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भारत
राजनीति
नेहरू म्यूज़ियम का नाम बदलनाः राष्ट्र की स्मृतियों के ख़िलाफ़ संघ परिवार का युद्ध
सवाल उठता है कि क्या संघ परिवार की लड़ाई सिर्फ़ नेहरू से है? गहराई से देखें तो संघ परिवार देश के इतिहास की उन तमाम स्मृतियों से लड़ रहा है जो संस्कृति या विचारधारा की विविधता तथा लोकतंत्र के पक्ष में है।
अनिल सिन्हा
04 Apr 2022
Nehru Museum
नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी। फ़ोटो साभार

मोदी सरकार ने नेहरू म्यूजियम का नाम बदल कर प्रधानमंत्री म्यूजियम कर दिया है और अब यह सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों की स्मृतियों को संजोने वाली जगह होगी। यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि यह देश के सभी प्रधानमंत्रियों के योगदान का सम्मान करने वाला कदम है। लेकिन गहराई में जाने पर समझना मुश्किल नहीं है कि यह राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियों को मिटाने के संघ परिवार के प्रोजेक्ट का हिस्सा है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बाकी प्रधानमंत्रियों के साथ खड़ा करने का काम ऊपर से लोकतांत्रिक और उदार दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में यह संघ परिवार के उस राजनीतिक नजरिए को ही दिखाता है जिसके तहत वह आजादी के आंदोलन की विचारधारा से नफरत करता है।

नेहरू न केवल देश के पहले प्रधानमंत्री और मौजूदा सेकुलर भारत की नींव रखने वाले नेता थे बल्कि आजादी के आंदोलन का अगुआ नेता थे। उनकी स्मृतियों का विशेष महत्व है और भारत के इतिहास में अपना अलग स्थान रखता है। उनकी स्मृतियों को किसी खास परिवार से जोड़ना इतिहास के साथ बेईमानी है। उन्हें देश के बाकी प्रधानमंत्रियों के साथ खड़ा करना निश्चित तौर पर पाखंड और दुर्भावना से भरा है।

इसे उसी तरह का कदम मानना चाहिए जैसे अब्राहम लिंकन को अमेरिका के बाकी राष्ट्रपतियों के बराबर खड़ा कर दिया जाए। अभी के माहौल में शायद कांग्रेस भी नेहरू की तुलना लिंकन से करने की हिम्मत न करे, लेकिन सच यही है कि भारत को लोकतंत्र बनाने में नेहरू की भूमिका कमोबेश वैसी ही होगी। नेहरू को लिंकन बताने में इसलिए हम संकोच करते हैं कि अमेरिकी राष्ट्र की हैसियत ज्यादा है और लिंकन का प्रभाव विश्वव्यापी है। लेकिन अगर गुलाम देशों की मुक्ति तथा लोकतंत्र के व्यापक संदर्भ में देखें तो नेहरू का व्यक्तित्व भी विराट है। अंग्रेजों की कुटिलता के बाद दो टुकड़े हुए देश को उन्होंने सांप्रदायिक नफरत से निकालने के गांधी के लगभग असंभव लक्ष्य को पूरा किया। दुनिया में ऐसे उदाहरण कम ही हैं। भले ही हम उनकी जमकर आलोचना करें,   लेकिन हमें उनके योगदानों को एक कृतज्ञ राष्ट्र के रूप में स्वीकार करना चाहिए।  

हिंदुत्ववादियों ने आाजादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया और अंग्रेजी हुकूमत के पक्ष में काम किया। यहां तक कि जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस बाहर से और कांग्रेस भीतर से अंग्रेजों से लड़ रही थी तो हिंदू महासभा अंग्रेजों की पिट्ठू मुस्लिम लीग के साथ कई प्रांतों में सरकार चला रही थी। इससे 1937 में कांग्रेस से हार कर हाशिए पर चली गई मुस्लिम लीग को इतनी ताकत मिल गई कि उसने 1947 में देश का बंटवारा कराने में प्रमुख भूमिका अदा की।

नेहरू आजादी की लड़ाई के निर्णायक युद्ध अंग्रेजों, मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा से लड़ने वालों में गांधी के अगली पंक्ति के सिपाहियों में से थे। वास्तव में वह सरदार पटेल, खान अब्दुल गफ्फार खान, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, मौलाना आजाद जैसी हस्तियों के नेता थे।

