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भारत
राजनीति
किसानों और सरकार की आज की वार्ता की ओर पूरा देश चिंता और उम्मीद के साथ देख रहा है
कल, 7 जनवरी के अनोखे ट्रैक्टर मार्च से किसानों ने देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपने आगमन की घोषणा कर दी, यह ऐलान कर दिया है कि इतिहास के असली नायक रंगमंच पर पहुंचने वाले हैं!
लाल बहादुर सिंह
08 Jan 2021
tractor march

आज 8 जनवरी को किसानों और सरकार के बीच होने जा रही 8वें राउंड की वार्ता की ओर पूरे देश की चिंताकुल और बेचैन निगाहें लगी हुई है।

वार्ता के ठीक पहले, कल 7 जनवरी को अपना पहला शक्ति प्रदर्शन करते हुए, दसियों हजार ट्रैक्टरों पर सवार लाखों किसानों ने जिस तरह राजधानी दिल्ली को घेरकर मार्च किया, वह इस देश ही नहीं शायद विश्व इतिहास की अनूठी घटना होगी। किसान पावर का यह रोमांचित करने वाला, अद्भुत नजारा दिखाकर, जाहिर है उन्होंने सरकार के ऊपर दबाव बढ़ा दिया है। हालाँकि, किसानों ने कहा कि यह तो ट्रेलर  है, असली पिक्चर अभी बाकी है। उन्होंने 26 जनवरी के पहले एक और ट्रैक्टर मार्च का भी एलान कर दिया है।

सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा और आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कानून-वापसी नहीं तो घर-वापसी नहीं, यह अब किसानों का सामूहिक संकल्प बन चुका है।

दरअसल, 4 जनवरी की वार्ता विफल होने के बाद दोनों पक्षों के बीच तनाव अपने चरम पर पहुंच गया। उसके पहले वाली बातचीत में बिजली और पराली कानून पर सरकार के झुकने और 3 कृषि कानूनों को रद्द करने के विकल्प ( alternative to repeal which was just short of repeal  but more than amendments ) की तलाश की बात से किसानों को और पूरे देश को यह उम्मीद जगी थी कि सरकार इस सिलसिले में कुछ ठोस प्रस्ताव लेकर आएगी।  पर वह फिर पुराने ढंग से वही बिंदुवार बातचीत पर अड़ी रही।

सरकार के इस रुख की दो व्याख्याएं हो सकती हैं,  या तो उसे यह उम्मीद बची थी कि दो मांगे मानने के बाद ( जिसे वह 50% सहमति प्रचारित कर रही थी) और कानूनों को रद्द न करने के सरकार के दृढ़ रुख को देखते हुए, शायद किसान थोड़ा नरम पड़ते हुए कानूनों को रद्द करने की बजाय कुछ बिंदुवार बदलावों तथा MSP पर कुछ प्रस्ताव पर मान जाएंगे अथवा  फिर यह सरकार द्वारा किसानों को wait out कराने, इंतजार कराकर थका देने और आंदोलन को अन्य तरीकों से खत्म कराने की किसी खतरनाक साजिश पूर्ण स्ट्रेटेजी का हिस्सा है।

वार्ता के details से यह बात साफ है कि उस दिन बातचीत करीब-करीब टूट ही गयी थी। किसान नेताओं ने कानून रद्द करने के अलावा और कोई बात करने से बिल्कुल इनकार कर दिया, यहां तक कि MSP पर भी उससे पहले बात करने से साफ मना कर दिया। उन्होंने सरकार को बिल्कुल pin-pointed बता दिया, और सम्भवतः पहली बार, कि वे सबसे पहले केवल और केवल कानूनों को रद्द करने पर बात करेंगे। सरकार चाहे तो बात करे अथवा न करे।

कुछ लोगों का मानना है कि दोनों पक्षों को यह बात मालूम है कि पूरा मनोवैज्ञानिक युद्ध अब इस मुकाम पर पहुंच गया है कि पहले पलक कौन झपकाता है। ( War of nerves is all about who would blink first -The Tribune )

सर्वोच्च न्यायालय में  एटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने सुनवाई की तारीख आगे बढ़ाने की अपील करते हुए अपील की, " There are chances of parties coming to some sort of understanding ".

