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आंदोलन
भारत
राजनीति
उत्तर प्रदेश में स्कीम वर्कर्स की बिगड़ती स्थिति और बेपरवाह सरकार
“आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाएँ लंबे समय से अपनी मांगों को लेकर आंदोलन चला रही हैं। पर तमाम वार्ताओं के बाद भी उनकी एक भी मांग पूरी नहीं की गई। उनकी सबसे प्रमुख मांग है सरकारी कर्मचारी का दर्जा।”
कुमुदिनी पति
11 Jan 2022
Schemes workers

पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश के स्कीम वर्कर्स की स्थिति काफी बिगड़ी है और वे सरकार से खासा नाराज़ हैं। उनकी अपेक्षा थी कि कोरोना के दौर में भारी मशक़्क़त करने के बाद चुनाव पूर्व सरकार की ओर से उनकी मांगों पर विचार किया जाएगा, पर जो भी घोषणाएं हुईं उन्हें ऊंट के मुंह में जीरा समान माना जा सकता है। नतीजतन दिसम्बर 2021 से उनके आंदोलनों का सिलसिला जोर पकड़ रहा है।

12 सालों से रुकी हुई है आईसीडीएस (ICDS) में पदोन्नति

आंगनवाड़ी सेवा की मुख्य सेविकाओं या सुपरवाइज़रों ने सरकार के रवैये से थक-हारकर दिसंबर 6-8 को पहले 2 दिनों तक काली पट्टी बांधकर काम किया, फिर 9 दिसंबर को आईसीडीएस कार्यालय पर धरना दिया। उन्होंने कहा कि 5 वर्षों से एसीपी यानि एश्योर्ड कैरियर प्रोग्रेशन की बैठक तक नहीं हुई जबकि तमाम रिक्त पद पड़े हुए हैं। यानी हर साल जो उन्हें पदोन्नति मिलनी चाहिये उससे वंचित रहकर कई मुख्य सेविकाएं सेवानिवृत्त तक हो गईं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता मुख्य सेविका के पद पर आएं, मुख्य सेविकाएं सीडीपीओ और सीडीपीओ (CDPO) डीपीओ (DPO) के पद पर आएं, यही होना चाहिये, पर प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा आन्दोलनों के दबाव में 31 अक्टूबर तक रिक्त पद भरने का आदेश अब तक लागू नहीं हुआ। 12 सालों से आंगनवाड़ियों की नियुक्तियां और पदोन्नति रुकी हुई है। धरने में यह भी बात सामने आई कि जहां सुपरवाइज़र की मौत हो जाती है या सेवा खत्म हो जाती है उसके काम को दूसरी सुपरवाइज़र के मत्थे मढ़ दिया जाता है। अन्त में उनके ज़िम्मे 25 की जगह 50 आंगनवाड़ी केंद्र आ जाते हैं, एक आंगनवाड़ी केंद्र के अंतर्गत लगभग 1000 की आबादी आती है। लगभग 50 प्रतिशत सीडीपीओ के पद भी रिक्त पड़े हैं।

कोरोना के संकटपूर्ण समय में तमाम खतरे उठाते हुए भी काम कर रही ये महिलाएं और सीडीपीओ भी पूछ रहे हैं, ‘‘सरकार तमाम सामाजिक सूचकांकों में विकास दिखाना चाहती तो हमारी भी कार्यस्थितियों में विकास हो’’ पर अब तक उन्हें केवल पत्र द्वारा आश्वासन मिले हैं। पदोन्नति के लिए मासिक प्रोगेस रिपोर्ट तैयार करने हेतु फंड 2022-2023 वित्तीय वर्ष के बजट में मांगा जाएगा यह भी केवल आश्वासन दिया गया है।

