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प्रधानमंत्री की 'परीक्षा पर चर्चा' से उन बच्चों की परेशानियों का कोई जिक्र नहीं जो चाय बेचकर परीक्षा देते हैं!
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'परीक्षा पर चर्चा' को सुनकर अगर कोई बहुत प्रभावित हो रहा हो और बातें बहुत शानदार लग रही हों तो इसका मतलब है कि उन्हें भारत की कड़वी और क्रूर हकीकत से काट दिया गया है। वह एक तरह के छलावे में जी रहे हैं।
अजय कुमार
08 Apr 2021
प्रधानमंत्री की 'परीक्षा पर चर्चा' से उन बच्चों की परेशानियों का कोई जिक्र नहीं जो चाय बेचकर परीक्षा देते हैं!

चाय की दुकान पर काम करने वाले रमुआ की मजबूरियों को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री की 'परीक्षा पर चर्चा' सुनेंगे तो आपको लगेगा कि भारत को उसके क्रूर हकीकतों से काटकर किसी छलावे में ले जाने वाले विज्ञापन का प्रचार किया जा रहा है।

बिहार में कुछ दिन पहले ही दसवीं की बोर्ड परीक्षा का रिजल्ट निकला है। मेरे गांव के किसी भी विद्यार्थी को 50 फ़ीसदी से अधिक अंक नहीं आए हैं। ऐसा नहीं कि वह पढ़ने में बहुत काबिल थे और उन्हें अंक कम आए। बल्कि हकीकत यह है कि पढ़ने के समय जिंदगी की मजबूरियों की वजह से उन्होंने दूसरों के खेतों में मजदूरी की, कहीं पर घर बन रहा था तो वहां ईंटा ढ़ोने का काम किया। सरकारी स्कूल में पढ़ने गए तो पढ़ाई के नाम पर एक इमारत और कुछ अजीबोगरीब मास्टरों से उनकी मुलाकात हुई, जिन्हें पढ़ाने के सिवाय दुनिया के सारे काम आते थे।

इसलिए मेरे गांव के विद्यार्थियों ने कभी नहीं जाना कि पढ़ाई का मतलब क्या होता है। भारत में 10 हजार से कम की आमदनी पर अस्सी फ़ीसदी से अधिक लोग जीते हैं। इसलिए मान कर चलिए कि महंगी हुई इस पढ़ाई लिखाई के जमाने में बहुत सारे बच्चों की पढ़ाई और परीक्षा का हाल मेरे गांव के विद्यार्थियों जैसा ही होगा। 

इसे अपने दिमाग के एक कोने में रख कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'परीक्षा पर चर्चा' सुनिए। अगर आप भीतर से ईमानदार हैं तो आपको 'परीक्षा पे चर्चा' की बातें सुनकर बहुत अधिक गुस्सा आएगा।

फिर भी अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'परीक्षा पर चर्चा' को सुनकर अगर कोई बहुत प्रभावित हो रहा हो और बातें बहुत शानदार लग रही हों तो इसका मतलब है कि उन्हें भारत की कड़वी और क्रूर हकीकत से काट दिया गया है। वह एक तरह के छलावे में जी रहे हैं।

भारत का प्रधानमंत्री लोगों के बीच अपनी प्रभावशाली स्थिति को देखते हुए परीक्षा जैसे विषय पर भारत के बच्चों से संवाद करें यह एक बहुत ही अच्छी पहल है। इसमें कोई दिक्कत नहीं है।

असली सवाल यह है कि प्रधानमंत्री होने के नाते वह बोल क्या रहे हैं? बच्चों से संवाद करते समय प्रधानमंत्री का कंटेंट क्या है?

