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भारत
राजनीति
अगर मामला कोर्ट में है, तब क्या उसके विरोध का अधिकार खत्म हो जाता है? 
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 4 अक्टूबर को कहा कि वो यह बात तय करेगी कि विरोध का अधिकार एक पूर्ण अधिकार है या नहीं और इससे पहले का कोई पक्ष, जो पहले से ही क़ानूनी उपाय का आह्वान कर चुका है, अब भी उस मामले में विरोध कर सकता है या नहीं, जो विचाराधीन है।
पारस नाथ सिंह
07 Oct 2021
Sub Judice

सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के अनुरूप इस सवाल का परीक्षण करने को लेकर कि सुप्रीम कोर्ट के सामने हाल ही में अधनियमित कृषि क़ानूनों को चुनौती देने वाले किसान समूहों को अब भी उन क़ानूनों का विरोध करने का अधिकार है या नहीं, पारस नाथ सिंह इस लेख में शीर्ष अदालत के पिछले संवैधानिक न्यायविज्ञान की जांच-पड़ताल करते हैं ताकि यह दिखाया जा सके कि अदालत की ओर से बनाया गया यह सवाल संवैधानिक जांच-पड़ताल के लायक़ है भी या नहीं।

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 4 अक्टूबर को कहा कि वो यह बात तय करेगी कि विरोध का अधिकार एक पूर्ण अधिकार है या नहीं और इससे पहले कि कोई पक्ष, जो पहले से ही क़ानूनी उपाय का आह्वान कर चुका है, अब भी उस मामले का विरोध कर सकता है या नहीं, जो विचाराधीन है। यह सवाल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत किसान महापंचायत की ओर से दायर एक याचिका की पृष्ठभूमि में जस्टिस ए.एम.खानविलकर और सी.टी. रविकुमार की दो-न्यायाधीशों की पीठ की तरफ़ से बनाया गया है, जिसमें नये अधिनियमित कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति मांगी गयी थी।

पृष्ठभूमि

इस संगठन को दिल्ली पुलिस ने 4 जुलाई को उस फ़रमान के ज़रिये इजाज़त देने से इनकार कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि दिल्ली आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की तरफ़ से जारी किये गये आदेश/दिशानिर्देशों के चलते इजाज़त नहीं दी जा सकती है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, खेल, मनोरंजन, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, धार्मिक या त्योहार से जुड़ी सभी सभायें या भीड़ के जुटान को 12.07.2021 तक निषिद्ध किया गया था। इसके अलावा, नई दिल्ली ज़िले के इलाक़ों में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144 पहले से ही लागू थी।

किसान महापंचायत इस साल मार्च से जंतर-मंतर पर सत्याग्रह करने के लिए दिल्ली पुलिस से इजाज़त ले पाने में नाकाम रही है। संयोग से 21 जुलाई को एक अन्य किसान संगठन "सयुंक्त किसान मोर्चा" को जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने की इजाज़त दी गयी थी।

इसी सिलसिले में किसान महापंचायत ने जंतर मंतर पर अहिंसक सत्याग्रह करने को लेकर कम से कम 200 किसानों को जगह उपलब्ध कराने के लिए दिल्ली पुलिस को निर्देश देने के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था।

विरोध करने का अधिकार-एक मौलिक अधिकार

अहिंसक विरोध का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और 19(1)(b) के तहत एक मौलिक अधिकार है। 19(1)(b) तहत आने वाला अधिकार ख़ास तौर पर सभा करने का अधिकार देता है और इस तरह, इस बात की गारंटी देता है कि सभी नागरिकों को शांतिपूर्ण और बिना हथियारों के इकट्ठा होने का अधिकार है। हालांकि, अनुच्छेद 19(1)(a) और 19(1)(b), अनुच्छेद 19(2) और 19(3) में उल्लिखित प्रतिबंधों के अधीन हैं। ये प्रतिबंध भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की सुरक्षा, विदेशों के साथ दोस्ताना रिश्तों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हक़ में, या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने के सिलसिले में लागू किए जा सकते हैं।

