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उदयपुर : प्रवासी और स्थानीय मज़दूरों को लॉकडाउन में काम की क़िल्लत
गुजरात से लौट रहे प्रवासी मज़दूर जहाँ रोज़गार की तलाश कर रहे हैं, वहाँ पहले से ही काम की कमी थी जो लॉकडाउन के बाद से और बढ़ गई है।
शिफ़ा ज़ोया
11 May 2021
Translated by महेश कुमार
गोगुन्दा के मज़दूर नाके पर दैनिक मज़दूर काम मिलने के इंतेज़ार में।
गोगुन्दा के मज़दूर नाके पर दैनिक मज़दूर काम मिलने के इंतेज़ार में।

यह रिपोर्ट, राजस्थान के उदयपुर जिले के गोगुन्दा के बस स्टैंड और उस आम बाजार जो अपने आप कुछ खास बाज़ार नहीं और जहां गुजरात से वापस आए प्रवासी मजदूर और स्थानीय दैनिक मजदूर जिस वास्तविक हक़ीक़त का सामना कर रहे हैं, उस पर ध्यान केंद्रित करती है। यह रिपोर्ट उन तरीकों की पड़ताल करती है जिसके ज़रीए दो भिन्न किस्म के श्रमिक समूह लॉकडाउन के बावजूद काम ढूंढते हुए एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।

राजस्थान के गोगुन्दा ब्लॉक के मुख्य मार्गों और नाकों से जब सुबह 7 बजे विभिन्न जिलों के लिए कूच करने वाली बसें गुजरती है तो ताजे और रंग-बिरंगे फिजिकल डिस्टेंसिंग वाले सर्कल नज़र आते हैं, जो सामान्य समय की तुलना में खाली पड़े नज़र आते हैं। पुरुष और महिलाएं गमछे से अपने चेहरे के निचले हिस्से को ढंके लदी जीपों से बाहर निकलते हैं और चेतक घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप की प्रतिमा से सज़े चौराहे पर उदयपुर शहर की ओर जाने वाली बसों में चढ़ जाते हैं।

एक बस नज़र आती है, एक बड़ी स्लीपर कोच जिसमें युवा लड़के और पुरुषों के समूह, जो बस की क्षमता से कई गुना में सवार होते हैं उतरते दिखाई देते हैं। इसलिए, राणा प्रताप बुत से सज़ा आम चौराहा भौगोलिक रूप से इस कहानी का केंद्र बन जाता है। उदयपुर जिले में विभिन्न राज्यों में काम करने वाले प्रवासी मजदूर, अधिकतर गुजरात से आते हैं, और उनके साथ स्थानीय दिहाड़ी मजदूर उदयपुर जिले के विभिन्न हिस्सों में निर्माण स्थलों पर काम करने के लिए जाते हैं या फिर वे सीधे मज़दूर नाके पर आते हैं, जहाँ दैनिक मजदूर को काम पर लेने वाले ठेकेदार उनका इंतजार कर रहे होते हैं।

कोविड-19 से संबंधित प्रतिबंधों और दिशा-निर्देशों में लगातार आ रहे बदलावों से इलाके में भय और दहशत आम है। गोगुन्दा ब्लॉक के प्रावासी मजदूरों को, जो गुजरात के राजकोट के रेस्तरां में काम करते थे, को अप्रैल के मध्य की शुरुआत में इस वादे के साथ वापस भेज दिया गया था कि उनके लंबित वेतन को कर उनके बैंक खातों में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। यह तब कहा गया था जब इनमें से किसी भी राज्य में किसी भी किस्म का लॉकडाउन नहीं लगा था। 

गोगुंदा बस स्टैंड 

चूंकि वे स्लीपर कोच वाली बस से वापस लौटे थे, इसलिए उन्हें सामान्य भाड़े 600-700 रुपए की जगह 800 रुपए देने पर मजबूर किया गया और एक ही स्लीपर पर चार-पाँच लोगों को ठूंस दिया गया था। उनकी बस को सीमा पार करने में कोई कठिनाई हुई विपरीत बूढ़े लोगों के जिनकी बस को भीड़भाड़ और ज्यादा किराया लेने के आरोप में राजस्थान और गुजरात की सीमा पर रोक दिया गया था, सौभाग्य से उनके पास को दिखाने के लिए आधार कार्ड के अलावा और कुछ नहीं था। गनीमत है कि पिछले साल की तरह भारतीय राज्यों की सीमाओं पर प्रवासी मजदूरों पर हिंसक सेनीटाइजर का छिड़काव नहीं किया गया था।

