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देश बड़े छात्र-युवा उभार और राष्ट्रीय आंदोलन की ओर बढ़ रहा है
अभी जो युवाओं के आक्रोश का विस्फोट हुआ उसके पीछे मामला तो रेलवे की कुछ परीक्षाओं का था, लेकिन आंदोलन का विस्तार और आवेग यह बता रहा है कि यह महज़ एक परीक्षा नहीं वरन रोज़गार व नौकरियों को लेकर युवाओं के संचित आक्रोश का विस्फोट था।
लाल बहादुर सिंह
31 Jan 2022
reclaim republic

2019 में प्रचण्ड बहुमत से मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद यह लगातार तीसरा गणतंत्र दिवस था जब 26 जनवरी के दिन लाखों भारतवासी उनकी सत्ता के खिलाफ अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए सड़कों पर थे। 2020 में शाहीन बागों की गूंज थी तो 2021 में ट्रैक्टर सवार किसानों ने राजधानी को घेर रखा था, तो 2022 में पटना से लेकर इलाहाबाद तक तमाम रेल पटरियों पर नौजवानों का कब्जा था।

दरअसल, 2019 में मोदी की जीत स्वाभाविक नहीं थी, वह जनता के सवालों को हल कर हासिल किया गया विश्वास और जनादेश नहीं था, बल्कि पुलवामा और बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक से  पैदा माहौल को manipulate कर, जनता का भावनात्मक दोहन कर, हासिल की गई अस्वाभाविक जीत थी जो किसी genuine जनसमर्थन पर आधारित नहीं थी। इसलिए दूसरी बार सत्ता में आने के बाद लगातार वैसे ही अन्धराष्ट्रवादी, साम्प्रदयिक मुद्दों को राष्ट्रीय डिस्कोर्स के केंद्र में रख कर मूलभूत आर्थिक संकट से ध्यान हटाने और मूलभूत प्रश्नों को दरकिनार करने के खतरनाक रास्ते पर वे चल पड़े- अनुच्छेद 370 का खात्मा, तीन तलाक, CAA-NRC, मन्दिर निर्माण.....। दूसरी ओर इस विभाजनकारी नैरेटिव की आड़ में मजबूती से कारपोरेट एजेंडा पर आगे बढ़ने की रणनीति पर काम होता रहा।

मोदी के कम्पनी राज और कारपोरेटशाही के खिलाफ किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन का तो अभी समापन नहीं ही हुआ है ( आज किसान " विश्वासघात दिवस " मना रहे हैं और मिशन UP शुरू कर रहे हैं ), 23-24 फरवरी को मजदूरों-कर्मचारियों की राष्ट्रीय हड़ताल होने जा रही है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर युवाओं का आक्रोश जिस तरह फूटा, वह आने वाले दिनों की झांकी है।

यह बड़े छात्र-युवा आंदोलन की आहट है

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जिस तरह जंगल में आग की तरह बिहार के शहर-दर-शहर, और वहाँ से लेकर इलाहाबाद, BHU तक युवा आंदोलन फैल गया, नौजवान हजारों-हजार की तादाद में रेल-ट्रैक पर प्रतिरोध में उतर गए, उससे सरकार सकते में आ गयी और पूरा देश भौंचक रह गया। डरी हुई सरकार ने पहले बर्बर दमन और रेलवे बोर्ड द्वारा दी गयी  धमकी के बल पर इससे निपटने की कोशिश की, लेकिन जब इस दमन और गीदड़ भभकी से युवाओं का आक्रोश और भड़क उठा, तब फौरी तौर पर भयाक्रांत मोदी सरकार ने नौजवानों के आगे घुटने टेक दिए। सरकार ने विवादास्पद परीक्षा  को वापस ले लिया है। शिकायतों के निपटारे के लिए कमेटी बनाने की बात की। नौजवान इस बात को समझ रहे हैं कि यह मामले को ठंडे बस्ते में डालने और UP समेत अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर युवाओं के गुस्से को ठंडा करने की चाल भर है।

दरअसल, अभी जो युवाओं के आक्रोश का विस्फोट हुआ उसके पीछे मामला तो रेलवे की कुछ परीक्षाओं का था, लेकिन आंदोलन का विस्तार और आवेग यह बता रहा है कि यह महज एक परीक्षा नहीं वरन रोजगार व नौकरियों को लेकर युवाओं के संचित आक्रोश का विस्फोट था।

