NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
कटाक्ष: शुक्र है चुनाव तो है!
ख़ैर, बाहर वाले तो कुछ भी कह सकते हैं, उनका क्या जाता है! पर हम शुक्रगुज़ार हैं कि तानाशाही आ गयी तो क्या है, कम से कम चुनाव तो है। न सही डेमोक्रेसी, डेमोक्रेसी का स्वांग तो है।
राजेंद्र शर्मा
17 Mar 2021
डेमोक्रेसी
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार

लीजिए, अब स्वीडन वालों ने मोदी जी के न्यू इंडिया में डेमोक्रेसी की मौत का सार्टिफिकेट दे दिया। कहते हैं कि डेमोक्रेसी ने तो पिछले साल ही दम तोड़ दिया था। अब उसका भेष बनाकर जो घूम रही है, वह डेमोक्रेसी की सौतेली बहन है--इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी उर्फ चुनावी तानाशाही। चुनावी तानाशाही बोले तो, नो डेमोक्रेसी ओन्ली तानाशाही। पिछले हफ्ते, अमरीका वालों ने न्यू इंडिया की आज़ादी रेटिंग, आज़ाद से आंशिक आज़ाद कर दी थी और अब ये डेमोक्रेसी के दम तोडऩे का एलान। चंद रोज पहले ही ब्रिटिश संसद में भारत के किसान आंदोलन और मीडिया की आज़ादी छीने जाने पर बाकायदा चर्चा हुई।

ये दुनिया को क्या हो गया है? आखिरकार, पिछले एक साल में ऐसा क्या हो गया कि दुनिया वालों ने मोदी जी के न्यू इंडिया का डंका पीटना ही बंद करा दिया?

कोविड-19 के मारे मोदी जी एक साल विदेश यात्रा पर क्या नहीं गए, भाई लोगों ने भारत के डंके ही पीटने से रोक दिए! हाए जालिम पश्चिम वालों ने यूं आपदा को अवसर बना लिया, नॉइस पोल्यूशन घटाने के नाम पर, न्यू इंडिया का ढोल फोड़ दिया, डंका बंद करा दिया!

वैसे न तो डेमोक्रेसी की मौत के सार्टिफिकेट पर स्वीडन की सरकार की मोहर है और न इंडिया के आज़ाद से आंशिक आज़ाद हो जाने पर अमरीकी सरकार की। इतना तो मोदी जी के विरोधी भी मानेंगे कि छप्पन इंच की छाती का इतना रौब तो जरूर है कि कोई सरकार ऐसी जुर्रत कर ही नहीं सकती है। डेमोक्रेसी की मौत का सार्टिफिकेट स्वीडन की एक यूनिवर्सिटी के दुनिया भर में डेमोक्रेसी के स्वास्थ्य की जांच-पड़ताल करने वाले वी-डैम इंस्टीट्यूट ने जारी किया है, तो आंशिक आज़ादी का सार्टिफिकेट, अमरीकी संस्था फ्रीडम हाउस ने।

जिन सार्टिफिकेटों पर सरकार की मोहर तक नहीं है, उन्हें मोदी जी की सरकार क्यों कोई भाव देने लगी। विदेश मंत्री जी ने कुछ गुस्से और ज्यादा दु:ख से एकदम सही कहा--मोदी जी के इंडिया को किसी के सार्टिफिकेट की जरूरत नहीं है! पर शायद गुस्सा कुछ ज्यादा हो गया। आप ऐसे ऐंठेंगे तो कोरोना के बाद, पीएम जी के लिए सुने-अनसुने तमाम पुरस्कार कैसे बटोरेंगे! विदेश मंत्री हैं, जरा शायराना होकर कह सकते थे--गालिब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात! नहीं तो फलसफे का ही तडक़ा लगा देते--पूरब और पश्चिम, पहले कभी मिले हैं, जो न्यू इंडिया में मिलेंगे! विरोध का विरोध दर्ज हो जाता और मोदी जी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी पाते रहते। रिंद के रिंद रहते, हाथ से जन्नत भी नहीं जाती।