प्रधानमंत्री का पद भारत की कार्यपालिका का सबसे ऊंचा पद होता है। उसे केवल बोलने का ही नहीं बल्कि बहुत काम करने का भी अधिकार मिला होता है। 

यानी वह सामान्य मोटिवेशनल स्पीकरों  की तरह नहीं होता जो आया बोल कर चला गया। जिसे केवल अपना पैसा बनाने से मतलब है और लोगों को वह बात सुनाने से मतलब है जो उन्हें अच्छी लगती हो। मतलब यह कि प्रधानमंत्री के कंटेंट की छानबीन केवल उनके विचार से नहीं बल्कि विचार और कर्म दोनों से होगी।

परीक्षा में तनाव वाले सवाल पर अपना जवाब देते हुए प्रधानमंत्री कहते हैं कि मार्च-अप्रैल में परीक्षा आती ही है। यह तो पहले से पता होता है। यह अचानक नहीं आता। आसमान से नहीं टूट पड़ता।

यह बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन जब यह बात प्रधानमंत्री की जुबान से निकल रही है तो यह ठीक नजर नहीं आती। प्रधानमंत्री इस देश के प्रधानमंत्री हैं। केवल कुछ संपन्न लोगों के नहीं। 

भारत में साल भर स्कूल में अच्छे से पढ़ाई करके परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम है। इसकी वजह यह है कि पढ़ाई ही बहुत महंगी है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि सबसे गरीब घर की बच्चियां तो जीवन में कभी स्कूल ही नहीं जाती। सरकारी स्कूल खोल दिए गए हैं। वहां पर पढ़ाई के अलावा सब कुछ होता है। 

मास्टर को पढ़ाने का ढंग नहीं है।बच्चे पढ़ने के लिए नहीं बल्कि मिड डे मील के लिए आते हैं। गुणवत्ता के मामले में उन सरकारी स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है, जहां भारत की बहुत बड़ी आबादी पढ़ती है।

प्रथम नाम के गैर सरकारी संगठन की सालाना रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है की बहुतेरे बच्चों को अपनी क्लास के मुताबिक लिखना पढ़ना और सामान्य हिसाब नहीं आता। गांव में जो बच्चे क्लास 10 में पढ़ रहे हैं, उनकी बुनियाद बहुत कमजोर है।

इन बच्चों को तनाव नहीं होता। इन बच्चों से कभी बात करके देखिए यह बच्चे खुद की किस्मत को दोष देते हैं। परीक्षा के रिजल्ट के बाद हंसते हुए पाए जाते हैं कि उन्हें तो आगे चलकर मजदूरी करनी है। यह भारत का बहुत बड़ा और कड़वा यथार्थ है। जिससे बिल्कुल दूर जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुट्ठी भर बच्चों को ध्यान में रखकर बात कर रहे हैं। परीक्षा पे चर्चा के विषय पर चर्चा करते समय भारत के प्रधानमंत्री कहीं से भी ऐसा नहीं लगते उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी चाय भी बेची होगी 

प्रधानमंत्री तनाव वाले सवाल का जवाब देते हुए बच्चों के अंदर आसपास के दबाव की वजह से पनपने वाले मनोवैज्ञानिक डर से दूर रहने की सलाह देते हैं। मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह बात बिल्कुल ठीक है लेकिन तब जब सामाजिक स्तर से जुड़े आधारभूत जरूरतों को सभी के लिए ठीक ढंग से पूरा किया जा सके।

प्रधानमंत्री बार-बार यह जोर देकर कहते हैं कि परीक्षा आखरी मौका नहीं है। परीक्षा ही सब कुछ नहीं है। यह जीवन का अंत नहीं है। आपके आसपास माहौल बना दिया गया है कि परीक्षा ही सबकुछ है। इसके लिए पूरा सामाजिक वातावरण, माता-पिता, रिश्तेदार ऐसा माहौल बना देते हैं कि जैसे बड़े संकट से आपको गुजरना है।

यह बात भी बिल्कुल सही है। इसमें भी कोई गलत बात नहीं है। बस दिक्कत यह है कि यह बात प्रधानमंत्री की जुबान से बोली जा रही है। इसलिए यह भी ठीक नहीं लग रही है क्योंकि प्रधानमंत्री के पास वह अधिकार है कि वह सरकारी नीतियों नियमों और उपायों के जरिए समाज के माहौल को इस तरह से तब्दील कर दे कि परीक्षा ही सब कुछ न लगने लगे। 

आखिरकार माता-पिता रिश्तेदार या खुद बच्चों को ही परीक्षा सबसे महत्वपूर्ण चीज क्यों लगती है? इसका जवाब सभी जानते हैं की परीक्षा से मिलने वाले अंको से ही यह तय होता है कि किसी बढ़िया कॉलेज में एडमिशन होगा या नहीं होगा, कोई बढ़िया नौकरी मिलेगी या नहीं मिलेगी। 