ये भी देखें: राजनीति के अति-महत्वाकांक्षियों की दास्तान और किसानों पर कोर्ट

ग़ौरतलब है, जैसा कि पहले ही ऊपर कहा जा चुका है कि ख़ास तौर पर अनुच्छेद 19(1)(b) बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार देता है, और यह अधिकार अनुच्छेद 19(3) में उल्लिखित प्रतिबंधों से विनियमित है, जिसमें इसमें कटौती करने के आधार होने की तो बात ही छोड़ ही दें, इस अधिकार को प्रतिबंधित करने को लेकर इजाज़त लेने लायक़ किसी आधार के रूप में "अदालत की अवमानना के सिलसिले में" का उल्लेख तक नहीं है।

यहां इस बात पर ज़ोर दिये जाने की ज़रूरत है कि अनुच्छेद 19(1) (b) के तहत नागरिकों को दिये गये अधिकार को ऊपर बताये गये अनुच्छेद 19(2) और 19(3) में वर्णित आधार पर संसद से अधिनियमित क़ानून के ज़रिये विनियमित किया जा सकता है।

रामलीला मैदान घटना मामले (2012) में अपने दिये गये फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता; उन्हें छीना नहीं जा सकता या फिर उसमें कटौती भी नहीं की जा सकती। जो कुछ सरकार कर सकती है, वह यह कि अपनी विधायी शक्ति का इस्तेमाल करके इन अधिकारों पर वह उचित प्रतिबंध लगाकर उन्हें विनियमित कर सकती है। अदालत ने अधिकारों को विनियमित करने के लिए निम्नलिखित कसौटी को सामने रखा था:

  • ये प्रतिबंध सिर्फ़ क़ानूनी अधिकार से या क़ानूनी अधिकार के तहत ही लगाया जा सकता है। इसे बिना किसी क़ानूनी  समर्थन के कार्यकारी शक्ति के इस्तेमाल करके नहीं लगाया जा सकता।
  • हर एक प्रतिबंध तर्कसंगत होना चाहिए।
  • किसी भी प्रतिबंध को अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित उद्देश्य से सम्बन्धित होना चाहिए।

ऐसा किसी भी मामले में नहीं होता है कि विरोध करने का अधिकार निरपेक्ष हो। फ़ैसलों की ऐसी लम्बी फ़ेहरिस्त है, जिसमें कहा गया है कि विरोध का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में उल्लिखित उचित प्रतिबंधों के अधीन है। जैसा कि 4 अक्टूबर के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट जांच-परख कर लेना चाहता है कि जो याचिकाकर्ता पहले से ही अदालत के सामने क़ानूनी उपाय की मांग कर चुका है, वह अब भी एक ऐसे मामले के सिलसिले में विरोध कर सकता है या नहीं, जो विचाराधीन हो।

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इस तरह, बनाया गया यह मामला एक से ज़्यादा कारणों से संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत चलता हुआ सा लगता है। इस अधिकार पर कोई भी प्रतिबंध संसद की ओर से बनाये गये क़ानून के ज़रिये सामने रखा जा सकता है। लेकिन,इस तरह के अधिनियमित क़ानून संविधान के अनुच्छेद 19(2) में वर्णित उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिए। हर एक प्रतिबंध को तर्कसंगत होना चाहिए। इसके अलावा, कोई भी क़ानून याचिकाकर्ता से विरोध करने का अधिकार सिर्फ़ इसलिए नहीं ले लेता है, क्योंकि उसने पहले ही एक संसदीय क़ानून के ख़िलाफ़ क़ानूनी उपाय का आह्वान किया है।

सुप्रीम कोर्ट ने अक्सर यह माना है कि मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ प्रतिबंध निर्धारित किये गये हैं, ताकि किसी भी व्यक्ति को तब तक उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सके, जब तक कि संविधान ख़ास तौर पर इन सीमाओं को निर्धारित नहीं कर देता। (अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ में अदालत के 2020 का फ़ैसला देखें।)

शक्तियों के पृथक्करण की हमारी संवैधानिक व्यवस्था में विधायिका क़ानून बनाती है, कार्यपालिका उन क़ानूनों और नीतियों को लागू करती है, और न्यायपालिका गारंटीशुदा मौलिक अधिकारों की कसौटी पर इन क़ानूनों और कार्यकारी कार्रवाई की परीक्षण करती है। हिम्मत लाल के.शाह बनाम पुलिस कमिश्नर (1972) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य सिर्फ़ हर एक नागरिक की सभा के अधिकार के सहयोग में नियम बना सकता है, और सिर्फ़ सार्वजनिक व्यवस्था के हित में ही तर्कसंगत प्रतिबंध लगा सकता है।

