NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
किसान आंदोलन को सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की स्पिरिट से प्रेरणा, परन्तु उसके नकारात्मक अनुभवों से सीख लेनी होगी
तानाशाही और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की स्पिरिट और उसके तूफानी आवेग से प्रेरणा लेना एक बात है, परन्तु उसकी विचारधारा और राजनीति आज के आंदोलन के लिए आदर्श और मॉडल नहीं हो सकती। आज उस बड़े आंदोलन की राजनीतिक कमजोरियों और वैचारिक कुहासे से आगे बढ़ना होगा। 
लाल बहादुर सिंह
05 Jun 2021
किसान आंदोलन
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

आज 5 जून को किसानों ने "सम्पूर्ण क्रान्ति दिवस" के रूप में मनाने का आह्वान किया है। ठीक एक साल पहले आज ही के दिन 5 जून, 2020 को मोदी सरकार ने, ऐन उस समय जब महामारी की पहली लहर उफान पर थी, किसान-विरोधी कृषि कानूनों को अध्यादेश के चोर दरवाजे से लागू कर दिया था। यह आपदा में अवसर के मोदी जी के कुख्यात सिद्धांत का सटीक क्रियान्वयन था! और 3 महीने बाद जब भारत में महामारी का चरम (peak) था, संसद में लोकतंत्र को रौंदते हुए इसे पास कराया गया और 26 सितंबर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर द्वारा इसे कानून का रूप दे दिया गया। 

इस तरह 5 जून किसानों के कैलेंडर में मोदी सरकार के किसान-विरोधी, निरंकुश राज का प्रतीक बन गया है। यह ऐतिहासिक संयोग है कि इसी तारीख को, 5 जून 1974 को इंदिरा निरंकुशता के विरुद्ध JP का सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष गूंजा था और देश मे एक जनांदोलन खड़ा हुआ था जिसकी अंतिम परिणति 3 वर्ष बाद इंदिरा गांधी की ताकतवर सरकार के अंत में हुई थी।

क्या मौजूदा ऐतिहासिक आंदोलन की भी ऐसी ही परिणति होगी?

वैसे तो राजनीतिक सन्दर्भ बिल्कुल बदला हुआ है,  और   बीच में 5 दशक का लम्बा अंतराल है, पर अनेक समानताएं भी हैं, घनघोर आर्थिक संकट, बेरोजगारी-महंगाई, व्यापक जन-असंतोष, सत्ता का चरम केंद्रीकरण, सुप्रीम लीडर का personality cult, लोकतांत्रिक संस्थाओं का अवमूल्यन, संघवाद को अलविदा, वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों के प्रति चरम असहिष्णुता और निर्मम दमन। यह भी विरल संयोग है कि हरित क्रांति के पहले संकट के प्रस्फुटन के साथ 80 दशक के किसान-आंदोलन की शुरुआत भी थोड़ा बाद में उन्हीं के दौर में हुई थी, जो आज के किसान आंदोलन की गौरवशाली विरासत है।

सम्भवतः इन्हीं सन्दर्भों में संयुक्त किसान मोर्चा ने यह निर्णय लिया कि 5 जून को ‘संपूर्ण क्रांति दिवस” के रूप में मनाया जाए। मोर्चा के बयान में कहा गया है,  "संयुक्त किसान मोर्चा सभी देशवासियों से आह्वान करता है कि केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ सम्पूर्ण क्रांति का सकंल्प ले और इसे जनांदोलन बनाते हुए सरकार को कानून वापसी के लिए मजबूर करें। इस दिन भाजपा के सभी सांसदों, विधायकों और उनके प्रतिनिधियों के दफ्तर के बाहर कृषि कानूनों की कॉपी जलाकर संपूर्ण क्रांति में अपनी भूमिका निभाएं।"

सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की जुझारू भावना के साथ आज 5 जून को संयुक्त किसान मोर्चा के शीर्ष नेताओं राकेश टिकैत और गुरुनाम सिंह चढूनी के नेतृत्व में हजारों किसान टोहाना, फतेहाबाद के विधायक की शह पर सरकार द्वारा अपने कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उत्पीड़न के खिलाफ वहां जेल भरो के नारे के साथ जा रहे हैं और 7 जून को पूरे हरियाणा के सभी थानों पर धरने का आह्वान किया गया है।

