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भारत
राजनीति
बथानी टोला हत्याकांड: नीतीश ने नहीं दिलाया न्याय 
तरारी विधानसभा सीट पर चुनाव होने जा रहे हैं, यहाँ 1996 में हुए नरसंहार के निशान अभी भी कई लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में ताज़ा हैं, और ऐसे सभी लोग सीएम के ख़िलाफ़ वोट करने की शपथ ले रहे हैं।
सौरव कुमार
27 Oct 2020
Translated by महेश कुमार
बथानी टोला हत्याकांड

"मैंने बिहार के लोगों को नरसंहार के दौर से निकाला है"- उक्त शब्द 22 अक्टूबर को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हसन पुर (समस्तीपुर) में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहे थे। चुनाव की सरगर्मी वाले बिहार में, अन्य अंतहीन मुद्दे के बीच, जाति आधारित नरसंहार के पीड़ितों की पीड़ा और उनकी सबसे अधिक उपेक्षा नज़र आती है। 

नीतीश कुमार के सुशासन द्वारा नरसंहार के युग का अंत अब दलितों पर घनघोर अत्याचार में बदल गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2016 के आंकड़ों के अनुसार, बिहार में एससी और एसटी के खिलाफ सबसे अधिक घृणित अपराध हुए हैं। भोजपुर के तरारी के बथानी टोला के लोगों का कहना है कि जाति आधारित नरसंहारों के शिकार हुए लोगों को 'न्याय नहीं मिला' जो देश के इतिहास में अपनी तरह का सबसे घृणित कांड था। 

तरारी विधानसभा सीट पर 28 अक्टूबर को मतदान होना है, यहाँ 1996 के नरसंहार के निशान अभी भी कई लोगों के दिल-ओ-दिमाग में ताज़ा हैं, जो जनता दल-यूनाइटेड(जेडी-यू) और भारतीय जनता पार्टी सरकार के खिलाफ मतदान करने की प्रतिज्ञा ले रहे हैं। यहां की चुनावी लड़ाई एक वैचारिक लड़ाई भी क्योंकि लड़ाई वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ में है और यहां से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) भाजपा के सामने है।

चौदह साल पहले, मध्य बिहार के भोजपुर क्षेत्र में आरा शहर से 30 किलोमीटर दूर बथानी टोला में उच्च जाति के जमींदारों की एक निजी सेना (मिलिशिया) ने 21 ग्रामीणों की निर्मम हत्या कर दी थी जो स्वतंत्र भारत में क्रूरता की सबसे बुरी मिसाल बनी। बथानी टोला, भोजपुर जिले के बड़की खारौन गाँव के बाहरी इलाके में भूमिहीन दलित और मुस्लिम खेतिहर मजदूरों की बस्ती है। राजनीतिक रूप से शक्तिशाली भूमिहार और राजपूत जमींदारों की बस्ती बड्की खारोन से  यानि हमले के स्थल से सिर्फ 150 मीटर की दूरी पर स्थित है, जिन्होंने सांप्रदायिक-जातिवादी जानलेवा नरसंहार को उकसाया था। 

दशकों से, भोजपुर में सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में शोषणकारी भूमि संबंधों के खिलाफ जंग जारी थी और जारी है। जैसे-जैसे जागरूकता फैलती गई, मजदूर अपने अधिकारों की माँग करने लगे। जमींदार इसे बर्दाश्त नहीं कर पाए। एक बार जब मजदूर सशक्त बन गए उन्होंने आर्थिक नाकेबंदी शुरू कर दी। जमींदारों ने इससे निपटने के लिए यह घिनौना तरीका चुना और नरसंहार को अंजाम दिया, हमले के शिकार ज्यादातर खेत मजदूर थे।

मजदूरों के प्रतिरोध ने सामंती जमींदारों के भीतर खतरा पैदा कर दिया और इसकी जवाबी कार्रवाई में रणवीर सेना का गठन किया गया ताकि सामंतवाद के विरुद्ध किसी भी तरह के विरोध का खात्मा किया जा सके। 

