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राजनीति
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इराक़ में जन आंदोलनों की दशा और दिशा 
इराक़ में दो महीनों से चलने वाले लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री आदेल अब्दुल महदी के इस्तीफ़े ने अमेरिकी क़ब्ज़े के तहत निर्मित राजनैतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का सुनहरा मौक़ा प्रदान किया है। हालाँकि, अभी इसमें कई महत्वपूर्ण गतिरोध मौजूद हैं।
पीपल्स डिस्पैच
09 Dec 2019
The resignation of prime minister Adel Abdul Mahdi

इराक़ में प्रधान मंत्री आदेल अब्दुल महदी के इस्तीफ़े से राजनैतिक अनिश्चितता का माहौल गहरा गया है। दो महीने से चलने वाले ज़बरदस्त जनता के विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के प्रयास में क़रीब 450 लोगों की मौत हो चुकी है। यह इस्तीफ़ा 1 दिसम्बर को स्वीकार कर लिया गया है।

जहाँ एक ओर इस घटनाक्रम से देश की सड़कों पर जश्न का माहौल है, वहीं राष्ट्रपति बहराम सलीह के लिए इसके ठोस विकल्प की तलाश, एक टेढ़ी खीर साबित हो रही है। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, सलीह किसी नए नेता के नाम की घोषणा संसद के सबसे बड़े हिस्से के अनुमोदन के आधार पर ही कर सकते हैं। हालाँकि, मुक्तदा अल-सद्र के नेतृत्व में सैरून (फॉरवर्ड) ब्लाक ने जो कि इराक़ी संसद में सबसे बड़े दल के रूप में मौजूद है, ने 2 दिसम्बर को राष्ट्रपति को एक पत्र सौंपकर नए प्रधानमंत्री को नामित करने के अपने अधिकार त्यागने का फ़ैसला किया है।

इराक़ी संसद की कुल 329 सीटों में से 54 सीटें सैरून के पास हासिल हैं और यह फ़तह (दूसरा सबसे बड़ा दल) और कुछ अन्य की मदद से महदी को प्रधानमंत्री के रूप में संसदीय समर्थन जुटाने में सक्षम है। हालाँकि जबसे विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत हुई है तभी से इसकी संख्या में घतोत्तरी होनी शुरू हो गई है, जिसमें इसके कुछ सदस्यों के साथ इराक़ी कम्युनिस्ट पार्टी के विधायकों के इस्तीफ़े भी शामिल हैं। अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि फ़तह, जो ख़ुद पिछली बार इस तरह के प्रस्ताव को पेश करने के साथ था, वह प्रधानमंत्री के नाम को प्रस्तावित करेगा या नहीं। फ़तह के पास भी नए प्रधानमंत्री के नाम को पारित करा सकने लायक पर्याप्त संख्या नज़र नहीं आती।

अल-जज़ीरा  के अनुसार, सैरून ने अपने पत्र में इराक़ में विवादास्पद मुहससा व्यवस्था के ख़ात्मा किये जाने का वायदा किया है, जो विरोधियों की सबसे प्रमुख माँगों में से एक रही है। मुहससा व्यवस्था को अमेरिकी क़ब्ज़े के दौरान 2005 में संविधान में शामिल किया गया था, और इसके ज़रिये इराक़ी संसद और कार्यपालिका में संप्रदाय और जातीय आधार पर प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया गया। तभी से इराक़ में सभी सरकारों ने इस कोटे के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था को जारी रखा है। 

