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एक नए और परिपक्व दौर में पहुंच चुका है रूस-चीन गठबंधन- पार्ट: 3
रूस-चीन रिश्तों की साझा विरासत और आंतरिक आयाम तेजी से मजबूत हुए हैं और किसी भी बाहरी माहौल के प्रभाव से परे जा पहुंचे हैं।
एम. के. भद्रकुमार
28 Sep 2020
Sino-Russian Alliance
मास्को में 5 जून, 2019 को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग (बाएं) और रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन (दाएं) ने दोनों देशों के बीच हुए समझौते पर हस्ताक्षर किए।  

1991 में सोवियत संघ का टूटना रूस के लिए भारी भू-राजनीतिक (Geopolitical) हादसा था। लेकिन इस घटना की परिणति देखिये। इसने अतीत में दुश्मन रहे दो देश- रूस और चीन को नजदीक ला दिया। ये देश शीतयुद्ध को जीत लेने के अमेरिकी नैरेटिव को भौचक हो कर देख रहे थे। इसने उस व्यवस्था को पलट दिया था, जिसे रूस और चीन तमाम आपसी  मतभेद और विवादों के बावजूद अपने-अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा और पहचान के लिए जरूरी समझते थे।

 सोवियत संघ के विघटन की वजह से इसमें शामिल तमाम छोटे-छोटे राज्य (देश) गहरी अनिश्चितता के भंवर में फंस गए। रूस समेत ये तमाम राज्य (देश) पूरी तरह जातीय तनाव, आर्थिक वंचना, गरीबी और अपराध में फंस गए। खास कर अपराध जैसी समस्या रूस में काफी बढ़ गई। रूस के इस दर्द को सीमा पार से चीन बड़े ध्यान से देख रहा था।

चीन के नीति नियंता ने ‘एक पलट चुकी गाड़ी’ से बंद पड़े रास्ते को साफ करने के लिए सोवियत अनुभवों का बड़ी बारीकी से अध्ययन किया। दरअसल चीन के अंदर सोवियत विघटन को लेकर पहले से ही आशंका थी। यह आशंका दोनों देशों की आधुनिकता की साझा जड़ों से पैदा हुई थी।

उस समय देखें तो सोवियत संघ के विखंडन पर कई दफा भले ही रूस और चीन का नजरिया अलग दिखा हो लेकिन दोनों देशों का नेतृत्व यह सुनिश्चित करने में सफल रहा कि भविष्य का उनका रिश्ता इससे अछूता रहे।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का जनरल सेक्रेट्री बनने के बाद शी जिनपिंग ने पूर्व सोवियत संघ के बारे में बयान दिया था। समझा जाता है कि पहली बार, 2012 में उन्होंने पार्टी पदाधिकारियों के साथ बातचीत के दौरान कहा था, ‘मुझे सोवियत संघ के टूटने का सबक अच्छी तरह याद है। इसके बाद उन्होंने ‘राजनीतिक भ्रष्टाचार’, ‘विचारों की भिन्नता’ और ‘सैन्य अवज्ञा’ को सोवियत संघ के विखंडन की वजह बताया। बताया जाता है कि शी ने यह कहा कि ‘सोवियत संघ के टूटने की एक अहम वजह यह थी कि आदर्श और विश्वास हिल गए थे’। आखिर में मिखाइल गोर्बाचेव ने सिर्फ एक शब्द कह कर सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी को खत्म कर दिया था। और इस तरह एक महान पार्टी का इस तरह अवसान हो गया।

शी ने कहा “और आखिर में जब सब खत्म हो रहा था तो एक भी बहादुर आदमी नहीं बचा था जो इस का विरोध करता।” कुछ सप्ताह बाद शी जिनपिंग फिर इस मुद्दे पर आए और शायद यह कहा कि सोवियत संघ के टूटने की एक अहम वजह थी विचारधारा को लेकर एक भयानक संघर्ष। इसमें पूरे सोवियत इतिहास से लेकर लेनिन, स्टालिन तक को नकार दिया गया था। एक तरह से ऐतिहासिक अराजकतावाद की ओर चीजें जा रही थीं।

विचारों को लेकर भ्रम की स्थिति थी। स्थानीय पार्टी संगठनों की भूमिका लगभग शून्य थी। सेना, पार्टी की निगरानी में नहीं थी। और इस तरह आखिर में महान सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह बिखर गई। महान सोवियत सोशलिस्ट देश टुकड़ों में बंट गया। लगता था कि यह एक ऐसी सड़क हो, जिसमें कोई गाड़ी औंधे मुंह पड़ी थी।

पुतिन के पास दोनों दौर का अनुभव

रूसी नैरैटिव के मुताबिक सोवियत संघ के विखंडन की सबसे अहम वजह थी सोवियत मैक्रो-इकनॉमिक नीतियों की नाकामी। यह सहज ही देखा जा सकता है कि क्यों रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन को चीन के सुधारों के अनुभव और इसकी खुली अर्थव्यवस्था अपील करती है। पुतिन खुद को एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने का दावा नहीं करते हैं न ही वह खुद की मान्यता के लिए सोवियत आइडोलोजी की ओर झुके दिखते हैं।

उनकी नजर में गोर्बाचेव ने पेरोस्त्रोइका की नींव मजबूत बुनियाद पर रखी क्योंकि वह साफ तौर पर समझ चुके थी सोवियत संघ परियोजना ध्वस्त हो चुकी है। लेकिन उनके विचार और नई नीतियां सफल नहीं हो सकीं और इसने सोवियत संघ को गहरे आर्थिक संकट की ओर धकेल दिया। यह वित्तीय दिवालियेपन की ओर से बढ़ गया। इससे उनका सम्मान तो घटा ही इसने सोवियत संघ को बरबाद कर दिया।