रणवीर सेना की स्थापना भोजपुर जिले के बेलौर गाँव में प्रमुख जाति भूमिहार के जमींदारों द्वारा की गई थी, जिसका उद्देश्य 1994 में भोजपुर में हुए गरीब किसानों के आंदोलन की क्रांतिकारी छवि से ढहते सामंतवाद की रक्षा करना था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 1995 के विधानसभा चुनावों के दौरान मतदाताओं को डराने के लिए स्थानीय राजनेताओं ने रणवीर सेना जैसी निजी सेनाओं का इस्तेमाल किया।

नरसंहार की यादें 

11 जुलाई, 1996 को दोपहर 12 बजे रणवीर सेना ने बथानी टोला में बंदूक, तलवार और खंजर से हमला किया और जो भी उनके रास्ते में आया, उस पर कातिलाना हमला करना शुरू कर दिया। इस दलित-मुस्लिम ग्रामीण बस्ती में करीब दो घंटे से अधिक समय तक खून-खराब चलता रहा। रणवीर सेना के मजबूत पुरुषों की 50-60 की टोली  ने इस सशस्त्र हमले में किसी को भी नहीं बख्शा- एक नवजात शिशु, जो अपनी माँ की गोद में रो रहा था, को तलवार से काट दिया था, और उनकी झोपड़ी में आग लगा दी गई।

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बथानी टोला नरसंहार के पीड़ितों का स्मारक।

बथानी टोला के मृतकों की याद में एक स्मारक बनाया गया था। स्मारक को गाँव के बीच में बनाया गया, ताकि ऐसा न हो कि यहां के वासी इस "आतंक" को भूल जाएँ कि उनके ऊपर किस तरह का ज़ुल्म ढाया गया था, इस स्मारक पर मारे गर ग्रामीणों जिनमें 12 महिलाओं 1 पुरुष, 6 बच्चे और 2 नवजात शिशुओं (3 और 9 महीने) के नाम और उम्र अंकित हैं। 

इस नृशंस हिंसा के बारे में अधिक जानकारी देते हुए, एक प्रत्यक्षदर्शी, जमुना राम, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि उस दुखद दिन 18 वर्षीय लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था, मरने से पहले एक 25 वर्षीय महिला के स्तनों को काट दिया गया था, एक गर्भवती महिला के पेट को काटकर उसके गर्भ को तलवार पर टांग दिया गया था और एक नौ महीने के बच्चे को दो हिस्सों में काटकर हवा में उछाल गया था।

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जमुना राम, बथानी टोला नरसंहार के चश्मदीद गवाह

हमले के दौरान राधिका (38) के स्तनों में गोली लगी। घातक चोटों के बावजूद, उसने भोजपुर की स्थानीय अदालत में एक जीवित और चश्मदीद गवाह के रूप में अपना बयान दर्ज किया, और निजी सेना (मिलिशिया) के द्वारा किए गए योजनाबद्ध जानलेवा हमले का वर्णन किया। लेकिन यह सब तब व्यर्थ चला गया जब 2012 में सभी 23 आरोपियों को बरी कर दिया गया, राम ने कहा।

हमले में बच गए एक अन्य व्यक्ति कपिल साह ने न्यूज़क्लिक को उस भयानक घटना के बारे में जानकारी दी और कहा, “बड़की खारोन के जमींदारों ने हमें क्रूरता से मारा क्योंकि हमने उनके दमनकारी हुक्म का विरोध किया था। चाहे वह इमामबाड़ा हो, कर्बला भूमि (मुस्लिम इबादत का स्थान), कब्रिस्तान या दैनिक मजदूरी हो, जमींदारों ने हमारे अधिकारों को नष्ट करने का कोई मौका नहीं छोड़ा।”

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कपिल साह, जो बथानी टोला नरसंहार में बच गए थे।

“हिंसा, रोना-चिल्लाना और रहम की अपीलों के बीच, हम एक किलोमीटर दूर बनी चार पुलिस चौकियों के पास सुरक्षा की गुहार लगाने गए, जिसमें एक चौकी गांव में थी, लेकिन इन हमलों को रोकने के लिए पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। स्थानीय पुलिस और जमींदारों की सांठगांठ ने मासूमों और दलितों की जान ले ली।” उनका दावा तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता के ही विचारों के समान था, जिन्होंने पुलिस बल पर "पंगु और नपुंसक" होने का आरोप लगाते हुए अपना असंतोष व्यक्त किया था।

