NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
झुग्गी निवासी विजेता राजभर से पूछिए 48,000 झुग्गियों को हटाने के फ़ैसले का उनके लिए क्या मतलब है!
सुप्रीम कोर्ट ने 3 महीने में रेलवे ट्रैक के किनारे से 48 हजार झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश दिया है। जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने हाल के फैसले में कहा है कि अतिक्रमण हटाने से रोकने के लिए किसी भी तरह से देश का कोई भी कोर्ट अगर आदेश पारित करता है, तो वह आदेश प्रभावी नहीं होगा।
अजय कुमार
07 Sep 2020
झुग्गी निवासी विजेता राजभर से पूछिए 48,000 झुग्गियों को हटाने के फ़ैसले का उनके लिए क्या मतलब है!

"सरकारी स्कूल के टीचर जब यह जान जाते हैं कि यह बच्चे झुग्गियों से आते हैं तो वह हम पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। उन्हें लगता है कि यह सब्जी वाले, फर्नीचर बनाने वाले, लोहा लक्कड़ बेचने वालों के बच्चे हैं, ये आगे जाकर कुछ नहीं कर पाएंगे, इन पर क्या ध्यान देना?"

मनुष्यता की सबसे क्रूर खामियों की तरफ इशारा करने वाले ये शब्द दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाली दिल्ली यूनिवर्सिटी कि एक पीएचडी स्टूडेंट विजेता राजभर के हैं। यह बातचीत 5 सितंबर की है। यह बात सुनते ही सोशल मीडिया पर शिक्षकों की बड़ाई में किया जा रहा है गुणगान एक तरह का छलावा लगने लगा।

शिक्षाविद कृष्ण कुमार की वह बात याद आई कि मास्टर होना आसान काम नहीं है। मास्टर होने के लिए बच्चे की उस परिवेश को भी अपनाना पड़ता है, जिस परिवेश में बच्चा अपनी जिंदगी गुजारता है। अफसोस गरीब हिंदुस्तान के अधिकतर मास्टर यह काम नहीं कर पाते और बच्चे बेचारे शिक्षकों से और शिक्षा से दूर चले जाते हैं।

बहरहाल यह विषयांतर है लेकिन मेरे द्वारा विजेता राजभर को संदर्भ बनाकर लिखी जा रही इस खबर के लिए जरूरी बात है। शिक्षक दिवस के दिन फेसबुक की गलियों में 3 महीने के अंदर दिल्ली के रेलवे ट्रैक के अगल-बगल से 48000 झुग्गियों के हटा देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से प्रभावित होने वाली एक पीएचडी स्टूडेंट विजेता राजभर की पोस्ट वायरल हो रही थी। विजेता राजभर की बात को महसूस कीजिए-

" जिस किसी ने भी गरीबी में संघर्ष किया होगा, उसने जरूर महसूस किया होगा कि गरीबी की वजह से कितना कुछ गवा देना पड़ता है। कुछ दिनों में आपका पीएचडी एंट्रेंस का एग्जाम है और आप पूरे मन से उसकी तैयारी में जुटे हुए हैं। तभी खबर आती हैं कि माननीय न्यायालय के आदेश पर दिल्ली की 48,000 झुग्गियों को तोड़ा जाएगा वो भी तीन महीने के अंदर किसी भी कीमत पर। अगर आप का जन्म इन झुग्गियों में हुआ होता तो शायद इस खबर के बाद मेरी मन: स्थिति को आप समझ पाते बचपन से लेकर आज तक पढ़ाई के लिए कभी भी एक अलग कमरा नहीं रहा, मैंने बहुत सारे शोर में ही पढ़ाई की है आज तक। लेकिन इस खबर के बाद एक अलग ही तरीके का शोर मचा हुआ है।

पूरे दिमाग में और कई सारे सवाल उठ रहे है जैसे ...जज साहब को 48 हजार सिर्फ एक आंकड़ा ही लगा होगा? इन 48 हज़ार में कितनी जिन्दगियां बसती है कुछ अंदाजा होगा उन्हें? कैसे समझाया जा सकता है कि यहां बसने वाले लोग सबसे कम संसाधनों में अपना गुजर बसर करते हैं। ऐसे में जब गले तक प्रिवलेज में डूबे लोग सबसे बड़े लोकतंत्र की दुहाई इन शोषित लोगों को देते हैं, तो उनके पास आपको बददुआएं देने के अलावा कुछ नहीं होता क्यूंकि उन्हें पता है कि इस लोकतंत्र की चमक दमक की कीमत किस के खून और मेहनत से चुकाई जा रही हैं।"