पुतिन को दोनों दौर का अनुभव था। वह सोवियत संघ के शानदार समाजवादी दौर को भी देख चुके थे और अपने नागरिकों को अच्छा जीवनस्तर देने की प्रतिस्पर्धा में इसे पिछड़ते देखने का भी उनका अनुभव था। शायद जब वह ड्रेसडेन का अपना पद छोड़ कर सेंट पीटर्सबर्ग लौटे तो उनका कम्युनिस्ट आदर्श से पूरी तरह मोहभंग हो चुका था।  स्टालिन की जब मौत हुई तो पुतिन पांच महीने के भी नहीं थे। उनके लिए मार्क्सवाद और लेनिनवाद की महान विभूतियां भी ज्यादा मायने नहीं रखती थीं।

चीनी क्रांति के साक्षी रहे शी जिनपिंग

दूसरी ओर शी जिनपिंग ने चीन को उस दौर में देखा जब यहां क्रांति हो रही थी। शी के लिए माओ एक जीते-जागते देवता की तरह थे। शी के पिता भी माओ के साथी थे (भले ही माओ ने उन्हें हटा दिया था)। शी ने निजी तौर पर चीन की सांस्कृतिक क्रांति का अनुभव लिया था। लेकिन उनके लिए माओ को नकारना अपने एक हिस्से को नकारने जैसा था। इसलिए शी के भीतर ‘ऐतिहासिक विनाशवाद’  का नकार स्वाभाविक था।

शी के शब्दों में ‘सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने जब सत्ता हासिल की तो इसके 2 लाख सदस्य थे। जब इसने हिटलर को हराया तब इसके 20 लाख सदस्य थे और जब इसने सत्ता छोड़ी तो दो करोड़ सदस्य थे। आखिर किस लिए? इसकी वजह यह थी पार्टी में अब वे आदर्श और मान्यताएं नहीं रह गई थीं।’

लेकिन पुतिन और शी जिनपिंग तीन चीजों को लेकर एक हैं। पहली चीज तो ये कि दोनों आर्थिक सुपरपावर बनने की चीन की अचंभित करने वाली दौड़ के कायल हैं। पुतिन के शब्दों में , “मेरी नजर में चीन ने विकास और बाजार अर्थव्यवस्था के विकास के लिए केंद्रीय प्रशासन का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। सोवियत संघ ने ऐसा कुछ नहीं किया। और इस तरह एक बेअसर आर्थिक नीति ने राजनीतिक दायरे को भी प्रभावित किया।” इस तरह पुतिन पूरे चीन-रूस साझीदारी में आर्थिक संबंधों को केंद्रीय तत्व बनाते दिखते हैं।

दूसरी चीज यह है कि सोवियत संघ के विघटन पर दोनों देशों के विमर्श में जो भी अंतर रहा हो शी और पुतिन उस क्रांतिकारी महानता से जुड़े विमर्श को वैधता देने के सवाल पर एकमत रहे हैं, जिसका सोवियत संघ प्रतीक रहा है।

इस तरह, आज दूसरे विश्वयुद्ध के इतिहास को झूठा करार देने वाले पश्चिम की कोशिश के खिलाफ चीन और रूस की साझा पहचान बखूबी दिखती है।
 
अपने एक हालिया इंटरव्यू में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने साफ कहा, “ हम दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूएन और इसके चार्टर सिद्धांतों के तौर पर सामने आए अंतरराष्ट्रीय कानून की आधुनिक बुनियादों को बदलने के मकसद से इतिहास के खिलाफ एक आक्रामकता साफ तौर पर देख रहे हैं।”

“इस तरह की ताकतें उन तर्कों का इस्तेमाल कर रही हैं जो सोवियत संघ के नाजी जर्मनी को एक साथ रखने की कोशिश करते हैं। उनका मानना है ये आक्रामक ताकतें थीं जो यूरोप को गुलाम बनाना चाहती थीं और इसके अधिकतर लोगों को गुलामी की जकड़न में बांध देना चाहती थीं। हमारा यह कह कर अपमान किया जा रहा है कि नाजी जर्मनी की तुलना में सोवियत संघ दूसरे विश्वयुद्ध के लिए ज्यादा दोषी है। जबकि तथ्य यह है कि यह सब 1938 में शुरू हुआ जब पश्चिमी ताकतों ने हिटलर की नीतियों का तुष्टिकरण शुरू किया। खास कर फ्रांस और ब्रिटेन ने। लेकिन इस तथ्य को सिरे से छिपा लिया गया।”

एक दूसरे का समर्थन करता आदर्श गठबंधन  

चीन भी आज सोवियत संघ को दोषी ठहराए जाने जैसी स्थिति का सामना कर रहा है। अतीत की आक्रामक ताकतें आज उपदेश दे रही हैं और जो आक्रमण के शिकार रहे हैं उन्हें ही दंड देने की कोशिश हो रही है। लिहाजा चीन के भीतर रूस के प्रति एक गहरी सहानुभूति है।
 
यह स्वाभाविक है क्योंकि चीन को आज शिनजियांग में मानवाधिकार हनन के मामले में बैकफुट पर लाने की कोशिश हो रही है। 2015 में जब चीन ने दक्षिण चीन सागर पर अपने ऐतिहासिक दावे को लेकर मुखर होना शुरू किया तो उस पर हमलावर होने के आरोप लगने लगे। चीन ने 1935 में इस दावे को छोड़ दिया था लेकिन जब इसके तट से सटे दूसरे देशों ने इस पर दावा ठोकना शुरू किया तो चीन ने भी 1935 में छोड़ दिए गए दावे को आक्रामकता के साथ आगे रखने की कोशिश शुरू कर दी थी।

यह पूरी तरह साफ दिखता है हॉन्गकॉन्ग में अशांति को बढ़ावा देने में पश्चिमी खुफिया एजेंसियों का बड़ा हाथ है। दरअसल, चीनी कम्युनिस्ट सरकार को अस्थिर करने के लिए चीन के आंतरिक मामलों में अमेरिकी दखल कोई नई बात नहीं है। पचास और साठ के दशक में तिब्बत में सीआईए की छिपी हुई गतिविधियां चलती ही थीं। (कुछ हद तक चीन और भारत की 1962 की लड़ाई में इसका भी हाथ था)। आज अमेरिका बड़ी तेजी से ‘वन चाइना पॉलिसी’ को दिए गए अपने समर्थन से पीछे हट रहा है, जबकि 1970 के दशक में चीन-अमेरिका संबंधों को सामान्य बनाने की बुनियाद यही थी।

