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दुनिया के ‘महाबलियों’ ने वायरस ग्रसित देशों को दरकिनार कर दिया है
नौटंकी देखने के लिए यदि वोट किया था तो उसकी क़ीमत तो चुकानी ही पड़ेगी, और आज देखिये, उसकी क़ीमत चुकाने के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा है।
बालू सुनीलराज, आश्ती सलमान
06 Apr 2020
Modi trump

हम आज एक ऐसे महाबलियों के दौर में जी रहे हैं जो अपने कारनामे दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते। वो चाहे स्व-घोषित 56-इंची छाती की बात हो, या वे लोग जो यौन कुण्ठित चुटकुले मारने से लेकर बॉक्सिंग रिंग के अंदर कदम रखते हों- इन सबने हमारी कल्पनाओं पर अपना क़ब्ज़ा जमा रखा है। आज ऐसे कई पुरुषों को हम सत्ता में देख सकते हैं।

ये महाबली अपनी माचो छवि और पर्सनालिटी कल्ट को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने के उद्यम में मशगूल रहते हैं। लेकिन जब कभी इनके गंभीर सामाजिक सरोकारों से दो-चार होने की नौबत नजर आई है, तब-तब इन्होने घोर कायरता का परिचय दिया है। इससे बचने के लिए ये खुद को अपनी नफरत भरी बयानबाजी के पीछे छिपा लेते हैं, जिसके जरिये वे अपनी स्थितियों को वास्तविकता में नियंत्रित कर पाने की अपनी हैसियत को छिपा ले जाते हैं। हमारे नव-उदारवादी युग के अभिजात वर्ग के पक्ष में यथास्थिति को बनाए रखने के लिए वे इन बुनियादी सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से हमारे ध्यान को भटकाते रहते हैं।

आमतौर पर ऐसे महाबलियों का सम्बन्ध निरंकुश शासन से रहा है, विशेष तौर पर अतीत के फासीवादी नेताओं से। हालांकि हाल के वर्षों में यह अवधारणा फिर से उभरी है और इसी के चलते ये नेता भी सामने आये हैं। 21 वीं सदी के महाबलियों के बारे में मार्क्सवादी विद्वान विजय प्रसाद का कहना है  ये लोग नए-नए जुमले गढ़ने में पारंगत हैं- वो चाहे विकास या व्यापार के संदर्भ में हो, या अपने नागरिकों के लिए नौकरी या सामाजिक कल्याण के संदर्भ में,  या प्रवासियों से आसन्न खतरों की जुबान बोलने में हो या चाहे नशीली दवाओं के गिरोह से लड़ने के नाम हो। ”

यही वजह है कि  21वीं सदी के ये महाबली अक्सर लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से ही चुने जाते हैं। इनकी बयानबाज़ी अक्सर जनता के मन के तारों के साथ प्रतिध्वनित होती लगती है, जिनकों यह यकीन दिलाया जाता है कि वे लोग जो मतदान कर रहे हैं, इससे उनकी जिंदगियाँ, उनकी संस्कृति या राष्ट्र, उन अन्य ‘दूसरों’ बुझे हुए लोगों की बनिस्बत सुरक्षित रहने जा रही हैं। हालाँकि नौटंकी देखने की क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है, जैसा कि हम अब देख पा रहे हैं।

इधर जबसे कोविद-19 महामारी ने दुनिया भर को अपनी चपेट में ले रखा है इन महाबलियों की कमजोरियाँ खुलकर सामने नजर आ रही हैं। इनमें से कुल चार महामानवों जिनमें संयुक्त राज्य अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प, ब्राजील के जेयर बोल्सोनारो, यूनाइटेड किंगडम के बोरिस जॉनसन और भारत के नरेंद्र मोदी शामिल हैं, के द्वारा इस महामारी पर लिए गए उपाय निम्नानुसार थे।

महाबलियों ने शुरुआत में कोविड-19 के ख़तरों को ख़ारिज कर दिया था

इन सभी चार महाबलियों ने अपने देशों को इस महामारी से निपटने के लिए तैयार ही नहीं किया था। जनवरी के अंत तक ट्रम्प का दावा था कि चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि हमारे यहाँ इसके बेहद कम मरीज़ हैं। 29 फरवरी को उन्होंने इस महामारी को डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा उड़ाई गई झूठी अफ़वाह बता डाला। 4 मार्च को ट्रम्प ने इसे "... यह बहुत हल्का सा है" बताया। 7 मार्च को घोषणा की कि वे इसके बारे में "बिल्कुल भी परेशान नहीं हैं"। 10 मार्च को अनुमान लगाया कि यह "... अपने आप चला जाएगा,  हमें शांति बनाई रखनी चाहिए"। इसका कुल मिलाकर नतीजा यह निकला कि आज कोविड-19 के सबसे अधिक मामले अमेरिका में ही हैं।

