ग़ज़ल
एक को ग्यारह बताए कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
कोई भी कुछ भी पढ़ाये कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
आग तो बस आग है उसका नतीजा राख है
मैं लगाऊँ तू लगाए कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
सच के पर्वत का पिघल जाना क़यामत ही तो है
अब क़यामत आ भी जाये कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
भक्त है ये इसकी चाबी भर गई तो भर गई
अब वो चाबी खो भी जाये कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
नाचने की ऐसी आदत पड़ गई है, अब कोई
उँगलियों पर भी नचाये कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
कान में हेडफ़ोन की ठेंटी लगा ली है "नदीम"
कोई रोये कोई गाये कुछ नहीं पड़ता है फ़र्क़
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