इसी तरह, रूसी राजनीति में 1980 के दशक के आखिर के वर्षं में अमेरिकी दखल शुरू हो गया था। गोर्बाचेव के जमाने में तो में यह दखल और ज्यादा बढ़ गया। 1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद तो वह वहां तमाम तरह की अड़चनें खड़ी करने लगा। 1996 में बोरिस येल्तसिन को रूसी राष्ट्रपति बनाने में अमेरिका की भूमिका साफ तौर पर दिखाई दी।

1996 में इसने रूसी राष्ट्रपति चुनाव को येल्तसिन के पक्ष में करने में बड़ी भूमिका निभाई। बाद में अमेरिका यह शेखी बघारता दिखा कि किस तरह उसने इस चुनाव में धन झोंका था और कैसे इसे माइक्रो मैनेज भी किया था।

पुतिन ने अमेरिका को 2011 में रूस में हुए विरोध प्रदर्शनों के लिए भी जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने रूसी चुनावों को प्रभावित करने के लिए अमेरिका पर करोड़ों डॉलर खर्च करने के आरोप लगाए। पुतिन ने उस दौरान ने कहा था कि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने रूस के खिलाफ किराये के लड़ाकों को प्रोत्साहित किया। उन्होंने आरोप लगाया, “हतिउन्होंने कुछ विरोधी आंदोलनकारियों के लिए माहौल बनाया। उन्हें इशारा किया। उन लोगों ने उनका संकेत समझा और सक्रिय तौर पर अपने काम में जुट गए।”

पुतिन ने आरोप लगाया कि 2004 में यूक्रेन के ऑरेंज रेवोल्यूशन और किर्गिस्तान में हिंसक आंदोलन से सरकार को पलटने की घटना में अमेरिका का हाथ था। पुतिन ने इन घटनाओं की ओर इशारा करते हुए कहा था कि पश्चिमी देश रूस में राजनीतिक बदलाव के लिए भारी रकम खर्च कर रहे हैं।

पुतिन ने कहा, “ चुनावी प्रक्रियाओं में विदेशी धन झोंकना किसी भी तरह से मंजूर नहीं किया जा सकता है। जबकि इस काम में करोड़ों डॉलर खर्च किया गया है। हमें अपनी संप्रभुता की रक्षा के तरीके गढ़ने होंगे। हमें बाहरी हस्तक्षेप से बचाव के रास्ते ढूंढने होंगे। हम एक बड़ी न्यूक्लियर पावर हैं और आगे भी रहेंगे।  इससे हमारे सहयोगियों को चिंता होती है। वे हमें जब-तब हिलाते रहते हैं ताकि हम यह नहीं भूलें कि आखिर इस धरती का बॉस कौन है?”

चीन को अस्थिर करने और उसे एक विश्व शक्ति बनने से रोकने के लिए भी अमेरिका और नजदीकी सहयोगी देश हॉन्गकॉन्ग के पैटर्न पर ही वहां हस्तक्षेप कर रहे है। चीन आज वैसी ही परिस्थितियों का सामना कर रहा है, जैसी स्थितियों का सामना रूस ने किया था। अमेरिका ने तब उसके इर्द-गिर्द जॉर्जिया, यूक्रेन, पोलैंड, बाल्टिक देशों जैसे दुश्मन देशों का नेटवर्क बना दिया था।

पिछले सप्ताह रूस की विदेशी खुफिया SVR के डायरेक्टर सर्गेई नेरिशकिन ने बताया कि अमेरिका ने बेलारूस में सरकार विरोधी प्रदर्शन करवाने के लिए दो करोड़ डॉलर खर्च किए थे।
उन्होंने कहा, “उपलब्ध जानकारी के मुताबिक बेलारूस में इस वक्त की घटनाओं के पीछे अमेरिका की अहम भूमिका है। हालांकि अमेरिका वहां की घटनाओं को लेकर लो-फ्रोफाइल है रहने की कोशिश में था। लेकिन जैसे ही वहां सड़कों पर विशाल प्रदर्शन होने लगे अमेरीकियों ने बेलारूस में सरकार विरोधी ताकतों के लिए फंड जुटाना शुरू कर दिया। अब तक प्रदर्शनकारियों तक करोड़ों डॉलर का फंड पहुंच चुका है।”

वह बताते हैं, “ये प्रदर्शन काफी संगठित तरीके से हो रहे थे और शुरुआत से ही उन्हें विदेश से निर्देशित किया जा रहा था। यह गौर करने वाली बात है कि पश्चिम देशों ने ही चुनाव से बहुत पहले इस प्रदर्शन की जमीन तैयार कर दी थी। अमेरिका और 2019 और 2020 की शुरुआत में अलग-अलग एनजीओ के माध्यम से सरकार विरोधी प्रदर्शन के लिए दो करोड़ डॉलर का फंड मुहैया कराया था।”

दरअसल रूस के लिए अमेरिका जो घेरा बना रहा था उसकी कड़ी में बेलारूस ही एक ऐसा देश जो गायब था। अब बेलारूस को भी शामिल कर अमेरिका ने यह घेरा पूरा कर दिया है। यह रणनीति अब चीन के खिलाफ भी अपनाई जा रही है। अमेरका के नेतृत्व में Quadrilateral Alliance यानी Quad के जरिये चीन को घेरने की कोशिश हो रही है। इसमें जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया शामिल है।