यहाँ अब एक राष्ट्रपति जहाँ अपने बिना किसी तैयारी के कारण छटपटा रहा है वहीँ अब अपनी गलतियों को छिपाने के लिए झूठ पे झूठ बके जा रहा है। अब दावे किये जा रहे हैं कि मैं तो हमेशा से इसके लिए तैयार था, कि ये संक्रमण उन दवाओं से ठीक हो जाने वाला है जो अस्तित्व में ही नहीं हैं, कि ऑटोमोबाइल कंपनियां वेंटिलेटर निर्मित करनी में जुटी हुई हैं और चिकित्सकीय बेड़े को इस संकट से निपटने के लिए तैयार किया जा रहा है और न जाने क्या क्या।

इसी तरह जॉनसन भी शुरू-शुरू में आवश्यक चिकित्सा उपकरणों की खरीद और गंभीर रूप से खस्ताहाल राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) को मजबूत करने की जरूरत को लेकर तैयार नहीं थे। 3 मार्च को उन्होंने वायरस के खतरे का यह बखान कर इसे सिरे से खारिज कर डाला कि उन्होंने तो कोविद -19 रोगियों तक से हाथ मिलाया हुआ है। 27 मार्च तक खबर आई कि वे खुद और ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री मैट हैनकॉक जाँच में पॉजिटिव पाए गए हैं और साथ ही उनके मुख्य चिकित्सा अधिकारी क्रिस व्हिट्टी में भी इसके लक्षण देखने को मिले हैं।

इसके बाद जाकर कहीं जॉनसन अब समस्त नागरिकों को पत्र लिख रहे हैं जिसमें वे खुद को उनके "स्तर" पर रख रहे हैं: "हम सभी इस बात से अवगत हैं कि चीजें बेहतर हों, इससे पहले कि वे बदतर हो जाएं", वे अब स्वीकारते हैं। वे इस “राष्ट्रीय आपातकाल” की घड़ी में लोगों से अपने घरों में ही बने रहने, एनएचएस को बचाने और इस दौरान जिन्दगियों को बचाने की अपील कर रहे हैं।

इसी तरह बोल्सनारो ने भी कहा कि यह वायरस किसी "छोटा-मोटा फ्लू" जैसा ही है और स्थानीय सरकारों पर आरोप मढ़े कि वे मौतों की संख्या में हेरफेर कर रहे हैं। टेलीवीज़न के ज़रिये अपने भाषण में उन्होंने कहा  मुझे खेद है कि कुछ लोग मारे जाएंगे, उनको मरना होगा, लेकिन क्या करें यही जीवन है।" उनके स्वास्थ्य मंत्री लुइज हेनरिक मैंडेटा ने घोषणा कर दी है कि अप्रैल के अंत तक ब्राजील की स्वास्थ्य प्रणाली, एसयूएस जो कि फण्ड की कमी से जूझ रही है पूरी तह से "ढह जाएगी"।

अन्य महाबलियों के विपरीत मोदी के पास अनेकों मीडिया हाउस पर मजबूत पकड़ पहले से ही है। शुरू-शुरू में तो उन्होंने इस वायरस को लेकर अपनी कोई चिंता ही जाहिर नहीं होने दी। फरवरी में जहाँ वे दिल्ली चुनावों के प्रचार में व्यस्त थे, वहीँ इसके बाद डोनाल्ड ट्रम्प के भारत आगमन पर उनके स्वागत कार्यों में मशगूल रहे। जबकि उनकी पार्टी के सदस्य शहर में खुलेआम सांप्रदायिक बयानबाजी करने में जुटे पड़े थे और इसके बाद विपक्ष शासित मध्य प्रदेश सरकार को उखाड़ फेंकने के काम को सफलतापूर्वक संपन्न किया गया। समूचे भारत में अचानक से लॉकडाउन की घोषणा ने इसकी तैयारी में कमी को स्पष्ट तौर पर उजागर कर दिया है, जिसकी घोषणा उन्होंने दस दिन पहले की थी। इसने लाखों मेहनतकशों को न केवल अपने गाँवों की ओर पलायन करने पर मजबूर किया, बल्कि इस बेहद कष्टदाई यात्रा में कई गरीब प्रवासियों की मौतें तक हो चुकी हैं।

