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शिवदासपुर का दर्दः कोरोना में कौन सुनेगा सेक्स वर्कर्स की कहानी, कौन पूछेगा क्या तुम्हे भी भूख लगती है!
बनारस से स्पेशल रिपोर्ट: “शिवदासपुर रेड लाइट एरिया में करीब दो सौ घरों में रहने वाली औरतों का कोई सपना नहीं। कोई अपना नहीं है। चुनाव के समय वोट के लिए सभी ने हाथ जोड़े थे। काम कोई नहीं आया। पिछली मर्तबा भी उन्होंने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही वोट दिया था। कोरोना का संकट आया तो कोई पहचान नहीं रहा।”
विजय विनीत
06 Jul 2021
सरकार ने नहीं, सामाजिक संस्थाओं ने दिया संबल
सरकार ने नहीं, सामाजिक संस्थाओं ने दिया संबल

बरसों पहले बनारस ने अपनी ही एक बस्ती दालमंडी को दर-बदर कर दिया था। वही बस्ती जहां सजती थी गीत-संगीत की महफिल। सरकारी हंटर चला तो दालमंडी की रौनक कोसो दूर शिवदासपुर में आ बसी। दालमंडी की तरह शिवदासपुर में न तबलों की थाप सुनाई देती है, न ही घुंघुरुओं की झनकार। इसे तो सिर्फ रेडलाइट एरिया के नाम से जाना जाता है। बनारस के मंडुआडीह का शिवदासपुर इलाका पहले गांव था। अब शहर का हिस्सा है। इस बस्ती में रहने वाली तमाम औरतें जिस्म का धंधा करती हैं। कोरोना की महामारी ने इस ‘बदनाम बस्ती’ पर गहरा असर छोड़ा है। यहां रहने वाली तमाम महिलाएं भूख से बेहाल हैं। इनकी नाराजगी इस बात की पैमाइश करती है कि लॉकडाउन और कोरोना काल में मदद के लिए सरकार इनके पास नहीं आई। आईं तो सिर्फ कुछ गिनी-चुनी स्वैच्छिक संस्थाएं। इसके बावजूद जिंदा रहने के लिए जारी है महिलाओं की जद्दोजहद।

अचरज की बात यह है कि कोरोना ने भले ही समूची दुनिया को श्मशान बना दिया हो, लेकिन शिवदासपुर में यह बीमारी नहीं घुस पाई। कोरोना के दो दौर गुजर गए, पर यहां कोई भी महिला इस महामारी की चपेट में नहीं आई। इतना जरूर है कि यह महामारी सेक्स वर्कर्स को बेकारी, गरीबी और भुखमरी जरूर बांट गई। लॉकडाउन के बाद भी इस बस्ती में भूख से तड़पती महिलाएं और बिलबिलाते हुए इनके बच्चे बस किसी तरह से जिंदा हैं। बेहद दयनीय हालत है इन सेक्स वर्करों की।

कुछ ऐसा है शिवदासपुर

शिवदासपुर की सेक्स वर्कर्स की स्थिति का जायजा लेने के लिए जब हम शिवदासपुर पहुंचे तो हमने जाना कि यहां औरतें खुद देह बेचने का धंधा छोड़ना चाहती हैं, लेकिन अतीत पीछा नहीं छोड़ता। दरअसल इनकी जिंदगी ऐसी है जिसमें ‘एंट्री पॉइंट’ तो है, लेकिन ‘एक्जिट पॉइंट’ नहीं है। लॉकडाउन के बाद से शिवदासपुर की सहमी-सहमी गलियों में शाम ढलते ही घुप अंधेरा छा जाता है। बिजली के खंभों पर बत्तियां नहीं जलतीं। बुझाकर रखी जाती हैं। शायद इसलिए कि देह की मंडी में समाज के रसूखदारों का कदम धीरे-धीरे पड़ने लगें। मगर हालात अब भी कोरोना काल जैसे ही हैं। जैसे-जैसे ढलती है रात, सताने लगती है सेक्स वर्कर्स को चिंता। मेहमानों के इंतजार में, कुछ के पेट भूखे रह जाते हैं तो कुछ पेट सिर्फ आंसू पीकर सो जाते हैं। दिल में यह बात कांटे की तरह जरूर चुभती है कि सेक्स वर्कर्स के बच्चों के पंख सलामत रहें। हो सकता है कि कोई भूख से मर जाए। हो सकता है कोई भूख को मात दे जाए।

