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भारत
राजनीति
बाबरी मस्जिद, राम जन्मभूमि और बौद्ध अवशेष
राज्य-प्रशासन एक मंदिर के निर्माण में उलझा हुआ है, जबकि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मामले निजी हाथों में हैं, और जिन्हें मुनाफ़ा कमाने वालों  की दया पर छोड़ दिया गया है।
राम पुनियानी
01 Jun 2020
ayodhya

इस समय देश में लॉकडाउन चल रहा है। कुछ को छोड़कर उत्पादन और निर्माण से जुड़ी ज़्यादातर गतिविधियां कुछ हद तक रुकी हुई हैं। ऐसी ही एक गतिविधि हिंदू देवता, राम को समर्पित मंदिर का निर्माण भी है। लंबे समय से चल रहे बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से इस ढांचे के निर्माण का रास्ता पिछले साल साफ़ हो गया था। इस फ़ैसले पर व्यापक रूप से बहस नहीं हो पायी थी, क्योंकि उस विवाद में "मुस्लिम पक्ष" ने शुरुआत से ही माना था कि सुप्रीम कोर्ट का जो भी फ़ैसला होगा, वे उसे स्वीकार कर लेंगे।

हिंदू पक्ष, जिसमें आरएसएस और उससे निकले हुए संगठन शामिल हैं, उसने बार-बार इस बात का संकेत दिया था कि राम को समर्पित जो मंदिर होगा,उसका निर्माण उसी स्थल पर किया जायेगा।

सुप्रीम कोर्ट अपने विवेक का इस्तेमाल को परे रखते हुए उस भूमि के क़ानूनी स्वामित्व के पचड़े में नहीं फंसा, जिस पर मंदिर बनाया जाना है, और जहां कभी बाबरी मस्जिद खड़ी थी। 2010 के पहले के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के मुताबिक़, "हिंदुओं की आस्था" कि राम का जन्म उसी स्थल पर हुआ था, उन्हें प्रधानता दी गयी थी और उस भूमि को तीन भागों में विभाजित कर दिया गया था।

वैसे तो उत्तर प्रदेश के वक्फ़ बोर्ड का इस ज़मीन पर क़ानूनी कब्ज़ा रहा था। लेकिन, दूसरी तरफ़ हिंदू राष्ट्रवादियों को ख़ुश करने के लिए केंद्र सरकार ने मंदिर निर्माण के काम को वस्तुतः अपने हाथ में ले लिया है। (यह केंद्र सरकार ही है,जिसने इस स्थल पर निर्माण और अन्य गतिविधियों की देखरेख के लिए 15 सदस्यीय ट्रस्ट का गठन किया है। साथ ही साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूर्व प्रमुख सचिव, नृपेंद्र मिश्रा को आगामी मंदिर की निर्माण समिति का प्रमुख नियुक्त किया गया है।)

इसके बाद भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह ने इस बात की घोषणा की थी कि मंदिर भव्य होगा और "आकाश को छूता हुआ होगा"। इस पर काम 11 मई को शुरू हो गया और इस समय ज़मीन को समतल करने का काम चल रहा है, इसी बीच विश्व हिंदू परिषद यानी वीएचपी के प्रवक्ता विनोद बंसल की तरफ़ से दावा किया गया है कि ज़मीन को समतल करने के दौरान कई वस्तुयें सामने आयी हैं, जिनमें पत्थर पर उकेरे गये फूल, और कलश को चित्रित करती लघुमूर्तियां, आमलक, दरवाज़े की चौखट जैसी “पुरातात्विक महत्व की कई वस्तुयें’ शामिल हैं। इसके अलावा, इस काम के दौरान, एक पाँच फुट का शिवलिंग, काले कसौटियों से बने सात खंभे, लाल बलुआ पत्थर के छह स्तंभ और देवी-देवताओं की टूटी हुई मूर्तियां भी मिली हैं।”

