अफ़ग़ान औरतें
अफ़ग़ानिस्तान की औरतें
अपने जगे एहसास को
पत्थर नहीं बना सकतीं
अपने होने को फिर से नगण्य
नहीं बना सकतीं
बाहरी दुनिया से ग़ायब होना
मंज़ूर नहीं
तालीम के चमकते आफ़ताब के नीचे
खुली हवा में
आज़ाद परिन्दे की उड़ान
अपने लिए शब्दों की शालीनता
उन्हें चाहिए ही
उसे फिर से खोना नहीं
जिसके लिए लम्बे से भी लम्बा
इंतज़ार किया था
अनवरत जद्दोजहद की
दशकों की आज़ादी
उसे छीन लेने की साज़िशाना
जंग भरी चालें
चलती रहीं
जब हासिल आज़ादी का
सुकून-बख़्श साया
कुछ हद तक
छाने लगा था
उनके आकाश में
वे ज़हरीली स्त्री विरोधी ताकतें
हर सिम्त कालिख भरने लगीं
हमारी भावनाओं की
बेरहमी से चीरफाड़
घर की अँधेरी गुफा सी
जहालत की सीलन भरी क़ैद
हां, घोषणाएं बेहतरी की करते
मंसूबे ख़ूनी, कट्टर मज़हबी
निश्चय ही तलछट से सतह पर
भुखमरी की यन्त्रणा
असंख्य घाव लिए
औरतें बाहर आ रही हैं
आतंक के साये से बेख़ौफ़
हथियार-बंद सिपाहियों के सामने
बख़्तर-बंद गाड़ियों के आगे
आवाज़ का उजाला फैलातीं
उनके निर्भीक नन्हे दिलों में
तेजी से धड़कता
दुस्साहस
मिट जाने का ख़ौफ़ नहीं
अवाक, बन्दूकों से डराने के
निशाने भी चूक गए
पुरज़ोर आवाज़ें
जायज़ मांगों की गूंज से
लगा बारूद गीले हुए
तबाही का बर्बर विध्वंसक समय
ठहरा सा
एक रूपक सा उभरता
डर के ठहरे जल में भी
हलचल मचातीं
वे आज़ाद पक्षियों सी
निर्दन्द तैर रहीं
एलान कर रहीं
जंग हमेशा ही हमारी धरती को
बंजर कर देती है
इसलिए भी प्रतिरोध का संघर्ष
दिलों की सियासत की बानगी
अवाम ख़ुद बनाएगी
मुल्क की तस्वीर हम भी तराशेंगी
ज़ुल्म की इंतहा में भी
ख़्वाब मरते नहीं
अमन का कंटीला रास्ता
बसंत के आज़ाद
दरवाज़े खोल देता है।
- शोभा सिंह