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क्या देश के किसानों ने अपने ‘रावणों’ की शिनाख़्त कर ली है?
आज़ाद भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद यह पहली दफ़ा देखने को मिला है जब सरकार की नीतियों से क्षुब्ध किसानों ने दशहरे पर देश के प्रधानमंत्री का पुतला जलाया हो।
सत्यम श्रीवास्तव
27 Oct 2020
क्या देश के किसानों ने अपने ‘रावणों’ की शिनाख़्त कर ली है?

रावण एक मिथकीय पात्र है। जिसे एक प्रवृत्ति के तौर पर देखा जाता रहा है। दशहरे के रोज़ इस मिथकीय पात्र का दहन किया जाता है जिसे असल में खराब प्रवृत्तियों के नाश के रूप में समाज द्वारा ग्रहण किया जाता है। दिलचस्प ये है कि समाज में मौजूद खराब प्रवृत्तियाँ हर साल पैदा हो जाती हैं और हर साल उनका नाश होता है। रावण का इस तरह हर साल नाश किया जाना अधर्म और असत्य की निरंतर मौजूदगी का एहसास हमें कराता रहता है। इसे हिन्दी की ‘दूसरी परंपरा की नींव रखने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते से हैं’ के संदर्भ में देखना चाहिए जहां वह कहते हैं कि ‘बढ़ते हुए नाखून हमारे पशु होने की निशानी हैं और यह हमें याद दिलाते हैं कि हमारे अंदर पशु प्रवृत्ति अभी भी मौजूद है’। इस तरह हम देखें तो हम सब में रावण मौजूद है। और हर वक़्त होता है। जिस तरह हम अपने नाखून काटकर इंसान बनने का प्रयत्न करते हैं उसी तरह हर साल दशहरे पर रावण को जलाकर भी बुराइयों से निजात पाने का उद्यम करते हैं।

सालों से रावण का पुतला जलाया जाना एक धार्मिक और सांस्कृतिक रिवाज की तरह अपना लिया गया है। रावण का पुतला जलाने वाले को राम के तुल्य मान लिया जाता है। राम जो रावण रूपी प्रवृत्ति के नाश का माध्यम बने। राम, जिन्होंने रावण का नाश करके धरती से अधर्म का नाश किया और धर्म की स्थापना की। राम, जिसने धर्म के मूल में न्याय और समता की स्थापना की। हिंदुस्तान में रामायण एक सर्वव्यापी महाकाव्य है और इसके तमाम अच्छे बुरे चरित्र भी समाज में किसी न किसी रूप में बने हुए हैं।

सन् 2020 का यह दशहरा इस लिहाज़ से यादगार और उल्लेखनीय रहेगा कि इस बार किसानों ने अपनी ज़िंदगी को प्रभावित करने वाले रावणों की शिनाख्त कर ली है। यह सही है या गलत है? कानूनी रूप से उचित है या अनुचित है? जैसे प्रश्नों के मायने इसलिए बहुत नहीं हैं क्योंकि ऐसा होता आया है। लोग जिसे अपने समय की सबसे बड़ी बुराई मानते हैं उसे रावण का स्वरूप दे देते हैं।

राजनीतिक दल भी अक्सर यह उपक्रम करते रहे हैं और धरने-प्रदर्शन के दौरान इस तरह पुतले जलाते आए हैं।

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फाइल फोटो

यूपीए सरकार के दौर में बीजेपी जब विपक्ष में थी तब उसने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पुतले अक्सर जलाए हैं। लेकिन आज़ाद भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद यह पहली दफ़ा देखने को मिला है जब सरकार की नीतियों से क्षुब्ध किसानों ने दशहरे पर रावण की जगह देश के प्रधानमंत्री का पुतला जलाया हो।

इसे पढ़ें : इस बार किसानों के आंदोलन का माध्यम बना दशहरा, मोदी के पुतले का दहन

उम्मीद थी कि इस बार कुछ जगहों पर रावण को कोरोना वायरस के रूप में भी दिखाया जाएगा, संभव है कहीं ऐसा हुआ भी हो पर ऐसी कोई तस्वीर अभी तक आँखों से नहीं गुज़री है। धार्मिक उत्सव को समसामयिक बनाने की रचनात्मकता समाज में रही है जिसकी झलक हर साल दुर्गा पंडालों, गणेश पंडालों में और दशहरे में दिखलाई दे जाती है। पश्चिम बंगाल में इस बार दुर्गा पंडालों में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा दिखाने की रचनात्मक कोशिश के रूप में हुई है। इसके राजनैतिक मायने भी ज़रूर होते हैं।

