NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
प्रवासियों के अधिकारों के मामले में मोदी सरकार का रवैया चयनात्मक और भेदभावपूर्ण!
गल्फ देशों में काम कर रहे 85 लाख भारतीय श्रमिकों की समस्याओं के प्रति 5 साल की उदासीनता के बाद मोदी सरकार ने एक मसौदा प्रवासी अधिनियम (ड्राफ्ट एमिग्रेशन बिल 2019) जनवरी 2019 में पेश किया लेकिन आश्चर्य की बात है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में संसद के तीन सत्र बीत जाने के बाद भी अधिनियम पेश नहीं किया गया।
बी सिवरामन
27 Jan 2020
migrants
प्रतीकात्मक तस्वीर

मोदी सरकार द्वारा लाए सीएए-एनआरसी-एनपीआर के चर्चा में आने के बाद से ही प्रवासियों के हकों का मुद्दा फोकस में आ गया है। आम धारणा है कि मोदी-शाह की जोड़ी बंगलादेश और पाकिस्तान के लाखों प्रवासी मुसल्मानों को सीएए के माध्यम से राज्यविहीन बनाना चाहती है, जबकि वह इन देशों में रहने वाले हिन्दुओं के लिए चयनात्मक ढंग से घडियाली आंसू बहाने का काम कर रही है।

वह ऐसा अपने तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों की वजह से कर रही है, मस्लन भारतीयों का ध्यान आर्थिक मंदी का संकट, बेरोज़गारी, खाद्य मुद्रास्फीति जैसे ज्वलंत मुद्दों से भटकाने के लिए। दूसरी ओर उसका दीर्घकालीन मक्सद है हिन्दू वोट बैंक को मजबूत करने के लिए साम्प्रदायिक धु्रवीकरण। सबसे बुरा तो यह है कि अपने देश से नागरिकों का काम की तलाश में दूसरे देशों की ओर प्रवास करने के मामले में वह पूरी तरह उदासीन हैं।

सितम्बर 2109 में यूएन का एक अध्ययन आया, जिसके अनुसार 1 करोड़ 75 लाख भारतीय देश के बाहर काम कर रहे हैं। इनकी दो श्रेणियां हैं, 85 लाख भारतीय गल्फ देशों में कार्यरत हैं बाकी का बड़ा हिस्सा यूएस और यूरोप के अन्य देशों में काम करते हैं। ये खासकर एनआरआई प्रोफेश्नल हैं, जैसे आई टी वर्कर, वैज्ञानिक और डाॅक्टर। गल्फ देशों में काम कर रहे 85 लाख भारतीय श्रमिकों को सउदी अरब और कुवैत द्वारा लाखों की तादाद में थोक-देशान्तरण जैसी समस्या, इराक, सिरिया और यमन जैसे युद्ध से ध्वस्त देशों में काम करने की समस्या, लेबर कैंपों में बंधुआ जैसी अमानवीय स्थिति में रहकर काम करना, पगार मिलने में विलंब या वेतन न मिलने की समस्या, जायज श्रम अधिकारों से वंचित रहना, अति दीर्घ काम के घंटे, मेडिकल और बीमे की सुविधा से वंचित रहना, और कामगारिन महिलाओं के साथ बर्बर किस्म का व्यवहार, या काम कराने के नाम पर देह व्यापार आदि से जूझना पड़ता है।

पेशेवर एनआरआई अमेरिका में एच 1 बी वीज़ा पर रोक और यूके में रंगभेद जैसे सवालों को झेलते हैं। इन समस्याओं के प्रति 5 साल की उदासीनता के बाद मोदी सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक मसौदा प्रवासी अधिनियम (ड्राफ्ट एमिग्रेशन बिल 2019) को जनवरी 2019 में पेश किया, जब सरकार के सत्र का अन्त हो रहा था। इसे 1983 के प्रवासी कानून के स्थान पर लाया जा रहा है। आज इसका खासा महत्व इसलिए है कि प्रवास का सवाल पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गया है और उसका स्वरूप भी काफी बदला है। फिर इस अधिनियम ने ऊपर लिखित दोनों श्रेणियों के प्रवासियों के सवालों पर ठोस बात नहीं की और चुनाव के कारण यह कानून का रूप भी न ले सका।

मोदी दोबारा सत्ता में आए, तो उनकी सरकार को पुनः अधिनियम को संसद में पेश कर संसदीय समितियों के माध्यम से उस पर विपक्ष के साथ बहस चलानी चाहिये थी। उसे कानून का रूप देकर  भारतीय प्रवासियों के अधिकारों को कानूनी रूप देना चाहिये था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में संसद के तीन सत्र बीत जाने के बाद भी अधिनियम पेश नहीं किया गया।