असली बात वही है, जो जयशंकर बाबू ने गुस्से की वजह से नहीं कही। पश्चिम वाले न हमारी आज़ादी को समझते हैं, न हमारी डेमोक्रेसी को समझते हैं, न बराबरी को समझते हैं न हमारी असली धर्मनिरपेक्षता को, न हमारे धर्म को न संस्कृति को, न इतिहास को न परंपराओं को, न हमारी आस्थाओं को न विश्वासों को। और तो और हमारे विकास को और हमारी आत्मनिर्भरता को भी नहीं समझते हैं। अति संक्षेप में यह कि पश्चिम वाले न मोदी जी को समझते हैं और न उनके न्यू इंडिया को। सो पश्चिम के चश्मे से जब तब न्यू इंडिया की रेटिंग गिराते रहते हैं। वैसे तो उनकी इकॉनमी की रेटिंग सलामत रहनी चाहिए, बाकी आज़ादी, डेमोक्रेसी वगैरह की बाहरवालों की रेटिंग की परवाह करता ही कौन है! ऐसी रेटिंगों की परवाह करने लगें तो फिर छप्पन इंच की छाती किस काम की।

वैसे फ्रीडम हाउस वालों की शरारत पर जयशंकर बाबू की नाराजगी भी समझ में आती है। बेचारे मोदी जी कब से इंतजार कर रहे थे कि  आज़ादी की 75वीं सालगिरह उर्फ अमृत वर्ष आए और महोत्सव कराया जाए। पहले कोरोना ने महोत्सव में से महा निकलवा दिया। और अब जब मोदी जी के 75 हफ्ते की उत्सव शृंखला के उद्घाटन के लिए, दांडी-2 को हरी झंडी दिखाकर गांधी-2 बनने का दिन आया तो, उससे ऐन पहले भाई लोगों ने मोदी के न्यू इंडिया को ‘आंशिक आज़ाद’ बना दिया! नेहरू-गांधी और यहां तक कि वीपी सिंह, देवगौड़ा तक का आज़ाद और मोदी का  इंडिया आंशिक आज़ाद। वह तो मोदी जी ने बड़ी चतुराई से, आज़ादी के अमृत महोत्सव में से आज़ादी का शब्द ही उड़ा दिया और हर जगह आत्मनिर्भर-आत्मनिर्भर करा दिया, वर्ना फ्रीडम हाउस वालों ने तो उनके स्वतंत्रता को मजबूत करने का दावा करने में टंगड़़ी मार ही दी थी।

खैर, मोदी जी भी जब्त कर के रह गए, वर्ना अगर आज़ादी के अमृत महोत्सव के साथ देश में न्यू-आज़ादी लगने का भी एलान कर देते, तो पश्चिम वालों का क्या मुंह रह जाता। न्यू आज़ादी यानी पचहत्तर साल पहले गांधी जी वगैरह ने जो दिलायी थी, उस आज़ादी से भी आज़ादी। और पचहत्तर साल बाद भी आज़ादी का मांगने वालों से पक्के तौर पर आज़ादी। अब भी आज़ादी मांगने वालों को, जेल में डालो...को!

वैसे पश्चिम वालों को अगर डेमोक्रेसी की सचमुच परवाह है, तो उन्हें भी तो बाकी हर चीज में इंडिया की रेटिंग गिराने से पहले कुछ सोचना चाहिए। हर चीज में इंडिया की रेटिंग ऐसे ही गिरती रहेगी तो शेयर बाजार कब तक उछलता रह पाएगा। और अगर शेयर बाजार भी लुढक़ जाएगा तब तो अडानी जी, अंबानी जी तक का खजाना सिकुड़ जाएगा। फिर मोदी को हरेक चुनाव कौन जितवाएगा!

चुनाव से बात नहीं बनी, तब क्या सिर्फ निरंकुश तंत्र नहीं रह जाएगा। चुनाव भी नहीं, ओन्ली तानाशाही। बाकी दुनिया सोच ले उसे न्यू इंडिया में क्या चाहिए--चुनावी तानाशाही या सिंपल तानाशाही!
बाहरवालों की यही प्रॉब्लम है। सब अपने ही पैमानों से नापते हैं और अक्सर न्यू इंडिया की तरक्की को, गिरावट बताते हैं। आंशिक आज़ादी से अडानी-अंबानी की दौलत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ते नहीं देखते हैं, टू मच आज़ादी से आज़ादी भी नहीं देखते हैं। बस, इस तरक्की के विरोधियों की आज़ादी पर चाबुक दिखाते हैं और उसके ऊपर से ग्रोथ रेट में गिरावट भी दिखाते हैं। चुनाव से कुर्सी पर बैठना नहीं देखते हैं, बस तानाशाही आना दिखाते हैं।