हालाँकि यह व्यवस्था सांप्रदायिक आधार पर विभाजन को समाप्त करने के लिए संस्थापित की गई थी, लेकिन व्यापक रूप से यह आम धारणा बनी है कि देश में व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक वैमनस्य को पैदा करने के पीछे इसका सबसे बड़ा हाथ है। आम लोगों के ग़ुस्से की वजह यह तथ्य भी है कि चुनाव परिणाम चाहे कुछ भी हों, किंतु इसी की वजह से वही ख़ास लीडरान सत्ता में बने रहते हैं। राजनीतिक अभिजात्य वर्ग ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखकर इस प्रावधान का इस्तेमाल अपने संकीर्ण सांप्रदायिक और व्यक्तिगत हितों के लिए किया है। जिसके चलते व्यापक तौर पर कुप्रबंधन और व्यापक अक्षमता का वातावरण बन गया है। प्रदर्शनकारी इस प्रकार मुहससा प्रणाली को इराक़ी राष्ट्रीय भावना के निर्माण के ख़िलाफ़ रास्ते के सबसे बड़े अवरोधक के तौर पर चिन्हित करते हैं। 

आम लोगों का मुहससा के प्रति आक्रोश का अपना आधार जायज़ है और उसके अपने क्षेत्रीय समानांतर-रेखाएं भी हैं। लेबनान में भी इसी प्रकार का दृष्टिकोण उनके समाजवादी व्यवस्था के चलते भी है, जिसे 1989 के तैफ़ समझौते के तहत लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य देश में विभिन्न सम्प्रदायों की आकांक्षाओं को शांत करने के लिए था, जो 15 वर्षों तक गृह युद्ध का कारण बना रहा।

इराक़ और लेबनान में प्रदर्शनकारियों ने समान राष्ट्रीय पहचान पर अपने विश्वास का प्रदर्शन किया है। हालाँकि, न तो लेबनान और ना ही इराक़ किसी भी प्रकार से एक समजातीय समाज है। सच्चाई तो ये है कि इराक़ में अल्पसंख्यक समुदायों और धार्मिक समूहों के भीतर इस बात को लेकर व्यापक आशंका है कि एक ऐसी व्यवस्था के लागू कर जिसमें मात्र संख्या के आधार पर वोटों की गिनती के आधार पर उनके वाजिब हक़ सुरक्षित रहेंगे या संप्रदायवाद के नाम पर उपेक्षित छोड़ दिया जाएगा।

इस बात की पूरी संभावना है कि यदि इस प्रकार के प्रावधान न हों तो इराक़ में अल्पसंख्यकों को जिसमें मुख्य तौर पर सुन्नी और कुर्द शामिल हैं, के हाशिये पर चले जाने का ख़तरा मौजूद है। कुर्दों ने इस सवाल पर अपनी प्रतिक्रिया पहले से ही दे रखी है। हक़ीक़त यह है कि अधिकतर विरोध प्रदर्शन दक्षिण में केन्द्रित हैं जहाँ पर शिया बहुसंख्यक के रूप में प्रभुत्व जमाए हुए हैं। यह इस बात का सूचक है कि इसे लेकर कुछ जटिलताएं हैं और यह सवाल खड़े करता है कि क्या ये बदलाव, अल्पसंख्यकों की चिंताओं के उत्तर दे पा रहे हैं। 

समूची राजनैतिक व्यवस्था में कायापलट करने की शायद आज अधिक जरूरत है और इसकी वक्ती ज़रूरत भी है, क्योंकि जो संविधान विदेशी शासन के दौरान निर्मित हुआ था वह आम लोगों की सच्ची भावनाओं को परिलक्षित करने में नाकाम साबित हुआ है। हालाँकि अधिकाँश विशिष्ट माँगें, जैसे दल-विहीन लोकतंत्र, एक चुनावी कानून जो स्वतंत्र उम्मीदवार को अधिक अधिकार प्रदान करने, और चुनावों को संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में संपन्न किये जाने जैसी मन्मनिपूर्ण हैं। इन माँगों में से अधिकतर या तो अस्पष्ट हैं या कुछ मांगे इस प्रकार की हैं जिसे किसी भी राजनीतिक प्रणाली में लागू करा पाना अकल्पनीय हैं।