पहले के मौजूद मसौदा प्रवासी अधिनियम में आखिर क्या कुछ था? यूपीए सरकार के समय ओवरसीज़ इंडियन अफेयर्स के लिए एक अलग मंत्रालय होता था पर मोदी ने 2016 में विदेश मंत्रालय के साथ उसका विलय कर दिया। इस तरह डायास्पोरा को फोकस में रखने के लिए बने एक विशिष्ट व स्वतंत्र मंत्रालय को समाप्त कर दिया गया। 2019 के मसौदा अधिनियम में प्रस्ताव है कि श्रम करने वालों की समस्याओं को देखने के लिए विदेश मंत्रालय के अंतरगत एक 3-टीयर नौकरशाही व्यवस्था हो।

ये नौकरशाही ढांचा क्या करेगा? महत्वपूर्ण मुद्दों को देखें तो अधिनियम के तहत केवल भारतीय श्रमिकों को बाहर भेजने वाली रोज़गार एजेन्सियों को नियंत्रित करना उसका एकमात्र काम होगा, जिसके लिए कुछ खास उपाय सुझाए गए हैं। धोखाधड़ी और कुछ अन्य अनियमिततायों के लिए कठोर सज़ा का प्रावधान भी रखा गया है। लेकिन प्रवासी भारतीय अन्य कई समसयाएं झेलते है जिनपर ये बिल चुप है।

भले ही इस कानून में समस्त समस्याओं का समाधान नहीं मिल सकता, पर कुछ मामलों में कानूनी अधिकार एकदम अनिवार्य है। उदाहरण के लिए 2013 में सउदी अरब में प्रवासी श्रमिकों के लिए एक अलग कानून बना, जिसे ‘निताक़त’ कहते हैं, और इसके तहत लाखों भारतीय कर्मचारियों को ‘अवैध’ करार दिया गया, तथा जबरन वापस भेज दिया गया। क्योंकि सउदी के इन 28 लाख भारतीय श्रमिकों में से करीब 10 लाख केरल के थे, राज्य को वापस लौटे श्रमिकों के पुनर्वास की समस्या को सुलझाना पड़ा; क्योंकि केंद्र सरकार ने पूरी तरह से इसपर आंख मूंद लिया। इसके बाद पुनः 2015 में कुवैत में कुछ नए कानून बनाए गए, जिसके तहत लाखों भारतीय श्रमिकों को ‘अवैध’ घोषित कर दिया गया। फिर से केरल को परेशानी झेलनी पड़ी।

इसी तरह कुवैत के विरुद्ध सद्दाम हुसैन के युद्ध ने कुवैत से 1 लाख और इराक़ से 20,000 श्रमिकों को केरल वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था। जब सउदी अरब ने यमन पर युद्ध छेड़ा फिर केरल की हज़ारों नर्सों को अपना सारा सामन छोड़कर यमन से लौटना पड़ा था।

‘निताकत’ जैसे कानून या कुवैत के प्रवासी कानूनों में परिवर्तन या फिर 2008-09 के वैशविक वित्तीय संकट अथवा तेल के दामों में भारी गिरावट की वजह से गल्फ से कई-कई दौर प्रवासियों की वापसी का सिलसिला चलता रहा है। केंद्रीय स्तर पर कोई भी ऐसी योजनाएं नहीं हैं जिनके तहत ऐसे श्रमिकों के पुनर्वास का कानूनी अनुबंध हो, जिससे कि उन्हें जीवनयापन के वैकल्पिक साधनों की व्यवस्था करने हेतु सस्ते दर पर कर्ज उपलब्ध हो सके।

भारत सरकार का अधिकतर गल्फ देशों के साथ मेमोरैंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) है, लेकिन इनके द्वारा प्रवासी भारतीय श्रमिकों की समस्याओं का कोई निदान नहीं हुआ, वैसे भी एमओयू संधि नहीं हैं इसलिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं होते। भारत सरकार ने इन देशों में दूतावासों को निर्देशित किया कि वे ‘ओवरसीज़ वर्कर्स वेलफेयर सेल्स’ का निर्माण करें पर इन सेल्स की कोई खास भूमिका नहीं है। वे इसलिए भी निश्प्रभावी साबित होते हैं क्योंकि भारत सरकार का उतना कूटनीतिक दबदबा नहीं है।

मस्लन, जुलाई 2016 में सउदी ओजेर जो एक निर्माण-कार्य समूह है, ने हज़ारों भारतीय श्रमिकों को ‘ले-ऑफ’ कर उन्हें भोजन तक देना बंद कर दिया। वे भुखमरी झेल रहे थे और इतने विपन्न हो गए थे कि घर लौटना तक मुश्किल हो गया था। भारतीय दूतावास उनकी मदद नहीं कर पाया और विदेश राज्य मंत्री को स्वयं भागकर उन्हें वापस लाने के लिए सउदी सरकार से अनुमति लेनी पड़ी क्योंकि वहां से भारतीय श्रमिकों को देश वापस आने से पहले सउदी सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। अन्य भारतीय कर्मियों को उन्हें पैसे देने पड़े ताकि वे टिकट खरीद सकें!

