NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
SC ST OBC
महिलाएं
पुस्तकें
साहित्य-संस्कृति
भारत
मेरे लेखन का उद्देश्य मूलरूप से दलित और स्त्री विमर्श है: सुशीला टाकभौरे
सुशीला टाकभौरे ने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि कई विधाओं में लेखन किया है। कई कहानियां, कविता और उपन्यास, आत्मकथा विभिन्न राज्यों के पाठ्यक्रम में लगी हुई हैं। आपको कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
राज वाल्मीकि
10 May 2022
Sushila Takbhaure

हिंदी दलित साहित्य में सुशीला टाकभौरे एक सुपरिचित नाम हैं। इनकी आत्मकथा “शिकंजे का दर्द” काफी चर्चित रही है। सुशीला जी ने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि कई विधाओं में लेखन किया है। कई कहानियां, कविता और उपन्यास, आत्मकथा विभिन्न राज्यों के पाठ्यक्रम में लगी हुई हैं। सुशीला जी ने अपने लेखन में दलित और स्त्री विमर्श को प्रमुखता से उठाया है। इन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।    

सुशीला जी का लेखन सहज, सरल और सीधे शब्दों में अपनी बात कहता है। उनके पात्र दलित और स्त्रियों के हक़-अधिकार की मांग करते हैं। अन्याय और अत्याचार का विरोध करते हैं। जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का खात्मा चाहते हैं। अंतरजातीय विवाहों का समर्थन करते हैं। इनके पात्र समता, समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के पक्षधर होते हैं। हाल ही में  उनसे बात हुई। पेश हैं उनसे बातचीत के प्रमुख अंश: 

प्रश्न – सुशीला जी सबसे पहले बात करें जब आप किशोरावस्था में थीं उस समय आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी? कैसे आपका लेखन की ओर झुकाव हुआ? इस सन्दर्भ में आप अपनी कहानी “सिलिया” (जो शायद आपकी पहली रचना है) के बारे में बताएं। किस उम्र में आपकी पहली रचना लिखी गई? “सिलिया” कहानी के बारे में इसलिए पूछना चाहता हूँ क्योंकि यह आपकी चर्चित कहानियों में से एक है।

उत्तर— राज वाल्मीकि जी, यहाँ आपने मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछे हैं। पहली बात- मेरी किशोरास्था के समय हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि। मैंने अपनी आत्मकथा में इस सम्बन्ध में बहुत विस्तार के साथ लिखा है। मध्यप्रदेश का एक छोटा गाँव, बीसवीं  सदी के सातवें दशक में भी वहां बहुत छुआछूत भेदभाव किया जाता था। गाँव के बाहर हमारे घर थे। आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। अभाव से त्रस्त होकर पूरा परिवार मेहनत मजदूरी के काम करके भी गरीबी का जीवन जीता था। मैं भी अपनी माँ के साथ, खेत में फसल कटने पर मजदूरी करने जाती थी।

घर से थोड़ी दूरी पर ही स्कूल था। अतः शिक्षा के प्रति ललक बचपन से ही थी। बेटों की अपेक्षा बेटियों पर अधिक बंधन लगाए जाते थे। घर से बाहर अकेले जाने पर हमेशा भय रहता था। परिवार के सभी लोग अपने दुःख और परेशानियों  में जीते थे। इन सब  के प्रभाव से मेरा मन अन्तर्मुखी हो गया था। मन में अनेक प्रकार की कल्पनाएँ और विचार आते थे। कक्षा में शिक्षक द्वारा कविता या कहानी  पढाए जाने पर मेरे मन में भी उसी तरह के भाव उमड़ते थे जिन्हें मैं अपनी स्कूल की कापी में लिख लेती थी। ‘सिलिया’ कहानी के पहले मैंने ‘व्रत और व्रती’ कहानी 1968 में लिखी थी तब मैं कक्षा  आठवी में पढ़ती थी। मैट्रिक में पढ़ते समय ‘सिलिया’ कहानी  लिखी थी। 1993 में रमणिका जी की पत्रिका  ‘युद्धरत आम आदमी’ के कहानी विशेषांक में ‘सिलिया’ कहानी पहले छप गई थी। इसीलिए मैं इसे अपनी पहली कहानी मानती हूँ। कविताएँ भी हाई स्कूल में पढ़ते समय लिखती थी। जिन्हें सम्भालकर नहीं रख सकी। सन 1970 से 74 के बीच लिखी कुछ कविताएँ ‘स्वातिबूंद और खारे मोती’ काव्य संग्रह में संकलित भी हैं। इस काव्य संग्रह का प्रकाशन 1993 में किया है।

