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राजनीति
मॉनीटाइजेशन का नाम बदनाम ना करो!
कटाक्ष: मोदी जी कुछ भी करें, इन्हें विरोध ही करना है। पहली पारी में मोदी जी ने डीमोनिटाइजेशन किया, तो इन्होंने उसका विरोध। अब मोदी जी मॉनीटाइजेशन कर रहे हैं, सो उसका भी विरोध कर रहे हैं।
राजेंद्र शर्मा
04 Sep 2021
मॉनीटाइजेशन का नाम बदनाम ना करो!
तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार

निर्मला जी गा रही हैं। गडकरी जी गा रहे हैं। प्रधान जी गा रहे हैं। गोयल जी गा रहे हैं। अनुराग जी गा रहे हैं। पुरी जी, वैष्णवी जी, जयशंकर जी, लेखी जी गा रहे हैं। नड्डा जी गा रहे हैं। यानी छोटे-बड़े, सब ‘जी’ लोग गा रहे हैं। सुर में गा रहे हैं, बेसुरे गा रहे हैं। गला फाडक़र गा रहे हैं। देश भर में घूम-घूमकर अकेले-अकेले गा रहे हैं, समवेत स्वर में गा रहे हैं और इस चक्कर में एक और विश्व रिकार्ड बना रहे हैं। एक बार नहीं बार-बार गा रहे हैं--देखो ऐ एंटीनेशनलो तुम ये काम ना करो, मॉनीटाइजेशन का नाम बदनाम ना करो, बदनाम ना करो! मगर मजाल है जो मोदी जी के विरोधियों के कान पर जूं तक रेंगी हो। मोदी जी की सेना जितना समझाती है, ये सारी दुनिया को सुनाने के लिए उतने ही जोरों से बेच दिया, सब बेच दिया, चिल्लाते हैं। वैसे इससे मोदी जी का और उनके दोस्तों का भी कुछ बिगडऩे वाला नहीं है। सारी दुनिया को न्यू इंडिया की सेल का पता चल भी गया तो क्या? बाहर से चार ग्राहक फालतू आएंगे। बिक्री में सरकार को दो पैसे ज्यादा मिल जाएंगे।

आत्मनिर्भरता का मतलब घर की जमा-पूंजी बेचकर खाना पर दूसरों के आगे हाथ नहीं फैलाना है, सही है। लेकिन, इसका मतलब खरीददार के मामले में भी आत्मनिर्भरता थोड़े ही है। पुराने इंडिया का काठ-कबाड़ बाहर वालों के हाथों बिकेगा, तभी तो नया इंडिया सारी दुनिया की नजरों में उठेगा। यानी वैसे तो विपक्ष वाले भी शोर मचाकर न्यू इंडिया की सेल की मुफ्त पब्लिसिटी ही करा रहे हैं।

फिर भी, ‘इंडिया बिकता है क्या-क्या खरीदोगे’ कम से कम सुनने में तो बुरा लगता ही है, खासकर एनआरआई अंकिलों को। बेचना हो तो बेचो, पर बेचने का ढोल क्यों पीटना और वह भी बाहर! यह दुनिया भर में देश को बदनाम करना है। यह सरासर इंटीनेशनलता है। घर की बात घर में रखो। जस्टिस चंद्रचूड़ ने सत्य सामने लाने को जनतंत्र के लिए नागरिकों का जरूरी अधिकार और कर्तव्य दोनों बताया जरूर है। लेकिन यह हमारा सत्य होना चाहिए, सिर्फ हमारा! हमारे सत्य से बाहर वालों को मतलब! डैमोक्रेसी जरूरी है, तो राष्ट्रवाद यानी घर की बात घर में रखना उससे भी जरूरी है। राष्ट्रवाद नहीं रहेगा तो, डैमोक्रेसी को कैसे बचाएंगे? घर की बात बाहर गयी नहीं कि बाहर वाले घुस आएंगे और अफगानिस्तान की तरह बाहरी तालिबान को छोड़ जाएंगे। फिर बैठे रहना सत्य और डैमोक्रेसी को पकड़ कर।

प्लीज, प्लीज, इसमें अमरीका की तरफ इशारा मत ढूंढने लग जाइएगा। वह तो हमारा मित्र है। लंगोटिया यार न सही, पर दांत काटी रोटी के लेवल की यारी जरूर है। सच पूछिए तो सेल-सेल के शोर में यही असली प्राब्लम है। लंबे ब्रेक के बाद, मोदी जी अमरीका का दौरा करने जा रहे हैं। जो बाइडेन से राष्ट्रपति बनने के बाद पहली झप्पी के लिए। तगड़ा सा गिफ्ट तो बनता है। पर गिफ्ट में सरप्राइज भी तो होना चाहिए। मुलाकात की तारीख तय भी नहीं हुई और गिफ्ट का हल्ला पहले हो गया, यह अच्छा नहीं हुआ। कम से कम दोस्त के लिए सार्वजनिक सेल शुरू होने से पहले, खास सेल का यानी सबसे पहले चुनाव का न्यौता तो बनता ही था। पर विरोधियों के शोर ने सब बर्बाद कर दिया। अब मोदी जी दोस्त के लिए कोई और गिफ्ट खोजना पड़ेगा!