शिवदासपुर की सेक्स वर्कर ने कहा, हमें भी चाहिए जीने का अधिकार

वादे पर वादे, कोरे आश्वासन

शिवदासपुर की महिलाओं ने ऐलानिया तौर पर आरोप लगाया कि हमारा आधार कार्ड तो हमेशा जमा कराया जाता है, लेकिन हमारे नाम का राशन दूसरे लोगों को बांट दिया जाता है। बस्ती की एक महिला सेक्स वर्कर्स आशा (बदला हुआ नाम) ने “न्यूज़क्लिक” के लिए बात करने पर बताया हर साल भाजपा और दूसरे राजनीतिक दलों की ओर से आर्थिक मदद और मुफ्त में राशन के बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं। उनके दस्तावेज भी लेते हैं, लेकिन कोई सहायता नहीं की मिलती। मिलते हैं तो सिर्फ झूठे आश्वासन और फितरती वादे।“

आशा ने रुआसे स्वर में कहा, “ हमसे मत पूछिए हाल कि कोरोना और लॉकडाउन के दौर में कैसे गुजरी जिंदगी। हम पाई-पाई के लिए मोहताज हो गए। हमारी देहरी पर सरकार नहीं आई। इज्जत के वो ठेकेदार भी नहीं आए जो पहले रात के अंधेरे में दबे पांव आते-जाते थे। खनकते सिक्के और मुहब्बत का वास्ता देकर जिस्म खरीदते थे। भीगे कपड़ों की तरह उनका जिस्म निचोड़ते थे। जाते थे तो हिदायत देकर। किसी से कुछ मत कहना। मत बताना कि कौन आया था? लॉकडाउन में सब पता चल गया कि कौन कितना सच्चा है और कौन कितना झूठा है? कौन किस पर और कितना एतबार करे?”

शिवदासपुर की सेक्स वर्कर्स अर्चना (बदला हुआ नाम) मूलतः बंगाल की हैं। मगर वह तभी से शिवदासपुर में रह रही है जब से पुलिस ने दालमंडी को उजाड़कर शिवदासपुर में खदेड़ दिया था। उनकी एक बेटी है, जो घर का खर्च चलाती है। एक नाती पब्लिक स्कूल में पढ़ता है। नतिनी यूकेजी की छात्रा है। अर्चना का खुद का अपना मकान है। वह चाहकर भी शिवदासपुर की बस्ती को छोड़ नहीं सकतीं।

गुड़िया संस्था द्वारा सेक्स वर्कर्स को वितरित खाद्य सामग्री

अर्चना बताती हैं, “लॉकडाउन के दौर में शहर के कुछ लोग उनकी बस्ती में आए और कुछ सामान देकर चले गए। गए तो दोबारा लौटे भी नहीं। सरकार तो बिल्कुल दिखी ही नहीं। हम साल भर से बस यही सुन रहे हैं कि योगी बाबा आनाज और पैसा भेजने वाले हैं, लेकिन वो कब आएगा, पता नहीं। सिर्फ गुड़िया संस्था ने हमारी मदद की। चार-पांच बार बोरा भर कर राशन और खाने का सामान दिया। बच्चों की फीस का खर्च भी उठाया। फिर भी हालात बेहद खराब हैं। कोरोना काल में साफ-साफ दिख गया कि संकट की घड़ी में उनका कोई अपना नहीं है। सब के सब फकत सपना दिखाने वाले दिखे। और दिखे जिस्म का सौदा करने वाले।”

अर्चना कहती हैं, “शिवदासपुर रेड लाइट एरिया में करीब दो सौ घरों में रहने वाली औरतों का कोई सपना नहीं। कोई अपना नहीं है। चुनाव के समय वोट के लिए सभी ने हाथ जोड़े थे। काम कोई नहीं आया। पिछली मर्तबा भी उन्होंने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही वोट दिया था। कोरोना का संकट आया तो कोई पहचान नहीं रहा। सरकार तो गरीबों को ही मार रही है। हमारी बस्ती में घूम लीजिए। कोरोना से न कोई बीमार हुआ, न कोई मरा। बीमारी हमारे घरों में भी है, लेकिन कोरोना की नहीं। बस्ती में कई लोग टीबी और कैंसर की चपेट में हैं। कुछ एचआईवी से भी ग्रसित हैं। कोरोना से बचने के लिए हम लोग गरम पानी का भाप ले रहे हैं। अजवाइन-कपूर सूंघ रहे हैं। लेकिन यह भी खरीदने के लिए अब पैसे नहीं हैं।”