IMG-20200907-WA0014.jpg

सोशल मीडिया की कई सारे खामियों के बावजूद उसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसके केंद्र में अभिव्यक्तियां बसती है। शायद इसी का फायदा है कि चमक दमक, हीरो हीरोइन, क्रिकेटर, राजनेता, एलीट और ब्रांडेड लोगों की अभिव्यक्तियों से सजने वाले इस खोखले लोकतंत्र में ऐसी सशक्त अभिव्यक्तियां सामने आती हैं और मानस को झकझोर देती हैं।

अब थोड़ा न्याय की बात करते हैं। खुद को उस जज की जगह पर रख कर सोचिए जिन्होंने 31 अगस्त को यह आदेश दिया है कि दिल्ली रेलवे के 140 किलोमीटर के इर्द-गिर्द बसी 48000 झुग्गियों को हटा दिया जाए। अगर आप न्यायाधीश हैं खुद को निरपेक्ष रख आप इस मामले से जुड़े सभी पक्ष को जरूर सुनेंगे। जो पक्ष रेलवे ट्रैक के इर्द-गिर्द बसने वाले लोगों का है उस पक्ष की प्रतिनिधि के रूप में विजेता राजभर की बात को रखिए।

इसके बाद दूसरा पक्ष एनवायरनमेंट पोलूशन कंट्रोल अथॉरिटी का भी सुनिए। जिनकी शिकायत के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्रा ने यह फैसला लिया। शिकायत यह थी कि रेलवे, रेलवे ट्रैक के इर्द-गिर्द सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के नियम पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहा है। रेलवे का पक्ष है कि रेलवे ने 2 साल पहले ट्रक के इर्द-गिर्द होने वाले एंक्रोचमेंट को हटाने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स बनाई थी। लेकिन राजनीतिक दखलंदाजी के चलते यह स्पेशल टास्क फोर्स काम नहीं कर पाई। इन सब पक्षों को सुनने के बाद सवाल यही है कि पूरी तरह से निरपेक्ष होने के बाद एक जज के तौर पर आप क्या फैसला लेंगे?

कोई कह सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण को बचाने के लिए थोड़ा कड़ा लेकिन अच्छा फैसला लिया है। अगर झुग्गियों को हटाने का फैसला नहीं लिया जाता तब आगे जाकर बहुत अधिक परेशानी आती। न्याय की समझ पूरी तरह से गलत है। वजह यह कि इसमें झुग्गियों के पक्ष को पूरी तरह से नकारकर छोड़ दिया जा रहा है।

क्योंकि सीधी सी बात है कि झुग्गियां एक दिन में तो बनी नहीं होंगी। विजेता राजभर खुद यह बता रही हैं कि उनका परिवार साल 1985 के आस पास आया। झुग्गियां शहरीकरण की देन है। उद्योग धंधे यहीं पर थे। लोग गांव से यहां काम करने आए। मजदूरी कम थी रहने के लिए जगह नहीं थी और लोग यहां बसते चले गए। कोई अगर 30, 40 साल से एक जगह पर बस रहा है। तो यह अचानक कोई घटना नहीं है। इस लंबे समय में एक पीढ़ी गुजर जाती है। एक पीढ़ी का वर्तमान और भविष्य तय हो जाता है।

इस तरह से सरकार की गलत योजनाओं की देन है कि रेलवे ट्रैक के इर्द-गिर्द एक ऐसा समुदाय बस जाता है जिसे अचानक वहां से बाहर करना उसके साथ अन्याय करने जैसा है। अगर सरकार को बाहर ही करना है पर्यावरण को खतरा ही है तो इसका सबसे पहला कदम यह बनता है कि यहां पर लंबे समय से स्थाई तौर पर रह रहे लोगों के लिए पुनर्वास की योजना बनाई जाती। अगर सरकार यह करती उसके बाद न्यायालय तक जाने का कोई तुक भी नहीं बनता और लोग झुग्गियां छोड़ कर चले जाते हैं। आप ही बताइए की झुग्गियों में आखिरकर कौन अपनी जिंदगी गुजारना चाहता है।

चूंकि विजेता राजभर खुद हिंदी साहित्य की विद्यार्थी हैं तो उनसे समझने की कोशिश किया कि आखिर कर झुग्गियों का माहौल कैसा होता है?