टकराव के  बढ़ते आसार के बीच ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने मोदी जी के आमंत्रण पर 26 जनवरी गणतंत्र दिवस समारोह के अतिथि के रूप में अपना भारत आगमन का कार्यक्रम रद्द कर दिया, इसके लिए किसान आंदोलन लगातार  दबाव बना रहा था और ब्रिटेन में भी lobbying कर रहा था। मोदीजी को फोन करके उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी, हालांकि, औपचारिक रूप से इसका कारण कोरोना को बताया गया है।

यह सरकार पर बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव का संकेत है, जाहिर है पूरी दुनिया मे सरकार की किरकिरी हो रही है, कई देशों में किसान आंदोलन के समर्थन में लोग protest में सड़क पर भी उतर रहे हैं।

इधर केरल विधान-सभा के बाद अब पश्चिम बंगाल विधान-सभा में भी इन कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव की तैयारी है। सड़क पर भले न उतर रहे हों, पर विपक्ष के लगभग सभी दल, जिनमें भाजपा खेमे के दल भी शामिल हैं, किसानों के साथ दिखना चाह रहे हैं, भले ही अंदरूनी तौर पर वे इन करपोरेटपरस्त सुधारों के पक्ष में हों और कारपोरेट के साथ तरह तरह के रिश्तों में बंधे हों। 

यहां तक कि अम्बानी, अडानी भी सफाई देते फिर रहे हैं, बड़े बड़े इश्तहार और खबरें छपवा रहे हैं, और किसानों के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं। जाहिर है पहली बार जिस तरह देश में जनता की निगाह में वे खलनायक बन रहे हैं और आंदोलन की आंच सीधे उनके कारोबार तक पहुंच रही है, उससे घबराहट है।

यह किसान आंदोलन के दबाव का परिणाम है, और किसानों के पक्ष में झुकते शक्ति-संतुलन का संकेत है।

देश के सभी राज्यों के छोटे-छोटे जिलों ,कस्बो, गांवों में भी हलचल बढ़ती जा रही है, सड़क पर उतरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है, मेहनतकशों की स्वाभाविक सहानुभूति तो किसान आंदोलन के साथ है ही, मध्यवर्ग के संवेदनशील हिस्सों में भी सरकार की संवेदनहीनता और क्रूरता चर्चा का विषय बनती जा रही है और लोगों की सहानुभूति किसानों के पक्ष में होती जा रही है। 

सरकार और उसके रणनीतिकार अचानक वैक्सीन का कलरव तेज करके गोदी मीडिया की मदद से फोकस divert करने की कोशिश तो बहुत कर रहे हैं, पर किसान आंदोलन के विमर्श ने जो केन्द्रीयता हासिल कर ली है, वहां से उसे replace कर पाना असंभव है। अचानक लव जेहाद और मंदिर के बहाने दंगाई और तनाव का माहौल बनाने का MP और UP में प्रयास इसी रणनीति का हिस्सा लगता है।

किसान आंदोलन को बदनाम करने और विभाजित करने के सारे प्रयास विफल होने के बाद अब एक नया नैरेटिव सेट किया किया जा रहा है कि यह तो ट्रैक्टर वाले बड़े किसानों का आन्दोलन है, जबकि मोदी जी 86% गरीब किसानों के बारे में चिंतित है, इन कानूनों से उनका हित होगा। सरकार के ताकतवर मंत्री नितिन गडकरी ने तो यहां तक कह दिया कि अनाज का जो सरप्लस उत्पादन ( पढ़िए, पंजाब-हरियाणा के बड़े किसान कर रहे हैं!) हो रहा है और बाजार भाव से अधिक जो MSP दिया जा रहा है, सारी समस्या की जड़ वही है। 

IMF के दक्षिण एशिया के Executive Director सुरजीत भल्ला ने The Economic Times में लिखा कि पंजाब-हरियाणा के 2 लाख बड़े किसान देश के 8% सबसे धनी लोगों के क्लब में बने रहने के लिए यह आंदोलन कर रहे हैं। किसानों का समर्थन करने के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी, RBI के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की लानत मलामत करते हुए IMF के इस कर्मचारी ने दुनिया में बढ़ती असमानता पर बड़ी चिंता व्यक्त की है, जिसकी वजह से 200 साल से उथल-पुथल मची हुई है और क्रांतियां हुई हैं! तो मोदी जी के ये कानून आय की असमानता मिटायेंगे और दुनिया में उथल पुथल खत्म कर अमन का राज कायम करेंगे!