पहले के कुछ वर्षों में रूस और चीन सिर्फ अपने द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करने पर ध्यान लगाए हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे विदेश नीति के स्तर पर उनमें सामंजस्य कायम होने लगा। हालांकि शुरू में यह सीमित स्तर पर ही था लेकिन धीरे-धीरे इसमें तेजी आने लगी।
आज की तारीख में रूस और चीन अमेरिका की बांधने की नीतियों को पीछे धकेलने के लिए मिल कर काम कर रहे हैं। इसलिए चीन ने बेलारूस के चुनाव में राष्ट्रपति एलेक्जेंडर लुकाशेंको की जीत का खुल कर समर्थन किया। जहां तक रूस का सवाल है कि तो उसने भी एशिया-प्रशांत क्षेत्र में तनाव बढ़ाने की अमेरिकी कोशिश की जबरदस्त आलोचना की है।

रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने 11 सितंबर को मास्को की यात्रा कर रहे चीनी स्टेट काउंसिलर और विदेश मंत्री वांग यी की मौजूदगी में कहा, “ हमने गौर किया है कि अमेरिका के कदम नुकसान पहुंचाने वाले हैं। ये वैश्विक रणनीतिक स्थिरता को चोट पहुंचा सकते हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी रूस और चीन की सीमा समेत दुनिया के तमाम हिस्सों में तनाव भड़काने का काम कर रहे हैं। निश्चित तौर पर हम इससे चिंतित हैं और इस तरह कृत्रिम तनाव फैलाने के कदमों का विरोध करते हैं।”

“इस संदर्भ में हमारा यह कहना है कि यह जो कथित इंडो-पैसिफिक स्ट्रेटजी बनाई जा रही है, वह सिर्फ इस क्षेत्र के देशों के अलग-थलग करेगी। इस स्ट्रेटजी से इस क्षेत्र की शांति, सुरक्षा और स्थिरता खतरे में पड़ सकती है। हमने हमेशा आसियान-केंद्रित क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे का समर्थन किया है ताकि इस क्षेत्र के देशों को नजदीक लाने में मदद मिले। वे आपसी सहमति बना कर काम कर सकें और इस मैकेनिज्म के तहत मिल कर फैसले कर सकें। हम हमेशा आपसी सहमति से मिल कर काम करने की नीति के संरक्षक रहे हैं। लेकिन हम देख रहे हैं कि आसियान के सदस्य देशों के बीच विभाजन की कोशिश हो रही है। इसका एक ही उद्देश्य है कि ये देश आपसी सहमति से काम करने की नीति छोड़ दें। इस क्षेत्र में आपसी संघर्ष को बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है। ”

18 सितंबर को वॉशिंगटन में निक्केई एशियन रिव्यू के साथ इंटरव्यू में अमेरिका में रूसी राजदूत अनातोली एंतोनोव ने कहा 'हमारा मानना है कि दुनिया भर में अमेरिका की ओर से चीन के खिलाफ जो गठबंधन बनाने की कोशिश हो रही है वह उसी के खिलाफ घातक साबित होगा। इऩ नीतियों से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और स्थिरता को खतरा है क्योंकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका चीन विरोधी भावनाओं को हवा दे रहा है। इस क्षेत्र के देशों के साथ उसके संबंध इसी अमेरिकी नीति पर आधारित है। ये देश इसी अमेरिकी नीति का समर्थन कर रहे हैं। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और सहयोगी देशों की ओर से जो पहल की जा रही है वह खुली और स्वतंत्र पहल है।’ अमेरिका और सहयोगी देश वहां जो कर रहे हैं वह इसके ठीक उलट है।

उन्होंने कहा, “अगर हम हिंद महासागर से नजदीकी देशों की बात करें तो उनके इस प्रोजेक्ट में न तो पारदर्शिता है और न ही ये समावेशी हैं। इस क्षेत्र में काफी पहले से अंतरराष्ट्रीय कानून लागू होने के बावजूद अमेरिका नियमों पर आधारित सीमा निर्धारण के मामले में अड़ंगा डाल रहा है। अब ये नियम क्या हैं, उन्हें किसने बनाया और उन पर किसकी सहमति है, सब कुछ अस्पष्ट है।”

ये बयान बताते हैं कि वास्तव में अमेरिका की ओर से दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में चीन में दबाव बनाने की कोशिश के बीच रूस के अंदर एक खास धारणा बनती जा रही है।

आपसी विश्वास की बुनियाद

प्रोपंगडा करने वाले पश्चिमी तत्व बड़े आराम से इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि रूस-चीन गठबंधन एक मजबूत बुनियाद पर टिका है। इस बात को एक क्षण के लिए भी नहीं भूलना चाहिए कि मार्च 2013 में राष्ट्रपति के तौर पर शी जिनपिंग की पहली विदेश यात्रा रूस की ही थी। ये उस यूक्रेन संकट से एक साल पहले की बात है, जिसकी वजह से रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि पश्चिमी देशों के विश्लेषक इस बात पर जोर देते हैं कि रूस-चीन दोस्ती को रूस ने ही आधार दे रखा है और यह स्थिति यूरोप के साथ उसके खराब रिश्तों की वजह से आई है।

रूस की अपनी यात्रा से पहले शी जिनपिंग ने कहा था कि रूस और चीन “दो सबसे अहम रणनीतिक साझीदार हैं” और दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। शी जिनपिंग ने रूस को ‘दोस्ताना पड़ोसी’ का कहा था। उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति बनने के बाद उनका इतनी जल्दी रूस आना यह साबित करता है कि चीन रूस के साथ अपने संबंधों को कितनी अहमियत देता है। चीन और रूस के रिश्ते अब एक नए दौर में है, जहां दोनों एक दूसरे के लिए विकास के बड़े मौके मुहैया करा रहे हैं।

शी जिनपिंग की रूस यात्रा के दौरान रूसी प्रेस से बात करते हुए पुतिन ने कहा था कि चीन के साथ उनके देश का रिश्ता “एक ज्यादा न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था” को जन्म देगा। उन्होंने कहा था कि रूस और चीन दोनों ने अंतरराष्ट्रीय संकट में एक “संतुलित और व्यावहारिक रुख” का परिचय दिया है। (2012 के एक लेख में पुतिन ने चीन के साथ और ज्यादा गहरे आर्थिक सहयोग का आह्वान किया था। उन्होंने रूस की आर्थिक यात्रा में चीनी सहयोग की इच्छा जताई थी)।