शिवदासपुर की कुसुम (बदला हुआ नाम) का बेटा पढ़-लिखकर अब साफ्टवेयर इंजीनियर बन गया है। उसकी शादी भी हो चुकी है। पति-पत्नी दिल्ली में रहते हैं। गाहे-बगाहे वह बेटे से मिलने उनके पास भी चली जाती हैं। कुसुम अब उन्हें इस बस्ती में नहीं बुलाती हैं। कोरोना काल के बाद से इन्हें भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान इनके बेटे की नौकरी चली गई है। काम-धंधा सब ठप है। सरकार से भी उम्मीद छोड़ दिया। बस जी रहे हैं, किसी तरह।”  

सोना (बदला हुआ नाम) के दो बच्चे हैं, जिनकी उम्र 14  और 16 साल है। ये बच्चे राजस्थान के एक गांव में रहते हैं। हर साल उनसे मिलने के लिए वह गांव जाती हैं, लेकिन पिछले दो साल से वह गांव नहीं जा पा रही हैं। लॉकडाउन ने उन्हें बुरी तरह से तोड़ दिया है। गांव जाने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। सोना कहती है, “नाम में क्या रखा है बाबू। चाहे सोना हो या मोना। ठीक दो वक्त की रोटी नसीब न हो तो ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा? हमारे वोटर आईडी कार्ड, आधार कार्ड, बैंक अकाउंट, सभी दस्तावेज बनारस के ही हैं। वह लगातार दो बार से मोदी को ही वोट देती आ रही हैं, लेकिन किसी भी नेता या सरकार की ओर से कोई मदद नहीं पहुंचती। लॉकडाउन के दौरान शिवदासपुर बस्ती की ज्यादतर महिलाएं भुखमरी की कगार पर पहुंच गई थीं। लॉकडाउन खुला तो थोड़ी राहत हुई। सरकार ने कोई मदद नहीं दी, कुछ सामाजिक संस्थाओं की ओर से पांच किलो आटा चावल, एक किलो चने की दाल, तेल, मसाला, नमक आदि की मदद मिली।”

शिवदासपुर में राशन बांटते आगमन संस्था के सदस्य

इनके लिए नहीं हैं सुविधाएं

मीनू (बदला हुआ नाम) ने बताया कि वह मूल रूप से बंगाल की रहने वाली हैं। वह तभी से बनारस रह रही है, जब दालमंडी की तवायफों को उजाड़कर शिवदासपुर में खदेड़ दिया गया। करीब 30-35 बरस गुजर गए हैं। मीनू कहती हैं, “यह भी जान लीजिए। इस बस्ती में कोई लड़की धंधा नहीं करती। करीब सौ-सवा जवान औरतों के दम पर शिवदासपुर में थोड़ी रौनक है। ज्यादातर घरों का खर्च भी ये औरतें ही चलाया करती हैं। कोरोना काल में बस किसी तरह से गुजारा हो पा रहा है। महामारी के खौफ के चलते ग्राहक नहीं आ रहे हैं। सरकार की ओर से कोई मदद नहीं आई है। कुछ संस्थाएं राशन लेकर आती हैं, तभी जल पाता है घरों का चूल्हा। बच्चों की पढ़ाई भी लगभग बंद चुकी है।”

शिवदासपुर बस्ती की मोगरा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि यहां आर्थिक समस्या के साथ महिलाओं को स्वास्थ्य से जुड़ी भी कई समस्याएं हैं। कोरोना काल में किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं मिली। वह कहती हैं, “हमारे जीवन में कोई यादगार क्षण नहीं है। हमारी भी ख्वाहिश है खूब धन-दौलत कमाने की, आजाद घूमने और फिल्में देखने की। लेकिन सोचने से क्या होता है। हमारे पास न तो छुट्टी है, न ही धन-दौलत। और तो और, कोई हमें अपना समझने के लिए तैयार नहीं है। दड़बेनुमा और सीलन भरे कमरे में जिस्म का सौदा हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा है।”