सरकार का आंदोलन पर जो बेमिसाल दमन है,उसका उद्देश्य इसे भ्रूण में ही कुचल देना था। इलाहाबाद के जो वीडियो वायरल हुए, उनसे लगता है जैसे खूंखार अपराधियों को कुचलने के लिए कोई ऑपरेशन हो रहा था। छात्रों पर पुलिसिया जुल्म सारी सीमाएं पार कर गया। ऐन चुनाव के समय इस तरह का दमन बहुतों के लिए अचरज का विषय होगा, लेकिन जिन्हें मालूम है कि पिछले 5 साल के " ठोंक दो " राज ने UP पुलिस को कितना क्रूर बना दिया गया है, वे इस पर बहुत अचंभित नहीं होंगे। इसका क्रूरतम चेहरा CAA-NRC आंदोलन के दौरान पूरा देश देख चुका है, जब एक दर्जन के आसपास नौजवान पुलिस की गोली के शिकार हुए,  लखनऊ  में लोकतान्त्रिक आन्दोलन की जानी-मानी शख्सियतों रिटायर्ड पुलिस IG दारापुरी जी, अधिवक्ता शोएब साहब समेत अनेक लोगों को न सिर्फ फ़र्ज़ी धाराओं में घर से उठाकर बंद किया गया था, बल्कि खूंखार अपराधियों जैसे उनके फोटोग्राफ चौराहों पर लगाये गए और कुर्की जब्ती का आदेश दिया गया।

दरअसल इस बार इलाहाबाद में भाजपा सरकार, पुलिस-प्रशासन और गोदी मीडिया ने छात्र आन्दोलन के दमन के लिए जो modus operandi अपनाया है, वह आंखें खोलने वाला है। जिन लोगों को यह लगता था कि यह फ़ासिस्ट तौर-तरीका केवल मुसलमानों, जामिया-AMU-शाहीन बागों, कश्मीर के लिए या अधिक से अधिक JNU जैसे " राष्ट्रद्रोही " केंद्रों के लिए इस्तेमाल होगा, वे यह देखकर दंग रह गए हैं कि उन्हीं सारे हथकंडों को अब हिंदी हृदयस्थल के केंद्र प्रयागराज में छात्रों के ऊपर, वह भी ऐन चुनाव के बीच, इस्तेमाल किया गया।

पिछले गणतंत्र दिवस पर देश के अन्नदाता किसानों को इसका फ़ासिस्ट दमन का स्वाद मिला था, इस गणतंत्र पर देश के भविष्य युवाओं को!

उम्मीद है कि इन अनुभवों से गुजरते हुए नौजवान संघी फासीवाद के असली चेहरे को पहचान पाएंगे और उनके द्वारा फैलाये गए साम्प्रदायिक जहर से मुक्त होकर अपने जीवन और संघर्ष में लोकतांत्रिक विचारधारा के साथ आगे बढ़ेंगे।

उस दिन इलाहाबाद में अनेक निर्दोष छात्रों को हिरासत लिया गया, उनके ऊपर बेहद गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज किए गये। तमाम छात्र अपनी पढ़ाई, परीक्षाओं की तैयारी अधर में छोड़ भय और आतंक के साये में घर भागने को मजबूर कर दिए गए।

सबसे हैरतअंगेज थी युवा मंच के संयोजक राजेश सचान को मास्टर माइंड बताकर की गई गिरफ्तारी। पुलिस ने बयान दिया कि गूगल मीट पर वर्चुअल मीटिंग के माध्यम से उन्होंने छात्रों को भड़काया ! गोदी मीडिया में भी इसी खबर को सनसनीखेज ढंग से पेश किया गया, जैसे कोई बहुत बड़ा गुप्त षडयंत्र रचा गया हो, जिसके मुख्य षड्यंत्रकर्ता राजेश हों !

