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भारत
राजनीति
पंजाब में कठिन को सकती है भाजपा की राह
अकालियों ने जहाँ भाजपा से मुहँ मोड़ लिया है वहीं दूसरी ओर प्रदेश में कृषि क़ानूनों को लेकर भारी असंतोष गहराता जा रहा है, ऐसे में भगवा पार्टी के लिए अब आगे की राह बेहद कठिन होती जा रही है।
ओंकार पुजारी
01 Feb 2021
पंजाब

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा अपने भली-भांति आजमाए हुए हिंदुत्व के जातीय गोलबंदी और विपक्षी खेमों से नेताओं का शिकार कर अपने खेमे में खींच लाने वाले नुस्खे ने समूचे देश भर में इसे खुद को विस्तारित करने में मदद की है। पश्चिम बंगाल में यह प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरी है और यहाँ तक कि उत्तर-पूर्वी राज्यों को भी इसने अपने कब्जे में ले लिया है। हाल के दिनों में भाजपा की चुनावों में जीत हासिल करने की संभावना में न सिर्फ असाधारण इजाफा हुआ है, बल्कि भगवा पार्टी तकरीबन हर प्रदेश में अपनी बढ़त को बनाने में कामयाब रही है। तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना जैसे दक्षिणी राज्यों में जहाँ इसने धीमी गति से अपने विकास की रफ्तार को बनाये रखा है, ऐसे में भाजपा के रथ के उत्तरी इलाकों में उत्तरोत्तर वृद्धि में यदि कोई एकमात्र अपवाद रहा है तो वह पंजाब है।

अपने तरकश में मौजूद सभी आजमाए जा चुके तीरों को इस्तेमाल में लाने के बावजूद भाजपा को पंजाब में बढ़त बना पाने में सफलता नहीं मिल पाई है। जहाँ मोदी-शाह के दौर में बीजेपी का ग्राफ देश भर के कई राज्यों में तेजी से बढ़ा है, वहीँ पंजाब में पार्टी के ग्राफ में निरंतर गिरावट का क्रम बना हुआ है। 2014 और 2019 की भगवा लहर ने जहाँ देश को अपनी लहर में सराबोर कर दिया था, वहीँ पंजाब इससे पूरी तरह से अछूता रहा। वास्त्तव में देखें तो 2009 की तुलना में पार्टी का वोट-प्रतिशत उल्टा घट गया था।

2019 के चुनावों में भी प्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा था। इसे सिर्फ गुरदासपुर और होशियारपुर जैसी लोकसभा सीटों पर ही सफलता मिल पाई थी, जहाँ पर शहरी और सवर्ण हिन्दू मतदाताओं का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक है। असल में देखें तो भाजपा के अपने खुद के परंपरागत हिन्दू वोटों के आधार में से एक हिस्से पर कांग्रेस ने सेंधमारी कर ली है। इसमें दिलचस्प पहलू यह है कि भाजपा के दो कद्दावर नेताओं अरुण जेटली और हरदीप पुरी तक को 2014 और 2019 के चुनावों में हार का मुहँ देखना पड़ा था। 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मात्र 3 सीटों पर ही जीत हासिल हो सकी थी, जो कि अभी तक का उसका सबसे बदतरीन प्रदर्शन रहा है। अब जबकि अकालियों ने भाजपा के साथ के अपने 23 साल पुराने गठबंधन से नाता तोड़ लिया है और नए कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध के प्रमुख केंद्र के तौर पर पंजाब उभर कर समाने आया है, तो ऐसे में पंजाब में भाजपा की स्थिति बद से बदतर होने की संभावना काफी प्रबल है।

अवसरवादी बेमेल गठबंधन ग़लत साबित हुआ है

 

वैचारिक तौर पर देखें तो अकालियों और भाजपाइयों के बीच में किसी भी प्रकार की वैचारिक साम्यता नहीं है जो उन्हें एक दूसरे से जोड़ता हो, सिवाय यह कि उन दोनों का साझा दुश्मन कांग्रेस है। अकालियों ने भाजपा के साथ गठजोड़ महज इसलिये कर रखा था क्योंकि राज्य में शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के टक्कर में कांग्रेस एक कड़े प्रतिद्वंदी के तौर पर बनी हुई थी। सरल शब्दों में कहें तो यह एक अवसरवादी गठजोड़ मात्र था। भाजपा का काम जहाँ राज्य के शहरी इलाकों से सवर्ण हिन्दू (खत्री) मतों को आकृष्ट करना था, वहीँ अकाली दल के पास ग्रामीण (पंथिक) सिख समुदाय के वोटों को इसमें जोड़ने का कार्यभार था।