संकट-काल में आत्म-मुग्धता

इन महाबलियों में दूसरा सामान्य गुण संकट के बीच में भी उनकी अपमानजनक आत्म-मुग्धता को लेकर दिखता है, भले ही इसके चलते लाखों लोगों की सुरक्षा से समझौता ही क्यों न करना पड़े।

ट्रम्प ने आलोचकों को परे झटक खुद को संघीय सरकार और सेना के समकक्ष ला खड़ा कर दिया है। आर्थिक अभिजात वर्ग के हितों की रक्षा के लिए, जिसके वे खुद एक सदस्य हैं - के लिए ट्रम्प की इच्छा थी कि पिछले हफ्ते ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फिर से खोल दिया जाये, चाहे जो खतरा हो। जबकि जाहिर यही किया कि उनकी मंशा "ईस्टर तक देश भर में गिरिजाघरों में भीड़ उमड़ी पड़ी हो" की है। लेकिन संक्रमण के मामलों में अचानक से बढ़ोत्तरी ने इस पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया।

यहां तक ​​कि राज्य सरकारों को दिए जाने वाले समर्थन के पीछे भी गवर्नरों ने ट्रम्प की अधीनता स्वीकार की है या नहीं इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। उदाहरण के लिए मिशिगन में इस प्रकोप को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने में उन्होंने देरी सिर्फ इसलिये की क्योंकि वहाँ का गवर्नर उनके प्रशासन के प्रति आलोचक रहा है।

बोल्सानरो भी इस संकट में खुद को अजेय दिखाने की कोशिश में जुटे हैं। पिछले मंगलवार को इस 65 वर्षीय इन्सान ने घोषणा की कि "... एक एथलीट के रूप में मेरी पृष्ठभूमि की वजह से यदि मैं इस वायरस से संक्रमित भी हो जाता हूँ तो मुझे कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं होने जा रही है। मुझे कुछ महसूस ही नहीं होगा ....।" फिर वे अन्य राजनेताओं पर "सशंकित जनसंख्या के सामने उलजुलूल बकने" के आरोप लगाने पर पिल पड़े। इसआख़िरकार महामारी के छिड जाने के बाद से अपनी कई सार्वजनिक प्रस्तुतियों में उन्होंने लोगों को काम पर जाते रहने को प्रोत्साहित किया है। कई रिपोर्टों से पता चलता है कि उन्होंने अपने स्वास्थ्य मंत्री तक को बर्खास्त करने की धमकी दे डाली है यदि उसने आईन्दा उनके तौर-तरीकों पर सवाल उठाने की हिमाकत की तो।

ब्रिटेन में आख़िरकार जब जॉनसन ने लॉकडाउन के आदेश दिए तो कोशिश ये की गई कि सब कुछ नियंत्रण में नजर आये। जॉनसन ने डब्ल्यूएचओ की शारीरिक दूरी वाली सलाह का पालन नहीं कर, प्रेस कॉन्फ्रेंस और संसदीय सत्रों में भाग लेते रहे और अन्य सांसदों के लिए जोखिम को बढ़ाते चले गए।

जबकि भारत में कोविड-19 का संकट मोदी के लिए एक और पीआर बढ़ाने का मौक़ा ही साबित हुआ है। पहला पब्लिसिटी स्टंट जनता कर्फ्यू था, जिसे मोदी धुरी पर पर खड़े लोगों के लिए किसी त्यौहार के रूप में पेश किया गया था। इस कर्फ्यू के बाद भारी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता और समर्थक एक साथ जमा हुए, संभवतः इससे वायरस के प्रसार में इजाफा ही हुआ होगा।

अचानक से तालाबंदी की घोषणा के बाद भी मोदी ने तत्काल प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा नहीं की, और न ही उनकी सरकार की ओर से भारत के लाखों दिहाड़ी-मजदूरों और असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों को पर्याप्त भोजन प्रदान कराने के लिए ही कोई कदम उठाये गये। इसके बजाय आर्थिक संकट पर अपनी देर से प्रतिक्रिया देते हुए पहले से मौजूद पीएम राष्ट्रीय राहत कोष के बजाय एक नए सार्वजनिक ट्रस्ट फंड में योगदान करने के लिए लोगों से अपील की गई। इस गहन संकट के दौरान भी आत्म-प्रचार के लिए ऐसी कभी न सुनी गई भूख को दर्शाते हुए इस नए ट्रस्ट का नाम पीएम-केयर्स रखा गया है।

