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देश में बढ़ती बेरोज़गारी सरकार की नीयत और नीति का नतीज़ा
बेरोज़गारी के चलते देश में सबसे निचले तबके में रहने वाले लोगों की हालत दुनिया के अधिकतर देशों के मुक़ाबले और भी ख़राब हो गई। अमीर भले ही और अमीर हो गए, लेकिन गरीब और गरीब ही होते चले जा रहे हैं।
सोनिया यादव
31 Jan 2022
unemployment

उत्तर प्रदेश में बीते दिनों चुनाव अभियान के बीच पुलिस ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हॉस्टल में घुसकर युवाओं को पीटा। इस बार शुरुआत भले ही बिहार से हुई हो लेकिन यूपी समेत देश के लाखों- करोड़ों युवा सालों से रोज़गार की मांग को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। सालों की तैयारी के बाद भी नौकरी न मिलने से युवाओं के मन में निराशा घर कर रही है। आलम ये है कि बेरोज़गारी की बढ़ती दर और घटती सरकारी नौकरियों के बीच देश का युवा आत्महत्या करने को मजबूर है।

बता दें कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़, बेरोज़गारी की वजह से 2018 में 2,741 लोगों ने आत्महत्या की थी। 2014 की तुलना में 2018 में आत्महत्या के मामले क़रीब 24 फ़ीसद बढ़े। साल 2019 में 2,851 लोगों ने बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या का रास्ता चुना। वहीं 14,019 लोग जिनकी मौत आत्महत्या के कारण हुई वे बेरोज़गार थे और इसमें शामिल ज़्यादातर लोगों की उम्र उम्र 18 से 30 साल के बीच थी।

रोज़गार के वादे और सरकार के इरादे

2014 में केंद्र की सत्ता में आई मोदी सरकार ने रोज़गार को लेकर बड़े- बड़े वादे किए, उत्पादन को बढ़ाने की महत्वाकांक्षी परियोजना 'मेक इन इंडिया' की शुरुआत की, कई बिज़नेस समिटें और विदेशी दौरे किए हालांकि इनमें से किसी भी प्रयास से अभी तक न उत्पादन बढ़ा है और ना ही रोज़गार के मौके। इसके उलट देश में सबसे निचले तबके में रहने वाले लोगों की हालत दुनिया के अधिकतर देशों के मुकाबले और भी ख़राब हो गई। अमीर भले ही और अमीर हो गए लेकिन गरीब और गरीब ही होते चले जा रहे हैं।

बढ़ती बेरोज़गारी का समाज के विभिन्न तबकों पर क्या असर हो रहा है इसी संबंध में रविवार, 30 जनवरी को प्रगतिशील संगठन औरतें लाएंगी इंकलाब ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की, जिसमें नागरिक समाज, महिला संगठन और एलजीबीटीक्यू की जानी-मानी हस्तियों ने हिस्सा लिया। सभी ने एक स्वर में बेरोज़गारी के लिए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया।

विभिन्न तबकों पर बेरोज़गारी का असर

मानवाधिकार कार्यकर्ता बीना पल्लीकल ने इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए महामारी के दौरान दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों पर लॉकडाउन के भंयकर प्रभाव को सभी के सामने रखा। उन्होंने कई आंकड़ों की मदद से ये बात समझाने की कोशिश कि की किस तरह बीना तैयारी के लगे लॉकडाउन ने समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को और हाशिए पर धकेल दिया। लोगों की नौकरियां चली गई, आमदनी खत्म हो गई और कई लोगों ने तो अपने घर के इकलौते कमाने वाले हाथों को भी खो दिया। इस महामारी ने पहले से चली आ रही बेरोज़गारी को और बढ़ा दिया।

बेरोज़गारी के चलते एलजीबीटीक्यू समुदाय को किन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, इस बात को विस्तार से समझाते हुए मित्रा ट्रस्ट की फाउमडर रुद्राणी छेत्री ने कहा कि आज ट्रांस लोग भीख नहीं मांगना चाहते, सेकस वर्कर नहीं बनना चाहते वो स्वाभिमान से छोटी- मोटी कोई भी नौकरी कर अपने आप को सशक्त बनाना चाहते हैं लेकिन आज नौकरियां ही नहीं हैं, ऐसे में ये लोग और बेसहारा हो जाते हैं। इनकी दिक्कतें और व्यापक है, जिस पर समाज और सरकार को अलग से ध्यान देने की जरूरत है।