यह तथ्य है कि गांधी ने आजादी के काफी पहले  उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। संघ परिवार इतिहास के बाकी सच की तरह उनकी इस हैसियत को भी झुठलाना चाहता है। मोदी सरकार ने तो इसके लिए सारी राजनीतिक मर्यादाएं ही लांघ रखी है। इसने उनके दो समकालीनों, नेताजी सुभाषचंद्र बोस तथा सरदार पटेल के साथ उनके बैर की कहानी बनाई और उनके राजनीतिक मतभेदों को व्यक्तिगत दुश्मनी का रंग देने की कोशिश की। नेताजी सुभाष तथा सरदार पटेल को इतिहास में किसी सहारे की जरूरत नहीं है। लेकिन आजादी के आंदोलन के दौरान उनके खिलाफ लड़ने वाला संघ परिवार उन्हें इतिहास के गर्त से उबारने का नाटक कर रहा है। नेहरू को इतिहास में उनके स्थान से गिराने के लिए स्कूल-कालेज की किताबों से लेकर सोशल मीडिया और व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी पर लगातार मुहिम चल रही है।  

तीन मूर्ति भवन जहां नेहरू म्यूजियम बना है, सोलह साल तक प्रधानमंत्री नेहरू का निवास रहा है और अनेक राजनीतिक घटनाओं का गवाह रहा है। हरदेव शर्मा जैसे समर्पित लोगों ने  अपने परिश्रम से यहां समकालीन इतिहास की बेहतरीन लाईब्रेरी बनाई है जहां दुर्लभ दस्तावेज रखे हुए हैं।

सवाल उठता है कि क्या संघ परिवार की लड़ाई सिर्फ नेहरू से है? गहराई से देखें तो संघ परिवार देश की राष्ट्र के इतिहास की उन तमाम स्मृतियों से लड़ रहा है जो संस्कृति या विचारधारा की विविधता तथा लोकतंत्र के पक्ष में है। आजादी के आंदोलन की  स्मृतियों से वह खास तौर पर लड़ रहा है क्योंकि वह इन विविधताओं को सही अर्थों में अभिव्यक्त करता है।

संघ दोहरे काम में लगा है। एक ओर, वह भारत में इस्लाम या ईसाइयत से संबंधित विरासत को नष्ट कर सांप्रदायिक स्मृतियों को जिंदा करना चाहता है, दूसरी ओर आजादी के आंदोलन की स्मृतियों को मिटाना चाहता है। उसकी लड़ाई अकेले नेहरू के व्यक्तित्व से नहीं है, बल्कि आजादी के आंदोलन की तमाम हस्तियों को अपनी जड़ों से अलग कर रहा है या उनके विचारों से काट कर पेश कर रहा है। इसमें नेताजी सुभाष बोस, सरदार पटेल ही नहीं महात्मा गांधी, बाबा साहेब आंबेडकर और भगत सिंह शामिल हैं।

देश और समाज की स्मृतियों को नष्ट करने की इसी योजना के तहत उन यादगार स्थलों का स्वरूप बदला जा रहा है जो आजादी के आंदोलन की हस्तियो से जुड़े हैं। इसमें पहले नंबर पर अमृतसर का जलियांवाला बाग का नाम लेना चाहिए।

आजादी के आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण स्मारक का स्वरूप बदलने को लेकर इतिहासकार तथा शोधकर्ताओं में बेहद रोष है। इसे स्मारक से पिकनिक स्पॉट में बदला जा चुका है। इस बदलाव के पीछे इतिहास के बारे में अज्ञान काम कर रहा होता तो और बात थी। लेकिन इसके पीछे कारपोरेट तथा हिंदुत्व की सोच काम कर रही है। इतिहासकार मानते हैं कि जलियांवाला बाग की स्मृतियों को रहस्यमय और मनोरंजक बना दिया गया है जो बाजारी जरूरतों को पूरा करने करने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, लाइट एंड साउंड के कार्यक्रम के जरिए इतिहास की हिेंदुत्ववादी व्याख्या परोसी जा रही है। इस व्याख्या के अनुसार जलियांवाला बाग में लोग बैसाखी मनाने के लिए जमा हुए थे यानी लोग अंग्रेजों के विरोध के लिए आयोजित सभा में भाग लेने के लिए नहीं आए थे। यह आजादी के आंदोलन को मजहबी आधार देने की

कोशिश ही है जबकि जलियांवाला बाग अंग्रेजों के खिलाफ देश में पहली बार एक बहुत मजबूत कौमी एकता का प्रतीक है।
आजादी के आंदोलन से जुड़े स्मारकों को मूल स्वरूप को नष्ट करने के कार्यक्रम के तहत ही साबरमती आश्रम में बदलाव किया जा रहा है। गांधीवादियों के तमाम विरोध के बावजूद इसका स्वरूप बदला जा रहा है। इस सूची में पुणे का आगा खान पैलेस भी है जहां 1942 के भारत

