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भारत
राजनीति
बात-बेबात: अनुबंध खेती की मिसाल बना ‘रफ़ूगर सेक्टर’
कई बार लगता है हिंदुस्तान का अधिकांश समाज और विशेष रूप से मुखर सवर्ण हिन्दू समाज सब काम-काज छोड़कर रफ़ूगर बन गया है। ...जो इधर-उधर करके अंतत: मोदी जी के कुछ भी कहे का बचाव करने लगता है।
सत्यम श्रीवास्तव
19 Feb 2021
modi
फोटो साभार : सोशल मीडिया

जिन्हें हर बात में एक ही बात नज़र आती है उन्हें ‘सावन का अंधा’ कहा जाता है। इसका मतलब है कि ऐसा इंसान जो सावन की सुहानी रूत में ही अंधा हुआ हो और अंतिम नज़ारे जिसने हर तरफ हरियाली के देखे थे तो उसे हर तरफ अभी भी हरा-हरा ही नज़र आता है। 2014 के बाद से इस देश में भी कई लोग इस खुशफहमी से पीड़ित हैं। उन्हें सब तरफ केवल मोदी विरोध नज़र आता है। ठीक है इंसान हैं कई बातें कभी कभार बल्कि अक्सरहां यूं ही बोल जाते हैं, जानते हैं कितने ही रफ़ूगर हैं जो इधर-उधर करके अंतत: उनके कुछ भी कहे का बचाव कर लेंगे। और ये हो भी रहा है।

कई बार लगता है हिंदुस्तान का अधिकांश समाज और विशेष रूप से मुखर सवर्ण हिन्दू समाज सब काम-काज छोड़कर रफ़ूगर बन गया है। यह एक नया सेक्टर है जो 2014 के बाद वजूद में आया लेकिन इसमें सबसे ज़्यादा भर्तियाँ हुईं। कम समय में यह सेक्टर बहुत तेज़ी से ग्रो किया है। अगर इस सेक्टर का भी बीपीओ बना दिया गया होता तो मार्केट आज 53 नहीं 78 हज़ार पार कर गया होता। जितना निवेश इस क्षेत्र में बीते 7 सालों में हुआ है और कम से कम 2024 तक बना रहने वाला है वह अनुमान से परे है। इसलिए इस क्षेत्र में भर्तियाँ आज भी धड़ल्ले से हो रही हैं। यहाँ न उम्र की सीमा है, न जन्म का बंधन, न भाषा की कोई दीवार न प्रांत की कोई अड़चन। और अर्हता भी क्या एक बेकाम मगज़। बस।

असल अनुबंध या करार खेती यानी कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग तो यहाँ हो रही है। मगज़ आपका, फसल उनके मुताबिक़। और इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि खेती की फसल काटने के बाद आपके मगज़ से उन्हें कुछ लेना देना नहीं है। जब तक करार है तब आपका मगज़ एक तरह से किराए पर है उसके बाद आप जानें आपका मगज़ जानें।

कृषि मंत्री चाहें तो इसे कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग की सफल केस स्टडी के बतौर किसानों के बीच आ सकते हैं और बता सकते हैं कि आज तक एक भी मगज़ का जबरन अधिग्रहण नहीं किया गया है। ज़रूर किसान भी इस नज़ीर पर कान देंगे। खैर।

मुद्दा ये है कि मोदी जी के कुछ भी बोलने के बाद दो तरह की शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। एक वो जो उनके कहे में खोट निकालने के आतुर होती हैं और दूसरीं वो जिन्हें पता है कि किसी भी सूरत में बचाव करना है। अंतर ये है कि पहले वाली शक्तियाँ पहले मोदी जी के बोले पूरे भाषण को ध्यान लगाकर, कागज कलम बगल में रखकर सुनती हैं और दूसरी शक्तियाँ आई टी सेल द्वारा तैयार किए गए संदेशों का इंतज़ार करती हैं।