हालाँकि इराक़ी कम्युनिस्ट पार्टी और इसके पूर्व सहयोगी मुक्तदा अल-सद्र ने इन लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों को अपना समर्थन दिया था, लेकिन उनके लिए इन प्रदर्शनकारियों की सभी माँगों पर अपनी सहमति देना असम्भव लगता है। इन विरोध प्रदर्शनों में किसी प्रकार के नेतृत्व के अभाव के चलते भी किसी प्रकार की वार्ता के प्रयास और किसी महीन समझौते की गुंजाईश बनती नज़र नहीं आती है। अब जबकि सरकार गिर गई है, यह देखना बाक़ी है कि इन आंदोलनों के सुर कितने नरम पड़े हैं, जिससे कि किसी सुगम संक्रमण की राह बनती हो।

इराक़ में विरोध प्रदर्शनों की जड़ें सभी क्रमिक सरकारों के भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, ग़रीबी और देश में सेवा के क्षेत्र में बेहद ख़राब सरकारी प्रबंधन से निपट पाने में असफल साबित होने में हैं। सच्चाई यह है कि तेल के मामले में संपन्न देश होने के बावजूद में ग़रीबी का स्तर 23% तक ऊँचा बना हुआ है, जबकि बहुसंख्यक जनता के जीवन स्तर में लगातार होती गिरावट इस बात का सूचक है कि यह समस्या सिर्फ़ व्यवस्था के निक्कमेपन के बजाय कुछ और भी है। यह पूंजीवादी संकेन्द्रण और शोषण के वे सामान्य स्वरूप के वे लक्षण हैं जो आज सारी दुनिया में मौजूद हैं।

ईरान को निशाने पर लेने की कोशिश 

इस बीच ऐसी अनेक कोशिशें हुई हैं जिसमें आम लोगों के गुस्से को ईरान की ओर मोड़ दिया जाए। विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों के एक गुट के द्वारा ईरानी वाणिज्य दूतावास के साथ-साथ अयातुल्ला मुहम्मद बाकिर अल-हाकिम के पवित्र स्थान पर आग लगाने की घटना ने अंततः अब्दुल महदी के भाग्य को तय कर दिया था। इस घटना के बाद ही देश के सबसे प्रभावशाली मौलवियों में से एक अली अल-सिस्तानी ने उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देने का आदेश दिया। इस प्रकार के हमले एक हद तक प्रदर्शनकारियों के एक वर्ग के बीच में ईरान-विरोधी भावनाओं को जाहिर करते हैं।

एक आम धारणा कई इराक़ियों के अंदर घर कर गई है कि उनके कई राजनीतिज्ञ ईरान के प्रभाव में हैं, जिसे इस ईरान-विरोधी भावना में देखा जा सकता है। हालाँकि क्षेत्र में इस ईरानी प्रभाव को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने की कोशिश प्रतिद्वंदी खेमे द्वारा, और खासकर अमेरिका द्वारा किया जाना जगजाहिर है, जो इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर खेले जाने का एक हिस्सा है। साम्राज्यवादी ताक़तें इस ताक में लगी हैं कि व्यवस्था के विरोध में शामिल इस सच्चे पीडाओं का उपयोग ईरान को निशाना बनाने में किया जाए। हालाँकि ईरान को निशाना बनाने से इराक़ मजबूत होने नहीं जा रहा। इसके बजाय, यह देश को उन्हीं साम्राज्यवादी ताक़तों के समक्ष और अधिक दयनीय बनाने और शोषण के लिए खुला छोड़ देने के ही काम को आगे बढ़ाने का काम करेगा।

साभार: पीपल्स डिस्पैच

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

The Trajectory of Popular Protests in Iraq

Adel Abdul Mahdi
Ali al-Sistani
Bahram Salih
Communist Party of Iraq
IRAN
Kurds
Muhasasa system
Muktada al-Sadr
Sairoon Alliance
Sectarian divisions
US occupation of Iraq

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