NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
रवीश की क़लम: उन्हीं भाषणों में हारते नज़र आ रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी जो उन्हें सियासी चक्रवर्ती बनाते हैं
आप संसद के दोनों सदनों में दिए गए प्रधानमंत्री के भाषणों में कृषि कानूनों के संदर्भ में उनकी बातों को एक जगह रखें तो आपको उन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं जो पिछले सात-आठ महीने से चले आ रहे किसान आंदोलन के दौरान उठाए गए हैं।
रवीश कुमार
11 Feb 2021
रवीश की क़लम: उन्हीं भाषणों में हारते नज़र आ रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी जो उन्हें सियासी चक्रवर्ती बनाते हैं

स्नातक की परीक्षा में कई छात्र प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देते हैं। उत्तर के नाम पर पन्ना भर देते हैं। घंटी बजने तक लिखते रहते हैं। पन्नों को भरते रहते हैं। इस तरह के छात्र कभी स्वीकार नहीं करते कि उन्हें प्रश्नों के उत्तर मालूम नहीं है। कई बार उन्हें प्रश्न भी समझ नहीं आता। बस ख़ाली पन्ना जहां तक दिखता है वहां तक लिखते चले जाते हैं। यह उदाहरण इसलिए दिया ताकि आप संसद के दोनों सदनों में दिए गए प्रधानमंत्री के भाषण को ठीक से समझ पाएं। दोनों भाषणों में कृषि कानूनों के संदर्भ में उनकी बातों को एक जगह रखें तो आपको उन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं जो पिछले सात-आठ महीने से चले आ रहे किसान आंदोलन के दौरान उठाए गए हैं। लेकिन पहली नज़र में पूरा भाषण सुन कर और पढ़ कर ऐसा लगता है कि कृषि कानूनों के संदर्भ में सारे जवाब दे दिए गए हैं। उस विद्यार्थी की तरह जिसे या तो प्रश्न का उत्तर नहीं पता था या प्रश्न ही समझ नहीं आया, या फिर उत्तर ही नहीं देना था, बस पन्ना भर कर बाहर आ जाना था। प्रधानमंत्री ने आज वही किया।

दोनों भाषणों में कहीं भी आढ़ती या बिचौलिया शब्द का ज़िक्र नहीं है। लोकसभा के भाषण में एक जगह मिडलमैन का ज़िक्र आया मगर वो इस कानून के संदर्भ में फिट नहीं बैठता है। पूरे भाषण में प्रधानमंत्री अनुबंध कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) और उससे जुड़ी आशंकाओं पर कुछ नहीं बोलते हैं।

पूरे भाषण में प्रधानमंत्री भंडारण को लेकर बने कानून और इस सेक्टर को चंद उद्योगपतियों के हाथ सौंप देने की आशंकाओं के बारे में नहीं कुछ नहीं बोलते हैं।

पूरे भाषण में प्रधानमंत्री कहीं नहीं बोलते हैं कि प्राइवेट बाज़ार में उन्हें कीमत किस आधार पर मिलेगी? बस कहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा। यह नहीं बताते कि मंडी के सामने खुलने वाली प्राइवेट मंडी में भी जारी रहेगा या नहीं?

लोकसभा में प्रधानंमत्री ज़ोर देकर कहते हैं कि ज़बरन कानून नहीं थोपा है। एक और विकल्प दिया है। लेकिन इसका जवाब नहीं देते कि नए विकल्प में किसानों को दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक मिलेगा या मिल सकता है?

सरकार और किसान नेताओं के बीच दस दौर से अधिक की बातचीत हो गई होगी। क्या इस बातचीत में किसानों ने कहीं भी कोई ऐसी आपत्ति या आशंका नहीं जताई होगी जिसका जवाब प्रधानमंत्री दे सकते थे?