निश्चय ही आज के किसान आंदोलन और जनांदोलन को 70 दशक के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की सकारात्मक विरासत से, उसमें प्रतिध्वनित हुई बदलाव की जनता की गहरी आकांक्षा, उसकी स्पिरिट से प्रेरणा लेनी चाहिए, पर साथ ही उसके नकारात्मक अनुभवों से आज के लिए शिक्षा भी लेना चाहिए। किसान आंदोलन के नेतृत्व के एक हिस्से में तब के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के विचारधारात्मक पहलू के अनालोचनात्मक महिमामंडन की प्रवृत्ति दिख रही है, यह वैचारिक विभ्रम और पूर्वाग्रह का परिणाम लगता है। 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यवस्था परिवर्तन के नारे के साथ शुरू हुए उस विराट आंदोलन का अंत महज सत्ता परिवर्तन में होकर रह गया और उससे महत्वपूर्ण यह कि उस सत्ता परिवर्तन के फलस्वरूप 1977 में RSS जनता पार्टी के माध्यम से पहली बार केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदार बनने में सफल हो गयी थी। दरअसल तानाशाही और भ्रष्टाचार के खिलाफ समाज में जबरदस्त उद्वेलन पैदा करने और सत्तापरिवर्तन  के बावजूद उस आंदोलन की कुछ बड़ी कमजोरियां थीं तथा उसके नेताओं ने कुछ ऐतिहासिक भूलें कीं। 

RSS और उसके पूरे कुनबे को शीर्ष नेतृत्व द्वारा जिस तरह आंदोलन में शामिल किया गया, यहां तक कि उसको defend किया गया ( इंदिरा गाँधी के आरोप लगाने पर JP ने कहा था कि RSS अगर फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूँ !), उसका फायदा उठाकर संघ और उसके अनुषांगिक संगठन भारी शक्ति अर्जित करने और समाज मे लोकतंत्र के चैंपियन और भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा के बतौर वैधता हासिल करने में सफल हुए,  कालांतर में हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को इसकी आज तक ऐसी कीमत चुकानी पड़ रही है, जिसकी क्षतिपूर्ति सम्भव नहीं है। यह उस आंदोलन की भयावह चूक थी, जिसके लिए काफी हद तक नेतृत्व की विचारधारात्मक कमजोरी और राजनीतिक अवसरवाद जिम्मेदार था। 

इस आंदोलन की दो  गम्भीर कमजोरियां थीं, पहली यह कि आर्थिक नीतियों और बुनियादी ढांचे के सवाल आंदोलन का प्रमुख मुद्दा नहीं बन सके और दूसरी यह कि आंदोलन में मेहनतकश तबकों-उत्पादक वर्गों की भागीदारी नहीं थी। भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा था और इसमें भागेदारी मध्यवर्ग, छात्र-युवाओं तक सीमित रह गयी। भ्रष्टाचार का सवाल उसके बाद से  अक्सर उठता रहा है और संसदीय दलों के बीच सत्ता की अदला-बदली का माध्यम बनता रहा है-1977 के बाद 1989 में वीपी सिंह और 2014 में मोदी का अभ्युदय (अन्ना आंदोलन की पृष्ठभूमि में)। ऐसे अमूर्त ऊपरी सुधार के आंदोलन संघ-भाजपा के बेहद अनुकूल होते हैं। हर बार वे इन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में घुसकर लगातार अपनी ताकत बढ़ाते रहे हैं और आज की वर्चस्वशाली (hegemonic ) हैसियत और सत्ता के एकाधिकार तक पहुंच गए हैं। 

जाहिर है, तानाशाही और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की स्पिरिट और उसके तूफानी आवेग से प्रेरणा लेना एक बात है, परन्तु उसकी विचारधारा और राजनीति आज के आंदोलन के लिए आदर्श और मॉडल नहीं हो सकती। आज उस बड़े आंदोलन की राजनीतिक कमजोरियों और वैचारिक कुहासे से आगे बढ़ना होगा। 