अवैज्ञानिक दृष्टिकोण

हमारे ये सभी महाबली कोविद -19 के बारे में अवैज्ञानिक दावे करने को लेकर एकमत हैं, लेकिन इनमें से ये ट्रम्प महोदय हैं जिनकी टिप्पणियाँ बेहद चौंकाने वाली रही हैं। 28 जनवरी को इन्होने ‘वन अमेरिका न्यूज’ नामक एक गैर-विश्वसनीय समाचार एजेंसी की एक हेडलाइन को रीट्वीट कर डाला, जिसमें घोषणा की गई थी कि: “जॉनसन एंड जॉनसन कोरोनावायरस वैक्सीन बनाने के करीब है” जो कि अंततः झूठी साबित हुई। इसी तरह वे लगातार कोविड-19 की तुलना आम फ्लू से करते रहे।  उदाहरण के लिए एक फॉक्स न्यूज के टाउन-हॉल सत्र में उन्होंने कहा "मैं आप सबके सामने कुछ आँकड़े पेश कर रहा हूँ- हरेक साल हम हजारों हजार लोगों को फ्लू में खो देते हैं। लेकिन हम सारे देश में तालाबंदी तो नहीं करते हैं न।”  फिर दावा किया कि एक दशक पुरानी मलेरिया दवा से कोरोनोवायरस का इलाज संभव है, जिसे विशेषज्ञों ने अपना समर्थन नहीं दिया।" ट्रम्प ने ऐसा कैसे कहा इसके बारे में बाद में उन्होंने सफाई देते हुए बताया कि “मुझे इसके बारे में अच्छा महसूस होता है। बस यही बात है, सिर्फ एक एहसास है। जैसा कि आप जानते ही हो कि मैं कितना स्मार्ट बन्दा हूँ। ”

ब्रिटेन में इस महामारी के समाधान के तौर पर हर्ड इम्युनिटी का प्रस्ताव सुझाया गया था, जो शायद अभी तक की सबसे बड़ी अवैज्ञानिक पहल कही जा सकती है। यह समाधान ब्रिटिश सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार की ओर से आई थी। "अधिकांश लोगों को इससे हल्की-फुल्की बीमारी हो सकती है [इसलिए वे वायरस के संपर्क में लाये जा सकते हैं], जिसके चलते एक किस्म की हर्ड इम्युनिटी निर्मित हो जायेगी, फिर अधिकाधिक लोग इस बीमारी से इम्यून होते चले जायेंगे और इस प्रकार हम इसके संचरण को कम करने में सफल हो सकते हैं।" इसके बाद तो सरकार ने दक्षिण कोरिया जैसे देशों द्वारा आक्रामक तौर पर महामारी की रोकथाम के लिए अपनाए जाने वाले परीक्षणों के बजाय सिर्फ गंभीर रूप से बीमार लोगों के संक्रमण के परीक्षण तक खुद को सीमित कर डाला।

अवैज्ञानिक दावों की इस होड़ में भला बोल्सनारो कैसे पीछे रहे सकते थे। नतीजे में ब्राजील कोविड-19 मामलों में आई अचानक उछाल से निपटने के लिए किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक उपायों को अपनाने में लगभग असमर्थ साबित हुआ है। बोल्सनारो के अनुसार यह "ब्राज़ीलियाई" हैं जिनके बारे में अध्ययन की आवश्यकता है, क्योंकि उन्हें जल्दी से वह "कुछ भी नहीं पकड़ता है।" वे उपदेश देते हैं "आप सीवेज में कुछ बन्दों को कूदते हुए देखते होंगे, वह बाहर निकलता है, फिर गोता मारता है, है ना? और उसे कुछ नहीं होता। इसलिये इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि स्थानीय सरकारों द्वारा यात्रा प्रतिबंधों और क्वारंटाइन में लोगों के रखे जाने के खिलाफ उन्होंने अभियान छेड़ रखा है।

और भारत में तो मोदी के अनुयायियों ने दक्षिणपंथी इको-चैम्बर्स से सारे देश को छद्म वैज्ञानिक दावों से लबालब भर डाला है। बीजेपी विधायक सुमन हरिप्रिया द्वारा सुझाये गए गाय के गोबर और गोमूत्र का इलाज तो अब सर्वविदित है। 14 मार्च को हिंदू महासभा ने नई दिल्ली में गोमूत्र पार्टियों का आयोजन किया। वहीँ हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने शाकाहार को एक इलाज के रूप में प्रस्तावित किया था। हिंदू पौराणिक कथाओं में युद्ध की घोषणा के रूप में शंख ध्वनि की परम्परा रही है। भाजपा नेताओं द्वारा वायरस को दूर भगाने के तौर पर इसे एक वैध तरीके के रूप में अपनाने की सलाह दी गई थी।