शिवदासपुर की इन औरतों की जिंदगी भी मोबाइल है। धंधा मंदा पड़ता है तो शहर बदल जाता है। हर वक्त जारी रहती है जिंदगी की जद्दोजहद। कभी न थमने वाला जद्दोजद। दुर्योग देखिए, लॉकडाउन के बाद से ही शिवदासपुर की सेक्स वर्कर्स की जिंदगी ठहरी हुई है।

नाम न छापने की शर्त पर एक दुकानदार ने बताया कि पिछले कई सालों से इसी इलाके में उसका प्रवीजन स्टोर है। पहले हर शाम यह इलाका काफी गुलजार रहता था। महिलाएं सड़क पर खड़ी होती थीं तो भीड़ लगनी शुरू हो जाया करती थी। कई बार दुकानदारी में भी परेशानी होने लगती थी। महिलाओं को देखकर कई बार ग्राहक दुकान पर नहीं आते थे। अब कोरोना के चलते धंधा मंदा हो गया है। ग्राहक नहीं आ रहे हैं, जिससे इलाके की रौनक लुप्त सी हो गई है।

मधु (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “हम समाज में सबसे निचले तबके के लोग हैं। आम दिनों में एक दिन में जितने लोग आते थे, उनसे कमाई होती थी। फिर उन्हीं पैसों से घर में राशन और जरूरी सामान आता था। घर में दो-तीन बच्चे हैं। उनकी भी जरूरतें हैं। हमारे पास राशन कार्ड भी नहीं है। कभी बनवाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि कार्ड बनवाने के लिए जो कागज चाहिए, वो हमारे पास है ही नहीं।”

एक समय खाना खाने को मजबूर

लॉकडाउन के बाद से शिवदासपुर में तमाम सेक्स वर्कर्स भुखमरी की तरफ बढ़ रही हैं। इनके पास खाने के लिए खाना और राशन खरीदने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। रोशनी (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “कभी नमक रोटी, तो कभी नमक चावल खाकर दिन काट रहे हैं। कुछ दिन पहले दुधमुहे बेटे की तबियत खराब हो गई थी। इतने पैसे भी नहीं हैं कि तुरंत दवा करा सकें। सूद पर पैसा लिया तब किसी तरह हो पाया बेटे का इलाज। काम-धंधा सब बंद है। उम्मीद कर रही हूं कि जल्दी से सब ठीक हो जाए तो जिंदगी फिर से पटरी पर आ सके।”

रोशनी बताती हैं, ‘क्या खा रहे हैं, मत पूछिए। कोरोना काल में ऐसे दिन भी बीते, जब सिर्फ एक वक्त खाना नसीब हो सका। रसोई का राशन खत्म होता है तो गुड़िया संस्था हमारी मदद करती है। सरकार को वक्त मिले तो कभी हमारे घरों की हालत देखकर जाए कि किस तरह हमारे बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, जिनकी हम ठीक से परवरिश भी नहीं कर पा हैं।”

रोशनी यह भी कहती हैं, “हमें आम इंसान के तौर पर देखने की लोगों की आदत नहीं है। लोगों के मन में हमारे लिए संशय और घृणा हमेशा से रहा है। हर सेक्स वर्कर बेफ्रिक होकर यह काम नहीं कर रही है। यही वजह है कि तमाम महिलाएं अपने परिवार और बच्चों की खातिर समाज की नजरों से छिपकर यह धंधा करती हैं।”

वह यह भी कहती हैं, “बनारस में भीख मांगने वालों को भी थोड़ी बहुत मदद मिल जाया करती है, लेकिन हमारी सुध कोई नहीं लेता। समाज और सरकार की नजरों में हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। हम भी अपना घर-परिवार चला रहे हैं। हम भी रोज कमाकर खाने वालों में शामिल हैं। किस्मत देखिए। हमारी कोई गिनती ही नहीं करता। हमें गुड़िया समेत कुछ दूसरे एनजीओ के जरिए राशन और जरूरी सामान मिल रहा है, लेकिन सरकार की तरफ से कुछ भी नहीं मिला।”