वर्तमान आंदोलन के समय देश की political setting बिल्कुल अलग है और किसान-आंदोलन पहले ही गुणात्मक रूप से आगे बढ़े हुए उच्चतर धरातल पर खड़ा है। इस बार बुनियादी सरोकार के प्रश्न उठ खड़े हुए है।

तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र का प्रश्न तो है ही, अबकी बार आर्थिक ढांचे  का प्रश्न, कृषि के कारपोरेट takeover के खिलाफ लड़ाई तथा चौतरफा कृषि विकास के लिए नये नीतिगत ढांचे का प्रश्न आंदोलन के केंद्र में है। इसके साथ ही किसान तथा मजदूर संगठन मिलकर सार्वजनिक उद्यमों के कारपोरेट द्वारा हड़पे जाने तथा राष्ट्रीय सम्पदा की लूट का प्रश्न भी जोरशोर से उठा रहे हैं। इस बार हमारे समाज का मुख्य उत्पादक वर्ग-किसान तथा मेहनतकश इस लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं। 

किसान-आंदोलन को निश्चय ही अतीत की तमाम मुक्तिकामी विचारधाराओं से प्रेरणा लेना होगा तथा उनकी रोशनी में आज के नए सवालों के नए समाधान खोजने होंगे। राजनीतिक ताकतें सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की तरह मौजूदा आंदोलन को भी महज सत्ता-परिवर्तन के लिए इस्तेमाल न कर ले जाएं इसके प्रति सजग रहना होगा और इसे बुनियादी व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में निर्देशित करना होगा।

आज देश की अर्थव्यवस्था रसातल में है, विकास दर 7 सालों में (+7 % ) से गिरकर (-7%) पंहुँच गयी है। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की State of Working India, Report 2020 के अनुसार महामारी के दौरान 23 करोड़ आबादी गरीबी रेखा के ऊपर से नीचे चली गयी है, Pew Research Centre की रिपोर्ट के अनुसार दूसरी लहर आने के पहले ही मध्य वर्ग से 3.2 करोड़ लोग बाहर हो चुके थे। CMIE के ताजा आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी दर 14.5% पहुंच गयी, 1 महीने में 1 करोड़ लोगों की नौकरी गयी, यहां तक कि गांवों में भी बेरोजगारी दर 7% है, लोगों को मनरेगा में भी काम नहीं मिल रहा। जबकि इसी दौर में मोदी जी के चहेते कारपोरेट घरानों ने अकूत कमाई की है। महंगाई आसमान छू रही है, छात्र-युवा, मेहनतकश सब चौतरफा संकट की मार झेल रहे हैं, सर्वोपरि मध्यवर्ग जिसने मोदी के राज्यारोहण में निर्णायक भूमिका निभाई थी, वह इस दौर में बुरी तरह तबाह व निराश हुआ है,  और विदेशों में लोकतांत्रिक जनमत के बीच मोदी की छवि पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है ।

जरूरत है कि जनता के बढ़ते मोहभंग, आक्रोश और प्रतिरोध को आंदोलनात्मक-राजनीतिक दिशा मिले। आज कारपोरेट लूट तथा फ़ासीवादी सत्ता के खिलाफ चल रहा ऐतिहासिक किसान आंदोलन अपने नीतिगत सरोकारों और मूल्यबोध के साथ ऐसे किसी आंदोलनात्मक-राजनीतिक पहल की धुरी और प्रेरणा बन सकता है। 

वक्त की मांग है कि किसान आंदोलन राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के ऐसे वैकल्पिक साझा राजनैतिक कार्यक्रम के विकास में एक catalyst की भूमिका अदा करे, उसके लिए पहल करे, जो अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन तथा हमारे राजनीतिक तंत्र, समाज और संस्कृति के जनतांत्रीकरण का आधार बने। ऐसा एक वैकल्पिक कार्यक्रम "भाजपा हराओ" मुहिम को विश्वसनीय वैचारिक आधार देगा तथा जनसमुदाय को  उत्प्रेरित करेगा।

मोदी मनमोहन सिंह नहीं हैं, यह सच है, वे आसानी से सत्ता नहीं छोड़ेंगे। पर इतिहास का उससे बड़ा सच है कि अपराजेय कोई नहीं होता। जनता जब किसी को हटाने का मन बना लेती है, तो उसके रास्ते निकाल लेती है, फिर TINA फैक्टर ( There Is No Alternative ) भी काम नहीं करता। सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की परिणति, कमजोर विपक्ष के बावजूद, जैसे महाबली इंदिरा गांधी के निरंकुश राज के अंत मे हुई, वैसे ही किसान आंदोलन 2024 में मोदी के फ़ासीवादी राज का अंत करेगा, यह writing on the wall है !