आने वाले चुनावों के बारे में बोलते हुए साह ने कहा कि उन्हें स्थायी घर (अस्थायी झोपड़ियों के बजाय), सड़क, बिजली तो मिल गई लेकिन न्याय नहीं मिला। उन्होंने कहा कि ऊंची जातियों यानी भूमिहार और राजपूत को छोड़कर, "कोई भी सत्तारूढ़ पार्टी को वोट नहीं देगा क्योंकि नरसंहार के घाव अभी भी हरे हैं,"।

नितीश कुमार बनाम न्याय:

90 के दशक के मध्य में भूमिहीन मजदूरों पर मजदूरी और सामाजिक सम्मान के मुद्दों को लेकर पिछड़ी जातियों और मुसलमानों पर जाति आधारित हिंसा और कई उन्मादी हमले देखे गए। जिन जगहों पर इस तरह की हिंसा देखी गई उनमें बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, शंकरबिघा और एकबारी आदि शामिल हैं।

2005 में, नीतीश कुमार अपनी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ सत्ता में आए थे। नीतीश कुमार ने सरकार में आने के बाद सबसे पहले आमिर दास आयोग को भंग किया। इन नरसंहारों में रणवीर सेना की भूमिका की जाँच के मद्देनजर राबड़ी देवी सरकार ने आयोग का गठन किया था और न्यायमूर्ति अमीर दास ने तहलका को दिए अपने एक साक्षात्कार में खुलासा किया था कि, “(नीतीश कुमार) सरकार बनने बाद मुझसे 15-20 दिनों के भीतर जल्दबाजी में रिपोर्ट सौंपने के लिए दबाव डाला गया था। रिपोर्ट से कई लोग प्रभावित हो सकते थे, और जाहिर है, सरकार के कुछ लोग भी इसमें शामिल पाए जाते।”

मई 2010 में, आरा की जिला अदालत ने बथानी टोला में नरसंहार के दोषी 23 लोगों को दोषी ठहराया था, तीन को मौत की सजा और बाकी को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। इसके बाद नवंबर 2010 में नीतीश की बड़ी बहुमत वाली जीत हुई, जिसे माना गया था कि यह अत्यंत पिछड़ी जातियों, उत्पीड़ित और हाशिए पर पड़े समुदायों की मसीहा सरकार है। 

दो साल बाद 16 अप्रैल 2012 को पटना उच्च न्यायालय ने सभी 23 दोषियों को बथानी टोला मामले में बारी कर दिया और 21 लोगों की जान लेने के लिए कोई सभी दोशी नहीं पाया गया। जो अपने पा में आश्चर्यचकित करने वाला फैंसला था। यानि दिन के उजाले में हुए नरसंहार का  "कोई दोषी नहीं"?इससे न्याय और विकास पर नीतीश कुमार की दोहरी बात से पर्दा उठ गया।

उन्होंने रणवीर सेना प्रमुख ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या की सीबीआई जांच के आदेश दिए लेकिन आमिर दास आयोग की जांच या बथानी टोला हत्याकांड में 23 अभियुक्तों को बरी किए जाने को चुनौती देने पर चुप्पी साध ली। 

सीपीआई (एमएल) की पोलित ब्यूरो की सदस्य कविता कृष्णन ने नरसंहार के युग को खत्म करने के नीतीश कुमार के दावे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए न्यूज़क्लिक से कहा कि, "सीएम नीतीश ने नरसंहार के युग को समाप्त नहीं किया, बल्कि उन्होंने अमीर दास आयोग की जांच को समाप्त कर दिया, जो उस समय की नवगठित बिहार सरकार के बड़े नामों का खुलासा कर सकते थे। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिेए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Bathani Tola Killings: Victims Allege ‘Subversion of Justice’ in 15 Years of Nitish Kumar

Bihar Assembly Election
Bathani Tola Massacre
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Caste based violence
Bihar election 2020
Nitish Kumar
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