शी जिनपिंग और पुतिन के बीच बातचीत का एक सकारात्मक नतीजा यह निकला कि रूस और चीन, दोनों के राष्ट्राध्यक्षों के दफ्तर सीधे संपर्क में आ गए। जुलाई 2014 में रूसी राष्ट्रपति के एग्जीक्यूटिव ऑफिस के चीफ ऑफ स्टाफ सर्गेई इवानोव और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सेंट्रल कमेटी के सचिवालय के प्रमुख ली झान्सु ने इसे संस्थागत बना दिया। यह काम इवानोव की चीन यात्रा के दौरान हुआ था।  

चीन के लिए यह किसी देश से संपर्क का पहला ऐसा स्वरूप था। ली और इवानोव (शी जिनपिंग ने दोनों की अगवानी बीजिंग में की थी) ने दोनों देशों के बहुआयामी रिश्तों का एक रोड मैप तैयार किया, जिसमें शीर्ष स्तर के नेतृत्व के बीच सघन संपर्क की अहम भूमिका थी। इस तरह से दोनों देशों के बीच एक रणनीतिक साझीदारी को और मजबूत किया गया।

चार साल बाद सितंबर 2019 में जब ली झान्सु ने चीन के नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन के तौर  पर रूस की यात्रा की तो पुतिन के साथ अपनी एक बैठक के दौरान कहा, “इस वक्त अमेरिका, रूस और चीन दोनों को एक साथ रोकने की कोशिश कर रहा है। यहां तक कि दोनों देशों के बीच वैमनस्य भी पैदा करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हम इसे बड़े साफ तौर पर देख सकते हैं और हमारा इस जाल में फंसने का कोई इरादा नहीं है। और इसकी बड़ी वजह है कि हमारे आपसी राजनतिक भरोसे की बुनियाद बहुत मजबूत है। हम दोनों आगे भी इस रिश्ते को मजबूत करते रहेंगे और एक दूसरे की आकांक्षाओं को सहारा देते रहेंगे। अपने-अपने विकास और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए हम ऐसा करते रहेंगे। रूस और चीन अपनी सुरक्षा और संप्रभुता सुनिश्चित करेंगे।”

ली ने पुतिन से कहा, “पिछले कुछ वर्षों के दौरान रूस और चीन के रिश्ते अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंच गए हैं। यह दोनों देशों का रणनीतिक नेतृत्व और दोनों नेताओं ( पुतिन और शी जिनपिंग) की निजी कोशिश की वजह से हुआ। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और आप, महान राजनीतिज्ञ और रणनीतिकार हैं। आप दोनों की सोच ग्लोबल और व्यापक है।”

पिछले साल 5 जून को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की रूस की राजकीय यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच जिस साझा घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया गया, उसे दोनों देशों के रिश्तों के नई ऊंचाई पर ले जाने वाला माना गया। “इसे नए जमाने के समन्वय के लिए की गई व्यापक रणनीतिक साझेदारी” कहा गया।

एक चीनी टिप्पणीकार कोन्ग जुन ने ‘पीपुल्स डेली’ में जून 2019 में जारी किए गए साझा बयान का जिक्र करते हुए लिखा “रूस और चीन के बीच रिश्तों की जो परिपक्वता दिखती है उससे दोनों की एक दूसरे प्रति गहरे विश्वास की झलक मिलती है।  इस रिश्ते में आला दर्जे का समन्वय और उच्च रणनीतिक मूल्य दिखता है”। आसान भाषा में कहें तो पिछले साल शी की रूसी यात्रा ने यह संकेत दे दिया कि दोनों देश दोस्ताना संबंध बनाने के मुहाने पर खड़े हैं। भले ही इसकी औपचारिक घोषणा नहीं की गई लेकिन वास्तव में ऐसा हो चुका है।

उस वक्त दोनों के बीच काम में आने लायक सैन्य गठबंधन भी बनने लगा था। शी की रूस की राजनीतिक यात्रा के ठीक तीन महीने बाद पुतिन ने 6 सितंबर 2019 को व्लादीवोस्तोक में अपनी घरेलू जनता के बीच पहली बार सार्वजनिक तौर पर चीन के साथ ‘गठबंधन’ का जिक्र किया।
 
निश्चित तौर पर इसके बाद रूस और चीन के नेताओं के बीच नियमित संदेशों का आदान-प्रदान होता रहा। यह आदान-प्रदान दोनों की ‘ग्लोबल रणनीतिक स्थिरता’  की रक्षा की प्रतिबद्धता को जाहिर करता है। यह प्रतिबद्धता 2019 को शी की रूस यात्रा के दौरान संयुक्त घोषणापत्र में जाहिर किए गए रुख के मुताबिक ही थी।

पिछले साल अक्टूबर में यानी शी की रूस की राजकीय यात्रा से ठीक चार महीने बाद पुतिन ने सोचि की राजनीतिक सभा में धमाका किया। वहां उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा “हम अपने चीनी सहयोगियों को मिसाइल अटैक वार्निंग सिस्टम बनाने में मदद कर रहे हैं। यह काफी अहम चीज है जो पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की रक्षा क्षमताओं को काफी मजबूत बना देगी। इस वक्त सिर्फ अमेरिका और रूस के बीच इस तरह का सिस्टम है।”

इसके एक दिन बाद पुतिन के प्रवक्ता दमित्री पेस्कोव ने रूस की चीन के साथ खास रिश्तों की सराहना की। उन्होंने चीन के साथ आगे बढ़ चली साझीदारी का जिक्र किया। वह सैन्य-तकनीकी सहयोग, सुरक्षा और रक्षा क्षमता समेत तमाम संवेदनशील मुद्दों से जुड़े रूस-चीन सहयोग के बारे में बोले।