जहां तक आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं की बात है तो वे लम्बे समय से अपनी मांगों को लेकर आन्दोलन चला रही हैं। पर तमाम वार्ताओं के बाद भी उनकी एक भी मांग पूरी नहीं की गई। उनकी सबसे प्रमुख माँग हैं सरकारी कर्मचारी का दर्जा और जब तक यह नहीं होता कार्यकताओं के लिए न्यूनतम 18,000 वेतनमान व सहायिकाओं के लिए 9000 वेतनमान लागू किया जाए। योग्यता के आधार पर सहायिकाओं को कार्यकर्ता और कार्यकर्ताओं को मुख्य सहायिकाओं के पद पर पदोन्नत किया जाए। इसके अलावा सेवा नियमावली तथा पेंशन व ग्रैचुइटी की मांग भी उठाई गई। इन्होंने 1 दिसंबर से काम बंद अनिश्चितकालीन हड़ताल की घोषणा की थी।

आशा वर्करों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा क्यों नहीं?

लगभग इसी समय आशा कर्मियों का प्रदर्शन भी राजधानी में हुआ। उत्तर प्रदेश आशा वर्कर्स यूनियन के बैनर तले आन्दोलनरत कर्मियों ने कहा कि कोरोना महामारी का दौर इनके लिए जितना भारी और संकटपूर्ण रहा, उतना किसी और के लिए नहीं था, पर प्रदेश का शासन उनके बारे में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने के लिए तैयार नहीं है। क्या कारण है कि इन कर्मचारियों के लगातार आन्दोलन करने के बाद भी उनकी मांगों पर विचार नहीं किया जाता? क्यों उन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा न देने पर सरकारें आमादा रहती हैं, पर उन पर काम का बोझ लगातार बढ़ता जाता है और वे 6000 रुपए प्रतिमाह तक नहीं पातीं।

आशा कर्मियों की आपबीती

इलाहाबाद में मंजू देवी उत्तर प्रदेश आशा वर्कर्स यूनियन की नेता हैं। मंजू देवी बताती हैं कि उनका दिन सुबह 5.30 से शुरू होता है और उन्हें घर में झाड़ू-पोछा, बर्तन और खाना पकाने जैसे सारे काम निपटाकर काम पर जाना पड़ता है। कई बार ऑटो न मिलने के चलते पैदल जाना पड़ता है। ‘‘कोरोना की दूसरी लहर के समय हमें एक-दो बार के बाद मास्क, सैनिटाइज़र और ग्लव्स मिलना बंद हो गया था क्योंकि बताया जाता है कि सप्लाई नहीं है। हम घर जाते तो संक्रमण का खतरा रहता था क्योंकि जबरन की सख़्ती के कारण लोग बीमारी छिपाते थे।’’

आशा कर्मियों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत काम में लगाया जाता है और प्रदेश में 1.6 लाख आशाकर्मी कार्यरत हैं। पर यूनियन के नेताओं की मानें तो महीने में 4-5 हज़ार रुपये से अधिक कमाई नहीं होती, जबकि आशा कर्मियों को संस्थागत डिलिवरी कराने, सर्वे करने, टीकाकरण करवाने, घर-घर जाकर स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देने, कुष्ठ रोगियों की पहचान करने और उनका इलाज करवाने से लेकर मरीजों को पीएचसी, सीएचसी पहुचाने, खसरा का टीका दिलवाने और नसबंदी कराने जैसे तमाम काम करने पड़ते हैं। मुजू बताती हैं कि सुबह 8 बजे के निकले उन्हें घर पहुंचते शाम हो जाती है पर राज्य की जनता को घर तक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने का इतना महत्वपूर्ण काम करने पर भी आशा वर्करों का दर्जा सरकारी कर्मचारियों का नहीं, बल्कि स्वयंसेवियों का है।