ऐसा ही एक दृश्य 1945 में यानी आज़ादी के आंदोलन के दौर का बार-बार ज़हन में आता है। जिसे उग्र हिन्दू विचारधारा के एक व्यक्ति नारायण आप्टे द्वारा रचा गया था और नाथूराम गोडसे द्वारा संपादित पत्रिका अग्रणी में प्रकाशित किया गया था।

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इस कार्टून में उग्र हिन्दुत्व के दो नेता उस दौर के बड़े सामाजिक नेता मसलन महात्मा गांधी, सरदार पटेल,जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बॉस आदि के चेहरों को जोड़कर रावण के दस सर बनाते हैं और उन पर तीर धनुष ताने हुए हैं। इस कार्टून से पता चलता है कि उस दौर में आरएसएस के लिए अंगरेज़ रावण नहीं थे बल्कि उनके लिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेता रावण थे।

इस उदाहरण से भी स्पष्ट है कि किसी एक व्यक्ति या एक संस्था के लिए कुछ लोग रावण हो सकते हैं। दशहरे के दिन वो अपने रावण का नाश करके सत्य और धर्म को विजयी बना सकते हैं। मिथकों की व्यावहारिक व्याख्या की तमाम संभावनाएं हैं जिन्हें लेकर कोई असहिष्णुता समाज में आम तौर पर नहीं रही है।

दशहरे पर पंजाब, हरियाणा, बिहार और उत्तर प्रदेश से आए ऐसे ही चित्रों पर अभी तक कोई गंभीर असहिष्णुता देखने को नहीं मिली है। जरूर इस वक़्त विपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने इस घटना का संज्ञान लिया है और इसे अच्छी प्रवृत्ति नहीं बताया। इसके साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री को यह मशविरा दिया है कि अगर किसानों का गुस्सा इस कदर बढ़ गया है कि वो आपको रावण के रूप में देख रहे हैं तो आपको उनके पास जाकर उनकी समस्याओं को समझना चाहिए। बहरहाल, अभी तक सत्ता पक्ष की तरफ से इस घटना को कोई ख़ास तवज़्ज़ो दी नहीं गयी है।

इस मौके पर जो ध्यान देने वाली बात है वो ये कि इन राज्यों के किसानों ने रावण के कई चेहरों में देश में तेज़ी से उभरे दो व्यापारियों गौतम अडानी और मुकेश अंबानी के चेहरे भी लगाए। कुछ एक चित्रों में तो सबसे केंद्रीय चेहरा मोहन भागवत का रहा, उसके बाद मोदी, अमित शाह, योगी आदित्य नाथ,गौतम अडानी, मुकेश अंबानी और कृषि मंत्री आदि के चेहरों से रावण का पुतला बनाया। एक ऐसे चित्र का उल्लेख भी ज़रूरी है जहां मोदी के ऊपर डोनाल्ड ट्रम्प का भी चेहरा लगाया गया। रावण का पुतला इस जगहों पर विशुद्ध राजनैतिक संदेश के रूप सामने आया। दशहरा जो मूलत: धार्मिक, फिर सांस्कृतिक आयोजन हुआ करता था इस बार वह सौ टका राजनैतिक अवसर बना लिया गया।

पंजाब के किसानों की तरफ से यह कहा जा सकता है कि उन्हें हाल ही में पारित तीन कृषि क़ानूनों के प्रति रोष है और इन क़ानूनों के पीछे के मकसद को वो अच्छी तरह से समझ चुके हैं। उन्हें भली-भांति इस बात का अंदाज़ा है ये कानून किसके मुनाफ़े के लिए लाये गए हैं। उन्होंने इस बात को भी बहुत ठोस ढंग से समझ लिया है कि यह सरकार और इसका शीर्ष नेतृत्व किसके इशारे पर और किसके लिए काम कर रहा है। उन्होंने इन क़ानूनों के विरोध में जो आंदोलन हाल ही में किए और कहीं कहीं तीव्रता के साथ अब भी जारी हैं उनमें एक नारे ने पूरे देश का ध्यान खींचा है और वो नारा है –‘धर्म का ना साइंस का, मोदी तो है रिलायंस का’। दशहरे पर हुआ घटनाक्रम इसी नारे की दृशयात्मक अभिव्यक्ति ही है। बहरहाल।