रूस की एक प्रमुख हथियार निर्माता कंपनी Vympel के महानिदेशक सर्गेई बोयेव ने अलग से सरकारी मीडिया को इस बात की पुष्टि की उनकी कंपनी चीन के लिए मिसाइल अटैक वॉर्निंग सिस्टम की ‘मॉडलिंग’ पर काम कर रही है। उन्होंने कहा, “ हम गोपनीयता समझौतों की वजह से इसके बारे में और खुलासा नहीं कर सकते”।

वैश्विक रणनीतिक स्थिरता के लिए गठबंधन

 अक्टूबर में सोचि में पुतिन का दिया गया भाषण काफी महत्वपूर्ण था। इस भाषण में उन्होंने “ रूस और चीन के बीच रणनीतिक साझेदारी के लिए आपसी सहयोग और अभूतपूर्व स्तर भरोसे” की सराहना की थी। पुतिन ने साफ कहा था कि मिसाइल अटैक अर्ली वॉर्निंग सिस्टम   (Systema Preduprezdenya o Raketnom Napadenii — SPRN) काफी गहराई के साथ चीन की रक्षा क्षमताओं का विस्तार कर रहा है। ”

पुतिन ने इसे चीन पर आर्थिक दबाव बना कर उसे आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश को बेकार की कवायद कह कर खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि Quad के जरिये अन्य क्षेत्रीय ताकतों के साथ मिल कर एशिया-प्रशांत गठबंधन बनाने की अमेरिका की कोशिश भी बेकार है।
 
पुतिन की इस टिप्पणी पर सरकार समर्थक न्यूज साइट Vzglad ने इस बात की ओर संकेत किया कि भले ही रूस और चीन निकट भविष्य में कोई औपचारिक राजनीतिक-सैन्य समझौता न करें लेकिन वास्तव में पहले ही इस तरह के गठबंधन में बंध चुके हैं। दोनों देश अलग-अलग क्षेत्रों में तालमेल के साथ अपनी गतिविधियों को जारी रखे हुए हैं और एक ऐसी विश्व व्यवस्था बना रहे हैं, जिससे एशिया पर अमेरिकी असर का खात्मा हो सकता है।

रूस ने चीन को जो मिसाइल अर्ली वॉर्निंग टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की है,उसकी अहमियत को समझना जरूरी है। इसका मतलब यह एक तरह से चीन और रूस का सैन्य गठबंधन है।
और यह संयोग ही कि यह ऐलान ऐसे समय में हुआ जब सेंटर-2019 ( (Tsentr-2019) नाम से एक रूसी सैन्य अभ्यास पश्चिम रूस में 16 से 21 सितंबर तक जारी था। इसमें चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की पश्चिमी थियेटर कमान ने कुछ 96ए टाइप के प्रमुख युद्ध टैंक भेजे थे (इनकी संख्या कितनी थी, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है)। इसके अलावा H-6K स्ट्रेटजिक बम वर्षक विमान,, JH-7A फाइटर बम वर्षक विमान, J-11 फाइटर जेट, Il-76 and Y-9 ट्रांसपोर्ट विमान और Z-10 हमलावर हेलीकॉप्टर भेजे गए थे।

रूस की ओर से इस युद्धाभ्यास में 1,28,000 सैनिक शामिल हुए। 20,000 हार्डवेयर, जिनमें 600 विमान, 250 टैंक, 450 इन्फ्रैंट्री फाइटिंग व्हेकिल्स और हथियार से सुसज्जित सैनिकों को लेने जाने वाले कैरियर, 200 आर्टिलरी सिस्टम और मल्टीपल लॉन्च रॉकेट सिस्टम शामिल थे।
रूसी रक्षा मंत्रालय ने इस युद्धाभ्यास का मुख्य मकसद रणनीतिक कमान की कवायद को अंजाम देना था और देखना था कि रूसी सेना युद्ध के लिए फौरी तौर पर कितनी तैयार है। साथ ही इसका उद्देश्य रूसी सेना की इंटरपोर्टेबिलिटी भी बढ़ाना था।  

इससे पहले मई 2016 में रूस और चीन ने अपना पहला सिम्यूलेटेड कंप्यूटर एंटी मिसाइल डिफेंस एक्सरसाइज शुरू की थी। उस समय मास्को में की गई एक घोषणा में कहा गया था इसे रूस चीन का पहला संयुक्त कंप्यूटर-इनेबल्ड कमांड-स्टाफ एंटी मिसाइल रक्षा कवायद करार दिया गया था। इसे रसियन एयरो डिफेंस फोर्सेज के साइंटिफिक रिसर्च सेंटर में अंजाम दिया गया था।
 
रूसी रक्षा मंत्रालय ने इस एक्सरसाइज का मुख्य मकसद रूस और चीन की ओर से संयुक्त रूप से सैन्य पहलकदमी और रैपिड रिएक्शन एंटी एयरक्राफ्ट ऑपरेशन को साधना था ताकि बैलेस्टिक और क्रूज मिसाइलों के हमलों से बचाव किया जा सके। रूसी रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि दोनों देश इस अभ्यास के नतीजों का इस्तेमाल एंटी मिसाइल डिफेंस के क्षेत्र में रूस-चीन सहयोग प्रस्ताव में करेंगे।

लिहाजा यह कहना काफी है कि चीन को रूस का SPRN महज एक अकेला मामला नहीं था। सीधे शब्दों में कहा जाए तो रूस चीन को अमेरिकी मिसाइलों से बचाव की एक्सक्लूसिव तकनीक दे रहा था। साथ ही वह चीन को सेकेंड स्ट्राइक क्षमता विकसित करने में भी मदद कर रहा, जो रणनीतिक संतुलन बनाए रखने में काफी अहम जरूरी होती है।

SPRN में लंबी दूरी के ताकतवर रडार होते हैं, जो हमलावर मिसाइलों और वॉरहेड्स का पता कर लेते हैं । अगर चीन रूस से एस-400 के साथ ही ज्यादा ताकतवर और लंबी रेंज की S-500 एंटी मिसाइल सिस्टम खरीदता है (जिसका रूस निर्माण और तैनाती शुरू कर रहा है) तो रूस उसके लिए भविष्य में इंटग्रेटेड PLA SPRN तैयार करने और उसके लिए बनाए जाने वाले आर्किटेक्चर को प्रभावित करने की स्थिति में आ सकता है। इससे चीन की मिसाइल-डिफेंस क्षमता काफी बढ़ जाएगी और अमेरिका के खिलाफ रूस को रणनीतिक स्थिरता देने में मददगार साबित होगी। इससे अमेरिका की संभावित मिसाइल ल़ॉन्चिंग की जानकारी और असर का पता लगाने में मदद मिलेगी।

