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शाहीन बाग़ : एक बेमिसाल आंदोलन को रुसवा करने की कोशिश
शाहीन बाग़ ने देश के नागरिकों के जीवित होने का एहसास पूरे देश को कराया। इसे बेइंतिहा मोहब्बत भी मिली और उससे कहीं ज़्यादा नफ़रत भी।

 
सत्यम श्रीवास्तव
21 Aug 2020
shahin bag
फाइल फोटो, साभार : bhaskar

शाहीन बाग़ का ‘पटाक्षेप’ क्या इसी तरह होना था? क्या इस बेमिसाल आंदोलन को इसी तरह रुसवा होना था? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो बीते दो-चार दिनों से तमाम उदारवादियों, धर्मनिरपेक्ष कैफियत और संविधान के प्रति आस्था रखने वालों के ज़हन में हैं।

आज़ाद भारत के नागरिक आंदोलनों में शाहीन बाग़ निश्चित तौर पर उस आंदोलन का प्रतीक है जो अपने भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण कर सका और देश में तकरीबन 3000 आंदोलन स्थलों के रूप में फैल गया। क्या उत्तर क्या दक्षिण क्या पूरब क्या पश्चिम। देश के हर राज्य में कई कई शाहीन बाग़ नागरिकता संशोधन कानून जैसे सांप्रदायिक आधार पर लाये गए कानून की मुखालिफत के लिए एकजुट होते गए।

शाहीन बाग़ ने देश के नागरिकों के जीवित होने का एहसास पूरे देश को कराया। इसे बेइंतिहा मोहब्बत भी मिली और उससे कहीं ज़्यादा नफरत भी। मोहब्बत उनसे मिली जो देश के संविधान में आस्था रखते हैं और सांप्रदायिक आधार पर किसी भी विभाजनकारी साजिश को देश के लिए उचित नहीं मानते थे और नफ़रतें उनकी तरफ से जिन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी तमाम आनुषंगिक इकाइयों के माध्यम से देश के मुसलमानों से नफरत करना सिखाया जा चुका था।

शाहीन बाग़ के बहाने देश स्पष्ट रूप से दो समानान्तर धाराओं में विभाजित हुआ जा रहा था। हाल फिलहाल के इतिहास में शाहीन बाग़ देश के हर घर में बहस का मुद्दा बन गया। यह इस आंदोलन की वह आंतरिक शक्ति ही थी जिसकी बदौलत मुख्य धारा की मीडिया में चौबीसों घंटों की नफरती रिपोर्टिंग के बावजूद दूर दराज़ के इलाकों में भी इस आंदोलन के प्रति कम ही सही लेकिन लोगों की हमदर्दी थी।

इस गर्व किए जाने लायक जन आंदोलन को कितनी ही दुश्वारियों का सामना करना पड़ा बावजूद इसके यह 101 दिनों तक निर्बाध चला। यह महज़ एक राजनैतिक प्रतिरोध नहीं था बल्कि इसमें समाज के अंदर एक आंतरिक सुधार की बड़ी मजबूत अंतर्धारा थी। विशेष रूप से मुस्लिम समाज में महिलाओं की अदम्य भागीदारी और परिवार में उनके इस कदम को मिल रहा समर्थन एक ऐसी महान परिघटना थी जिसके असर तमाम दमन के वाबजूद लंबे समय तक असर दिखाएंगे।

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के मिश्रण से तैयार और कश्मीर को अपने अहंकार से रौंदते हुए अनुच्छेद 370 के खात्मे के आधार बने मजबूत इरादों से भाजपा नीत केंद्र सरकार के लिए इस देशव्यापी विरोध को लेकर कोई आशंका नहीं थी। उन्हें खूब अंदाज़ा था कि अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम समुदायों का गुस्सा इन तमाम कदमों के खिलाफ फूटना ही है। वो इसके लिए पूरे लाव-लश्कर के साथ तैयार थे।

अपने ही नागरिकों के साथ देश की सरकार की यह तैयारी प्राय: दुनिया के देशों में इतने अश्लील ढंग से कम ही देखी गयी। 

हर राज्य में इन आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकारों की फौजें तैयार थीं। क्या असम, क्या उत्तर प्रदेश? केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में दिल्ली में तो खैर पूरे दम-खम और सुविचारित रणनीति के साथ इन आंदोलनों का कुचला जाना तय था। यहाँ तो विपक्ष भी उनके साथ था। पुलिस उनकी थी। मीडिया उनकी थी। कोर्ट के बारे में लिखने से अवमानना हो सकती है इसलिए यह बताना मुनासिब नहीं कि कोर्ट किसकी तरफ थे।