जब इस रिपोर्टर ने उनसे संपर्क किया तो इनमें से कई युवक जूते की दुकान पर नई चपल्ले और सैंडल खरीदते दिखाई दिए और गाँव में बांटने के लिए टॉफियाँ और मिठाइयाँ भी खरीद रहे थे। उन्होंने बताया कि जामनगर के जिस रेस्तरां में वे काम करते हैं उन्हें वहाँ अपने काम से हाथ धोना पड़ा और बिना वेतन दिए रेस्तरां को दो-तीन दिन पहले ही बंद कर दिया था। उन्हें, यह भी आश्वासन दिया गया था कि उनकी मजदूरी सीधे उनके बैंक खातों में स्थानांतरित कर दी जाएगी और वे आशावादी हैं कि वे एक या दो महीने में वे काम पर वापस लौट सकते हैं।

बस स्टैंड पर नए जूतों की आजमाइश करते मजदूर 

मज़दूर नाके पर पिछले महीने के विपरीत अब केवल कुछ ही लोग नज़र आते हैं। उनके अनुसार, पुलिस काम करने वालों को नहीं रोकती है, लेकिन उदयपुर नाके पर कोविड-19 के प्रति सावधानी बरतने के लिए मास्क या उनके गंतव्य स्थान के बारे में सवाल पूछती है। कुछ लोगों का काम का समय इस तरह बदल गया है कि उन्हें लंच ब्रेक भी नहीं मिलता है और उन्हे लगातार काम के बाद शाम 4 बजे तक घर भेज दिया जाता है जोकि सामान्य 5 या 6 बजे के समय से अलग है और ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि परिवहन पर कर्फ्यू के चलते रोक है। 

जबकि गोगुन्दा क्षेत्र के कई अंदरूनी हिस्सों और कस्बे में लंबित काम चल रहे हैं, लेकिन साथ ही उदयपुर शहर में कच्चे माल की आपूर्ति के मुद्दों के कारण नई साइटों पर काम बंद करना पड़ा है। स्थानीय दिशानिर्देश के अनुसार गैर-जरूरी माल बेचने वाली दुकानों, जैसे कि निर्माण सामग्री बेचने वाली दुकाने सुबह 11 बजे तक ही खुल सकती हैं, एक ऐसा विरोधाभास है जिसके चलते निर्माण साइट को खोलना वास्तविक तौर पर बेकार सा लगता है, खासकर उन प्रवासी मजदूरों के लिए यह बड़ा नुकसान है जो घर लौट आए हैं और उन्हें स्थानीय स्तर पर काम करने की भयंकर जरूरत हो सकती है।

धरमेश जी एक ठेकेदार हैं और उनके लिए 75 दिहाड़ी मजदूर नियत तौर पर काम करते हैं, ने बताया कि कोविड-19 मानदंडों के कारण अनियमित सार्वजनिक परिवहन ने श्रम और पूंजी दोनों की गतिशीलता को प्रभावित किया है। मजदूर काम की साइटों तक पहुंचने में असमर्थ हैं या वे डरते हैं कि कहीं कर्फ्यू प्रतिबंधों के कारण वे उनकी आखिरी बस न छुट जाए क्योंकि साइटों पर आमतौर पर 5:30 बजे तक काम चलता है। सामग्री की आपूर्ति अब केवल सुबह के वक़्त की जा सकती है और साइट की आवश्यकता के अनुसार नहीं। इस कमी को इस तथ्य ने भी अधिक बदतर बना दिया है कि लॉकडाउन की वजह से विशेष रूप से रेत की खरीद काफी महंगी हो गई है।

धर्मेश जी के लिए, केवल उनके मजदूर ही हैं जो उनकी इकलौती साइट पर काम को चालू रख सकते हैं, या नहीं। “कल से साइट बंद है। अगर आएंगे तो खुला रखेंगे नहीं तो बंद कर देंगे।  "इसके अलावा, कई प्रवासी मजदूर जो अन्य राज्यों से लौटे हैं वे कोविड पॉज़िटिव हैं, और गांवों में लोग बीमार पड़ रहे हैं, उन क्षेत्रों की साइटें भी बंद पड़ी हैं।

गुजरात से लौट रहे प्रवासी मजदूरों के लिए, ऐसी जगह पर काम की तलाश करना जहाँ पहले से ही काम की कमी है, जो लॉकडाउन के कारण अब और बढ़ गई है, लगभग असंभव है। स्थानीय दिहाड़ी मजदूरों के लिए, काम ढूँढने का रोज़ का संघर्ष भयंकर प्रतिस्पर्धा में बदल गया है। और ठेकेदारों और श्रमिकों दोनों के लिए, कोविड-19 संबंधित लॉकडाउन के चलते आपूर्ति श्रृंखला टूटने से श्रम क्षमता प्रभावित हो रही है जो काम के अवसरों की उपलब्धता को भी कम कर रही है। इस प्रकार, यह ध्यान रखने की बात है कि इन दो श्रम बाजार, जो कौशल के मामले में भिन्न है, वे इस तरह से परस्पर जुड़े हुए हैं कि वे महामारी के दौरान एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।