हालाँकि हाल के दिनों में भाजपा को जहाँ हालिया चुनावों में अपने पारंपरिक हिन्दू वोटों के एक हिस्से से हाथ धोना पड़ा है वहीँ इसके साथ ही राज्य इन दिनों तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों की जद में है। ऐसे हालात में अकालियों के पास भगवा संगठन से खुद को अलग करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा रह गया था। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षाविद और भगत सिंह आर्काइव्ज एंड रिसोर्स सेंटर, नई दिल्ली के मानद सलाहकार प्रोफेसर चमनलाल सहमति जताते हुए कहते हैं : “जब इन कृषि क़ानूनों को अध्यादेश के तौर पर घोषित किया गया था तो उस दौरान अकाली नेताओं और केन्द्रीय मंत्री एवं अकाली दल अध्यक्ष सुखबीर बादल की पत्नी हरसिमरत बादल में से किसी ने भी न तो इसका विरोध किया था और न ही अपने पद से इस्तीफ़ा देना जरूरी समझा था। जब संसद में इन विधेयकों को संदिग्ध तरीके से पारित किया जा रहा था और अंततः इन्हें एक क़ानूनी दर्जा दे दिया गया, तब भी अकाली दल विपक्ष के साथ खड़ा नजर नहीं आया। वो तो जब इन कानूनों का किसानों द्वारा बहिष्कार की घोषणा और आंदोलन उत्तरोत्तर मजबूत होता चला गया, तब जाकर इस दल ने एनडीए से बाहर जाने का फैसला लिया और हरसिमरत बादल ने इस्तीफ़ा दिया था।”

अकालियों द्वारा भाजपा के साथ अपने रिश्तों को तोड़ने के फैसले को ‘एक अवसरवादी कदम’ बताते हुए उनका कहना था कि “जब किसानों का आंदोलन तीखा होने लगा और अकालियों को लगा कि कहीं उनका परंपरागत ग्रामीण आधार भी उनके हाथ से न निकल जाए, तो ऐसे में अकाली दल ने भाजपा के साथ अपने रिश्तों को खत्म करने को लेकर मन बनाया। यह पूरी तरह से एक अवसरवादी फैसला था और किसानों को इस बात का अहसास है।”

हालाँकि राज्य में किसानों के विरोध प्रदर्शनों से काफी पहले से ही अकाली-भाजपा गठबंधन में दरारें उभरनी शुरू हो चुकी थीं। वो चाहे अकाली दल का 2020 की शुरुआत में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम की जोरदार मुखालफत रही हो, दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा और अकालियों के बीच में सीटों के बंटवारे को लेकर किसी समझौते में पहुँच पाने में विफलता रही हो, हरसिमरत कौर बादल को कम महत्व वाले खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय जैसे मंत्री पद को दिया जाना रहा हो। इसके अलावा अकाल तख़्त द्वारा 2019 के अंत में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाये जाने का आह्वान रहा हो, या भाजपा की ओर से अकाली दल (टकसाल) गुट के साथ सांठ-गाँठ करने का मसला रहा हो जो कि बादलों को बेहद नागवार गुजरा था, के साथ-साथ देवेन्द्र फडनवीस सरकार के नांदेड़ में हजूर साहिब मामले में टांग अड़ाने की कोशिश हो जिसपर अकालियों को सख्त आपत्ति थी, को देखते हुए कह सकते हैं कि हाल के दिनों में  अकाली-भाजपा गठबंधन में ऐसे कई कांटे चुभ चुके थे। लेकिन इस गठबंधन की ताबूत में आखिरी कील तब ठुंकी जब अकालियों को इस बात का भलीभांति अहसास हो गया कि भाजपा का अस्तित्व अब पंजाब में उनके लिए एक राजनीतिक बोझ बन चुका है, और यह गठबंधन उत्तरोत्तर उनके गले की फांस बनता जा रहा है। अकाली दल को यह डर सताने लगा था कि यदि इसने जल्द ही एनडीए से अपना पल्ला नहीं झाड़ा तो इसका ग्रामीण पंथिक सिख किसानों वाला मुख्य मतदाताओं का आधार उससे और अधिक अलगाव में चला जाने वाला है, जो कि पहले से ही अकालियों से खिसक रहा था।