दूसरों पर आरोप लगाना

अपनी खुद की गलतियों से ध्यान भटकाने के लिए हमारे इन सभी महाबलियों ने इन सारी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने का अभियान शुरू कर दिया है। ट्रम्प का कहना है कि उन्होंने कोविद-19  को अपने पूर्ववर्ती ओबामा प्रशासन के रूप में निबटाने की पहल की थी जो उन्होंने 2009 में H1N1 महामारी से निपटते समय आजमाया था। जबकि यह एक सफेद झूठ है। इसके बाद ट्रम्प ने इस संकट से निपटने के लिए डब्ल्यूएचओ द्वारा इस महामारी के लिए किसी भी राष्ट्र को कलंकित न करने की चेतावनी के बावजूद चीन के नस्लीय-उत्पीडन में इस्तेमाल किया। और अब तो वे वायरस से अग्रिम मोर्चों पर मुकाबला कर रहे अस्पतालों के कर्मचारियों पर मास्क और अन्य उपकरण चुराने का आरोप तक लगा रहे हैं। जबकि उन्होंने कभी भी मास्क और उपकरणों के लिए स्वास्थ्य कर्मियों की अपील पर ध्यान नहीं दिया है, जो लगातार कम पड़ते जा रहे हैं।

बोल्सनारो के राजनीतिक सुपुत्र एडुआर्डो ने तो इस महामारी को "एक नाम और उपनाम, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी" तक दे डाला है। इस बीच उनके पिता इस संक्रमण और जानलेवा घटनाओं पर इतालवी मीडिया द्वारा की जा रही रिपोर्टिंग से हिस्टीरिया पैदा करने का दोषी ठहरा रहे हैं। विशेषज्ञ लगातार आगाह कर रहे हैं कि बोल्सनारो उन मंत्रियों और स्थानीय सरकारी अधिकारियों को दोषी ठहराने के लिए आधार तैयार कर रहे हैं जिनके लॉकडाउन की वकालत के चलते आर्थिक मंदी आने वाली है, जो कि इस महामारी के बाद वैसे भी आनी तय है।

बिजनेस इनसाइडर पत्रिका और अन्य समाचार मीडिया ने बताया है कि ब्रिटेन सरकार भी चीन से नाराज चल रही है।

जबकि इस बीच मोदी द्वारा बिना सोचे-विचारे लॉकडाउन थोपे जाने के करण प्रवासी गरीब लोगों के कष्टों में अकल्पनीय बढ़ोत्तरी हो चुकी है। साथ ही साथ हिंदुत्व की पताका फहरा रहे कार्यकर्ताओं द्वारा सोशल मीडिया में फर्जी खबरों की गदर मची है। चीन को कोसने से लेकर राज्य सरकारों पर दोषारोपण करने तक, भारत में तालाबंदी के लिए हर कोई ज़िम्मेदार है- सिवाय उस इंसान के जिसने इसकी घोषणा की और वह प्रशासन जिसके कन्धों पर इसे लागू कराने की जिम्मेदारी है। तालाबंदी से पहले दिल्ली में आयोजित एक तब्लीगी जमात के जुटान को आज इस महामारी को सांप्रदायिक रंग देने का भरपूर मसाला भी मिल गया है।

माना कि कई देश इस कोविड-19 के खिलाफ संघर्ष में लड़खड़ाये, लेकिन गौर करने की बात इन महाबलियों को लेकर है जिन्होंने इसका उपयोग अपने-अपने राजनीतिक हित-साधन में करने में कोई कोर-कसर छोड़ी हो। हाशिये में पड़े भारत और ब्राजील जैसे गरीब देशों में रहने वाले लोगों को इसकी सबसे अधिक मार पड़ने जा रही है। मजे कि बात ये है कि महामारी के बाद से जहाँ ट्रम्प की अप्रूवल रेटिंग में इजाफा देखने को मिला है, वहीँ दूसरी ओर बोल्सनारो के मामले में गिरावट नजर आ रही है।

आज सवाल यह है कि आखिर कब तक यह नौटंकी एक अनैतिक गैर-बराबरी वाले समाज को जिन्दा रख सकती है। यहीं पर ग्राम्सी याद आते हैं: संकट के बारे में उन्होंने कहा था, कि वास्तव में तथ्य इस बात में निहित है कि जहाँ एक ओर पुराना मर रहा हो और नए को पैदा नहीं किया जा सकता। इस बीच के अराजक-काल में तमाम प्रकार के रुग्ण लक्षण दिख सकते हैं।

बालू सुनीलराज सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़, नई दिल्ली में वरिष्ठ शोधार्थी हैं।

आश्ती सलमान सेंटर फ़ॉर द स्टडीज़ ऑफ़ सोशल सिस्टम, जेएनयू में पीएचडी स्कॉलर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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