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किसानों की चंपारण से बनारस यात्रा ने बढ़ाई भाजपा सरकार की बेचैनी
सवाल कभी नहीं मरते। जवाब मिलने तक वह जिंदा रहते हैं। किसान सत्याग्रह पदयात्रा ने जो सवाल खड़े किए हैं वह मोदी-योगी का पीछा कतई नहीं छोड़ेंगे। किसानों के बीच कुछ वैसा ही संदेश पहुंच रहा है जैसा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ साल 1917 में चंपारण से पहुंचा था।
विजय विनीत
08 Oct 2021
kisan

बिहार के चंपारण से बनारस तक निकाली गई किसान सत्याग्रह यात्रा से मोदी सरकार बेचैन है। इस यात्रा ने बिहार की नीतीश सरकार और यूपी में योगी सरकार की बेचैनी भी बढ़ा दी है। चंपारण वही जगह है जहां महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन की मशाल यहीं से जलाई थी। करीब 104 साल पहले वहां हुए किसान आंदोलन में अहिंसा और सत्याग्रह के अस्त्र का इस्तेमाल किया गया था। सत्याग्रह करने वाले किसान संगठन भाजपा सरकार के खिलाफ भी कुछ वैसा ही अस्त्र इस्तेमाल कर रहे हैं। राष्ट्रीय आंदोलन की गौरवशाली विरासत से सीखता और शक्ति अर्जित करता हुआ यह आंदोलन गांधी के सत्याग्रह व अहिंसा के रास्ते पर बढ़ रहा है।

किसान संयुक्त मोर्चा के बैनरतले बिहार और उत्तर प्रदेश के 35 इलाकों से गुजरने वाली किसान सत्याग्रह यात्रा जिन इलाकों से गुजर रही है वहां पीएम नरेंद्र मोदी से अन्नदाता से जुड़े मुद्दों पर दस सवाल उछाल रही है। साथ ही दुनिया भर में संदेश देने की कोशिश कर रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के नहीं, सिर्फ कारपोरेट घरानों से हितैषी हैं। ये सवाल सिर्फ मोदी ही नहीं, यूपी को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी पीछा कर रहे हैं। वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "सवाल कभी नहीं मरते। जवाब मिलने तक वह जिंदा रहते हैं। किसान सत्याग्रह पदयात्रा ने जो सवाल खड़े किए हैं वह मोदी-योगी का पीछा कतई नहीं छोड़ेंगे। किसानों के बीच कुछ वैसा ही संदेश पहुंच रहा है जैसा अंग्रेजों के खिलाफ साल 1917 में चंपारण से पहुंचा था। पूर्वांचल की बागी धरती के तमाम गांवों कस्बों से गुजरती यह यात्रा मोदी-योगी के किसान विरोधी राज के खिलाफ किसानों के बड़े जागरण को अंजाम दे रही है।"  

भाजपाई किले की हिल जाएंगी ईंटें

आपातकाल में कांग्रेस सरकार के दमन के खिलाफ 18 महीने तक जेल की सलाखों में कैद रहे प्रदीप यह भी कहते हैं, "आंदोलनकारी किसान योद्धाओं के दिलों मे भगत सिंह के किसान-मजदूर राज का सपना है, जो अंबेडकर के लोकतांत्रिक मूल्यों में पल रही है। गांधी-भगत सिंह की विरासत को लेकर आगे बढ़ते इस आंदोलन की चुनौती का मुकाबला कर पाना कंपनी और कारपोरेट राज के मुखौटे बने मोदी-योगी के वश में नहीं है। किसानों की सत्याग्रह पदयात्रा का संदेश यूपी में अगले साल होने वाले चुनाव का बैरोमीटर बनेगा। योगी सरकार को लगता है कि कुछ जातियों के नेताओं को मंत्री बनाकर वह पश्चिम के फटेहाली की रफूगीरी कर लेगी, लेकिन चंपारण से पीएम नरेंद्र मोदी के गढ़ बनारस में आ रही पदयात्रा उनके किले की ईंटें हिलाकर रख सकती है।"

महात्मा गांधी के पदचिन्हों के बाद, जिन्होंने बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वालों के अधिकार के लिए एक आंदोलन चलाया था, उन्हीं किसानों के वारिसों ने पीएम नरेंद्र मोदी के सामने दस बड़े सवाल खड़े किए हैं। पदयात्रा में करीब दो हजार किसान शामिल हैं, जो मोदी से पूछ रहे हैं,  "लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक निर्णय क्यों? पांच सौ से ज्यादा मौतों के बाद भी किसानों से मिलने के लिए आपकी संवेदना क्यों नहीं जगी? तीनों काले कानून कब तक वापस होंगे?  कंपनियों और कारपोरेटरों का खरबों रुपये माफ वाली वाली सरकार का एमएसपी पर कानूनी गारंटी देने में सांसें क्यों उखड़ रही हैं? देश के नौजवानों के रोजगार पर फैसला कब होगा? महिलाओं और परिवार को महंगाई से राहत क्यों नहीं? कोरोना के संकटकाल में जनता का उपचार करने वाला देश का सिस्टम फेल हो गया और अनगिनत लोग मर गए। आखिर इन मौतों की जिम्मेदारी कौन ओढ़ेगा?