देश के एक केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली के विधानसभा चुनाव ने नागरिकता संशोधन कानून और उसकी ‘क्रोनोलॉजी’ का प्रचार–प्रसार करने में अहम भूमिका निभाई। चौबीसों घंटे इस कानून और इसके विरोधियों को ध्यान में रखकर सरकार व पार्टी के नेताओं ने बोला। जिसका सीधा प्रसारण पूरे देश में देखा गया। बहसें, लेख, सोशल मीडिया यानी सभी माध्यमों से दिसंबर 2019 से लेकर मार्च 2020 तक नागरिकता कानून, शाहीन बाग़, एनआरसी, एनपीआर के बारे में ही चर्चा होती रही। इस विवादित पैकेज पर सरकार के पक्ष को जन संचार के हर माध्यम से प्रसारित किया गया।

जो लोग हाल की घटनाओं से चौंक रहे हैं उन्हें नए सिरे से भाजपा के इस वार्षिक केलेण्डर की समीक्षा करनी चाहिए। मोदी सरकार-2.0 के पहले सौ दिनों की तमाम परियोजनाओं पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट होता है कि नागरिकता संशोधन कानून क्यों दिसंबर में ही लाया गया? यह आंकलन करना क्या इतना मुश्किल था कि उदारवादियों, धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों का बड़ा गढ़ दिल्ली है, यह भी क्या मुश्किल था कि किन विश्वविद्यालयों के छात्र इसके खिलाफ उतरेंगे, और ये कि दिल्ली चुनाव में जो प्रतिद्वंद्वी पार्टी है वो कैसे इस एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद करेगी? नहीं यह वाकई बिलकुल मुश्किल काम न था। इसलिए ऐसे मुद्दे अक्सर चुनाव अभियान में उठाए जाते हैं ताकि उनकी पहुँच घर-घर में हो सके।

इस एक तीर से कई निशाने एक साथ साधे गए। यह तीर नागरिकता संशोधन कानून को संसद में लाने की टाइमिंग का था। अब यह संदेह जैसे यकीन में बदलता जा रहा है कि यह टाइमिंग दो महत्वपूर्ण दलों की आपसी सहमति से तय हुई थी। ये दो दल थे भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी। मैच इस कदर फिक्स लगता है कि ठीक चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी का एक संस्थापक सदस्य भाजपा में शामिल हो जाता है जिसे सौरभ भारद्वाज अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में ‘बालक’ कहकर संबोधित कर रहे हैं। वो भाजपा की तरफ से खेलने लगते हैं।

दिल्ली विधानसभा का चुनाव ऐसा चुनाव था जहां परिणाम पहले से ही तय था। खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा और बजरंग दल के किसी दीपक मदान ने एक फ्लेक्स बैनर में ‘दिल्ली मांगे केजरीवाल और देश मांगे मोदी’ को लाने की आपील की थी। यह महज़ इत्तेफाक नहीं था और न ही यह कोई लापरवाही थी बल्कि एक सोचा समझा प्रयास (बैनर) था।

 

अब संयुक्त राजनैतिक कार्यक्रम था कि कैसे इस चुनाव अभियान में जन आंदोलन जैसे असहमति के लोकतान्त्रिक अधिकार और उसकी अभिव्यक्ति को कलंकित किया जाये। चूंकि नागरिकता संबंधी पैकेज के विरोध में मुसलमान सबसे ज़्यादा मुखर हैं और उन्हें होना ही था क्योंकि उनके साथ भेदभाव हुआ था तो इस बहाने मुसलमानों को कलंकित किया जाये। यह भी एक अद्यतन प्रयोग ही था कि नागरिकता संशोधन कानून की मुखालिफत में एक आंदोलन नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष में भी खड़ा हो गया।

पक्ष में खड़े आंदोलन की अपील इतनी बड़ी हो गयी कि लोग अपना आपा खो बैठे और एक नहीं दो दो बार हथियार लेकर शाहीन बाग़ और जामिया में पहुँच गए। एक हमलावर को तो बालिग-नाबालिग की सुविधाजनक कन्फ़्यूजन से कानून के शिकंजे से बचा लिया गया जबकि दूसरे को मानसिक रूप से बीमार होने की सुविधाजनक शर्त पर जमानत दे दी गयी। बाद में हालांकि इनके स्वागत-सत्कार की खबरें ध्यान खींचती रहीं और ये भी ध्यान में रह गया कि कौन लोग थे जो इनका स्वागत सत्कार कर रहे थे और उनके ताल्लुकात किससे थे और हैं। बहरहाल।