लेखन पहले से होता रहा मगर प्रकाशन कई बरसों बाद संभव हो सका। माता-पिता अशिक्षित थे। शिक्षित भाईयों का सहयोग मेरे लेखन-प्रकाशन में नहीं मिला। उन दिनों सिवनी मालया इटारसी हरदा होशंगाबाद में साहित्यिक कार्यक्रम भी होते थे। मगर अछूत जाति होने के कारण वहां तक पहुंचने के अवसर नहीं मिल सके। लायब्रेरी से अच्छी साहित्यिक किताबे लाकर पढ़ने के अवसर नहीं मिले। घर से कॉलेज, कॉलेज से घर-बस यही जीवन क्षेत्र था। विवाह के बाद नागपुर आने पर सामाजिक और साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने के अवसर मिले।  साहित्य  लेखन को भी प्रोत्साहन मिला।    

‘सिलिया’ कहानी कल्पना नहीं यथार्थ है। एक अछूत लड़की के जीवन का कड़वा सत्य। इसे ही सिलिया ने अपने जीवन का सम्बल बनाया। उच्च शिक्षा पाना उसके जीवन का उद्देश्य बन गया था। कभी वह अपने दलित जाति समुदाय के लिए प्रेरणा का प्रतीक बन सकी। ‘सिलिया’ कहानी ने सचमुच बहुत लोकप्रियता पाई है। यह महाराष्ट्र बोर्ड, कर्नाटक बोर्ड  के सिलेबस में है। कई महाविद्यालयों  और विश्व विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल है। सिलिया कहानी  के कथाक्रम की घटनाएं सत्य घटनाएं  हैं, इसलिए उनका इतना सजीव और सार्थक चित्रण हो सका है।

अधिकतर लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको लेखन की प्रेरणा किस से मिली है तब मैं यही विचार करती हूँ कि लेखन की प्रेरणा मुझे किसी अन्य से नहीं, बल्कि अपने अन्तःकरण से ही मिली है। प्रारम्भ में भावुकता के साथ मानवतावादी विचारधारा से, मेरा लेखन होता था। महाराष्ट्र में आने के बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर की विचारधारा से मैं दलित साहित्य लिखने लगी हूँ।

प्रश्न – आपकी कविताएं चाहे वह “तुमने उसे कब पहचाना” हो या “हमारे हिस्से का सूरज” अशिक्षा, अज्ञान और जड़ता के अन्धकार में सोये दलित जनमानस को अम्बेडकरवादी विचारधारा से आलोकित कर जगाने का कार्य करती हैं। साथ ही यथास्थिति से विद्रोह का आह्वान भी करती हैं। आज के दौर का दलित जनमानस अम्बेडकरी वैज्ञानिक विचारधारा से कितना  परिचित  हुआ है?

उत्तर— सर्वप्रथम धन्यवाद कि आपने मेरी कविताओं को इतनी गहराई से समझकर उन्हें महत्व दिया है। मेरी अधिकाँश कविताएँ इसी तरह ‘दिल की चट्टान पर गहरी चोट के फलस्वरूप फूटीं चिंगारियों की तरह सृजित हुई है।‘जिनके माध्यम से मैंने अशिक्षा, अज्ञान और जड़ता के अन्धकार में सोये दलित जनमानस को आंबेडकरवादी विचारधारा  से आलोकित करने का प्रयास किया है। मेरे लेखन का उद्देश्य मूलरूप से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श है। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और स्त्री-मुक्ति   आन्दोलन में मैं सक्रिय भागीदारी करती रही हूँ। आन्दोलनों से जुड़े साहित्य का लेखन अधिक सक्रिय और क्रांतिकारी रुप में सृजित होता है। मैंने भी उसी रूप में अपने भाव और विचारों को साहित्य  के रुप में अभिव्यक्ति  प्रदान की है।