पदयात्रियों ने पीएम से एक बड़ा सवाल यह भी किया है कि पढ़ाई, दवाई, कमाई, महंगाई, उचित मूल्य जैसे जरूरी सवाल सत्ता में आने के इतने साल बाद भी आपके एजेंडे में क्यों नहीं? मजदूरों के पलायन और बढ़ती अमीरी-गरीबी असमानता का जिम्मेदार कौन? कॉर्पोरेट और विदेशी कंपनियों के हाथ की कठपुतली सरकार कब तक बनी रहेगी और इन्हें  प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध लूट की छूट कब तक मिलती रहेगी?

ब्रितानी हुकूमत जैसा है मोदीराज

संयुक्त किसान मोर्चा के घटक नवनिर्माण किसान संगठन के संयोजक अक्षय कुमार किसान सत्याग्रह पदयात्रा का नेतृत्व कर रहे हैं। वह कहते हैं, "बिहार के पूर्वी चंपारण के चंद्रहिया गांव ने इतिहास में अहम भूमिका निभाई है। गांधीजी जब मोतिहारी आए तब उन्हें पता चला कि ब्रितानी हुकूमत भारतीय किसानों का शोषण जमकर शोषण कर रही है। ब्रितानी हुकूमत और मोदीराज में कोई अंतर नहीं है। आजादी के आंदोलन के समय ब्रिटेन की एक कंपनी किसानों की गाढ़ी कमाई लूट रही थी और मोदी राज में अडानी-अंबानी की कॉरपोरेट कंपनियां किसानों की मेहनत डकार रही हैं। चंपारण के चंद्रहिया से हमने विरोध का बिगुल फूंका है। ऐसा बिगुल, जिसकी आज जरूरत है। अंग्रेजी हुकूमत की तरह ही भारत के किसान इस समय कॉरपोरेट्स की दया पर निर्भरत होते जा रहे हैं। इस सत्याग्रह मार्च का मकसद किसानों में जागरूकता पैदा करना और मोदी सरकार की कथनी-करनी का कच्चा चिट्ठा खोलकर जनता को बताना है। हम किसानों की दुर्दशा को समझना चाहते हैं और उन्हें संयुक्त किसान मोर्चा के बैनरतले लामबंद करना चाहते हैं।

किसान नेताओं को लगता है कि चंपारण से निकली सत्याग्रह पदयात्रा में उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा समेत देश भर के करीब दो हजार किसानों के जत्थे शामिल हैं। चंपारण से निकली पदयात्रा 350 किमी की दूरी तय कर जब 20 अक्टूबर को बनारस पहुंचेगी तब तक यूपी और बिहार के किसान सत्ता बदलने के मूड में आ चुके होंगे। सत्याग्रहियों में किसानों के संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) से जुड़े 42 संगठन हैं।

ताबूत में ठोकेंगे आख़िरी कील

पूर्वी चंपारण के ऐतिहासिक चंद्रहिया गांव में सत्याग्रहियों के जत्थे ने सरकार के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का संकल्प लेने के बाद पदयात्रा शुरू की है। पिपराकोठी, कोटवां, बेलवां, रामपुर खजुरिया, मोहम्मदपुर, हर्दिया, मालमिलया, भगवानपुर हाट होते हुए सात अक्टूबर को यह पदयात्रा बनियारपुर होते हुए जलालपुर पहुंची। बड़ी संख्या में इलाके के किसानों ने सत्याग्रहियों का स्वागत किया। पदयात्रा में शामिल होने के लिए तमाम गांवों के सैकड़ों किसान आगे आए। सभी के हातों में तिरंगे, तख्तियां और बैनर थे। भीषण गर्मी के बावजूद किसान सत्याग्रहियों के साथ पैदल चलने लगे।

पदयात्रा में शामिल किसान निमय राय ने कहा, "गर्मी और बारिश हमारा हौसला नहीं तोड़ सकते। सरकार को यह बताने का समय आ गया है कि उसे अपने तीनों काले कानूनों को हर हाल में वापस लेने होंगे।"