सैद्धांतिक तौर पर देखा जाए तो जैसे ही कोई बच्चा जन्म लेता है वैसे ही वह इस समाज से अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी संसाधनों को लेने का अधिकारी बन जाता है। यह उसका हक होता है। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता है। सब कुछ एक ऐसे भाग दौड़ में जाकर अटक जाता है जिसे पता नहीं क्या कहा जाना चाहिए। 

इस भाग दौड़ का एक अहम हिस्सा परीक्षाएं भी होती है। वरिष्ठ शिक्षाविद कृष्ण कुमार कहते हैं कि परीक्षाएं किसी भी तरह का सार्थक काम नहीं करती। वह महज लोगों के बीच छंटनी का काम करती हैं। प्रधानमंत्री बिल्कुल सही बात कर रहे हैं कि परीक्षा को ही जीवन का अंत नहीं मान लेना चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री से पूछना चाहिए कि अगर जब तक कोई गरीब विद्यार्थी परीक्षा नहीं पास करेगा उसे कोई नौकरी नहीं मिलेगी। अगर कोई नौकरी नहीं मिलेगी तो उसके लिए दुनिया बहुत कठिन हो जाएगी। तो वह परीक्षाओं को ही अंत के तौर पर क्यों न देखें? क्या प्रधानमंत्री की नीतियां ऐसी हैं कि एक सरकारी क्लर्क के बराबर वेतन एक प्राइवेट क्लर्क को भी मिले। सरकारी मास्टर के बराबर वेतन एक प्राइवेट मास्टर को भी मिले। 

जब सब जगह छटनी करके ही लोगों की भर्ती करनी है और उसके लिए परीक्षा जैसे औजार का इस्तेमाल करना है तब तो हर कोई परीक्षा को ही सब कुछ मान कर चलेगा।

मां बाप को अगर यह लगे कि उनका बच्चा बिना परीक्षा में अच्छा नंबर पाए, अच्छी समझ लेकर कोई काम करते हुए अच्छी वेतन वाली नौकरी कर सकता है, तब तो मां-बाप कभी चिंतित ही न हो। उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है। जो भविष्य अच्छे नंबरों के बिना पूरी तरह से अंधकार में दिखता है। यह सब इसलिए है क्योंकि प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हुए लोग हकीकत से जूझते हुए उसे सही ढंग से बदलने की कोशिश नहीं करते बल्कि छलावे को भांपकर समाज को छलावे से ही चलाने में लगे रहते हैं। ताकि उन्हें अपने फायदों को कभी न गंवाना पड़े।

प्रधानमंत्री से बच्चों ने सवाल पूछा कि कुछ विषय बहुत ज्यादा कठिन लगते हैं। हम इससे पीछे छुड़ाने की सोचते रहते हैं। इस पर क्या किया जाए? प्रधानमंत्री का जवाब था कि पसंद-नापसंद मनुष्य का व्यवहार है। इसमें डर की क्या बात है। होता क्या है जब हमें कुछ नतीजे ज्यादा अच्छे लगने लगते हैं उनके साथ आप सहज हो जाते हैं। जिन चीजों के साथ आप सहज नहीं होते, उनके तनाव में 80% एनर्जी उनमें लगा देते हैं। अपनी एनर्जी को सभी विषयों में बराबरी से बांटना चाहिए। दो घंटे हैं तो सभी को बराबर समय दीजिए।

एक तरह से देखा जाए तो यह जवाब भी ठीक हैं। लेकिन इसके साथ भी दिक्कत यही है कि यह जवाब प्रधानमंत्री दे रहे हैं। यह बात बिल्कुल सही है कि तमाम विद्यार्थियों के जीवन में कुछ विषय ऐसे होते हैं,जिनसे वह भागने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह मसला पसंद और नापसंद से ज्यादा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से जुड़ा हुआ है। इस बात से जुड़ा है कि हमें पढ़ाने वाला व्यक्ति किस ढंग से पढ़ा रहा है। क्या उसके पास पढ़ाने का कौशल है? कई सारे रिसर्च बताते हैं की गणित में खुद को कमजोर समझने वाले विद्यार्थी गणित में कमजोर नहीं होते बल्कि उन्हें पढ़ाने वाले अच्छे नहीं मिलते हैं।

इसके साथ पढ़ने के प्रति झुकाव और अलगाव का भाव पढ़ने लिखने के माहौल पर निर्भर बात होती है। गांव के बच्चों को अंग्रेजी में बहुत दिक्कत होती हैं। वह अंग्रेजी से भागते हैं। लेकिन यही दिक्कत किसी कान्वेंट स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थी को नहीं होती। कहने का मतलब यह है कि किसी विषय के प्रति झुकाव और अलगाव का भाव मुख्यतः इस बात से जुड़ा है कि विषय का मास्टर कैसा है? और आसपास का माहौल कैसा है?