प्रोफेसर लाल के विचार में “राज्य में मौजूद अपने पारंपरिक ग्रामीण इलाकों वाले मजबूत गढ़ से बहिष्कृत किये जाने के चलते अकालियों के पास अब कोई चारा नहीं बचा था, क्योंकि किसानों के विरोध प्रदर्शन की बयार सारे पंजाब में फ़ैल चुकी थी। इस बीच 2017 के चुनावों में पंजाब में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर आम आदमी पार्टी (आप) उभर चुकी थी और इसने अकालियों के वोट बैंक पर सेंधमारी करने में सफलता हासिल कर ली थी, जिससे पहले से ही अकाली सकते में थे।”

अकालियों के लिए देखें तो उन्हें हाल के वर्षों में लगातार चुनावी उलटफेर का शिकार होना पड़ा है और यहाँ तक कि 2017 में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा भी उन्हें आप को सौंपना पड़ा है। किसानों का यह विरोध उनके लिए कहीं न कहीं गलती से ही सही एक वरदान साबित हो सकता है, क्योंकि ये एक सौ साल पुराने दल को अपने से दूर जा रहे मूल मतदाताओं को दोबारा से अपनी ओर वापिस खींच लाने का सुअवसर प्रदान करता है। हाल के वर्षों में अकाली दल के शर्मनाक चुनावी प्रदर्शनों के पीछे की सबसे बड़ी वजह गुरु ग्रन्थ साहिब को अपवित्र किये जाने की घटना और फरीदकोट पुलिस फायरिंग में दो प्रदर्शनकारियों की मौत रही, जिसने रुढ़िवादी पंथिक (सिख) मतदाताओं को इससे दूर कर दिया था। 2015 में बरगरी फायरिंग ने अकाली सरकार के पतन को गहराने का काम किया था और यह प्रतिस्पर्धी चुनावी राजनीति में इस एक और बुनियादी अनुस्मारक के तौर पर याद रखा जाना चाहिए कि : कोई भी राजनीतिक दल या नेता अपनी चुनावी सफलता को तब तक आनंद नहीं ले सकता, जब तक कि वह अपने मूल समर्थक पर अपनी पकड़ बनाने में विफल रहता है।

2019 के लोक सभा चुनावों के बाद आयोजित लोकनीति सीएसडीएस के चुनावोपरांत सर्वेक्षण में भी यह बात साबित हो गई थी कि राज्य में अकाली अपने रुढ़िवादी पंथिक मतदाताओं के बीच में अपनी पकड़ खोती जा रही थी। सर्वेक्षण में शामिल सिखों करीब 43% सिख इस दृष्टिकोण से सहमत नजर आये कि अकाली दल ने सिख धर्म की पूरी तरह से अवहेलना की है, जबकि 24% सिख ऐसे थे जिनका मानना था कि पार्टी ने आंशिक तौर पर सिख धर्म की अवहेलना की है। जाट सिख, जो पारंपरिक तौर पर अकाली दल के मतदाता रहे हैं ने इस दौरान कांग्रेस और आप की ओर रुख कर लिया था। 2019 के चुनावों में पाँच में से करीब दो जाट सिखों ने (37%) कांग्रेस को अपना वोट दिया, जो कि 2014 के लोक सभा चुनाव से 14% अधिक था। रोचक तथ्य यह है कि सर्वेक्षण में शामिल 70% लोगों के बीच में 2019 के चुनावों के दौरान भी 2015 में गुरु ग्रन्थ साहिब को अपवित्र किये जाने वाली घटना एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई थी, जो कि राज्य में बढ़ते नशे की लत के बाद दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ था। 