और बेच दिया, बेच डाला कहकर, मॉनीटाइजेशन को बदनाम करने वाले हैं कौन? ये लोग दुनिया में नये इंडिया की बदनामी करने वाले एंटीनेशनल तो खैर हैं ही, इसके आलावा भारतीय संस्कृति और राम मंदिर के विरोधी भी हैं। नहीं, यह राहुल-वाहुल की बात नहीं है। वे बेच दिया, बेच दिया का शोर मचाएं तो, उनका मुंह यह कहकर बंद किया जा सकता है कि बेचना वह था, जो आपके राज में होता था। आपकी देखा-देखी अब तक हमने भी किया, आगे भी करेंगे, पर यह तो मॉनीटाइजेशन है, हमारा ऑरीजिनल। अब करते रहें कि चीं-चीं कि हमने तो ऐसे उद्योगों को बेचा था, वैसे को नहीं बेचा था! खुद जिसने बेचा हो, कहे कि फलां-फलां क्यों बेच दिया, तो उससे और कुछ भी हो कम से कम बदनामी नहीं होती है। असली प्रॉब्लम उनकी है, जो पहले वालों के बेचने का विरोध करते थे और अब भी मॉनीटाइजेशन का यही कहकर विरोध कर रहे हैं कि यह तो घर का जेवर-गहना बेचना है। उनके हिसाब से सरकार वही, जो अपनी मिल्कियत को बढ़ाए। बेचे तो, अपना हिस्सा कम करे तो, किराए पर दे तो, मॉनीटाइज करे तो, सब घर का जेवर-गहना बेचना है; सब बदनामी की बात है। पर क्यों? क्योंकि उससे अडानियों-अंबानियों को फायदा है। पर जो समाजवाद-समाजवाद करने वाले, सत्तर साल में टाटा-बिड़ला का बढऩा नहीं रोक पाए, मोदी जी के राज में अडानियों-अंबानियों का क्या उखाड़ लेंगे!

वैसे भी मॉनीटाइजेशन के इस विरोध को पब्लिक पूछने वाली नहीं है। यह भारतीय परंपरा के एकदम खिलाफ जो है। मॉनीटाइजेशन तो हमारे यहां घर-घर तक पहुंचा हुआ है। अभी-अभी खबर आयी है कि कोरोना की दूसरी लहर में, 85 फीसद लोगों ने सोना गिरवी रखकर, कर्ज उठाया है। यही तो मॉनीटाइजेशन है। सोना रखे-रखे क्या अंडे देगा। उसे काम पर लगा और उसकी कमाई खा! जब और कोई काम न आए, तो भी सोना कमाकर खिलाए। और अच्छे दिन किसे कहेंगे, भाई! और हमारे यहां तो मॉनीटाइजेशन की इतनी पुरानी परंपरा है कि पूछो ही मत। जमींदार हों या किसान, जमीन भाड़े पर देकर न जाने कब से मॉनीटाइजेशन करते आ रहे हैं। और महाजन न जाने कब से हल-बैल, झोंपड़ी, जमीन, रेहन रखकर, गरीब से गरीब किसानों-मजदूरों तक मॉनीटाइजेशन का लाभ पहुंचाते आए हैं। अब बैंक आ गए हैं, फिर भी महाजनों का काम रुका नहीं है। सच पूछिए तो हमारी मॉनीटाइजेशन की परंपरा तो रामायण-महाभारत काल तक जाती है। द्रौपदी को जुए में दांव पर लगाना, मॉनीटाइजेशन का सर्वोच्च विकास नहीं तो और क्या था!

लेकिन, विरोधी समझने वाले नहीं हैं। मोदी जी कुछ भी करें, इन्हें विरोध ही करना है। पहली पारी में मोदी जी ने डीमोनिटाइजेशन किया, तो इन्होंने उसका विरोध। अब मोदी जी मॉनीटाइजेशन कर रहे हैं, सो उसका भी विरोध कर रहे हैं। और हर बार एक ही बहाना कि पब्लिक पिस रही है। इतना भी नहीं समझते कि मोदी जी ने पब्लिक को मॉनीटाइज कर दिया है। जितनी अंबानियों-अडानियों की सिल पर पिसेगी, उतनी ही उनके हाथों पर मेंहदी चढ़ेगी और विश्व अरबपतियों में इंडिया की रेंकिंग बढ़ेगी। 

(इस व्यंग्य आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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