छोड़ो आंदोलन के समय महात्मा गांधी नजरबंद किए गए थे और अंग्रेजों की हिरासत में कस्तूरबा की मृत्यु हुई थी।
इसका कारपोरेट पक्ष भी है। जलियांवाला बाग,  साबरमती और आगा खान पैलेस में हो रहे बदलाव का जिम्मा मोदी ने उसी कंपनी को दिया जिसने वाइब्रेंट गुजरात के आयोजन स्थल में शीशों तथा रोशनी के सहारे गांधी को बाजारी तमाशा बनाया था। म्यूजियम को लेकर इस कंपनी के व्यापारिक नजरिए को समझने के लिए यह जान लेना ही काफी है कि इसने ही गुजरात के डायनोसोर म्यूजियम तथा दिल्ली के पुलिस म्यूजियम में निर्माण कार्य किए हैं। यह अभी तक साफ नहीं हुआ है कि नेहरू म्यूजियम का कायापलट का जिम्मा किस कंपनी को दिया जा रहा है।

राष्ट्र की स्मृतियों को मिटाने के प्रोजेक्ट में मुसलमानों के प्रति नफरत एक प्रमुख तत्व है। मुस्लिम कालंखंड से जुड़ी स्मृतियों के साथ छेड़छाड़ का सबसे दिलचस्प उदाहरण ताजमहल को एक शिव मंदिर बताने का प्रचार है। इसकी कोशिश संघ परिवार लंबे समय से कर रहा है कि देश ही नहीं दुनिया में अपने महानतम वास्तुशिल्प के लिए जाने गए  इस स्मारक को शाहजहां की उपलब्धि न मानी जाए। इसके लिए पीएन ओक ने साठ के दशक में ही किताब एक किताब लिखी जो इतिहास से ज्यादा तर्कशास्त्र की किताब लगती है। इसमें ताज महल को तेजामय महल नामक शिव मंदिर बताया गया है। मोदी सरकार के दौरान पीएन ओक की राय का जमकर प्रचार किया गया है। हालत यहां तक आ पहुंची है कि कोंकण के सुदूर इलाके में एक मछुआरे ने इन पंक्तियों के लेखक से इस बारे में सवाल किया।

मुस्लिम कालखंड की स्मृतियों को मिटाने की कोशिशों का ही नतीजा है कि इलाहाबाद का नाम प्रयागराज और फैजाबाद का अयोध्या हो गया। धार्मिक विविधता पर प्रहार करने और एक महान तीर्थस्थल को बाजारू पर्यटन स्थल बनाने का नमूना हम बनारस की गलियों तथा छोटे-छोटे मंदिरों को जमींदोज करने में देख ही चुके हैं।

लेकिन इतिहास की हिंदूवादी समझ को सिर्फ मध्ययुग पर लागू करने से संघ का उद्देश्य पूरा नहीं होता है, उसे अंग्रेजों के काल को बेहतर बताने तथा इसके खिलाफ चले उस महान आजादी के आंदोलन को भी लांछित करना है जो कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहा था। भगत सिंह या बाबा साहेब आंबेडकर के लिए उनके प्रेम की वजह उनक क्रांतिकारी विचारों के प्रति आकर्षण नहीं है बल्कि कांग्रेस और गांधी जी के साथ उनका मतभेद है जिसका इस्तेमाल वे आजादी के आंदोलन को लांछित करने के लिए कर किया जा सके। इसलिए संघ उनके विचारों का प्रचार नही करता बल्कि उन्हें मूर्तियों के रूप में बिठाना चाहता है। इसके अलावा कांग्रेस के ही नेताओं को ही उनकी पार्टी के ही नेताओं के खिलाफ खड़ा किया जा सके। कांग्रेस तथा आजादी के आंदोलन को विकृत बनाने के इस काम में संघ की कई संस्थाएं लगी हैं।

लेकिन इस लेकर खुद कांग्रेस का रवैया एकदम लापरवाही से भरा है। सच पूछिए तो इंदिरा गांधी ने ही नेहरू के विचारों को छोड़ दिया था और आपातकाल लगा कर भारतीय लोकतंत्र को चोट पहुंचाई थी। लेकिन राजीव गांधी तथा बाद में नरसिम्हा राव तथा सोनिया गांधी के नेतृत्व में तो कांग्रेस ने नेहरू के आर्थिक विचारों को पूरी तरह अलविदा कह दिया। आज भी सरकारी कंपनियों के निजीकरण जैसे मामलो के खिलाफ कांग्रेस कोई बड़ी मुहिम चलाने से परहेज कर रही है। पार्टी के भीतर या बाहर नेहरू के विचारों और आजादी के आंदोलन में उनके योगदान से लोगों को परिचित कराने के लिए कुछ नहीं कर रही है। यही वजह है कि नेहरू म्यूजियम का नाम बदलने और पहले प्रधानमंत्री की स्मृति को छिन्न-भिन्न करने के अभियान के खिलाफ कोई असरदार मुहिम नहीं चला पा रही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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