महाराष्ट्र में आने के बाद और अम्बेडकरवादी विचारधारा को समझने के बाद, मैंने गांधी जी के हरिजनों की कमजोर मानिसकता को समझा। मैं अपने पिछड़े समुदाय के लोगों की गांधीवादी मानिसकता को तोड़ देना चाहती हूँ। इसलिए अधिक उग्र और सटीक शब्दों के प्रयोग से अपनी कविताओं को सार्थक रूप में लिखा है। मेरे पांच कविता संग्रह छपे हैं। जिनमे  प्रलेक प्रकाशन मुंबई ने ‘काव्य  रंग’ सुशीला टाकभौरे की सम्पूर्ण कविताएँ – नाम से अजिल्द (पेपर बैक) रूप में कम कीमत में उपलब्ध कराया है।

आज के दौर का दलित जन मानस अम्बेडकरवादी वैज्ञानिक विचारधारा को समझ रहा है। कुछ पिछड़ा दलित समुदाय जो अभी तक अँधेरे में गुमराह हैं, उन्हें भी जागरूक बनाने के प्रयास मुख्य  है। केवल लेखन नहीं बल्कि उद्बोधन भाषण से भी मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने का कार्य कर रही हूँ।

प्रश्न— आपकी कहानियों और उपन्यासों में नारी का शोषण और पीड़ा की अभिव्यक्ति होती है। उदाहरण के लिए “वह लड़की” की शैला को लिया जा सकता है। आपके पात्र सामंती-जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करते हैं। नारी पात्र दलित और स्त्री होने की लड़ाई लड़ते हैं। क्या आज भी दलित  स्त्रियाँ पितृसत्ता के कारण अपने ही पुरुषों और दलित होने के कारण दबंग जातियों से दोहरी लड़ाई लड़ रही हैं। स्त्री-पुरुष बराबरी की लड़ाई में वे कहां तक सफल हुई हैं?

उत्तर— मेरी स्त्री एवं दलित स्त्री प्रधान सभी कहानियों में नारी के शोषण और पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है दमदार, टुकड़ा टुकड़ा शिलालेख है। इन के माध्यम से वर्णवादी जातिवादी और दमनवादी व्यवस्था के प्रति विद्रोह है।

स्त्री की यह लड़ाई अभी भी चल रही है। वर्तमान समय में भी समाज में पितृसत्ता की मानसिकता है जिसके कारण स्त्रियों को पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता, उन्हें पुरुषों के पीछे माना जाता है। ऐसी स्थितियों में आज भी स्त्रियाँ लिंगभेद के विरुद्ध और स्त्री पुरुष समानता की लड़ाई लड़ रही हैं। स्त्री चाहे सवर्ण हो या दलित—सभी स्त्रियाँ पितृसत्ता से पीड़ित होती हैं। दलित स्त्री को दोहरे मोर्चों पर दोहरी लड़ाई  लड़नी पड़ती है - स्त्री होने के कारण भी और दलित स्त्री होने के कारण भी। दलित पुरुष भी मनुवादी विचारधारा  के कारण स्वयं को दलित स्त्री से सबल और सक्षम मानता है। दलित स्त्री अपने ही घर परिवार में पुरुषसत्ता का सामना करती है और घर से बाहर सवर्ण और दबंग पुरुषों द्वारा भी शोषण का शिकार बनाई जाती है।

अम्बेडकरवादी विचारधारा से स्त्री पुरुष समानता का आन्दोलन सफल जरूर हुआ है मगर अभी भी ऐसे कई अपवाद है जिससे स्त्री पुरुष समानता नजर नहीं आती है। क़ानून के सामने स्त्री पुरुष समान हैं मगर सामाजिक व्यवहार में पिता, भाई, पति या पुत्र को ही अधिक महत्व दिया जाता है। इन परम्पराओं को तोड़कर ही स्त्री-पुरुष समानता आ सकेगी।

प्रश्न – आपका उपन्यास “नीला आकाश” दलितों की एकता का आख्यान है। जिसमें दलित समाज की नई पीढ़ी परिवर्तनकारी भूमिका में सामने आती है। आप वास्तविक जीवन में दलित एकता को किस नज़रिये से देखती हैं? क्या दलितों में एकता बढ़ रही है या अभी भी दलित ब्राहमणवादी जाति व्यवस्था के उच्च-निम्न क्रम में बंटे हुए एक दूसरे से श्रेष्ठ होने के दंभ में जी रहे हैं?