पदयात्रा में शामिल सत्याग्रही मोदी सरकार से सवाल पूछते और नुक्कड़ नाटकों से किसानों को जागरूक करते हुए आज बिहार के नटवर, मझी घाट और अगले दिन नौ अक्टूबर को समाजवादी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के गांव सिताबदियारा-जेपीनगर जाएंगे। दस अक्टूबर को बैरिया-रामगढ़, 11 अक्टूबर को हल्दी-दुबहर में पदयात्रा करने के बाद किसानों का जत्था 12 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश में प्रवेश करेगा। यात्रा में शामिल किसान बलिया के फेफना और बाद में 13 को चिलकहर-रसड़ा, 14 को सिधवा घाट-कासिमाबाद, 15 को बउरि-हंसी, 16 को गाजीपुर-महराजगंज, 17 को नंदगंज-मऊ पारा, 18 को बासूपुर-सिधौनी, 19 को चौबेपुर-संदहां और 20 अक्टूबर बनारस पहुंचेंगे। किसानों के हक-ककूक के लिए संघर्षरत पदयात्री पूर्वी उत्तर प्रदेश के 35 क्षेत्रों को पार करते हुए करीब 350 किलोमीटर की दूरी तय करेंगे। जिस दिन वाराणसी में पदयात्रा समाप्त होगी, उस दिन पूर्वाचल के हजारों किसान शामिल होंगे

किसान सत्याग्रह पदयात्रा में देश के जाने-माने विचारक मनव्वर अली, रवि कोहर, शिवांक यादव, के.बीजू, अशोक भारत, राहुल शुक्ल, अमित जैन, उदय, उमाकांत भारत आदि नेता किसानों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि रसोई गैस के दाम, मनमाना बिजली बिल, डीजल और पेट्रोल के साथ-साथ दैनिक उपभोग की चीजों में टैक्स की इतनी वृद्धि कर दी गई है कि अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। मेहनतकश किसान-मजदूर महंगाई की चिक्की में पिस रहा है और चंद पूंजीपतियों की संपत्ति तूफानी रफ्तार से बढ़ रही है। प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाट और लूट मची हुई है।

ग़ुस्से में हैं किसान

पदयात्रा के संयोजक हिमांशु तिवारी बताते हैं, "सत्याग्रही किसानों को इलाकाई अन्नदाताओं का शानदार सहयोग मिल रहा है। बड़ी संख्या में इलाकाई किसान हमारे कारवां में शामिल हो रहे हैं। पदयात्रा रोजाना करीब बीस किलोमीटर का सफर तय कर रही है। पैदल यात्री सभी चौराहों और नुक्कड़ों पर सभाएं कर रहे हैं। नुक्कड़ नाटक के जरिए किसानों को मोदी सरकार के काले कानूनों की जानकारी दी जा रही है। जन-जागरुकता के लिए स्वागत समितियां गठित की गई हैं, जो स्थानीय किसानों के साथ बैठकें और संवाद आयोजित करती हैं। हम उन्हें समझाते हैं कि मोदी सरकार के तीनों कृषि कानून क्यों और कैसे उनके लिए खतरनाक हैं। जिन रास्तों से हम गुजरें हैं सभी जगहों पर किसानों से हमने लंबी बात की तो हम हैरान थे कि समर्थन मूल्य किसानों के लिए आज भी सपना है। सत्ता के दलाल और बिचौलिए ही एमएसपी का मुनाफा लूटते हैं। आम किसानों को फसलों की कीमत एमएसपी से बहुत कम मिल रही है।"

हिमांशु बताते हैं, "उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में हुए किसानों के नरसंहार के विरोध में सत्याग्रही अपनी बाहों पर काली पट्टी बांधकर पदयात्रा कर रहे हैं। पदयात्रा में शामिल सत्याग्रही सामूहिक रूप से किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ है। सरकार से मांग करती है केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा बर्खास्त हों और उनके मनबढ़ बेटे को तत्काल गिरफ्तार किया जाए। किसानों के कातिलों की अभी तक गिरफ्तारी न होने से हर कोई गुस्से में है।"

किसान नेता अक्षय कुमार कहते हैं, "मोदी सरकार किसान और उनके हितों का दमन करना चाहती है। अन्नदाता की जुबान बंद करने के लिए वह दमन के क्रूरतम उपायों पर अमल करने से भी नहीं हिचक रही है। इसके बावजूद 27 सितंबर के अभूतपूर्व भारत बंद ने यह साबित कर दिया है कि देश आज एक बड़े राष्ट्रीय जनांदोलन और राजनीतिक बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। भाजपा सरकार चाहे जितनी मुश्किलें खड़ी करे, पर आंदोलन रुकने वाला नहीं है। किसान संकल्पबद्ध हैं कि जरूरत हुई तो आंदोलन दशकों तक चलता रहेगा। दुनिया की कोई ताकत हमे हरा नहीं सकती। हम यह लड़ाई जीतेंगे।"