प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं के भाषण के बारे में कहा कि उनमें मंशा अधिक थी, तत्व कम थे। इंटेट की बात हुई लेकिन कंटेंट नहीं था। इस तरह से वे सारे भाषणों को सिरे से नकार देते हैं जिन भाषणों के बारे में शुरू करते हुए कहते हैं कि अच्छी चर्चा हुई। लोकसभा में राज्यसभा की तारीफ कर रहे थे तो वहां के किसी सांसद ने कोई विशिष्ट आपत्ति उठाई होगी उसी का जवाब दे देते। प्रधानमंत्री विपक्ष के भाषणों को धारणा से ग्रसित बताते हैं और खुद धारणा से ग्रसित होकर विपक्ष पर जवाब देने लगते हैं।

दोनों भाषणों को सुन कर यही लगा कि प्रधानमंत्री कुछ नया नहीं कह रहे हैं। वही कह रहे हैं जो सरकार पहले दिन से इस आंदोलन के जवाब में कह रही है। वही कह रहे हैं जो सरकार किसानो के साथ बातचीत शुरू होने से पहले से कह रही थी और बातचीत के दौरान और बाद में कहती आई है।

प्रधानमंत्री छोटे किसानों के लिए लाया गया कानून बताते हैं मगर कानून के बारे में बात नहीं करते हैं। वे कानून का बचाव करते हैं लेकिन कानून की धाराओं की खूबियां बताते हुए नहीं बचाव नहीं करते हैं। सरकार के दूसरे फैसलों से पन्ना भरते हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड, नीम जड़ित यूरिया, फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड सहित कई तरह की योजनाओं को गिनाने लगते हैं। जबकि इनमें से हरेक योजना पर अलग से बात हो सकती है और इनकी सीमाओं और कमियों के बारे में बात हो सकती है। इनमें से कुछ विवादित भी हैं और दावों में ही सफल नज़र आती हैं।

प्रधानमंत्री बेहद चतुराई से सभी योजनाओं की सफलता-असफलता को अपने भाषण से ढंक देते हैं। सफल भी हो जाते हैं क्योंकि किसी सामान्य पाठक या दर्शक के बस की बात नहीं है कि वह उन तथ्यों की जांच करे। प्रधानमंत्री स्नातक के उस परीक्षार्थी की तरह पन्ना भरे जा रहे थे। पूरा भाषण इस ढांचे पर आधारित था कि इतना बोल दो इतना बोल दो कि तथ्यों की जांच करने वाला भी हांफ जाए और ख़बर छापने और लिखने का समय निकल जाए। गोदी मीडिया के ज़माने में आप अगले दिन भी उन दावों की समीक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। प्रधानमंत्री जानते हैं कि वे जो भी कहते हैं कि एकतरफा और निर्विरोध छपता चला जाता है और दर्शकों के बीच पहुंच जाता है।

लोकसभा में प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण की ज़ोरदार वकालत की। बाबूशाही पर हमला करते हैं और कहते हैं कि बाबू अगर देश के हैं तो

युवा भी तो देश के हैं। संपदा सृजन करने वालों की बात करते हैं जो नौकरियां दे सकें।

इस काम में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां कैसे रुकावट बन रही हैं, यह नहीं बताते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण से कितनों को रोज़गार मिलेगा यही बता देते और एक आंकड़ा रख देते कि उनकी सरकार में जितनी भी कंपनियों का निजीकरण हुआ है उनमें नौकरियां बढ़ी हैं या घटी हैं। रोज़गार के नाम पर निजीकरण के फैसले के बचाव में पन्ना भर कर निकल गए। प्रधानमंत्री कुछ भी बोल कर निकल सकते हैं क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में उनके समर्थक आज भी निजीकरण के विरोधियों पर भारी पड़ जाएंगे। जिन कंपनियों में निजीकरण का विरोध हो रहा है वहीं पर मतदान हो जाए तो प्रधानमंत्री मोदी जीत जाएंगे। ऐसा विरोध करने वाले ही कहते हैं कि उनकी कंपनी के भक्त समझ नहीं रहे हैं।

2014 से लेकर आज तक प्रधानमंत्री ने रोज़गार के आंकड़े नहीं दिए हैं। यह ठीक है कि बेरोज़गारों में वे लोकप्रिय हैं और नौकरी नहीं देने पर भी वोट उन्हीं को मिलेगा लेकिन तब भी यह सवाल तो है कि 2019 के चुनाव से पहले 40 साल में सबसे अधिक बेरोज़गारी के आंकड़े की रिपोर्ट के साथ क्या हुआ था। रोज़गार के आंकड़े देने की नई व्यवस्था बनाने की बात की गई थी जिसका आज तक पता नहीं है।