2020 में अकाली दल की कोर कमेटी के बीच चली कई मैराथन बैठकों के बाद पार्टी के शीर्षस्थ निकाय में मौजूद सुखबीर सिंह बादल ने अपने एक ट्वीट में एनडीए से खुद को अलग करने के लिए केंद्र के एमएसपी को लेकर संवैधानिक विधाई गारण्टी प्रदान करने पर अड़ियल रुख रखने और “इसके द्वारा पंजाबी और सिख मुद्दों पर लगातार असंवेदनशीलता” को जिम्मेदार ठहराया था। अकाली दल के अध्यक्ष द्वारा एनडीए से नाता तोड़ने को लेकर जिन शब्दों का चयन किया गया था उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकप्रिय आम धारणा के उलट इसका संबंध मात्र विवादास्पद कृषि कानूनों से ही नहीं था। ध्यान देने योग्य पहलू यह है कि बादल के ट्वीट में ने सिर्फ कृषि कानूनों का हवाला है, बल्कि इसमें “पंजाबी और सिख मुद्दों के प्रति असंवेदनशीलता” का मुद्दा भी शामिल है।

रुढ़िवादी पंथिक मतदाताओं के बीच में अपनी लोकप्रियता को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में अकाली दल को अपने “नौ-मास दा रिश्ता” से नाता तोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। पंजाब में लगातार अलोकप्रिय होती जा रही एनडीए और मोदी सरकार से नाता तोड़ना अकाली दल के लिए एक राजनीतिक मजबूरी साबित होती जा रही थी, जो अपने पारंपरिक सिख मतदाता को एक बार फिर से अपने पक्ष में करने को लेकर बेताब थी। अकाली जो कि पहले से ही सिख मुद्दों से नाता तोड़ने जैसे आरोपों का सामना कर रहे थे, उसके सामने राज्य भर में किसानों के आंदोलनों की लहर सामने खड़ी थी, जिसके नेतृत्वकारी भूमिका में सिख कृषक समुदाय जो कि इस पार्टी के चुनावी आधार की रीढ़ रहा हो, ऐसे में अकाली दल का भाजपा के साथ खड़े दिखना उसके अपने अस्तित्व के लिए कहीं से भी संभव नहीं रह गया था। अकाली दल के मुखिया सुखबीर सिंह बादल ने अपनी पार्टी के रुख का यह कहते हुए सारांश पेश किया था कि : “हर अकाली एक किसान है और हर किसान एक अकाली है।”

अकालियों ने न सिर्फ भाजपा से अपने रिश्ते तोड़ दिए, बल्कि हाल के दिनों में उसने अपने पूर्व सहयोगी के खिलाफ हमले भी तेज कर दिए हैं। पाँच दफा पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके और अकाली दल के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल ने दिसंबर में अपना पद्म विभूषण सम्मान लौटा दिया था। भाजपा पर तीखा हमला करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने इस पार्टी को “असली टुकड़े-टुकड़े गैंग” और “सबसे बड़ी विभाजनकारी” ताकत तक कह डाला है। उन्होंने भगवा दल पर हिन्दुओं और सिखों के बीच में दो-फाड़ करने का भी आरोप लगाया है।  

इस बारे में प्रोफेसर लाल का कहना है कि “भाजपा के साथ अपने गठबंधन के कारण पंजाब में अकाली दल इतना अलग-थलग पड़ चुका था कि इसे अपने नुकसान की भरपाई के लिए भाजपा के खिलाफ बेहद कड़े शब्दों का सहारा लेना पड़ रहा है। सुखबीर बादल को भाजपा सरकार को टुकड़े टुकड़े गैंग इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि उनके द्वारा किसानों को अलगाववादी, खालिस्तानी इत्यादि करार दिया जा रहा है।”

पंजाब कभी भी निरंकुश नेताओं या प्रभुत्वशाली राजनीतिक शक्तियों के लिए आसान राह नहीं रहा है