उत्तर – ‘नीला आकाश’ उपन्यास को ‘दलित एकता का आख्यान’ कहना  मेरे लिए गर्व की बात होगी। इसमें नीलिमा और आकाश नई पीढ़ी के भूमिका निभाते दिखाई देते हैं। कोई भी लेखक और लेखिका अपने वास्तविक जीवन में जो चाहते हैं, वह किसी न किसी रूप में उजागर जरूर होता है। मैंने भी अपने वास्तविक जीवन में इसी रूप में  देखना चाहा है।  जैसा कि ‘नीला आकाश’ में चित्रित किया गया है।

यह प्रश्न अलग है कि-क्या दलितों में इस तरह की एकता बढ़ रही है या नहीं? वास्तविक बात सत्य रूप में यही है कि अभी भी दलितों में, ब्रह्मणवादी जाति  व्यवस्था की ऊंच-नीच की भावना है। वे आपस में भी दलित जातियों में उपजाति के क्रम के अनुसार एक दूसरे से श्रेष्ठ होने का दम्भ रखते हैं। चाहे वे महाराष्ट्र के महार जाति के हों अथवा उत्तर भारत के चमार जाति के –दलित होने पर भी जाति  श्रेष्ठता की भावना उनमें हैं जबकि अन्य पिछड़ी दलित जातियां स्वयं को दलितों में ही दलित मानकर  अभी भी शोषित पीड़ित गरीब और पिछड़ी अवस्था में जी रही हैं। वाल्मीकि, सुदर्शन, मखियार, मांग मातंग पिछड़ी जातियां हैं। इनके बीच भी जाति भेद मौजूद है। इन्हीं पिछड़ी दलित जाति के पात्रों द्वारा मैंने दलित एकता की बात कही  है। इनके बीच भी सिर्फ खान-पान होता है शादी-विवाह के रिश्ते नहीं होते। अंतरजातीय विवाहों से ही  एकता संभव होगी।

प्रश्न – आपके उपन्यास “ तुम्हें बदलना ही होगा” में अंतरजातीय विवाह के माध्यम से समाज में व्याप्त जाति-भेद को मिटाने का सन्देश है। बाबा साहेब ने भी अंतरजातीय विवाह को जाति के विनाश में एक महत्वपूर्ण जरिया माना था। आज के सन्दर्भ में क्या कथित उच्च जाति के लोग अपनी बेटी का विवाह कथित निम्न जाति में करने को सहमत होते हैं या उनका उच्च जाति का दंभ इसमें आड़े आता है?

उत्तर – यह बाबा साहब आंबेडकर जी का ही विचार है कि अंतरजातीय विवाह, जाति के विनाश में एक महत्वपूर्ण घटक है। यदि सभी वर्ण और जाति के लोग आपस में निश्चित रूप से अंतरजातीय विवाह करने लगेंगे, तब यह वर्ण भेद जाति भेद की भावना  स्वयं समूल नष्ट हो जाएगी। लेकिन हमारी समाज व्यवस्था में वर्ण भेद और जाति भेद की मानसिक जड़े बहुत गहरी हैं। उच्च वर्ण के लोग अपनी उच्चता सुरक्षित करने के लिए ही अंतरजातीय विवाहों का विरोध करते हैं। यदि कोई उच्च  जाति का लडका, दलित जाति की लड़की से शादी कर भी ले, तब भी उस लडके के परिवार के सवर्ण दलित बहू को अपने घर में रहने नहीं देते हैं। वे किसी तरह उस विवाह को तोड़ कर उस दलित लडकी से मुक्त होना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में उस दलित लडकी और उसके परिवार वालों पर भी तरह-तरह के नये अत्याचार किये जाते हैं। ऐसी कई घटनाएं समाज में खुले आम होती रहती हैं।

‘तुम्हें बदलना ही होगा’ उपन्यास में मैंने चमनलाल बजाज, महिमा भारती, साथ ही धीरज वाल्मीकि और उषा बजाज के माध्यम से अलग परिवेश में अंतरजातीय विवाह जो आज के सन्दर्भ में कहीं-कहीं ही सफल हो पाता है।