भारत कई सारी परेशानियों से जूझ रहा है लेकिन उसकी सबसे बड़ी एक परेशानी यह भी है कि उसके समाज में अच्छे मास्टर नहीं हैं। कई लोग अपनी  जिंदगी के किसी दौर में जब अच्छे मास्टरों से मिले तो यह कहते हुए पाए गए कि उन्हें अपनी जिंदगी में कायदे का मास्टर नहीं मिला। कायदे का मास्टर और पढ़ने लिखने के प्रति माहौल पैदा करने की जिम्मेदारी किसकी है? उस सरकार की है जिसके मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। जिस पर वह बिल्कुल बात नहीं कर रहे। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परीक्षा पे चर्चा करते हुए इसी तरह की तमाम मनोवैज्ञानिक किस्म की बात की। जिनका तब तक कोई महत्व नहीं है जब तक सरकार सामाजिक परिस्थितियां सुधारने का काम नहीं करती। तब तक ऐसी बातें महज उन माल के विज्ञापनों की तरह हैं जिन्हें खरीदने की औकात किसी की नहीं होती। जो केवल भ्रम का जाल बुनकर हकीकत से दूर रखने के सिवाय और कुछ भी नहीं करती। फिर भी तमाम लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात अच्छी लगी होगी। 

ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने समाज का सबसे क्रूर चेहरा अपने मन मस्तिष्क से डिलीट कर रखा है। जबकि हकीकत यह है कि समाज बहुत क्रूर है। इसकी वजह यह नहीं है कि लोग बहुत खराब हैं। इसकी वजह यह है कि लोगों का 'खराब होना' नियति बन चुकी है। अमीर-गरीब की भयंकर खाई है। संसाधनों पर मुट्ठी भर लोगों के सिवाय दूसरों का हक नहीं है। 90 फ़ीसदी से अधिक लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती। इतनी भयावह स्थिति होने के बावजूद भी बहुत सारे लोगों को लगता है कि सब कुछ ठीक है। थोड़ी बहुत खामियों के साथ सब कुछ अच्छा चल रहा है। मेहनत करने वाले को मेहनत का पुरस्कार मिलता है। जो निकम्मा है, वह निकम्मा रह जाता है। बहुतेरे लोग इसी तरह के छलावे और भ्रम में जीते हैं। उनकी संवेदनाएं और समझ इसी तरह से बनती है। इसलिए जब लॉकडाउन के दौरान चिलचिलाती हुई धूप में हिंदुस्तान की सड़कें नंगे पांव चलते प्रवासी मजदूरों से भर गई तो इन लोगों को लगा कि ऐसा कैसे, इतने गरीब लोग कहां से आ गए। जबकि वह भारत की गरीबी का बहुत छोटा सा हिस्सा है।

अगर मैं उन छात्रों की जगह होता तो जरूर पूछता कि सर, यह बताइए कि जब संसाधनों के बंटवारे में घनघोर किस्म की असमानता है। मेरे पास बुनियादी सुविधाएं नहीं है। शिक्षा बहुत महंगी है, इसलिए मैं एक अच्छे स्कूल के अच्छे मास्टर से नहीं पढ़ सकता। मेरा किसी भी तरह की परीक्षा में फेल होना तय है। तो मुझे क्या करना चाहिए? क्या मुझे राजनीति नहीं करनी चाहिए? क्या मुझे आंदोलन नहीं करना चाहिए? जब ऐसी ईमानदार बातें होंगी तब आप समझ सकते हैं कि मुझे परीक्षा भवन में नहीं बल्कि तमाम दूसरे आंदोलनकारियों की तरह जेल में भी डाला जा सकता है।

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