पंजाब की राजनीति में इस तथ्य को बारम्बार देखा गया है कि इस प्रदेश का हमेशा से ही निरंकुश नेतृत्व के प्रति गहरा अविश्वास रहा है और अधिनायकवादी शासनों के खिलाफ यहाँ पर जोरदार प्रतिरोध संचालित किये गए हैं। पंजाब कभी भी निरंकुश नेतृत्व को लेकर चैन से नहीं बैठा है – वो चाहे अलेक्जेंडर या सिकन्दर रहा हो, या औरंगजेब, या हाल के दिनों में इंदिरा गांधी या राजीव गाँधी रहे हों। इसने इन सभी का सतत विरोध किया है। नरेंद्र मोदी भी लगता है पंजाबी राजनीति की इसी पृवत्ति के भुक्तभोगी हैं। यहाँ तक कि 2014 में जब वे अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे, भाजपा ने हिंदी हृदयस्थली, पश्चिमी राज्यों पर अपना कब्जा जमा लिया था और यहाँ तक कि अपने पारंपरिक मजबूत गढ़ों से बाहर जाकर केरल, असम और आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में भी कुछ बढ़त बना पाने में सफलता पा ली थी, ऐसे में पंजाब ही एकमात्र ऐसा प्रमुख राज्य था, जहाँ से भाजपा को लाभ हासिल करने में विफलता हाथ लगी थी। उल्टा पंजाब में इसका मत प्रतिशत 2009 में जहाँ 10.1% तक था वह 2014 में गिरकर 8.7% रह गया था। 

2017 के राज्य चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी प्रदेश में पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन जारी रहा। जहाँ राज्य में भाजपा की विफलता को अक्सर राज्य में मौजूद सिख बहुसंख्यक आबादी से जोड़कर देखा जाता रहा है, जो भाजपा के हिंदुत्व के कार्ड को बेकार कर देता है, वहीँ पार्टी के चुनावी हार के कारणों में दो अन्य महत्वपूर्ण कारकों को भी जोड़कर देखे जाने की जरूरत है, जिसके चलते भाजपा अपने पक्ष में मतों को खींच पाने में नाकामयाब रही है। वह है राष्ट्रीय सुरक्षा का नारा और मोदी फैक्टर के नारे पर खेले जाने वाले दाँव को लेकर। मोदी की “लोकप्रियता” ने सारे देश भर में पार्टी को वोट दिलवाने का काम किया है, लेकिन पंजाब में यह पार्टी के खिलाफ गया है। लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण के अनुसार पंजाब में मोदी की नकारात्मक संतुष्टि की रेटिंग देखने को मिली थी- राज्य में जितने लोग उनके कामकाज से संतुष्ट थे उसकी तुलना में उनसे असंतुष्ट लोगों की संख्या कहीं अधिक पाई गई थी। मोदी से पंजाब में संतुष्टों की शुद्ध दर 39% थी जो कि सिर्फ तमिलनाडु और केरल के 29% से अधिक थी। लोकसभा चुनावों के लिए लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव-बाद के सर्वेक्षण में राज्य में 10 में से मात्र तीन उत्तरदाताओं ने ही प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी को अगला कार्यकाल दिए जाने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी। भाजपा की बहु-प्रचारित राष्ट्रीय सुरक्षा का यहाँ पर कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिला था। बालाकोट एयर स्ट्राइक्स ने जहाँ अन्य उत्तरी राज्यों में भगवा संगठन की झोली में वोटों का अंबार लगा देने का काम किया था, वहीँ पंजाबी मतदाताओं पर शायद ही कोई खास प्रभाव पड़ा हो।

अब जबकि आज पंजाब असंतोष की आग में सुलग रहा है, मोदी सरकार द्वारा किसानों के मुद्दों से सख्ती से निपटने और अपनी अकड़ में इंकार करने से राज्य में उसकी मुश्किलों में सिर्फ इजाफा ही होने जा रहा है। दिसंबर में भारतीय रेलवे खान-पान एवं पर्यटन निगम (आईआरसीटीसी) ने करीब 47 पेज के दस्तावेज के साथ दो करोड़ ईमेल “पीएम मोदी और उनकी सरकार के सिख समुदाय के साथ खास रिश्ते” शीर्षक के साथ प्रेषित की गई थी। इस बुकलेट में उन सभी क़दमों को सूचीबद्ध किया गया था, जिसमें शासन द्वारा “सिख समुदाय को अपना समर्थन देने के लिए” करतारपुर साहिब गलियारे, “लंगर पर टैक्स में छूट देने”, “हरमिंदर साहिब के लिए एफसीआरए में पंजीकरण” और “1984 के दंगा पीड़ितों के लिए न्याय” जैसे मुद्दों को शामिल किया गया था।