‘‘हम खुद बेहतर वेतन पाएं और अपने को स्वस्थ रखें, तभी तो राज्य की जनता की सेवा कर पाएंगे। हवा खाकर तो नहीं लगे रह सकते!’’ वह आक्रामक स्वर में कहती हैं। ‘‘वर्तमान समय में केंद्र से 2000 रु मिलते हैं तो राज्य केवल 750 रुपए देता था-आधा से भी कम। हाल में ही इसे बढ़ाकर सिर्फ 1500 रुपए किया गया है, जो हर हाल में नाकाफी है। इसके बाद डिलीवरी केस मिला तो 600 रुपए और सर्वे करना हुआ तो 1000 रुपए मिलते हैं। टीकाकरण के लिए 100 रुपए मिलते हैं। पर कई बार तो महीनों तक कोई डिलिवरी केस नहीं आता क्योंकि लोग खुद प्राइवेट नर्स से करवा लेते हैं अथवा नर्सिंग होम चले जाते हैं। सर्वे भी हमेशा नहीं होते। तो आप समझ सकते हैं हम कैसे दो जून की रोटी खाते हैं!’’

पिछली कोरोना लहर में राज्य में दो आशाकर्मी संक्रमित हुईं तो उनके पति भी संक्रमित हो गए और गुजर गए। पर पतियों की कोविड से मौत नहीं दिखाई गई तो मुआवज़ा नहीं मिला।’’एक आशा कर्मी पुष्पा, जिनके पति के इलाज के लिए जमीन बेचनी पड़ी, कहती हैं, ‘‘जब हम रोज़ 30-50 परिवारों के बीच जाते हैं और अपनी जेब से खर्च करके मास्क और ग्लव्स पहनते हैं, तो वाइरस तो आना ही है।’’ फिर हम संकरे घरों में रहते हैं तो कितना सामाजिक दूरी बनाते? पुष्पा के अनुसार जब वह बेटे को अपने लिए दवा लेने पीएचसी भेजतीं तो हर बार 3 गोली पैरासीटामोल दे दीं जातीं। और कई दवाएं वहां होती ही नहीं। यहां तक कि अफसर फोन करके पूछते तक नहीं कि तबियत कैसी है या किसी प्रकार की कोई ज़रूरत तो नहीं। संक्रमण के खतरे से बचाया नहीं जा सकता, फिर भी 10 दिन काम पर न आए तो पैसा कट जाता।

‘‘फ्रंटलाइन वॉरियर्स’’ का तमगा पर मिलता कुछ नहीं

आशा कर्मियों ने प्रथम और द्वितीय लहरों के दौरान प्रदेश में करीब 30 लाख प्रवासी मज़दूरों को ट्रेस किया और गांवों में कांटैक्ट ट्रेसिंग भी की थी। पर, भले ही उन्हें कागज़ पर और भाषणों में ‘‘फ्रंटलाइन वॉरियर’’ कहा जाता है, उन्हें कई जिलों में पल्सऑक्सीमीटर और थर्मल टेस्टिंग यंत्र नहीं दिया गया। मंजू कहती हैं, ‘‘हम पूछ लेते किसी को बुखार खांसी-सर्दी तो नहीं है, तो जो ग्रामीण बता देते उसी पर विश्वास कर लिया जाता। अब फिर से कोविड संक्रमण आया है और बूस्टर डोज़ के लिए हमें लगना पड़ेगा। काम के दौरान कई बार जिला अस्पतालों में सुविधा न होने के कारण मरीज के सगे-संबंधी इन्हें ही गालियां देते कि यहां क्यों ले आई। डॉक्टर अलग से डांट-फटकार करते कि काम सही नहीं हो रहा। बीच में पिस जातीं हैं आशा वर्कर्स“

जायज मांगें नहीं मानीं पर दमन जारी

मंजू आगे कहती हैं- “आशा वर्कर कई राज्यों में 7500 रुपए पाती हैं पर उनकी मांग न्यूनतम 10,000 रुपए की है, जिस मांग को प्रियंका गांधी ने अपने महिला घोषणापत्र में जोड़ा है। तब उत्तर प्रदेश में 3500 रुपए पर क्यों काम कराया जा रहा है? हम 10 लाख का स्वास्थ्य बीमा और 50 लाख का जीवन बीमा भी सरकार से मांग रहे हैं।’’