धापू बाई, एक निर्माण मजदूर जो गोगुन्दा के पास वाणी गाँव में फर्श बिछाने का काम करते हैं, ने बताया कि इस बार का कोविड-19 का उछाल एकदम अलग है। "पहली बार जब कोरोना आया था, तो काम बढ़िया चल रहा था, लेकिन अब तो बिमारी बढ़ रही है। काम कम और बीमारी ज्यादा। "बीमार पड़ने वाले लोगों में अविश्वास और बीमारी को कलंक मानने के कारण जांच नहीं कराई जा रही है और टीकाकरण भी नहीं करवा रहे हैं, कोविड-19 के लक्षणों जैसे कि बुखार, शरीर में दर्द और खांसी को कोविड से जोड़ कर देखना उनके लिए असंभव सी बात है। जबकि धापू बाई कुशल मजदूर है और वे 300 रुपए प्रति दिन कमाती हैं जो उनके पुरुष समकक्षों से काफी कम है जो 700 प्रति दिन रुपये तक कमाते हैं जो उन महिलाओं की दैनिक कमाई से थोड़ा अधिक है जो आस-पास के निर्माण स्थलों में अकुशल मजदूर के रूप में काम करती हैं।

दैनिक वेतन भोगी मजदूर जिनके पास ठेकेदारी के तहत निश्चित रोज़गार हैं, हालांकि उनके लिए, काम अभी भी उपलब्ध है लेकिन वे बसों की कमी की वजह से एक बाइक पर तीन लोग सवार होकर निर्माण स्थलों पर जाना पसंद करते हैं। यदि मजदूर या निर्माण सामग्री की कमी के कारण काम रुक जाता है, तो उनके ठेकेदार उनकी मदद करते हैं और उन्हें अन्य चालू काम की साइट के बारे में जानकारी देते हैं। लेकिन जो अस्थायी मजदूर हैं, परिवहन पर प्रतिबंध के कारण दो दिनों का काम भी न मिलना उनका सारा वेतन खर्च करा देता है। लेकिन फिर भी, अभी तक वेतन में कोई कटौती नहीं की गई है, जो एक अच्छी बात है।

कई शहरों और राज्यों में जब लॉकडाउन लगाए जा रहे हैं, और स्वास्थ्य संकट तेजी से बढ़ रहा है, तो प्रवासी मजदूरों ने बड़ी संख्या में घर वापस लौटना शुरू कर दिया है। यह ध्यान देने की बात है कि महामारी अब गोगुन्दा क्षेत्र में भी फैल रही है, लेकिन लोग फिर भी जल्द ही काम पर वापस लौटने की उम्मीद में हैं, जैसे कि पुरुषों के समूह, जो जामनगर के रेस्तरां में काम करते थे वे अपने घरों के लिए टॉफियां, मिठाइयाँ और खुद के लिए जूते और खरीद रहे थे। दिलचस्प बात यह है कि उन्हे शहर अभी मनोहर लगते है, फिर चाहे वे वहाँ कितनी कठिनाइयों झेलते हों। 

यह तब है, जब उनके साथ पिछले साल मानवीय संकट के दौरान बहुत खराब व्यवहार किया गया था, क्या यह ऐसा जीवन है जिसे वे अभी भी जीना चाहते हैं – क्या यह सब इसलिए है कि जब वे शहर से वापस गाँव लौटते हैं तो वे पहनने के लिए जूते/ सैंडल और खाने के लिए मिठाई खरीद सकते हैं? या ऐसा इसलिए है क्योंकि कोविड-19 महामारी ने ग्रामीण और शहरी रोजगार के अवसरों में बहुत अंतर पैदा कर दिया है, जिससे उन्हें कोई विकल्प नहीं मिल रहा है?

शायद हमें इस बात का अंदाज़ा तभी हो पाएगा जब ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आजीविका के विकल्पों पर वायरस के प्रतिकूल प्रभाव का आकलन किया जा सकेगा। 

(लेखिका वर्तमान में उदयपुर के आजीविका ब्यूरो में फ़ील्ड फ़ेलो हैं। प्रवासी श्रमिक मुद्दों पर काम कर रही हैं। उन्होंने सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज, मुंबई से मानव विज्ञान और मनोविज्ञान में बीए किया है।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

How Returnee Migrants and Local Daily Wagers Navigate Lockdown Curbs in Udaipur’s Gogunda

COVID 19 Lockdown
Migrant workers
Return Migrants
COVID 19 Second Wave
Lockdown Impact on Migrant Workers

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