पहले वाले लोग मोदी जी के भाषण में से पहले इतिहास, अर्थशास्त्र, भूगोल, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि जैसे अनुशासन या विषयों को अलग अलग करते हैं, उसमें तथ्यान्वेषण करते हैं, संदर्भ ग्रन्थों से हवाले लेते हैं और फिर अपना मुंह खोलते हैं। दूसरी तरह के लोग आईटी सेल में तैयार होने वाले उन संदेशों की प्रतीक्षा करते हैं जिनमें भाषण पर भले कुछ न हो लेकिन उस भाषण पर बोलने वालों पर ही तीखे और नुकीले सवाल हों। एक का मकसद मोदी की छवि बिगाड़ने का रहता है तो दूसरे का उसे हर हाल में बचाए रखने का।

एक मोदी जी से जवाबदेही मांगता है तो दूसरा पहले वाले को यह चुनौती देता है उनकी छवि बिगाड़ने के लिए जिस पथ से तुम जाओगे उस पर पहले हम मिलेंगे और तुम्हें हम से जीत कर ही आगे बढ़ना होगा। ओवर टू माय डेड बॉडी से कम भाव और तेवर उनके नहीं होते।

मोदी जी भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि एक सदियों पहले रह चुके और 2014 के बाद बनते हुए विश्व गुरू जैसे महादेश का प्रधानमंत्री होने के नाते उनकी, हर कहे शब्द के प्रति जवाबदेही तो है लेकिन वो ये भी खूब जानते हैं कि उनकी जबावदेही किसके प्रति है। और फिर जो रफ़ूगर पाल रखे हैं अगर उन्हें ही जवाबदेही दी जाये तो इससे ‘घी अपनी ही थाली में’ गिरता है। मोदी जी पूरे मनोयोग से उनके लिए बोलते हैं जो उनका बचाव अपनी जान देकर भी करते रहना चाहते हैं।

देश में भाजपा की सदस्यता से भी टक्कर लेती महंगाई रोज़ रोज़ बढ़ रही है। एक समानुपातिक संबंध जैसा बन गया है भाजपा की सदस्य संख्या और महंगाई के बीच। पता नहीं उस दिन क्या होगा जब बक़ौल बिप्लब देब भाजपा श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में अपने सदस्यता अभियान शुरू करेगी। महंगाई के मीटर में लगी सुई कहीं जवाब न दे दे उस दिन। खैर।

आज का मुआमला यह है कि कभी डायन कही गयी मंहगाई और विशेष रूप से पेट्रोल डीजल व घरेलू गैस की कीमतों में बेतहाशा अनियंत्रित मंहगाई के बारे में मोदी जी ने कहा कि ‘ये स्थिति नहीं आती अगर पहले की सरकारों ने ऊर्जा आयात की दिशा में कुछ ठोस किया होता और दूसरे देशों पर निर्भरता कम रखी होती। खैर अब होनी को कौन ही टाल सकता है। यह तब की बात है जब मोदी जैसा नीतिकार और ऐसे नीतिकार के अनगिनत रफ़ूगर इस महादेश में नहीं होते थे।

अब इतनी तथ्यपरक बात पर भी सावन के अंधे कहे गए लोग अनर्गल टीका -टिप्पणियाँ कर रहे हैं। जबकि इस बात पर किसी ने गौर भी नहीं किया इस बार मोदी जी ने न तो नेहरू का नाम लिया, न इंदिरा का ना ही राजीव का और मनमोहन जी का नाम लेना तो खैर उन्होंने एकदम गैर ज़रूरी समझा।

इतने पर भी लोग कहने से बाज़ नहीं आ रहे हैं कि सात साल हो गए राज चलाते आखिर कब तक अपनी नाकामयाबियों का ठीकरा पहले की सरकारों पर फोड़ते रहेंगे? कुछ लोग तो मोदी जी को 2015 के दिल्ली चुनावों की भी याद दिला रहे हैं जब देवयोग से पेट्रोल डीजल की कीमतें बेहद कम हो गईं थीं और इन्हीं के बल पर वो खुद को सबसे नसीबवाला प्रधानमंत्री तक कह रहे थे। लोग कह रहे हैं कि तब आपको यह यह नहीं सूझा कि आयात पर निर्भरता कम करना चाहिए।