सच्चाई यह है कि उस दिन का आंदोलन  सरकार की मनमानी तथा रोजगार-विरोधी नीति के खिलाफ युवाओं की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी। राजेश सचान वहाँ थे भी नहीं। राजेश का अपराध यह जरूर था कि वे सरकारी नौकरियों के खाली पड़े पदों को, जिन्हें सरकार को खुद ही बहुत पहले भर देना  चहिए था, उन पर भर्ती के लिए छात्रों की मांग के समर्थन में लंबे समय से सक्रिय थे और युवा मंच के माध्यम से उनकी लड़ाई को शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक दिशा देने में रहनुमाई कर रहे हैं। उन्होंने रोजगार के अधिकार को संविधान का मौलिक अधिकार बनाने की छात्र-युवा आंदोलन की आज़ादी के बाद से  लंबित पड़ी लोकतांत्रिक माँग को स्वर दिया। उनके नेतृत्व में युवाओं ने किसानों - मेहनतकशों के न्यायोचित संघर्षों का समर्थन किया।

सच तो यह है कि युवा असंतोष को लोकतान्त्रिक आंदोलन की दिशा दे रहे राजेश सचान जैसे युवा नेताओं का दमन करके और शांतिपूर्ण विरोध के रास्तों को बंद करके सरकार स्वयं  अराजकता को निमंत्रण दे रही है, क्योंकि असह्य हो चुकी बेरोजगारी के खिलाफ युवा आक्रोश के ज्वालामुखी का लावा तो फूटना ही है।

जहाँ 20 से 24 साल आयु वर्ग के 60% ग्रेजुएट बेरोजगार हैं, काम करने वाले हर 3 व्यक्ति में 2 बेरोजगार हैं, रोजगार नदारद है, नौकरियां छिनती जा रही, वहाँ नौजवान तो लड़ेंगे ही।  रोजगार Right to Life के संवैधानिक अधिकार की बुनियाद है, फिर उसे मौलिक अधिकार में शामिल करने की मांग करना भी क्या राष्ट्रद्रोह हो गया ? क्या शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक विरोध का रास्ता भी अब इस देश में निषिद्ध हो गया ?

यह विडंबना है कि जब छात्र-छात्राएं बेरोजगारी से हताश होकर खुदकशी करती रहीं, तब इस हत्यारी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी! मोदी जी ने फरमाया " दलाली में नाकाम लोग मचा रहे हैं बेरोजगारी का शोर " और उन्हें पकौड़ा तलने की सलाह दे डाली,  तो योगी जी ने जले पर नमक छिड़कते हुए कहा कि बेरोजगार वही हैं जिनके अंदर योग्यता ही नहीं है। मोदी जी के स्वनामधन्य मंत्रीगण निर्मला सीतारमण और गोयल जैसे लोग उनका मजाक उड़ाते रहे कि नौकरी न होना तो अच्छी बात है, " इससे नौजवान नौकरी तलाशने वाले नहीं, नौकरी देने वाले बनेंगे " !

इलाहाबाद में योगी सरकार की पुलिस ने 25-26 जनवरी के दिन जो बर्बरता की है, उसने न सिर्फ हमारे गणतंत्र को शर्मसार किया है, बल्कि चुनावों के बीच यह दमन करके योगी सरकार ने अपनी कब्र खोद ली।

सोशल मीडिया और अन्य प्रचार माध्यमों से इसका सन्देश पूरे प्रदेश में गया है। अब पुलिसिया तांडव के बाद जो नौजवान अपने गांवों को लौटने को मजबूर हुए हैं, उनके माध्यम से जुल्म की यह दास्तान घर घर तक पहुंच रही है। किसानों की तरह नौजवान भी वोट की चोट देकर इस सरकार से हिसाब बराबर करेंगे। चुनाव में भाजपा को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी।

कल, पहली फरवरी को पेश होने वाले बजट में क्या मोदी सरकार उन किसानों-मजदूरों-युवा आंदोलनों के concerns को address करेगी,  जिनके नारों से देश की धरती और आकाश हाल के दिनों में गूंजती रही है ? शायद नहीं, इसके लिए सरकार के पास न  नीयत है, न नीति, न इच्छाशक्ति !

आने वाले दिनों में किसानों-मेहनतकशों और नौजवानों की लड़ाई कारपोरेट-फासीवाद के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ग्रहण करेगी जो 2024 में मोदी के विनाशकारी राज का अंत करेगी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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