"सच यह है कि हमारे आंदोलन का प्रभाव, समर्थन और भागेदारी का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। जिस आंदोलन को सिर्फ उत्तर भारत के एक हिस्से का आंदोलन माना जा रहा था, दक्षिण भारत में उसकी जोरदार धमक ने हर किसी को चौंका दिया है। केरल और तमिलनाडु, कर्नाटक के अलावा उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में भी आंदोलन ने जबर्दस्त दस्तक दी है। खेती के संकट से पैदा किसानों की राष्ट्रव्यापी बेचैनी से जुड़ता हुआ किसान आंदोलन अब मोदी सरकार की विनाशलीला के विरुद्ध समाज के सभी तबकों में राष्ट्रीय क्षोभ का पर्याय बनता जा रहा है।"

किसान आंदोलन को उत्तर प्रदेश के सभी विपक्षी दलों के अलावा कम्युनिस्ट पार्टियां और जन-सरोकारों से जुड़े तमाम संगठन, वाम दल, लोकतांत्रिक संगठन सहयोग कर रहे हैं। पीयूसीएल के संयोजक प्रवाल कुमार सिंह कहते हैं, "खेती-किसानी पर कब्जे की मुहिम धनकुबेरों और कारपोरेट घरानों का बुनियादी एजेंडा है, जिसे मोदी सरकार चला रही है। जन-आंदोलन और सत्याग्रह के बल पर ही सरकार को झुकाया जा सकता है। किसान जब वोट की ताकत दिखाएंगे, तभी कारपोरेट-राजनीति के बदवाल का एजेंडा खारिज हो पाएगा। किसानों के सत्याग्रह में सभी तबकों के लोग शामिल हो रहे हैं। लड़ाई सिर्फ तीनों कानूनों को खत्म कराने तक सीमित नहीं, देश और लोकतंत्र बचाना भी है। हमारा संघर्ष खेती-किसानी के साथ-साथ आम आदमी के मुफ्त इलाज, पढ़ाई, रोजगार के लिए और आसमान छूती महंगाई के खिलाफ है। देश के लिए यह बड़े शर्म का विषय है कि बेरोजगारी हटाने के नाम पर लंबा इंतजार और सरकारी लाठियां ही नौजवानों के हिस्से में आ रहीं हैं।"

वरिष्ठ पत्रकार राजीव कुमार सिंह कहते हैं, "मोदी के बनारस और आसपास के इलाकों में किसानों की नाराज़गी उतनी संगठित भले ही न दिख रही हो लेकिन यह कम नहीं है। लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन में ईधन डाल दिया है। यह घटना में कई महत्वपूर्ण बातें उभर पर सामने आई है। सरकार पर किसानों का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। किसानों का आक्रोश यह दर्शा रहा है कि भाजपा सरकार के लिए परिस्थितियां अनूकूल नहीं हैं। शायद अब भाजपा को भी लग रहा है कि उससे बड़ी चूकी हुई है। लखीमपुर जनसंहार के बाद से देश भर के किसानों में नाराजगी है। सत्याग्रही किसानों की यात्रा जब बनारस आएगी तो बड़ा गुल जरूर खिलाएगी। किसान आंदोलन का ही असर है कि लखीमपुर के किसानों ने यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य के हेलीकाप्टर को नहीं उतरने दिया। भाजपा नेत्री मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी को अपने ट्विटर हैंडिल से भाजपा का नाम हटाना पड़ा।"

एक्टिविस्ट प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "पूर्वांचल के किसानों की अलग-अलग परिस्थियां हो सकती हैं। इसका मतलब नहीं कि यहां का किसान आंदोलन को देख, सुन और समझ नहीं रहा है। वो चक्काजाम नहीं कर रहे हैं, खामोश हैं, लेकिन मौका मिलेगा तो अपनी नाराजगी और असंतोष जरूर जाहिर करेंगे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार काऊ बेल्ट का हिस्सा है। बिहार में बंद का खासा असर रहा। पूर्वांचल में भी किसान आंदोलन धीरे-धीरे फैल रहा है। सरकार अगर किसानों का दमन के बल पर कुचलना चाहेगी तो आंदोलन गांव-गांव तक पहुंचने में कोई नहीं रोक पाएगा। मोदी और भाजपा और योगी को बड़ा नाज है कि पश्चिम का घाटा पूरब में पूरा कर लेंगे, लेकिन सपना उनका सपना रह जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा निकाली सत्याग्रह पदयात्रा मील का पत्थर साबित होगी। यह यात्रा जब बनारस आएगी तो वह पीएम नरेंद्र मोदी के साथ योगी सरकार की बेचैनी जरूर बढ़ाएगी।"

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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