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अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर एक नज़र – भाग 6
पंजशीर घाटी के विद्रोहियों के साथ तालिबान की सुलह पूरा खेल बदल सकती है... सबसे बड़ी तस्वीर यह है कि मॉस्को काबुल में जल्द से जल्द अंतरिम सरकार के गठन को प्रोत्साहित कर रहा है।
एम. के. भद्रकुमार
24 Aug 2021
Translated by महेश कुमार
अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर एक नज़र – भाग 6
पंजशीर घाटी, अफ़ग़ानिस्तान, एक प्राकृतिक किला है, जो पामीर की ओर जाने वाली विशाल पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी एक लंबी हरी-भरी घाटी है।

पंजशीर घाटी के अनकहे रहस्य

कई भारतीय विश्लेषक इस बात से खुश हैं कि तालिबान का खेल बिगड़ रहा है, क्योंकि अपदस्थ राष्ट्रपति अशरफ गनी के पूर्व डिप्टी अमरुल्ला सालेह, जो 1990 के दशक के उत्तरार्ध में  तालिबान विरोधी आंदोलन के मुख्य ताक़त थे, कहा जा रहा है कि सालेह-नॉर्दन एलायंस तालिबान के खिलाफ टक्कर लेने को तैयार है। 

यथार्थवाद की चल रही ठंडी हवा ने उन्हें अब तक यह कड़वा सबक सिखा दिया होगा कि इच्छाधारी सोच वास्तविकता में नहीं बदलती है।

इसे भी पढ़े :  अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम पर कुछ विचार-I

पंजशीर घाटी लोककथाओं का खज़ाना है, क्योंकि 1980 में जब सोवियत सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप किया, तो उसकी सेना को इस घाटी में पहली बार भयंकर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। सालेह लगातार उसी प्रतिरोध को भुनाने की कोशिश करते रहे हैं। 

करीब 150 किमी लंबी पंजशीर घाटी अविश्वसनीय रूप से बहुत खूबसूरत है और काबुल की तरफ जाने वाले दक्षिण मार्ग जोकि एक संकीर्ण पट्टी है, साथ ही यह पट्टी खूबसूरत ऊंचे पहाड़ों से तीन तरफ से घिरी हुई है, इसकी कल्पना की में एक पौराणिक पकड़ रो है ही साथ ही इसमें कुछ छुपे रहस्य भी हैं।

इसे भी पढ़े : अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम पर विचार – भाग दो 

शुरुआत में बता दें कि यहाँ एक अक्सर किंवदंती कही जाती है कि पंजशीर में लाल सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन, सच्चाई यह है कि पंजशीर में सोवियत अभियान 1980-1985 की अवधि का एक सबसे छोटा अभियान था, जो सख्त दंडात्मक मिशनों की एक श्रृंखला थी – जिनकी संख्या नौ या उससे भी अधिक थी, जो मॉस्को में नेतृत्व परिवर्तन के कारण अनिर्णायक रूप से अपने आप ही समाप्त हो गया था। याद रखें, 1986 में ही मिखाइल गोर्बाचेव ने अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी के अपने इरादे की घोषणा कर दी थी।

लेकिन जिस बात की सबसे कम जानकारी वह यह कि सोवियत युग की सुरक्षा एजेंसी केजीबी ने अहमद शाह मसूद के साथ एक समझौता किया था जिसके बाद सोवियत सेना ने अपना अभियान समाप्त कर दिया था और मसूद के लोगों ने पंजशीर में सोवियत ठिकानों पर हमला करन बंद कर दिया था और सालंग सुरंग (जो इसे जोड़ती है) में भी सैन्य यातायात को बाधित नहीं किया था (जो सुरंग सोवियत उज़्बेकिस्तान के दक्षिणी सैन्य जिले को काबुल मुख्यालय टर्मेज़ को जोड़ती है जहाँ से पूरे अफ़ग़ान ऑपरेशन का प्रबंधन किया जाता था।)

केजीबी और मसूद के बीच फॉस्टियन सौदा 1989 में सोवियत यूनियन की वापसी तक सही था, बावजूद इसके कि अफ़ग़ान सरकार ने सौदे को बार-बार कमजोर करने के प्रयास किए थे। वास्तव में, यह सालंग सुरंग ही थी जिसके माध्यम से सोवियत सेना अंततः 1989 में काबुल से शांतिपूर्वक पीछे हट गई थी। 

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पंजशीर के बारे में एक और मिथक यह है कि उसने नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाले पीडीपीए शासन को हरा दिया था, जबकि वास्तव में, मसूद ने दलबदल कर सरकार बनाई और सत्ता पर कब्जा कर लिया था, जबकि संयुक्त राष्ट्र काबुल में एक मुजाहिदीन सरकार को सत्ता में बैठाने के बारे में अभी बातचीत कर ही रहा था।