शाहीन बाग़ आंदोलन से खुद को जुड़ा हुआ बताने वाले करीब 100 लोग भाजपा में शामिल हुए जिनके मुख्य नेता यानी शहजाद अली के बारे में यह कहा जा रहा है कि वो पहले से ही उलेमा काउंसिल से संबद्ध रहा है और यह काउंसिल भाजपा–समर्थक समूह के रूप में जाना जाता है। हालांकि यह सहज बोध सामने आ रहा है कि अगर वाकई शहज़ाद अली शाहीन बाग़ आंदोलन के प्रमुख आयोजकों में से एक होते तो उनकी जगह वैतरणी के गुणों से सम्पन्न भाजपा नहीं बल्कि दिल्ली की कोई जेल होती। लेख लिखे जाने तक शाहीन बाग़ आंदोलन की तरफ से यह आधिकारिक बयान भी शाया हो गया कि इस व्यक्ति का आंदोलन से कोई लेना देना नहीं था।

अब सवाल है कि इस घटनाक्रम के बाद आम आदमी पार्टी की तरफ से जो सफाई दी गयी कि देखिये हमारा कोई लेना देना नहीं था शाहीन बाग़ से बल्कि यह भाजपा प्रायोजित था वह क्यों दी गयी? आम आदमी पार्टी के ऊपर कौन सा ऐसा कलंकों का भार था जिससे मुक्ति के लिए वो इतनी उतावली हो रही थी?

दरअसल इसी बात ने तमाम उदार,लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष लोगों को सबसे ज़्यादा परेशान किया हुआ है कि बताइये आम आदमी पार्टी किसी आंदोलन को इस तरह कैसे रंग दे सकती है? आंदोलन की स्वत: स्फूर्तता और पवित्रता पर इस तरह का लांछन कैसे लगा सकती है?  यह मासूमियत की ऐसी इंतिहां है जहां जाकर केवल अफसोस हो सकता है कि हमारा प्रगतिशील खेमा किस कदर निकटदृष्टि दोष का शिकार रहा है या जिसे अँग्रेजी में विशफुल थिंकिंग कहते हैं, उससे ग्रसित रहा है।

लोग भूल रहे हैं कि जम्मू–कश्मीर के साथ जब एक संप्रभु देश की सर्वशक्तिमान संसद ने बहुमत का इस्तेमाल करते हुए ऐतिहासिक करार तोड़ा और एक तरह से वादाखिलाफी की तो मौजूदा केंद्र सरकार की सराहना करते हुए शुरुआती ट्विट्स में एक ट्वीट दिल्ली नामक केंद्र शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का था। 

We support the govt on its decisions on J & K. We hope this will bring peace and development in the state.

— Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) August 5, 2019

जिसके बारे में हाल ही में नज़रबंदी से बाहर आए जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कान्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्लाह ने कहा कि वो कैसे भविष्य में केजरीवाल जी जैसे नेताओं पर होने वाली ज़्यादतियों के बारे में कुछ बोल पाएंगे। केजरीवाल जी रोज़ केंद्र शासित प्रदेश के निर्वाचित  मुखिया होने के नाते इस आधे अधूरे राज्य की दुश्वारियां झेल रहे हैं वो कैसे किसी स्वायत्त राज्य को केंद्रशाषित प्रदेश बनाए जाने पर खुशी ज़ाहिर कर सकते हैं।

दिल्ली और देश के प्रगतिशील जमात को यह समझने में कुछ ज़्यादा ही वक़्त लग गया कि भाजपा और आम आदमी पार्टी दो पहाड़ हैं जिसे कवि गीत चतुर्वेदी की एक कविता की पंक्ति के हवाले से ‘जिन्हें केवल पुल ही नहीं बल्कि खाई जोड़ रहे थे’। दोनों एक ही स्पेल में गेंदबाजी कर रहे थे जहां भाजपा आक्रामक ढंग से तेज़ गेंदबाज थी और आम आदमी पार्टी स्लो पेस पर स्पिन भी मार रही थी और जनता रूपी बल्लेबाज़ को छका रही थी, उसे कनफ्यूज कर रही थी।

उम्मीद है शाहीन बाग़ जो एक आंदोलन से ज़्यादा नागरिक चेतना का प्रतीक था इस रंग में ढाल दिये जाने इंकार करेगा और देश की प्रगतशील जमात अब और मुगालते नहीं पालेगी।

 

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Protest against CAA
Protest in Shaheen bagh
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