भारत के किसानों को लुटेरी वित्तीय पूँजी की इस शीर्ष संस्था के वेतनभोगी अर्थशास्त्री-अधिकारी का sermon अकथनीय यातना भोगते किसानों का अपमान तो है ही, हास्यास्पद और शरारतपूर्ण है। 

सच्चाई यह है कि यह लड़ाई कॉरपोरेट बनाम किसान है। उसे यह महोदय तथ्यों को तोड़मरोड़कर धनी किसान बनाम गरीब किसान दिखाना चाहते हैं। अगर यह सच होता तो 15 साल से जहाँ APMC कानून खत्म है, उस बिहार के किसान, जो अधिकांश गरीब ही हैं, वे आज देश के सबसे खुशहाल किसान होते। पर सच्चाई तो ठीक उलट है।

एक्टिविस्ट, अर्थशास्त्री डॉ. जया मेहता ने बिल्कुल सही नोट किया है कि यह पहला बड़ा किसान आंदोलन है जिसमें ग्रामीण भारत की खेतिहर आबादी के सभी हिस्से-गरीब, सीमांत किसान, बंटाईदार, मजदूर समेत सब एक साथ खड़े हैं क्योंकि इन कृषि कानूनों से इन सब का जीवन एक साथ प्रभावित होगा और उनका survival दांव पर लग जाएगा।

आंदोलन पर नजर रखने वाला हर observer इसका गवाह है, पर कारपोरेट अर्थशास्त्री के चश्मे से यह तस्वीर बिल्कुल उल्टी दिख रही है।

दरअसल, सरकार के पास विकल्प सीमित हैं, अब जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ रहा है, हर बीतते दिन के साथ वे और सीमित होते जा रहे हैं।

देश का वह इलाका - पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी राजस्थान की सिख-जाट पट्टी-जहां से सबसे ज्यादा लोग बलों मैं हैं और आंदोलन सामुदायिक चरित्र ग्रहण कर चुका है, ऐसी stage में वहाँ गैर-लोकतांत्रिक ढंग से बल प्रयोग कर आंदोलन को कुचलने का सरकार का कोई भी दुस्साहस ऐसे भयानक हालात पैदा कर सकता है जो किसी के नियंत्रण में नहीं रह जायेगा। ऐसे दुस्साहस की झांकी देश पहले देख चुका है, जिसकी भारी कीमत देश को और स्वयं इंदिरा गांधी को चुकानी पड़ी थी।

ऐसा लगता है कि सरकार के पास अपनी कारपोरेट-भक्ति और तानाशाह-प्रवृत्ति के बावजूद अन्य किसी  सम्भव विकल्प के अभाव में किसानों की मांगें मानने के अलावा और कोई चारा नहीं है, उसका तरीका और रूप चाहे जो हो।

यहां TINA ( There Is No Alternative ) factor उल्टे ढंग से काम कर रहा है।

इस कड़वी सच्चाई को सरकार जितनी जल्दी स्वीकार कर ले, उतना ही सबके हित में होगा।

यह एक catch 22 स्थिति है सरकार के सामने। उसकी हार में तो हार है ही,  दमन के बल पर जीतने  में भी हार है, शायद और बड़ी !

कल के अनोखे मार्च से किसानों ने देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपने आगमन की घोषणा कर दी, यह ऐलान कर दिया है कि इतिहास के असली नायक रंगमंच पर पहुंचने वाले हैं!

पेरिफेरल (Peripheral ) एक्सप्रेसवे से 26 जनवरी को सेंट्रल दिल्ली की ओर, अर्थात परिधि से केंद्र की ओर बढ़ने का उनका एलान, हमारे दौर का सबसे मानीखेज़ रूपक (Metaphor) है, अपने गणतन्त्र को Reclaim करने की घोषणा है! यह जनता के गणतन्त्र का उद्घोष होगा !

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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