इसे लेकर दो तरह की प्रतिक्रियायें सामने आयीं। एक प्रतिक्रिया तो इतिहासकार रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब की आलोचना थी, और उनकी आलोचना यह थी कि बाबरी मस्जिद के नीचे जो कुछ मौजूद था, उस पर उन्होंने ग़ैर-ज़रूरी विवाद पैदा कर दिया था। (एक पुरातत्वविद्, केके मुहम्मद ने बताया था कि मस्जिद के नीचे किसी मंदिर के अवशेष थे।) उसी समय मंदिर विध्वंसक के रूप में मुस्लिम राजाओं के ख़िलाफ़ नफ़रत फ़ैलाते हुए इन अव्वल दर्जे के दोनों इतिहासकारों को बदनाम करने के लिए एक ट्विटर ट्रेंड को भी ज़ोर-शोर से चलाया गया।

जो दूसरी प्रतिक्रिया आयी, उससे हिंदू राष्ट्रवादियों को चिंता हो सकती है। कलाकृतियों की तस्वीरों को देखकर कई बौद्ध समूहों ने आवाज़ उठायी है और ऐलान किया है कि जो कुछ खोज में निकला है, वह शिवलिंग नहीं है, बल्कि एक ऐसा स्तंभ है, जो बौद्ध धर्म से जुड़ा हुआ है और जिसकी नक्काशी महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले में खोजे गये अजंता और एलोरा की गुफ़ाओं के समान है। उन्होंने अयोध्या फ़ैसले के संदर्भों में उस ब्रिटिश पुरातत्वविद्, पैट्रिक कार्नेगी का हवाला दिया है, जिन्होंने उल्लेख किया था कि अयोध्या में मस्जिद के निर्माण में इस्तेमाल किये जाने वाले कसौटी स्तंभ, वाराणसी और अन्य जगहों पर खोजे गये बौद्ध स्तंभों के साथ "ज़बरदस्त रूप से मिलते-जुलते" हैं। कई बौद्ध समूह आगे आ रहे हैं और इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए न्यायालयों के रुख़ करने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने इस मुद्दे को उठाने और अयोध्या में उचित वैज्ञानिक पर्यवेक्षण के तहत खुदाई करवाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय धरोहर-संरक्षण संस्था, यूनेस्को से अपील करने की भी योजना बनायी है, क्योंकि, साकेत (अयोध्या का एक पुराना नाम) भी एक बौद्ध कला और दर्शन के विकास का एक महत्वपूर्ण स्थल था।

बौद्धों का मूल तर्क वही है,जिसे संविधान-लेखक और पहले क़ानून मंत्री बीआर अंबेडकर ने दिया था। “उन्होंने रिवोल्युशन एण्ड काउंटर रिवोल्युशन इन एनसिएंट इंडिया में लिखा है कि भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच के घातक संघर्ष के इतिहास के अलावा कुछ भी नहीं है"। यह भारत के अतीत की उस सांप्रदायिक बोध के बिल्कुल उलट है,जिसे दक्षिणपंथी मूल संघर्ष के रूप में प्रचारित करते रहे हैं, जिससे कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच फूट पैदा हुई है।

अम्बेडकर भारतीय इतिहास को एक क्रांति और प्रति-क्रांति के रूप में देखते हैं। वह बौद्ध धर्म को क्रांति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि इसकी स्थापना समानता, तर्कवाद और अहिंसा के आधार पर की गयी थी। उनके मुताबिक़, मनुस्मृति की विधि संहिता और उसका प्रवर्तन, आदि शंकराचार्य की विचारधारा और पुष्यमित्र शुंग के कार्यों का मक़सद बौद्ध धर्म को वैचारिक और भौतिक रूप से मिटा देना था। इसे उन्होंने ऐसी प्रतिक्रांति कहा है, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं के ख़ात्मे के साथ-साथ हज़ारों बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया था।