पर आवाज़ उठाने पर प्रदेश पुलिस उनके साथ लगातार बर्बर व्यवहार करती है। लोकल ख़ुफ़िया विभाग के माध्यम से भी पूछताछ की जाती है। पुलिस भी धमकी देती है कि ज्यादा आंदोलन करोगी तो काम से निकाल दिया जाएगा। आशाकर्मी पूनम पांडे जब मुख्यमंत्री को ज्ञापन देने जाने के लिए जोर देने लगीं तो पुरुष पुलिस ने उसका गला इतनी बेरहमी से दबाया कि उसकी सांस कुछ मिनटों के लिए रुक गई। वह प्राथमिकी दर्ज करे इससे पहले उसके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर दी गई। ‘‘उत्तर प्रदेश में शान्तिपूर्ण ढंग से मांगपत्र देना क्या गुनाह है?’’

रसोइयों से कराई जा रही है जबरन मज़दूरी

आशा वर्करों के अलावा स्कीम वर्करों में रसोइया भी लगातार आन्दोलन की राह पर हैं। प्रदेश में करीब 3.95 लाख रसोइया हैं जो क़रीब 18 लाख बच्चों के लिए स्कूलों में खाना पकाती हैं। जनवरी की ठंड में मिड डे मील वर्कर्स यूनियन के आह्वान पर वे भी धरने पर बैठीं। इलाहाबाद इकाई की संयोजक नीलम निषाद ने पत्रकारों को बताया कि ‘‘सरकार ने ऐसे संकट के दौर में मात्र 500 रुपए बढ़ाकर मानो हम पर बहुत बड़ी कृपा की है। 50 रुपए प्रतिदिन 6-7 घंटे काम, यानी 1500 रुपए से हमारा घर चलेगा क्या? फिर 8 महीने से वेतन रुका हुआ है, हम सबको खिलाएं पर खुद भूखे सो जाएं क्या?’’ पूरे कोरोना काल में इन्हीं महिलाओं ने क्वॉरंटीन केंद्रों में मरीजों के लिए भोजन पकाया। नीलम बताती हैं कि केवल खाना पकाने का काम नहीं, उनसे स्कूलों में झाड़ू-पोछा और शौचालय तक साफ करने का काम करवाया गया। वे बताती हैं कि सरकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अवमानना कर रही है। 2019 में आदेश आया की 10 माह की जगह 12 माह की पगार दी जाए। इसके अलावा रसोइया चंद्रावती बनाम उ.प्र. राज्य व छः अन्य की याचिका पर जस्टिस पंकज भाटिया की बेंच ने 15 दिसम्बर 2020 को स्पष्ट रूप से कहा कि इस तरह के वेतन पर काम करवाना संविधान की धारा 24 के तहत ‘‘बेगार व अन्य किस्म के ‘फोर्स्ड लेबर’ की श्रेणी में आता है। उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को और समस्त जिलाधिकारियों के लिए निर्देश दिया था कि सरकारी या अर्ध-सरकारी संस्थाओं के सभी रसोइयों को न्यूनतम वेतन कानून के तहत पगार दिया जाए और 2005 से 2020 तक के समय की वेतन विसंगति को भी एरियर्स के रूप में अदा किया जाए। निर्देश को लागू करने के लिए 4 माह का समय दिया गया था पर आज तक सरकार ने इसकी तामील नहीं की है।

राज्य में स्वास्थ्य और पोषण की योजनाएं जैसे-तैसे चल रही हैं। काम का उचित मूल्य और कर्मचारियों के हकों को मारकर कोई स्कीम कैसे चल सकती है? इसलिए अखबारों की सुर्खियां उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य सूचकांक की दयनीय स्थिति पर बयां कर रही हैं। नीति आयोग के  स्वास्थ्य सूचकांक रिपोर्ट को देखें तो उत्तर प्रदेश सबसे निचले पायदान पर है। क्या योगी सरकार चुनाव के 2 माह पूर्व इस नकारात्मक छवि से उबर पाएगी?

(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

ये भी पढ़ें: भाजपा के कार्यकाल में स्वास्थ्य कर्मियों की अनदेखी का नतीजा है यूपी की ख़राब स्वास्थ्य व्यवस्था

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