खैर, बाहर वाले तो कुछ भी कह सकते हैं, उनका क्या जाता है! पर हम शुक्रगुजार हैं कि तानाशाही आ गयी तो क्या है, कम से कम चुनाव तो है। वर्ना बर्मा उर्फ म्यांमार की तरह, नये इंडिया में सिर्फ तानाशाही आ जाती, तो हम क्या कर लेते? शुक्र है कि जब संसद, अदालत, चुनाव आयोग, वगैरह, वगैरह कुछ भी नहीं है, तब भी कम से कम चुनाव तो है। फैसला पब्लिक का चाहे नहीं हो, फिर भी चुनाव तो है। न सही डेमोक्रेसी, डेमोक्रेसी का स्वांग तो है। और विपक्षी सांसदों-विधायकों का ऊंचा बाजार भाव भी है। और क्या चुनावी तानाशाही की जान लोगे!

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

sarcasm
democracy
Elections
dictatorship

Related Stories

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

कटाक्ष:  …गोडसे जी का नंबर कब आएगा!

भारत में संसदीय लोकतंत्र का लगातार पतन

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

कटाक्ष: महंगाई, बेकारी भुलाओ, मस्जिद से मंदिर निकलवाओ! 

ताजमहल किसे चाहिए— ऐ नफ़रत तू ज़िंदाबाद!

कटाक्ष: एक निशान, अलग-अलग विधान, फिर भी नया इंडिया महान!

Press Freedom Index में 150वें नंबर पर भारत,अब तक का सबसे निचला स्तर

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

ढहता लोकतंत्र : राजनीति का अपराधीकरण, लोकतंत्र में दाग़ियों को आरक्षण!


बाकी खबरें

  • प्रियंका शंकर
    रूस के साथ बढ़ते तनाव के बीच, नॉर्वे में नाटो का सैन्य अभ्यास कितना महत्वपूर्ण?
    19 Mar 2022
    हालांकि यूक्रेन में युद्ध जारी है, और नाटो ने नॉर्वे में बड़ा सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया है, जो अभ्यास ठंडे इलाके में नाटो सैनिकों के युद्ध कौशल और नॉर्वे के सैन्य सुदृढीकरण के प्रबंधन की जांच करने के…
  • हर्षवर्धन
    क्रांतिदूत अज़ीमुल्ला जिन्होंने 'मादरे वतन भारत की जय' का नारा बुलंद किया था
    19 Mar 2022
    अज़ीमुल्ला ख़ान की 1857 के विद्रोह में भूमिका मात्र सैन्य और राजनीतिक मामलों तक ही सिमित नहीं थी, वो उस विद्रोह के एक महत्वपूर्ण विचारक भी थे।
  • विजय विनीत
    ग्राउंड रिपोर्ट: महंगाई-बेरोजगारी पर भारी पड़ी ‘नमक पॉलिटिक्स’
    19 Mar 2022
    तारा को महंगाई परेशान कर रही है तो बेरोजगारी का दर्द भी सता रहा है। वह कहती हैं, "सिर्फ मुफ्त में मिलने वाले सरकारी नमक का हक अदा करने के लिए हमने भाजपा को वोट दिया है। सरकार हमें मुफ्त में चावल-दाल…
  • इंदिरा जयसिंह
    नारीवादी वकालत: स्वतंत्रता आंदोलन का दूसरा पहलू
    19 Mar 2022
    हो सकता है कि भारत में वकालत का पेशा एक ऐसी पितृसत्तात्मक संस्कृति में डूबा हुआ हो, जिसमें महिलाओं को बाहर रखा जाता है, लेकिन संवैधानिक अदालतें एक ऐसी जगह होने की गुंज़ाइश बनाती हैं, जहां क़ानून को…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    मध्यप्रदेश विधानसभा निर्धारित समय से नौ दिन पहले स्थगित, उठे सवाल!
    19 Mar 2022
    मध्यप्रदेश विधानसभा में बजट सत्र निर्धारित समय से नौ दिन पहले स्थगित कर दिया गया। माकपा ने इसके लिए शिवराज सरकार के साथ ही नेता प्रतिपक्ष को भी जिम्मेदार ठहराया।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License