हताशा और निराशा के चलते एक बड़ा तबका लेबर फोर्स से हो गया है बाहर

समाज के हर तबके तक नौकरियों की पहुंच और उनकी उपलब्धता पर डेटा के माध्यम से पूरा विवरण रखते हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील महिलावादी संगठन की राष्ट्रीय सचिव और सीपीआई (एम एल) की पोलित ब्यूरो मेंबर कविता कृष्णन ने कहा कि बेरोजगारी का सवाल आज बहुत बड़ा है और इसके बारे में इतने मिथक हैं की लोगों को अपने अधिकारों और सरकारों को अपनी जिम्मेदारी समझने की जरूरत है।

कविता के मुताबिक भारत में एक बड़ा तबका ऐसा है जो लेबर फोर्स से बाहर हो गया है और इसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा महिलाओं का है। ये वो लोग हैं जिनके पास नौकरी नहीं है और जो तलाश भी नहीं रहे हैं, तलाश इसलिए नहीं रहे क्योंकि वो हताश हैं। वो कोशिश कर कर के थक गए हैं। और अब उन्हें लगता है कि नौकरी उनके लिए है ही नहीं।

कविता ने घटती सरकारी नौकरियां और निज़ीकरण के ग्रामीण भारत पर पड़ रहे असर की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए सरकार की तमाम योजनाओं को अमीरों की पहुंच तक सीमित कर देने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि आज देश का गरीब और गरीब होता चला जा रहा है लेकिन अमीरों पर इसका कोई असर नहीं हो रहा।

गुजरात विधानसभा के सदस्य जिग्नेश मेवाणी समेत अन्य स्पीकर्स जिसमें इस संगठन की फाउंडर अमीषा नंदा और छात्र नेता आफताब आलम शामिल थे, सभी ने युवाओं के संघर्षों को याद करते हुए उनकी सस्याओं पर विस्तार से चर्चा की। साथ ही युवाओं और महिलाओं के मुद्दे को पुरजोर तरीके से वर्तमान और भविष्य में उठाने की बात भी कही।

बढ़ती बेरोज़गारी और सिमटती नौकरियां

गौरतलब है कि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत कोरोना के पहले से ही सुस्ती के लंबे दौर में थी। ऐसे में महामारी के बाद गतिविधियों में आई तेज़ी की वजह से अर्थव्यवस्था थोड़ी रफ़्तार तो पकड़ रही है, लेकिन युवाओं को नौकरियां नहीं दे पा रही। जिसे लेकर लंबे समय से देश में युवा प्रदर्शन कर रहे हैं, सड़कों पर हैं।

भारत की अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाले संस्थान सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक दिसंबर में भारत की बेरोज़गारी दर आठ प्रतिशत तक पहुंच गई थी। 2020 और 2021 के अंतिम महीनों तक ये 7 प्रतिशत से अधिक थी। जानकारों की मानें तो ये अब तक भारत में जो आंकड़े देखे गए हैं ये उससे कहीं ज़्यादा है। साल 1991 में जब भारत गंभीर आर्थिक संकट में था (तब भारत के पास आयात की कीमत चुकाने के लिए पर्याप्त डॉलर भी नहीं थे) तब भी हालात ऐसे नहीं थे।

सीएमआईई के मुताबिक देश में वेतन वाली नौकरियां भी लगातार सिमट रही हैं। दिसंबर 2021 तक भारत में बेरोजगार लोगों की संख्या 5.3 करोड़ रही। इनमें महिलाओं की संख्या 1.7 करोड़ है। घर बैठे लोगों में उनकी संख्या अधिक है, जो लगातार काम की तलाश करने के बाद भी बेरोजगार बैठे हैं।

महामारी के दौरान कंपनियों ने ख़र्च कम करने के लिए अपने कर्मचारियों की संख्या में कटौती की है। भारत में काम करने लायक आयु वर्ग में नौकरियां खोज रहे लोगों की संख्या गिरी है। भारत में 15 और उससे अधिक आयु वर्ग की महिलाओं की संख्या नौकरियों के मामले में दुनिया में सबसे कम है।

जाहिर है कोरोना के दौर में महिलाओं ने न सिर्फ शारीरिक और मानसिक कष्ट झेला बल्कि उन्होंने आर्थिक तौर पर भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। अलग- अलग संस्थाओं की ओर से जारी कई रिपोर्ट्स में भी इस बात का दावा किया गया है कि रोज़गार और शिक्षा के मौक़े ख़त्म होने से महिलाएं ख़राब मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का शिकार हो रही हैं। इसके अलावा लगातार घरेलू हिंसा, महिलाओं के साथ यौन हिंसा बढ़ने की खबरें भी लगातार सामने आ रही हैं।

इसे भी पढ़ें: कोरोना महामारी के बीच औरतों पर आर्थिक और सामाजिक संकट की दोहरी मार!

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