदे के फलस्वरूप, वाकई प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण होगा और देसी उत्पादन क्षमताओं का निर्माण होगा?

हाल में ही सैन्य व रणनीतिक विशेषज्ञों के बीच इस पर काफी बहस चलती रही है कि मल्टी सर्विस एकीकृत युद्घ थिएटर तथा फंक्शनल कमांड कायम करने के प्रति, जिसका समर्थन चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ कर रहे हैं, भारतीय वायु सेना अनिच्छुक नजर आती है। भारतीय वायु सेना की इस अनिच्छा को सीधे-सीधे उसके पास लड़ाकू विमान परिसंपत्तियों की कमी से जोडक़र देखा जा सकता है। प्रस्तावित थिएटर कमांडों के लिए एक-दूसरे से भौगोलिक रूप से अलग युद्घ थिएटरों में, सैन्य बलों के संसाधनों को करीब-करीब स्थायी रूप से तैनात करने की जरूरत होगी। भारतीय वायु सेना के पास अब रफाल का एक पूर्ण तथा एक आंशिक स्क्वैड्रन है, जो अंबाला तथा हाशीमारा अड्डों पर तैनात हैं और दूसरे विमान हैं जो पुराने पड़ने तथा घिसने के चलते, तेजी से अपनी धार गंवाते जा रहे हैं। इसे देखते हुए जाहिर है कि भारतीय वायु सेना इसके लिए संसाधन निकाल ही नहीं सकती है कि उन्हें टुकड़ों-टुकड़ों में यहां-वहां तैनात कर दिया जाए और इसीलिए वह थिएटर कमांडों को कायम करने के विचार का ही प्रतिरोध कर रही है।

भाजपा सरकार का रफाल संबंधी फैसला, एकाधिक पहलुओं से बहुत ही नुकसानदेह फैसला साबित हो रहा है।

Rafale deal
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Dassault Aviation
François Hollande
Emmanual Macron
Narendra modi
Reliance Group
Mediapart Investigation
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BJP government

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