जाहिदा (बदला हुआ नाम) इस बात से आहत हैं जिसे उन्होंने जीवन भर पति माना उसने भी लॉकडाउन में मदद नहीं की। वह कहती हैं, “बीमारी आई तो परायेपन का एहसास करा गई। दो बेटियां हैं, जो स्कूल में पढ़ती हैं। इसी पेशे के जरिए हम उन्हें पढ़ा रहे थे। अब पढ़ाई भी बंद हो चुकी है। इनकी शादी के लिए जो पैसे जोड़कर रखे थे वह लॉकडाउन में खर्च हो गए। खाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। क्या गांरटी है कि लॉकडाउन के बाद जिंदगी दोबारा पटरी पर आ जाएगी? कई सालों से सुन रही हूं कि सरकार की नीतियां बदलेंगी और हमारे भाग्य खुलेंगे। सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा, लेकिन सरकार है कि वो हमारे बारे में सोचती तक नहीं है। नेताओं के लिए तो हम हम सिर्फ जिस्म के सौदागर हैं!”

सेक्स वर्कर्स की बढ़ी मुश्किलें

संजू (बदला नाम) गाने-बजाने की काम करती हैं। बदनाम बस्ती में रहने की वजह से लोग इन्हें सेक्स वर्कर ही समझते हैं।  वह समाजसेवा के कार्यों से जुड़ी रहती हैं। बताती हैं, ‘एनजीओ के जरिये यहां आसपास के सेक्स वर्कर्स के लिए राशन का सामान मेरे पास भी पहुंचता है। हम ईमानदारी से सभी को बांटते हैं। राशन बांटने पर भी पुलिस धमकाती है कि संस्थाएं राशन बांटकर माहौल खराब कर रही हैं। शिवदासपुर में कई सेक्स वर्कर्स हैं, जो एचआईवी और मधुमेह जैसे गंभीर रोगों की चपेट में हैं। इन्हें लगातार उपचार और दवाओं की आवश्कता है। लॉकडाउन के बाद से इनका इलाज नहीं हो पा रहा है। सरकारी इलाज का विकल्प भी सीमित है।”

शिवदासपुर के इन सेक्स वर्कर्स के लिए मुश्किलें खत्म होती नजर नहीं आ रही हैं। इनके पास आने में लोग हिचक रहे हैं। सेक्स वर्कर्स के मन में भी हिचकिचाहट है कि कहीं कोई ग्राहक उनके पास कोरोना लेकर तो नहीं आ रहा है। ज्यादा चिंता उन महिलाओं की अधिक हैं जो किराए के मकानों में रहती हैं, जिन पर घर-परिवार की जिम्मेदारी है और जिनके बच्चे पढ़ रहे हैं। वे कहां से किराया देंगी? कैसे बच्चों का लालन-पालन करेंगी? कई सेक्स वर्कर्स कर्ज के पैसों से काम चला रही हैं, जो उन्होंने ब्याज पर लिए हैं।”

तनाव में हैं सेक्स वर्कर्स

नजमा (बदला हुआ नाम) अपने तीन बच्चों के साथ इसी देह की मंडी में रहती हैं। रोजी-रोटी ठप होने की वजह से नजमा मानसिक तौर पर परेशान हैं। वह कहती हैं, ‘अपने बच्चों का पिता और मां मैं ही हूं। सालों से घर की जिम्मेदारी संभाल रही हूं। मां जिंदा है, पर वो दमे की मरीज है। पहले बच्चे स्कूल जाते थे। धंधा यूं ही ठंडा रहा तो बच्चों की पढ़ाई भी बंद हो जाएगी।”

बनारस में महिला एवं बाल विकास विभाग के पास महिला सेक्स वर्कर्स के पुख्ता आंकड़े नहीं हैं। वहीं गुड़िया संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, पहले की अपेक्षा शिवदासपुर में वेश्यावृत्ति का धंधा काफी सिमट गया है। सेक्स वर्कर्स के कई बच्चे अब पढ़-लिखकर नौकरियां करने लगे हैं। कोई इंजीनियर है तो कोई डाक्टर, नर्स वगैरह। रेड लाइट एरिया में देह का धंधा करने वाली महिलाओं की संकरी कोठरियों में बेशक साफ-सफाई और पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था नहीं है। इनके लिए गुड़िया राशन और जरूरी सामान मुहैया करा रही है। इस वर्ग के प्रति सरकार का उदासीन रवैया सबसे ज्यादा चिंताजनक है। रेड लाइट एरिया में काम करने वाली सेक्स वर्कर्स की तुलना में घरों से काम करने वाली सेक्स वर्कर्स की दशा ज्यादा खराब है, क्योंकि उन तक पहुंच बनाना बहुत मुश्किल है।