जिस निष्कर्ष पर पंजाब और इन राज्यों के किसान पहुंचे हैं वहाँ तक पहुँचने में तमाम बुद्धिजीवियों को लंबा वक़्त लगा। मोदी के दौर में सिर चढ़कर बोलता ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ या अंतरंगी पूंजीवाद और अंतत: मोदी को इन दो व्यापारियों का दलाल स्थापित करते हुए उन्हें रावण और उनके कुल के समकक्ष स्थापित करना हालिया इतिहास की बहुत महत्वपूर्ण परिघटना है। फौरी तौर पर इसे केवल तीन किसान विरोधी क़ानूनों के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं माना चाहिए बल्कि ये आंदोलन बीते छह सालों की तमाम जनविरोधी नीतियों, क़ानूनों और निर्णयों से उपज़ी नाराजगी की भी अभिव्यक्ति है। समग्रता में देखें तो ये घटना मौजूदा नव-उदरवादी अर्थव्यवस्था के गुब्बारे में किया गया वो छेद है जिसके कारण पूरे गुब्बारे की हवा निकलना तय है।

किसानों के इस राजनैतिक रूप से रचनात्मक और सांकेतिक पहल के अलावा दशहरे के दिन सोशल मीडिया पर भी प्रधानमंत्री से जुड़ी तमाम बातों, आदतों, कार्यवाहियों और निर्णयों को इंगित करते हुए परोक्ष रूप से उनकी तुलना रावण से की गयी। इसकी टैग लाईन रही- रावण में लाख बुराइयाँ थीं पर वह वो सब नहीं करता था जो देश के प्रधानमंत्री यानी नरेंद्र दामोदर दास मोदी करते हैं। मसलन, रावण ने कभी नोटबंदी नहीं की, जीएसटी नहीं लगाया, अपने लंका वासियों की नागरिकता की पड़ताल नहीं की, पुष्पक विमान होते हुए भी शौक तफरीह के लिए विदेश नहीं गया, अपनी वृद्ध माँ का राजनैतिक इस्तेमाल नहीं किया आदि आदि। सोशल मीडिया पर शाया हुई इस रचनात्मकता का भी कोई खास विरोध नहीं हुआ।

इन दोनों घटनाओं के मायने क्या यह हैं कि समाज के दो तबकों ने अपनी मुसीबतों के लिए जिम्मेदार रावण की शिनाख्त कर ली है और उसी की अभिव्यक्ति अलग अलग ढंग से की जा रही है?

इस घटना या माहौल का अंदाज़ा प्रधानमंत्री को बहुत पहले हो गया था कि कितना भी नियंत्रण थोप दें पर देश के मुनाफाखोर पूँजीपतियों के खिलाफ जनता का आक्रोश पनपेगा ही। और इसलिए 2019 में स्वतन्त्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने देश की जनता से आह्वान भी किया था कि जो लोग व्यापार में है, उद्योगपति हैं, उनके प्रति हिकारत न रखते हुए उन्हें ‘वेल्थ क्रीएटर्स’ यानी धन उत्पादकों के तौर पर देखा जाना चाहिए और उनके प्रति सम्मान का भाव रखा जाना चाहिए। हालांकि इसी भाषण में उन्होंने देश की जनता से यह आह्वान भी किया था कि अब वक़्त आ गया है जब लोग सरकार को घरों से बाहर कर दें जिसका अन्य शब्दों में भावार्थ यह था कि देश के लोगों को अब सरकार के भरोसे नहीं बैठना चाहिए बल्कि आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए। हालांकि सरकारी आत्म-निर्भर अभियान की विधिवत और औपचारिक शुरुआत का अवसर कोरोना ने मुहैया कराया। यह दिलचस्प है कि आज जो हो रहा है उसकी नींव 15 अगस्त 2019 में तैयार की जा चुकी थी।

यहाँ हमें राहुल गांधी की चिंता पर बल देने की ज़रूरत लगती है कि अगर यह एक नज़ीर बन गयी तो देश में अलग तरह से अराजकता फैल जाने का खतरा बढ़ जाएगा। आज किसान या मुखर शहरातियों ने मोदी जी को रावण के रूप में चिह्नित किया है कल देश के बेरोजगार, श्रमिक, लघु और माध्यम उद्योगों से जुड़े तमाम लोग, सरकारी कर्मचारी, छोटे, मझोले दुकानदार और समाज के अन्य तबके भी इसी तरह प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद की खिल्ली उड़ाने लगेंगे और देश के व्यापारियों के खिलाफ इस तरह मुखर हो जाएंगे तो देश कई ऐसी चुनौतियाँ का सामना करेगा जो पहले देखी नहीं गईं। कम से कम इस मामले में प्रधानमंत्री को अपने विपक्षी नेता की सलाह पर ज़रूर कान देना चाहिए। और समाज के लगभग सभी तबकों से सद्भावना के साथ मिल बैठकर उनकी समस्याओं का समाधान करना चाहिए। यह काम बहुत बड़ा है और असीम धैर्य की मांग करता है क्योंकि बीते छह सालों में कोई ऐसा तबका शेष नहीं है जो इस सरकार से खुश हो।

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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