सरल शब्दों मे कहें तो रूसी सिस्टम चीनी नेतृत्व को दस मिनट को भीतर दुश्मन के किसी भी मिसाइल हमले की जानकारी दे सकेगा। मिसाइल हमले के असर की पहले से जानकारी मिलने से जवाबी हमले के तौर पर चीनी न्यूक्लियर मिसाइल छोड़ा जा सकता है।

साफ तौर पर यह रूस की चीन के साथ मिलकर एक इंटिग्रेटेड मिसाइल डिफेंस सिस्टम तैयार करने की पूर्व तैयारी है। यह इसलिए अहम है क्योंकि यह बताता है कि रूस चीन के साथ सैन्य गठबंधन बना रहा है। यह गठबंधन यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि अगर अमेरिका हमला करता है तो उसका जोखिम कितना बढ़ जाएगा।

मास्को में रहने वाले विदेशी मामलों के विशेषज्ञ व्लादीमिर फ्रोलोव ने सीबीएस न्यूज से कहा, अगर चीनी मिसाइल अटैक वॉर्निंग सिस्टम रूस के वॉर्निंग सिस्टम से मिल गया तो हम साउथ पैसिफिक और हिंद महासागर में मौजूद पनडुब्बियों से छोड़े गए अमेरिकी बैलिस्टिक मिसाइल का पता लगाने में भी सक्षम हो जाएंगे। यह एक ऐसा इलाका है, जहां से मिसाइलें छोड़े जाने पर हम जल्दी पता करने की स्थिति में फिलहाल नहीं हैं।

यह तो पक्का है कि पहले की तुलना में रूस-चीन गठबंधन अब और महीन लग रहा है। आपसी रिश्तों की गर्माहट का दुर्लभ प्रदर्शन करते हुए शी ने पिछले साल जून में मास्को यात्रा से पहले रूसी मीडिया को एक इंटरव्यू में कहा था “ किसी भी दूसरे विदेशी सहयोगी की तुलना में रूसी राष्ट्रपति से मेरी सबसे नजदीकी बातचीत हुई है। वह मेरे सबसे अच्छे और पक्के दोस्त हैं। उनसे गहरी दोस्ती मुझे खुशी देती है”। रूस-चीन के राजनयिक रिश्तों की 70वीं वर्षगांठ पर क्रेमलिन में आयोजित एक समारोह में शी ने पुतिन से कहा था कि चीन आपके साथ-साथ चलने को तैयार है।

शी ने कहा, “ रूस चीन संबंध एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है। यह रिश्ता आपस के मजबूत भरोसे और दोनों ओर के रणनीतिक समर्थन पर टिका है। हमें इस बेशकीमती भरोसे पर खुश होना चाहिए। दोनों देशों को अपने-अपने अहम मुद्दों के लिए एक दूसरे के साथ सहयोग करने की जरूरत है ताकि तमाम तरह के हस्तक्षेप और नुकसान पहुंचाने की कोशिश के बावजूद रूस-चीन के रिश्ते सही रणनीतिक दिशा पकड़ सके।

नए दौर में प्रवेश कर रूस-चीन संबंध इस दुनिया की शांति और स्थिरता के लिए एक भरोसेमंद गारंटी साबित होगा।
 
निष्कर्ष

यूएस नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटजी के दिसंबर 2017 के दस्तावेजों (ट्रंप के राष्ट्रपति रहने के दौरान ऐसा पहली बार हुआ) में रूस और चीन को ‘संशोधनवादी’ ताकतें कहा गया। संशोधनवाद की अवधारणा के कई मायने निकाले जा सकते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में ताकत के बंटवारे पर मौजूदा  स्थिति स्वीकार कर लेने वाले देशों और अपने फायदे में इस स्थिति को बदलने की कोशिश करने वाले देशों के बीच अंतर करता है।
 
सार के तौर पर पर हम कह सकते हैं कि रूस और चीन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उभरे नवउदारवादी तौर-तरीके को चुनौती दे रह हैं। इस तौर-तरीके के तहत किसी भी संप्रभु देश के घरेलू मामले में पश्चिमी देशों के दखल को मान्यता देने के लिए अपनी सुविधा के हिसाब से मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले उठाए जाते हैं। हालांकि ये देश अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की बुनियादी अवधारणाओं के प्रति अपना समर्थन भी जताते हैं खासकर किसी देश की संप्रभुता और उसकी क्षेत्रीय अखंडता की प्रधानता, अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अहमियत, संयुक्त राष्ट्र का केंद्रीय महत्व और सुरक्षा परिषद की अहम भूमिका।

देखा जाए तो रूस और चीन वैश्विक वित्तीय संस्थानों में भागीदारी के लिए नियमों को मानने वाले रहे देश हैं न कि उन्हें चुनौती देने वाले। चीन ग्लोबलाइजेशन को बढ़ावा देने वाला अग्रणी देश रहा है। कुल मिलाकर रूस और चीन जिस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के समर्थक हैं वो उनके रुख में दिखता है। संप्रभु राष्ट्र पर आधारित विश्व व्यवस्था में उनके इस रुख की पुष्टि होती है।