हालांकि ये फिजूल बातें हैं। नसीब का क्या है बदलते रहता है। ये सब तो ग्रह- नक्षत्रों के चाल-चलन पर आधारित है। इसमें मोदी जी क्या कर सकते हैं। रही बात सात साल राज करने के तो सात साल होते ही ही क्या हैं? एक तरफ देश को पुन: विश्वगुरू बनाना है और एक एक साल का हिसाब भी रखना है? कमाल करते हैं। अरे सदियाँ लगतीं हैं तब जाकर देश विश्वगुरू का दर्जा पाता है। हजारों साल यूं ही कोई नर्गिस अपनी बेनूरी पर नहीं रोती। वह रोती है ताकि कोई मोदी जी जैसा दीदावर पैदा हो।

हालांकि इन दो तरह के लोगों से इतर कई और तरह के लोग भी हो सकते हैं। इस संसार में भांति भांति के लोग जैसी पंक्ति के प्रणेता ने यूं ही न कहा होगा। तो एक तरह के लोगों को यह कहते भी सुना गया कि ठीक ही तो कह रहे हैं मोदी जी। पुरानी सरकारें दूरदर्शी न थीं। अगर होतीं तो ओएनजीसी जैसी कुछ और कंपनियाँ बनातीं। लेकिन वो ऐसा इसलिए भी कहते हैं कि ताकि आज जब ‘हम दो हमारे दो’ जैसे छोटे से परिवार की भूख नहीं मिट पा रही है तो कम से कम उन्हें बेचकर कुछ और रोज़ गुज़ारा कर सकते थे।

एक और तरह के लोग हैं जो मानते हैं कि पुरानी सरकारें आने वाली कई सरकारों को देख पा रहीं थीं और इसलिए आयात पर निर्भरता कम नहीं की वरना यहाँ तक आते-आते वो आत्मनिर्भरता कब की सीज़न सेल में बिक जाती और फिर जब नए सिरे से आयात करते तो जहां तेल निकलता है, उनका मजहब आड़े आ जाता और पूरा देश बिना पेट्रोल-डीजल के ही जीने को मजबूर हो जाता। हालांकि ऐसा होता नहीं है। दुश्मनी, नफरत सब अपनी जगह। वो कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग के लिए ज़रूरी है क्योंकि उसकी घरेलू मांग है लेकिन बिजनेस तो बिजनेस होता है। क्या चीन से दुश्मनी कम हो गयी है? नहीं। फिर भी उसके यहाँ की एक कंपनी को आईपीएल की ठेकेदारी मिली न?

फिर भी पुरानी सरकारें इस मामले में दूरदर्शी नहीं थी कि पेट्रोल पंप की डिजायन इस तरह बनातीं कि उनमें तीन अंकों में कीमतें दिखाई जा सकतीं। कितनी ही जगहों पर कुप्पियों से तेल दिया जा रहा है क्योंकि पेट्रोल पंपों में 100 रुपया प्रति लीटर की दर दिखलाई ही नहीं दे रही है। इस अर्थ में पुरानी सरकारों को दोष दिया जा सकता है जिन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि कभी मोदी जी जैसा हिन्दू हृदय सम्राट यहाँ राज करेगा जिसका दिल दरिया होगा और उसके राज में लोग तीन अंकों की कीमत पर पेट्रोल डीजल खरीदेंगे और उसे देशहित में दिया चन्दा मानकर खुद पर लहलोट हो जाएँगे। पुरानी सरकारें इस मामले में तंगदिल थीं। संगदिल तो थीं हीं जो इतना कुछ बिगाड़ कर गईं हैं कि अभी उतने ही साल लगेंगे उसे समतल करने में।

___________________

(यह एक व्यंग्य टिप्पणी है। इसके लेखक डेढ़ दशक से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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