एक ऐसे समय में जब पंजाब के सिख और किसान समुदाय नए कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के अगुआ मोर्चे पर डटे हुए हों, ऐसे में सरकार द्वारा ‘सिख समुदाय तक पहुँच’ बनाने की टाइमिंग को लेकर भाजपा की प्रदेश के मुद्दों के प्रति नासमझी और गलत तरीके से निपटाने के बारे में दर्शाता है। इसमें सबसे पहला तो यह कि किसानों का यह विरोध प्रदर्शन कोई सिखों द्वारा किया जा रहा विरोध मात्र नहीं है। जहाँ पंजाब का किसान इस आन्दोलन की अगुआई कर रहा है, वहीँ हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों के किसान भी इस आन्दोलन में शामिल हैं।

प्रोफेसर लाल के मुताबिक “हालाँकि पंजाब में ज्यादातर किसान सिख समुदाय से हैं, लेकिन इस (विरोध) को सिखों का प्रतिरोध कहना गलत होगा। हरियाणा और अन्य राज्यों में भी किसान समान रूप से इन कानूनों को निरस्त किये जाने को लेकर दृढ हैं। 1913 में अमेरिका में गठित ग़दर पार्टी में भी 90% से भी अधिक की संख्या के साथ भारी तादाद में सिखों की मौजूदगी थी, लेकिन यह एक धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील पार्टी थी; और पंजाब के वर्तमान कृषक संगठनों के साथ भी ऐसा ही है। इसे सिख पन्थ से जोड़ना किसानों के प्रतिरोध को नकारने के समान है। जिस प्रकार के भाईचारे का प्रदर्शन हरियाणा के किसानों ने और जिस आतिथ्य भावना का परिचय हरियाणा के आम लोगों ने दिया है, वह इसके चरित्र को विशिष्ट तौर पर एक प्रगतिशील किसान आन्दोलन में तब्दील कर देता है, जो किसी भी विशेष धर्म, संप्रदाय या राज्य से खुद को नहीं जोड़ता है। निश्चित ही मुगल शासकों या इंदिरा-राजीव आदि के खिलाफ प्रतिरोध में धार्मिक रंग मौजूद था, लेकिन किसानों के आंदोलन में ऐसा देखने को नहीं मिला है। भले ही अपवादस्वरूप कुछ किसान सिख, इतिहास या प्रतिरोध से भी आंतरिक तौर पर प्रेरणा हासिल कर रहे हों।”

पंजाब में राजनीतिक प्रतीक शायद ही कभी कारगर रहे हों 

पंजाब हमेशा से ही लहरों के सवार होता आया है। प्रदेश के इतिहास पर यदि गौर करें तो सरदार उधम सिंह, शहीद भगत सिंह, करतार सिंह सराभा और बघेल सिंह जैसे विद्रोहियों को प्रदर्शनकारियों द्वारा याद किये जाने के साथ-साथ उनका उल्लेख किया जा रहा है, और ऐसे में मोदी-शाह वाली भाजपा खुद को बेहद मुश्किल स्थिति में पा रही है। इन दोनों की जोड़ी के नेतृत्व में बेहद नाउम्मीद वाली जगहों पर भी कमल खिला है, लेकिन पंजाब में स्थिति इसके उलट रही है। भाजपा को इस बात का अहसास जो जाना चाहिए कि पंजाब में राजनीतिक प्रतीकात्मकता का शायद ही कोई स्थान है। कांग्रेस ने 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में मिली हार से इस कड़वी हकीकत को समझा है, वो भी एक ऐसे दौर में जब इसने पहली बार किसी सिख को प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया था। डॉ. मनमोहन सिंह के खिलाफ कोई कटुता देखने को नहीं मिली, लेकिन राज्य में सिर्फ दिखावे और प्रतीकात्मकता की शायद ही कोई जगह है। ऐसे में आईआरसीटीसी की पुस्तिका या पीएम मोदी की हालिया गुरुद्वारा रकाबगंज यात्रा जैसी अल्प-दृष्टि से हालात पर काबू में लाने वाली नीति से किसी भी तरह का प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है। 

संघ की सिख पंथ को लेकर अदूरदर्शी विश्वव्यापी दृष्टि और उनके बीच के संकटग्रस्त रिश्ते