और इन सभी मिथकों की जननी तथाकथित उत्तरी गठबंधन के बैनर तले 1990 के दशक के उत्तरार्ध में 'प्रतिरोध' को बताया जा रहा है, जो कि झगड़ालू समहू का एक बोझिल मंच था और शायद ही कोई एलायंस था। नॉर्दर्न एलायंस, तालिबान के हाथों अपना इलाका खोता जा रहा था और तालिबान निकट भविष्य में पूरी जीत हासिल करने की ओर था लेकिन 9/11 के हमलों के बाद अमेरिकी हस्तक्षेप के चलते क्षेत्रीय देशों ने उत्तरी गठबंधन का समर्थन कर दिया – जिसमें ईरान, रूस और ईरान प्रमुख थे - और जिनके समर्थन के बिना नॉर्दर्न एलायंस उखड़ गया होता। 

यह कहना पर्याप्त होगा कि पंजशीर में रूसी खुफिया एजेंसी के पुराने संबंध हैं और वर्तमान संदर्भ में, मास्को सुरक्षा के हालात बिगड़ने की इजाज़त नहीं दे सकता है और इसलिए वह  तालिबान के विरोध की अनुमति भी नहीं दे सकता है, क्योंकि इससे केवल इस्लामिक स्टेट को फ़ायदा होगा, जिसकी मध्य एशिया की सीमा से लगे उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में काफी उपस्थिति है।

इसे भी पढ़े: अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर एक नज़र-IV

मॉस्को को अच्छी तरह से पता होगा कि सालेह सीआईए का ही तैयार किया पियादा है, जिसे उसने एक खुफिया ऑपरेटिव के रूप में प्रशिक्षित किया है और बढ़ते समय के साथ उसे अफ़ग़ान सत्ता के शीर्ष पर 'काबुल में अपने आदमी' के रूप में बैठा दिया था। इसलिए, जब सालेह 'प्रतिरोध' की बात करता है तो वह रूस, चीन और ईरान के खिलाफ लंबा खेल खेलने की कोशिश कर रहा है ताकि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की वापसी हो सके। 

सबसे बड़ी बात यह है कि सालेह को पंजशीरियों को अपने पीछे एकजुट करने में समस्या होगी। पंजशीर गुटबाजी की राजनीति का छत्ता है। मसूद जब जिंदा था तब भी उसके सहयोगी एक-दूसरे को काट रहे थे। 2001 में उनकी हत्या के बाद, वे अलग हो गए। अब्दुल रहमान की 2002 में काबुल हवाई अड्डे पर रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या कर दी गई थी; मोहम्मद फहीम की मृत्यु हो गई थी; यूनुस कानून (जो उन सभी में शायद सबसे चतुर था) हाशिए पर चला गया; और सिर्फ अब्दुल्ला अब्दुल्ला अकेले थे जो बच पाए थे। 

इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तालिबान ने उन पंजशीरियों के साथ सुलह करने के लिए रूसी मदद मांगी है, जिनसे सुलह हो सकती हैं उनमें कनूनी, मसूद के दो छोटे भाई और उनके बेटे अहमद मसूद शामिल हैं। यह पूरी तरह से हज़म करने वाली बात है कि तालिबान उनके सामने सत्ता के बंटवारे का कोई फार्मूला पेश कर सकता है। 

तालिबान अत्यधिक व्यावहारिक है और पंजशीर पर कब्जा करने के लिए सैन्य हमले को फिर से शुरू करने को बेमानी समझता है। तालिबान की प्राथमिकता, ऐतिहासिक रूप से, सैन्य विकल्प को अंतिम उपाय के रूप में इस्तेमाल करने की रही है।

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यह तालिबान का एक चतुर कदम है क्योंकि वह पंजशीरियों के साथ रूस के गुप्त आदान-प्रदान  के इतिहास को जानता है। जहां तक रूस का संबंध है, काबुल में अंतरिम सरकार के गठन के लिए मार्गदर्शन देना का उसके सामने एक शानदार अवसर है।

आज रूस की मुख्य चिंता इस बिंदु पर है कि अगर शत्रुता को नहीं रोका जाता है तो यह केवल इस्लामिक स्टेट के लाभ के लिए काम कर सकती है। रूस को मध्य एशियाई क्षेत्र के दरवाजे पर एक और सीरिया जैसे संघर्ष की आशंका नज़र आती है। रूसी की नज़र में, आईएस अमेरिका का एक भू-राजनीतिक उपकरण है।

बड़ी तस्वीर यह है कि मास्को काबुल में जल्द से जल्द अंतरिम सरकार के गठन को आगे बढ़ाना चाहता है। यदि सत्ता के बंटवारे की व्यवस्था पर काम कर लिया जाता है, तो यह नई सरकार की अंतरराष्ट्रीय वैधता को बढ़ाएगा, जो बदले में रूस, चीन, ईरान और मध्य एशियाई देशों द्वारा इसकी राजनयिक मान्यता हासिल कर लेगा। इसलिए, पंजशीर घाटी के साथ तालिबान का सुलह पूरे खेल को बदल सकती है।

एम.के. भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत थे। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Reflections on Events in Afghanistan- VI

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