विजेता कहती हैं कि झुग्गियों में कोई रहना नहीं चाहता सब मजबूरी में रहते हैं। शहरीकरण और कम मजदूरी की वजह से झुग्गियां दिन और रात काटने का एक ठीक-ठाक सहारा बन जाते हैं। लेकिन तकलीफ का समंदर चलता रहता है। पानी के लिए लंबी-लंबी लाइने लगाने से लेकर शौच के लिए लंबी-लंबी लाइने लगाने तक की लड़ाईयों से हर दिन जूझना पड़ता है।

अगर कोई पढ़ाई कर रहा है तो उसे शोरगुल के बीच में खुद के लिए ऐसी आदत विकसित करनी पड़ती है कि वह पन्नों में लिखे शब्दों और कलम की स्याही के साथ अपनी पढ़ाई कर पाए। झुग्गियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं और अक्सर हां गणित अंग्रेजी और विज्ञान में फेल हो जाते हैं। तो कईयों की जिंदगी में पढ़ाई के मायने क्लास 9वीं में ही खत्म हो जाता है। जो पढ़ने में ठीक होता है यानी जिस के अंक अच्छे होते हैं वही आगे बढ़ पाता है। जो अंक के लिहाज से हारता है वह जिंदगी भर के लिए पढ़ाई से दूर हो जाता है।

ज्यादातर लड़के पास के ही फर्नीचर बाजार और लोहा मंडी में काम में लग जाते हैं और ज्यादातर लड़कियां नजदीक की फैक्ट्रियों और होटलों में काम करने लगती हैं। बहुतों का भविष्य का यही होता है। रेलवे ट्रैक के आसपास झुग्गियों में रहना तो और ज्यादा मुश्किल है। रेल से दुर्घटना का खतरा हमेशा बना रहता है। सब इस गरीब पृष्ठभूमि से निकलकर जिंदगी में आगे बढ़ते हैं इसलिए सबके मन में गरीबों को लेकर एक सहानुभूति रहती है। लेकिन जिंदगी हमें इतना कुछ नहीं देती कि हम अपने मन के भीतर जमे अन्याय से लड़ने के लिए खुद को पूरी तरह से झोंक दें।

फिर भी हम लड़ते हैं और चाहते हैं कि दूसरे भी हमारा साथ दें। आपको अपनी जिंदगी की एक बात बताती हूं। मैंने बहुत लंबे समय तक अपने दोस्तों को यह नहीं बताया कि मेरा घर झुग्गियों में है। जब बताया तो कईयों ने मेरे साथ दोस्ती छोड़ दी। कई मेरे पास आने से पहले ही मेरी पृष्ठभूमि जानकर दूर चले गए। गरीबी की वजह से हम लोग बहुत कुछ गंवाते है। हमें जिंदगी की गाड़ी के कैसे कंपार्टमेंट में डाल दिया जाता है जहां के यात्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है।

इन सब के बाद जस्टिस अरुण मिश्रा का फैसला पढ़िए और सोचिए कि क्या न्याय हुआ है? क्या अगर दूसरा पक्ष गरीब लोगों की बजाए अमीर और रसूखदार लोगों का होता तो क्या जस्टिस अरुण मिश्रा यही कहते कि झुग्गियों को वहां से हटाने में राजनीतिक या किसी भी दूसरे तरह की दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। झुग्गियों को 3 महीने के भीतर वहां से हटा दिया जाए। सवाल बहुत हैं लेकिन जवाब नहीं।

Supreme Court
Supreme court verdict on Delhi slum
Delhi slum
Vijaita Rajbhar
48000 slum Demolition
Justice Arun mishra last verdict
life of a slum

Related Stories

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल

मायके और ससुराल दोनों घरों में महिलाओं को रहने का पूरा अधिकार

जब "आतंक" पर क्लीनचिट, तो उमर खालिद जेल में क्यों ?

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी तो सुलझ गई लेकिन अब दोषियों पर कार्रवाई कब होगी?

मलियाना कांडः 72 मौतें, क्रूर व्यवस्था से न्याय की आस हारते 35 साल

क्या ज्ञानवापी के बाद ख़त्म हो जाएगा मंदिर-मस्जिद का विवाद?


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License