गुड़िया की संचालक मंजू विश्वास कहती हैं, “हम भले ही सेक्स वर्कर्स के अधिकारों के लिए काम करते हैं, लेकिन इस धंधे से जुड़ी सभी महिलाओं तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। तमाम सेक्स वर्कर्स के बारे में हमें पुख्ता जानकारी ही नहीं है कि वे कहां से काम कर रही हैं। उन तक राशन और दूसरे सामान कैसे पहुंच पा रहे हैं, यह बता पाना थोड़ा कठिन है। सरकार की नीतियों में आपको सेक्स वर्कर्स कहीं नजर नहीं आएंगे। विरोध प्रदर्शन कर मजदूरों व किसानों को आर्थिक और अन्य तरह की मदद मिल भी जाती है, लेकिन यहां तो शून्य है।” जाहिदा बेगम (बदला नाम) बंगाल से यहां आकर बसी हैं और वह शिवदासपुर में धंधा करती हैं। वह भी समाज सेविका मंजू की बातों से इत्तेफाक रखती हैं।

नंगा सच यही है कि कोरोना संक्रमण के मद्देनज़र हुए लॉकडाउन ने हज़ारों कामगारों पर आजीविका का संकट ला दिया है, जिससे उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी चलनी मुश्किल हो गई है। इन कामगारों में सेक्स वर्कर्स भी शामिल हैं। अच्छी बात यह है कि बनारस का शिवदासपुर दुनिया में देह की इकलौती ऐसी मंडी है जहां बेटियां धंधा नहीं करतीं हैं। इस बस्ती को बदला है गुड़िया ने। मंजू कहती हैं, “यह समाज का एक ऐसा तबका भी है, जिसकी समस्याओं पर सरकार और समाज दोनों की नजर नहीं है। सरकार की नीतियों और राहत कार्यक्रमों तक में इन्हें शामिल नहीं किया जाता।”

मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्था पीवीसीएचआर के निदेशक डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं, “कोरोना के चलते भारत की तरह शिवदास की सेक्स वर्कर्स को लॉकडाउन की मार अब तक झेलनी पड़ रही है। इनकी कमाई का जरिया लगभग खत्म सा हो गया है। बांग्लादेश ने अपने देश में सेक्स वर्कर्स के लिए भोजन की व्यवस्था की है, लेकिन भारत में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। सिर्फ बनारस ही नहीं, समूचे देश में बड़ी संख्या में महिलाएं अपनी आजीविका को लेकर जूझ रही हैं, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें कुछ नहीं कर रहीं। यह हाल उस शहर में भी है जहां के सांसद नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं।”

ऑल इंडिया सेक्युलर फोरम भी एक्शन एज के जरिए शिवदासपुर के सेक्स वर्कर्स के बीच खाद्यान्न का वितरण करा रहा है। संस्था के निदेशक डॉ. आरिफ कहते हैं, “हमारे देश में एक निश्चित दायरे में ही देह व्यापार को मान्यता हासिल है। इसे अभी तक रोजगार का दर्जा नहीं दिया गया है। आप किसी कोठे पर जा सकते हैं। रेड लाइट इलाके से किसी सेक्स वर्कर को किसी कमरे या होटल में लेकर जा सकते हैं, लेकिन जब इसे रोजगार के रूप में देखने की बात आती है तो सभी मुंह बनाने लगते हैं। रोजगार का दर्जा मिलने पर ही सरकार इन्हें आर्थिक मदद दे सकती है। ऐसे में इन्हें कामगार मानते हुए सरकारी योजनाओं में उन्हें शामिल किया जाए।”

लॉकडाउन के दौरान शिवदासपुर की महिलाओं को सबसे पहले राशन और जरूरी सामानों का वितरण करने वाली संस्था “आगमन” के संस्थापक डॉ. संतोष ओझा कहते हैं, “शिवदासपुर के सेक्स वर्कर्स की जिंदगी ठहर गई है। इनके सामने आजीविका का संकट अब भी बना हुआ है।  न इनके पास पैसा है, न संसाधन, न पर्याप्त राशन और न ही सरकारी मदद। लॉकडाउन का फैसला सरकार का था। ऐसे में उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वो समाज के इस वर्ग की जरूरतों का भी ख्याल रखे।”

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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