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

farmers protest
Farm Bills
Samyukt Kisan Morcha BJP
Modi government
RSS
COVID-19
economic crises
privatization

Related Stories

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

दिल्लीः एलएचएमसी अस्पताल पहुंचे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मंडाविया का ‘कोविड योद्धाओं’ ने किया विरोध

राम सेना और बजरंग दल को आतंकी संगठन घोषित करने की किसान संगठनों की मांग

विशाखापट्टनम इस्पात संयंत्र के निजीकरण के खिलाफ़ श्रमिकों का संघर्ष जारी, 15 महीने से कर रहे प्रदर्शन

जहाँगीरपुरी हिंसा : "हिंदुस्तान के भाईचारे पर बुलडोज़र" के ख़िलाफ़ वाम दलों का प्रदर्शन

दिल्ली: सांप्रदायिक और बुलडोजर राजनीति के ख़िलाफ़ वाम दलों का प्रदर्शन

दिल्ली : नौकरी से निकाले गए कोरोना योद्धाओं ने किया प्रदर्शन, सरकार से कहा अपने बरसाये फूल वापस ले और उनकी नौकरी वापस दे

दिल्ली: कोविड वॉरियर्स कर्मचारियों को लेडी हार्डिंग अस्पताल ने निकाला, विरोध किया तो पुलिस ने किया गिरफ़्तार

पूर्वांचल में ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के बीच सड़कों पर उतरे मज़दूर

देशव्यापी हड़ताल के पहले दिन दिल्ली-एनसीआर में दिखा व्यापक असर


बाकी खबरें

  • Ramjas
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली: रामजस कॉलेज में हुई हिंसा, SFI ने ABVP पर लगाया मारपीट का आरोप, पुलिसिया कार्रवाई पर भी उठ रहे सवाल
    01 Jun 2022
    वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया(SFI) ने दक्षिणपंथी छात्र संगठन पर हमले का आरोप लगाया है। इस मामले में पुलिस ने भी क़ानूनी कार्रवाई शुरू कर दी है। परन्तु छात्र संगठनों का आरोप है कि…
  • monsoon
    मोहम्मद इमरान खान
    बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग
    01 Jun 2022
    पटना: मानसून अभी आया नहीं है लेकिन इस दौरान होने वाले नदी के कटाव की दहशत गांवों के लोगों में इस कदर है कि वे कड़ी मशक्कत से बनाए अपने घरों को तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। गरीबी स
  • Gyanvapi Masjid
    भाषा
    ज्ञानवापी मामले में अधिवक्ताओं हरिशंकर जैन एवं विष्णु जैन को पैरवी करने से हटाया गया
    01 Jun 2022
    उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता हरिशंकर जैन और उनके पुत्र विष्णु जैन ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी मामले की पैरवी कर रहे थे। इसके साथ ही पिता और पुत्र की जोड़ी हिंदुओं से जुड़े कई मुकदमों की पैरवी कर रही है।
  • sonia gandhi
    भाषा
    ईडी ने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी को धन शोधन के मामले में तलब किया
    01 Jun 2022
    ईडी ने कांग्रेस अध्यक्ष को आठ जून को पेश होने को कहा है। यह मामला पार्टी समर्थित ‘यंग इंडियन’ में कथित वित्तीय अनियमितता की जांच के सिलसिले में हाल में दर्ज किया गया था।
  • neoliberalism
    प्रभात पटनायक
    नवउदारवाद और मुद्रास्फीति-विरोधी नीति
    01 Jun 2022
    आम तौर पर नवउदारवादी व्यवस्था को प्रदत्त मानकर चला जाता है और इसी आधार पर खड़े होकर तर्क-वितर्क किए जाते हैं कि बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में से किस पर अंकुश लगाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहतर…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License