प्रधानमंत्री के भाषण का लिखा हुआ हिस्सा आप राज्यसभा और लोकसभा की वेबसाइट से निकाल कर पढ़ें। आपको पता चलेगा कि कई मिनट तक वे भारत क्या है, भारत के बारे में क्या सोचा जाता है इन पर सब बोलते रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे विश्वविद्यालय की वाद विवाद प्रतियोगिताओं में भूमिका बांधी जाती है। भारत पर विचार से समां बांधते हैं ताकि लोगों को लगे कि किसी दार्शनिक का बयान आ रहा है। प्रधानमंत्री राजनीतिक रुप से अजेय हो सकते हैं। चुनावी गणित में अपने भाषणों से विपक्ष और आलोचकों को हरा सकते हैं। लेकिन जिन भाषणों से वे चक्रवर्ती हो कर निकले हैं उन्हीं भाषणों में वे पराजित भी नज़र आते हैं। अपने ही भाषणों में लड़खड़ाते नज़र आते हैं। महफिल जीतने वाले वक्ता को पता होता है कि उसने घुमा-फिरा कर बातों से प्रभावित किया या सीधा साफ साफ बोल कर किया। अगर कृषि कानूनों के प्रावधानों को लेकर ही जवाब देते तो कहा जाता कि साफ-साफ जवाब दिया। घुमावदार लच्छेदार बातों के बारे में श्रोता को पता होता है। ऐसी बातें कब कहीं जाती हैं। क्यों कही जाती हैं।

(रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार और मशहूर टीवी एंकर हैं। उनकी यह टिप्पणी उनके आधिकारिक फेसबुक पेज से साभार ली गई है। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

ravish kumar
Narendra modi
Farm bills 2020
contract farming
MSP
farmers protest

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़

हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 


बाकी खबरें

  • spain
    डीडब्ल्यू
    स्पेन : 'कंप्यूटर एरर' की वजह से पास हुआ श्रम सुधार बिल
    08 Feb 2022
    स्पेन की संसद ने सरकार के श्रम सुधार बिल को सिर्फ़ 1 वोट के फ़ासले से पारित कर दिया- विपक्ष ने कहा कि यह एक वोट उनके सदस्य ने ग़लती से दे दिया था।
  • Uttarakhand
    मुकुंद झा
    उत्तराखंड चुनाव 2022 : बदहाल अस्पताल, इलाज के लिए भटकते मरीज़!
    08 Feb 2022
    भारतीय रिजर्व बैंक की स्टेट फाइनेंस एंड स्टडी ऑफ़ बजट 2020-21 रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार के द्वारा जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया गया है।
  • uttarakhand
    न्यूज़क्लिक टीम
    चमोली जिले का थराली विधानसभा: आखिर क्या चाहती है जनता?
    07 Feb 2022
    उत्तराखंड चुनाव से पहले न्यूज़क्लिक की टीम ने चमोली जिले के थराली विधानसभा का दौरा किया और लोगों से बातचीत करके समझने का प्रयास किया की क्या है उनके मुद्दे ? देखिए हमारी ग्राउंड रिपोर्ट
  • election
    न्यूज़क्लिक टीम
    धर्म का कार्ड नाजी दौर में ढकेलेगा देश को, बस आंदोलन देते हैं राहत : इरफ़ान हबीब
    07 Feb 2022
    Exclusive इंटरव्यू में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने देश के Living Legend, विश्व विख्यात इतिहासकार इरफ़ान हबीब से उनके घर अलीगढ़ में बातचीत की और जानना चाहा कि चुनावी समर में वह कैसे देख रहे हैं…
  • Punjab
    न्यूज़क्लिक टीम
    पंजाबः बदहाल विश्वविद्यालयों पर क्यों नहीं बात करती राजनैतिक पार्टियाँ !
    07 Feb 2022
    पंजाब में सभी राजनैतिक पार्टियाँ राज्य पर 3 लाख करोड़ के कर्ज़े की दुहाई दे रही है. इस वित्तीय संकट का एक असर इसके विश्वविद्यालयों पर भी पड़ रहा है. अच्छे रीसर्च के बावजूद विश्वविद्यालय पैसे की भारी…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License