अब सवाल है कि हम यहाँ से कहाँ जायेंगे— 1980 के दशक में एक लगातार अभियान के ज़रिये हिंदू सांप्रदायिक ताक़तों ने इतिहास के एक ऐसे संस्करण का निर्माण किया है, जो ब्रिटिश द्वारा स्थापित उन विचारों का एक मिश्रण है, जिसमें कहा गया था कि बाबरी मस्जिद की जगह जो मंदिर रहा होगा, वह "मंदिर कैसे रहा होगा", और कि "वहां एक मंदिर था" और यह हिंदू सांप्रदाय के राम का जन्म स्थान था। सच्चाई यही है कि अयोध्या में कई मंदिर हैं, और जिनके पुजारियों का दावा है कि यह उनका ही मंदिर है, जहां भगवान राम का जन्म हुआ था। पुरातात्विक प्रयास भी संपूर्ण तरीक़े से नहीं हुए हैं, सच्चाई तक पहुंचने के लिए जो प्रयास किये गये हैं, वह विरोधाभासी और आधे अधूरे हैं। तो ऐसे में केके मुहम्मद भला कैसे बता सकते थे कि मस्जिद के नीचे किसी मंदिर के अवशेष थे, जबकि इसे लेकर पेशेवर पुरातत्वविदों की कई अलग-अलग राय थी। सुप्रीम कोर्ट ने इनमें से ज़्यादातर पहलुओं पर टिप्पणी करने से परहेज किया था।

क्या हमारी क़ानूनी प्रणाली और यूनेस्को, इतिहास की उस समग्र तस्वीर को विश्वसनीयता बख़्शेंगे, जैसा कि अम्बेडकर और कई दूसरे लोगों को इसमें नज़र आता है? एक व्याख्या तो यह भी है कि जवाबी ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया ने बौद्ध विरासत स्थलों को नष्ट कर दिया था और बाद में कुछ मुस्लिम शासकों ने उन्हें लूट लिया था। लेकिन, जो कुछ प्रचारित किया जाता है,वह यही है कि मुस्लिम लुटेरों ने इन स्थलों को नष्ट कर दिया था। जैसा कि तर्कसंगत इतिहासलेखन में बड़े पैमाने पर यह दिखाया जाता है कि जब कभी सत्ता पर पकड़ बनाने के लिए धन या मुक़ाबले की उन्हें ज़रूरत होती थी, तो मुस्लिम राजा मुख्य रूप से पवित्र स्थानों को नष्ट कर दिया करते थे। यह एक ऐसा मामला है, जहां बौद्ध स्थलों पर हमला वैचारिक और भौतिक स्तर पर शुरू होता है और उसके बाद परवर्ती मुस्लिम राजाओं द्वारा लूट को अंजाम दिया जाता है। बौद्ध धर्म पर हुए इस पहले हमले को छुपा लेना भी बौद्ध धर्म के जन्मस्थल, यानी भारत से बौद्ध धर्म के ख़ात्मे के कारणों को छुपा लेना है।

बौद्ध धर्म की विरासत समग्र रूप से भारत और विश्व का बहुमूल्य ख़ज़ाना है। जिस समय राम को समर्पित मंदिर का निर्माण राज्य-प्रशासन द्वारा किया जा रहा है, तो हर किसी को सोमनाथ मंदिर की याद दिलाई जा रही है। आज़ादी के तुरंत बाद इस बात की मांग की गयी थी कि राज्य सोमनाथ मंदिर का निर्माण करे। तब महान हिन्दू, गांधी ने कहा था कि हिंदू समाज अपना मंदिर बनाने में सक्षम है; राज्य-प्रशासन को ऐसे कार्यों से ख़ुद को अलग रखना चाहिए।

गांधी के शिष्य और आधुनिक भारत के निर्माता, जवाहरलाल नेहरू ने भी भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को इसके उद्घाटन की मंज़ूरी नहीं दी थी। बाद में उद्योगों, बांधों और विश्वविद्यालयों की नींव रखने वाले उसी नेहरू ने इन्हीं संरचनाओं को आधुनिक भारत का मंदिर कहा था! यह समय, उस समय के कितना उलट है, जहां राज्य-प्रशासन मंदिर के निर्माण में गहराई से उलझा हुआ है, जबकि स्वास्थ्य, शिक्षा और समाज का ख़्याल रखने वाली अन्य सभी प्रणालियों को निजी हाथों के हवाले किया जा रहा है, जिसका मक़सद सामाजिक कल्याण के बजाय मुनाफ़ा है।

 (लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और समालोचक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Babri Masjid, Ram Janmbhoomi and Buddhist Relics

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