भाजपा की वैचारिक गुरु आरएसएस की सिखों को लेकर केशधारी हिन्दुओं के तौर पर अदूरदर्शी वैश्विक दृष्टि या हिन्दुवाद के अंदर से ही सिखों के एक और पंथ के रूप में समझ भी भाजपा (और साथ ही इसके पूर्ववर्ती जन संघ) के लिए सिखों के साथ संकटग्रस्त रिश्तों का कारण रहा है, जिसे इसकी राज्य में चुनावी फसल को काटने में असफलता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। सिखों के सर्वोच्च लौकिक निकाय अकाल तख़्त और संघ परिवार के बीच में एक संकटग्रस्त इतिहास रहा है। आरएसएस से सम्बद्ध सिखों के राष्ट्रीय सिख संगत को 2004 में अकाल तख्त द्वारा “पंथिक-विरोधी” घोषित कर दिया गया था। अकाल तख्त ने सिखों के बीच यहाँ तक अपील की थी कि वे खुद को संगत से दूर रखें। 2017 में अकाल तख्त जत्थेदार ने कहा था: “सिख इतिहास के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ की अनुमति नहीं दी जा सकती है और इस प्रकार के कृत्यों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। सिखों की एक अलग कौम (जातीय समूह) है, और उनकी अपनी इतर पहचान और विशिष्ट इतिहास रहा है। वे किसी भी अन्य धर्म के रीति-रिवाजों, विश्वास एवं आचार संहिता में दखल नहीं देते हैं। ऐसे में वे किसी अन्य द्वारा उनके विश्वास और मान्यताओं को लेकर दखलंदाजी कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।”

2019 में अकाल तख्त के कार्यवाहक प्रमुख ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने आरएसएस पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगाने की मांग की थी कि इसका हिन्दू राष्ट्र का विजन राष्ट्र के हितों के खिलाफ जाता है। संघ परिवार द्वारा सिखों को स्वतंत्र पहचान दिए जाने से इंकार करना और सिख गुरुओं को हिन्दू देवी-देवताओं के तौर पर हथियाने के प्रयासों का सिखों द्वारा कड़ा प्रतिवाद किया गया है। फरवरी 2020 में अकाल तख़्त जत्थेदार ने सीएए एवं एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों को अपना समर्थन दिया था।

ऐसे में अकालियों द्वारा भाजपा से नाता तोड़ने और प्रदेश के कृषि कानूनों को लेकर असंतोष के निरंतर गहराते जाने से पंजाब में भाजपा की आगे की राह बेहद कठिन होती प्रतीत होती है। पार्टी की प्रदेश ईकाई का एक बेहद उत्साही हिस्सा माँग करता रहा है कि पार्टी राज्य में अकेले ही आगे बढ़े। उसे लगता है कि अकाली दल ने राज्य में पार्टी की प्रगति को बाधित करके रख दिया है। अब जबकि अकालियों और भाजपा ने अंततः अपने रास्ते जुदा कर लिए हैं, तो ऐसे में आज भगवा दल राज्य में खुद को बेहद मुश्किल घड़ी में पा रहा है। इस बीच भाजपा के पारंपरिक सवर्ण हिन्दू वोट बैंक वाले आधार पर भी कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने सेंधमारी कर ली है।

लेखक मुंबई स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं और मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज के पूर्व छात्र रहे हैं। इनकी रुचि राजनीति, भाषाविज्ञान और पत्रकारिता से लेकर क्षेत्रीय भारतीय सिनेमा तक विस्तारित है। यह @omkarismunlimit हैंडल से ट्वीट करते हैं।

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    कानपुर हिंसा: दोषियों पर गैंगस्टर के तहत मुकदमे का आदेश... नूपुर शर्मा पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं!
    04 Jun 2022
    उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था का सच तब सामने आ गया जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दौरे के बावजूद पड़ोस में कानपुर शहर में बवाल हो गया।
  • अशोक कुमार पाण्डेय
    धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है
    04 Jun 2022
    केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी कश्मीर नीति का केंद्र बिंदु बना लिया था और इसलिए धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था। अब इसके नतीजे सब भुगत रहे हैं।
  • अनिल अंशुमन
    बिहार : जीएनएम छात्राएं हॉस्टल और पढ़ाई की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर
    04 Jun 2022
    जीएनएम प्रशिक्षण संस्थान को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने की घोषणा करते हुए सभी नर्सिंग छात्राओं को 24 घंटे के अंदर हॉस्टल ख़ाली कर वैशाली ज़िला स्थित राजापकड़ जाने का फ़रमान जारी किया गया, जिसके ख़िलाफ़…
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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License