वैसे, 2017 के यूएस नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रेटजी से जुड़े दस्तावेज में जियोपॉलिटिकल संदर्भ में कहा गया है, “चीन और रूस अमेरिकी ताकत, प्रभाव और हितों को चुनौती दे रहे हैं। वे अमेरिकी सुरक्षा और समृद्धि को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं। चीन और रूस ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश में, जो अमेरिकी मूल्यों और हितों के खिलाफ है। चीन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिका को अपदस्थ करना चाहता है। जबकि रूस का मकसद है कि दुनिया से अमेरिकी असर को खत्म कर दिया जाए। वे चाहते हैं कि अमेरिका को उसके मित्रों और सहयोगियों से काट दिया जाए। रूस नई सैन्य क्षमताओं में निवेश कर रहा है। वह न्यूक्लियर सिस्टम में बड़ा निवेश कर रहा है, जो अमेरिका के अस्तित्व के सामने सबसे बड़ा खतरा है।”

अब यह साफ हो चुका है कि रूस और चीन के बीच का ‘आदर्श गठबंधन’ अब ‘वास्तविक गठबंधन’ में तब्दील हो चुका है। रूस-चीन रिश्तों के आंतरिक आयाम अब तेजी से मजबूत हो रहे हैं और किसी भी अंतरराष्ट्रीय माहौल के प्रभाव से परे पहुंच चुके हैं।

रूस और चीन ने अपने बीच बढ़ती रणनीतिक साझेदारी का व्यापक लाभ भी लिया है और यह दोनों की साझा रणनीतिक संपत्ति बन चुकी है। साथ ही इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोनों की हैसियत में भी इजाफा किया है। यह दोनों देशों की डिप्लोमेसी को बुनियादी समर्थन भी मुहैया कराती है।

रूस-चीन संबंध के केंद्र जो एक चीज वह यह है कि यह क्लासिक एलायंस सिस्टम यानी गठबंधन की तरीके का समर्थन नहीं करता । अगर इसकी विशेषता बतानी हो तो इसे ‘प्लग-इन’ गठबंधन कह सकते हैं। सामान्य जीवन में भी इस तरह की रणनीति कई “customisable options” के रेंज पर कारगर हो सकती है। इस तरह के विकल्प से जरूरत के हिसाब से किसी काम को करने के लिए मदद दी जा सकती है। दरअसल रूस और चीन के इस रिश्ते में काफी ज्यादा लचीलाचन है।

 रूस-चीन गठबंधन का अमेरिका से सैन्य टकराव का कोई इरादा नहीं है। लेकिन इसकी भंगिमा ऐसी है कि यह गठबंधन किसी भी अमेरिकी हमले को रोकने के लिए तैयार है। अमेरिका के लिए इस गठबंधन का रुख दिनों-दिन हताशा पैदा करता जा रहा है क्योंकि रूस ने अब उसके इंडो-पैसिफिक स्ट्रेटजी को चुनौती देना शुरू कर दिया है।

रूस की ओर से अमेरिका की ‘इंडो-पैसेफिक स्ट्रेटजी’ की आलोचना बढ़ती ही जा रही है। और यह ऐसे समय में हो रहा है जब ताइवान जल डमरूमध्य में तनाव बढ़ता जा रहा है और अक्टूबर में Quad की जापान में पहली बार बैठक होने जा रही है।

17  सितंबर को रूस ने इस बात को लेकर चेताया था कि गैर क्षेत्रीय ताकतों की सैन्य गतिविधियां (अमेरिका और उसके सहयोगी) तनाव पैदा कर रही हैं। लिहाजा रूस की चार स्ट्रेटजिक कमानों में से एक खबारोवोस्क के पूर्वी सैन्य जिले में मिक्स्ड एविएशन डिवीजन कमान यूनिट और एक एयर डिफेंस ब्रिगेड को मजबूती दी जा रही है।

दरअसल अमेरिका का जो स्वभाव है उससे वह इस होड़ को नहीं जीत सकता क्योंकि Quad के चार सदस्यों में से तीन (इनमें भारत और जापान भी शामिल हैं) रूस को संशोधनवादी ताकत नहीं मानते हैं और न ही ऐसा ताकत मानते हैं जिससे दुश्मनी की जाए। कुछ अमेरिकी विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका अपने ट्रांस अटलांटिक संधि से पीछे हट रहा है।

ट्रंप ने इसकी उपेक्षा की है। लेकिन बिडेन रातोंरात यूरोप में यूरो-अटलांटिकवाद को ताकत दे सकते हैं। लेकिन यह जितना आसान दिखता है उतना है नहीं। और जैसा कि जर्मनी विदेश मंत्री जोश्का फिशर ने एक बार लिखा कि ट्रांस अटलांटिक गठजोड़ का विवाद बढ़ते अलगाव से बढ़ा है- दरअसल इसके सदस्य देशों के बीच असहमति, एक दूसरे के प्रति भरोसे में कमी और उनकी अलग-अलग प्राथमिकताएं इसकी वजह रही है।

और यह ट्रंप के आने से पहले की बात है। अगर व्हाइट हाउस में ट्रंप की जगह कोई दूसरा राष्ट्रपति भी जाए तो इस टकराव का खात्मा नहीं होगा। इसके अलावा कई यूरोपीय देश नहीं चाहेंगे कि रूस और चीन के खिलाफ अमेरिका की दुश्मनी में वे भागीदार बनें।

दरअसल अमेरिका रूस और चीन दोनों को एक साथ न परास्त कर दे तब तक इस गठबंधन से पार नहीं पा सकता। जबकि यह गठबंधन इतिहास के सही दिशा में खड़ा है। वक्त इसके साथ है। जबकि एक व्यापक राष्ट्रीय ताकत के तौर पर अमेरिका का वैश्विक प्रभाव छीजता जा रहा है। यह कमजोरी इसे आगे बढ़ने से रोक रही है और दुनिया अब ‘Post- American Century’ की आदी होती जा रही है।

साफ है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद  से पीछा छुड़ा कर रूस और चीन ने 21 वीं सदी के माकूल गठबंधन बनाने का होमवर्क काफी अच्छे से तैयार कर लिया है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Sino-Russian Alliance Comes of Age — III

 

इस लेख का पहला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक करें।
चीनी-रुसी गठबंधन परिपक्व होता नजर आ रहा है- I

लेख के दूसरे भाग को पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक करें।
चीनी-रुसी गठबंधन परिपक्व होता नजर आ रहा है- II 

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