सउदी अरब और अन्य गल्फ देशों में ऐसे बहुत से मामले हैं, जिनमें प्रवासी भारतीयों को विलम्ब से वेतन दिया जाता है और कभी-कभी तो दिया ही नहीं जाता। लेबर कैंपों में बंधुआ मज़दूरों की भांति रखा जाता है और शोषण का शिकार बनाया जाता है। कइयों को तो शारीरिक तौर पर प्रताड़ित किया जाता है। मनमाने ढंग से श्रमिकों को निकाला जाना व्यापक है। व्यक्तिगत तौर पर इन देशों के न्यायालयों में अपने केस लड़कर न्याय पाना इन श्रमिकों के लिए अर्थिक रूप से संभव नहीं होता, क्योंकि सालों तक बिना नौकरी के वहां रहकर कानूनी लड़ाई लड़ पाना मुमकिन नहीं है।

दूतावासों के लेबर वेल्फेयर सेल केवल उन्हीं मामलों को उठाते हैं जो मीडिया में चर्चित हैं। इसलिए प्रवासियों के हित में बने कानून से न्यूनतम अपेक्षा है कि वह श्रमिकों के सशक्तिकरण हेतु इन श्रमिकों के मामलों को उठाना दूतावासों के लिए अनिवार्य बना दे, साथ ही यह तय हो कि भारत सरकार उन्हें मुआवज़ा देगी। ट्रेड यूनियनों को चाहिये कि वे मोदी सरकार को बाध्य करें कि वह एमिग्रेशन बिल का बेहतर स्वरूप तैयार कर जल्द से जल्द उसे पारित करे।

migrants
GULF Countries
Indian workers
Draft Immigration Bill 2019
modi sarkar
Narendra modi
BJP

Related Stories

किसानों और सत्ता-प्रतिष्ठान के बीच जंग जारी है

तमिलनाडु: छोटे बागानों के श्रमिकों को न्यूनतम मज़दूरी और कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रखा जा रहा है

ज़रूरी है दलित आदिवासी मज़दूरों के हालात पर भी ग़ौर करना

मई दिवस: मज़दूर—किसान एकता का संदेश

ब्लैक राइस की खेती से तबाह चंदौली के किसानों के ज़ख़्म पर बार-बार क्यों नमक छिड़क रहे मोदी?

आख़िर किसानों की जायज़ मांगों के आगे झुकी शिवराज सरकार

किसान-आंदोलन के पुनर्जीवन की तैयारियां तेज़

ग्राउंड रिपोर्टः डीज़ल-पेट्रोल की महंगी डोज से मुश्किल में पूर्वांचल के किसानों की ज़िंदगी

सार्वजनिक संपदा को बचाने के लिए पूर्वांचल में दूसरे दिन भी सड़क पर उतरे श्रमिक और बैंक-बीमा कर्मचारी

झारखंड: केंद्र सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों और निजीकरण के ख़िलाफ़ मज़दूर-कर्मचारी सड़कों पर उतरे!


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ः 60 दिनों से हड़ताल कर रहे 15 हज़ार मनरेगा कर्मी इस्तीफ़ा देने को तैयार
    03 Jun 2022
    मनरेगा महासंघ के बैनर तले क़रीब 15 हज़ार मनरेगा कर्मी पिछले 60 दिनों से हड़ताल कर रहे हैं फिर भी सरकार उनकी मांग को सुन नहीं रही है।
  • ऋचा चिंतन
    वृद्धावस्था पेंशन: राशि में ठहराव की स्थिति एवं लैंगिक आधार पर भेद
    03 Jun 2022
    2007 से केंद्र सरकार की ओर से बुजुर्गों को प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 7 रूपये से लेकर 16 रूपये दिए जा रहे हैं।
  • भाषा
    मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चंपावत उपचुनाव में दर्ज की रिकार्ड जीत
    03 Jun 2022
    चंपावत जिला निर्वाचन कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री को 13 चक्रों में हुई मतगणना में कुल 57,268 मत मिले और उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाल़ कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो…
  • अखिलेश अखिल
    मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 
    03 Jun 2022
    बिहार सरकार की ओर से जाति आधारित जनगणना के एलान के बाद अब भाजपा भले बैकफुट पर दिख रही हो, लेकिन नीतीश का ये एलान उसकी कमंडल राजनीति पर लगाम का डर भी दर्शा रही है।
  • लाल बहादुर सिंह
    गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया
    03 Jun 2022
    मोदी सरकार पिछले 8 साल से भारतीय राज और समाज में जिन बड़े और ख़तरनाक बदलावों के रास्ते पर चल रही है, उसके आईने में ही NEP-2020 की बड़ी बड़ी घोषणाओं के पीछे छुपे सच को decode किया जाना चाहिए।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License