इसी बात को सुप्रीम कोर्ट ने मज़दूर किसान शक्ति संगठन बनाम भारत संघ (2018) मामले में भी दोहराया था, जिसमें अदालत ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकार के रूप में विरोध करने के अधिकार को बरक़रार रखा है, और यह माना है कि राज्य को नागरिकों की सभा करने के अधिकार में सहयोग करना चाहिए।

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हालांकि,किसान महापंचायत के मामले में अदालत ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें दिल्ली पुलिस की ओर से विरोध प्रदर्शन की अनुमति देने से इनकार करने के आदेश की वैधता की जांच करने के बजाय, इसने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि याचिकाकर्ता विरोध को जारी रख सकता है या नहीं, जबकि वे पहले ही उसी मुद्दे पर अदालत का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं। ऐसा लगता है कि अदालत एक ऐसा प्रतिबंध लगा रहा है, जिस पर संविधान विचार तक नहीं करता है।

इस साल की शुरुआत में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कृषि क़ानूनों की वैधता को चुनौती देने वाली सुनवाई के दौरान सवाल के घेरे में आये इस विरोध को लेकर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। कहा था कि विरोध करने का अधिकार एक मौलिक अधिकार का हिस्सा है और सही मायने में इसका इस्तेमाल सार्वजनिक व्यवस्था के तहत किया जा सकता है, और यह भी कि निश्चित रूप से ऐसे अधिकारों के इस्तेमाल में तब तक कोई बाधा नहीं हो सकती, जब तक कि यह अहिंसक बना रहता है।

शाहीन बाग़ विरोध मामले में भी जस्टिस एस कौल की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने यह माना था कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को न्यायालय के सामने एक संवैधानिक चुनौती दी गयी है, इसके बावजूद उन लोगों से विरोध करने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता है, जिन्हें लगता है कि वे क़ानून से पीड़ित हैं।

क़ानूनी वैधता बनाम क़ानूनी वांछनीयता

सीनियर वकील मोहन कटारकी न्यायिक वैधता और क़ानूनी वांछनीयता के बीच एक न्यायिक भेद करते हैं। कटारकी कहते हैं, "क़ानून की वैधता या संवैधानिकता की जांच सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट की ओर से की जाती है। हालांकि, क़ानून की वांछनीयता या ज़रूरत एक अलग नीतिगत मामला है। क़ानून बनाने या न बनाने का फ़ैसला संसद को करना होता है। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट में लंबित चुनौतियों के बावजूद या संवैधानिकता को बरक़रार रखे जाने के बाद भी तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की मांग करते हुए शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध करने का किसानों का मौलिक अधिकार अप्रभावित रहता है।”

सुप्रीम कोर्ट को सीमित मापदंडों पर क़ानून की वैधता को तय करने की शक्ति दी गयी है और ये सीमित मापदंड हैं: कि यह क़ानून एक सक्षम विधायिका से अधिनियमित है या नहीं, और यह किसी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है या नहीं। यह क़ानून की वांछनीयता में नहीं जा सकता। दूसरी ओर, कोई भी नागरिक इन कृषि क़ानूनों की वैधता या संवैधानिकता को चुनौती देने के अलावा तब भी इस क़ानून की वांछनीयता या बहुत ज़रूरी होने पर भी सवाल उठा सकता है और संसद से उन्हें निरस्त किये जाने की मांग कर सकता है, जो कि एक नीतिगत मामला है।

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किसान एक ऐसे संसदीय क़ानून का विरोध कर रहे हैं, जिसे उनके मुताबिक़ संसद से निरस्त किया जाना चाहिए। दोनों ही नज़रियों के बीच कोई विरोध नहीं दिखता है।

याचिकाकर्ता को अदालत के सामने विरोध प्रदर्शन करना चाहिए या नहीं, यह मुद्दा दरअसल याचिकाकर्ता के लिए आत्म-संयम का मुद्दा है, क़ानूनी परीक्षण का नहीं, क्योंकि संविधान कहीं भी मामले के विचाराधीन होने के आधार पर इकट्ठा होने या विरोध करने के अधिकार के इस्तेमाल में हस्तक्षेप नहीं करता है।

(पारस नाथ सिंह दिल्ली स्थित एक वकील हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

साभार: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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