यथार्थ में अभी भी इस तरह अंतरजातीय विवाह होना कठिन है। फिर भी उच्च  शिक्षा प्राप्त, लड़के और लड़कियां साथ में नौकरी करते हुए अपने सामाजिक जीवन में भी पार्टनर बनने लगे हैं। परम्परावादी संयुक्त परिवारों से बाहर निकलने पर ही यह संभव है। ‘वह लडकी’ उपन्यास में बबिता का गुप्ता  परिवार में विवाह सम्भव बताया है। आशा है, कुछ बरसों बाद ऐसे विवाह अधिक संख्या में हो सकेंगे।

प्रश्न – आपकी आत्मकथा  “शिकंजे का दर्द” काफी चर्चित रही है जिसमें आपने तीन पीढ़ियों के स्त्री के दर्द और संघर्ष को दर्शाया है। इस शिकंजे को तोड़ने में आज की दलित स्त्री कितनी सक्षम  हुई है?

उत्तर— यह सत्य है ‘शिकंजे का दर्द’ आत्मकथा में मेरी नानी का दर्द और संघर्ष बहुत विस्तार के साथ बताया है। मेरा जन्म 1954 में हुआ है, 6-7 वर्ष की उम्र से ही मैं अपनी स्थिति और अपने जाति  समुदाय के प्रति जाति-भेद, अपमान, घृणा और अन्याय, अत्याचार की स्थिति को समझने लगी थी। सन 1960 से 70 के बीच मैंने उन्हें हाथों से लोहे के पंजे से टोकने में मलमूत्र  उठाते और गाँव के बाहर ले जाकर फेंकते हुए देखा है। मेरी नानी की दीन-हीन दशा उस समय का कटु सत्य है। सर्दी, गर्मी और बरसात के मौसम में उसका काम ऐसा ही होता था। बदले में गाँव से बस जूठन और उतरन कपड़े मिलते थे। माँ के समय हमने गरीबी  और अभावों का जीवन जिया था। गाँव के बाहर  झोपडी जैसे घर थे। गाँव के सभी लोग छुआछूत मानते थे। 1970 से 74 तक कॉलेज की शिक्षा पाते समय भी मैंने जाति भेद का दर्द और अपमान पाया था।

वर्तमान समय की दलित स्त्री इस शिंकजे को तोड़ने में कितनी सक्षम हुई है? – ऐसी स्त्रियों की संख्या बहुत कम है, जो उच्च शिक्षा पाकर सम्मान की नौकरी करनी लगी हैं, जो बड़े शहरों में रहती हैं। वे सम्मानित जरूर बनी हैं। मगर फिर भी उनके प्रति समाज की मानसिकता जातिवाद ही है। मैंने स्वयं ऐसा अपमान सहा है। जाति का शिंकजा टूटा नहीं है, मगर आज की युवा पीढी की   लड़कियाँ अन्यायी पति से शोषण मुक्त  होने की हिम्मत करने लगी हैं। वे अंतरजातीय विवाह करके भी उत्तम और सम्मानित जीवन जीने का प्रयोग करने लगी हैं।

प्रश्न – ऐसा माना जाता है कि हिंदी दलित साहित्य में, दलित स्त्री विमर्श का अभाव है। इस बारे में आप क्या सोचती हैं?

उत्तर- हिंदी दलित साहित्य में  स्त्री-लेखन कम हुआ है—इस बात को मान सकते हैं। मगर यह सत्य है कि जितना भी स्त्री लेखन हुआ है उसमें दलित स्त्री विमर्श का अभाव नहीं है। मेरे स्वयं के 5 कविता  संग्रह, 4 कहानी संग्रह, 3 उपन्यास  2 नाटक, एवं एक एकांकी संग्रह की किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं। आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ 2011 में प्रकाशित हुई। इसके साथ आलोचना, समीक्षा, पत्र- लेखन और साक्षात्कार की कई किताबे प्रकाशित हुई हैं। मेरी पच्चीस किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं। उन सभी का केंद्रीय भाव दलित विमर्श और स्त्री विमर्श है। दलित स्त्री जीवन की समस्याएं उनके अधिकारों का हनन, उनका विरोध, आक्रोश और विद्रोह, समता, सम्मान और स्वतंत्रता के लिए उनका संघर्ष मेरी सभी रचनाओं में है। इस तरह डॉ. रजनी अनुरागी, डॉ. हेमलता महिश्वर, डॉ. पूनम तुषामड, अनीता भारती, रजनी तिलक, पुष्पा विवेक, आदि सभी की कविताओं में स्त्री विमर्श की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। कावेरी जी डॉ. रजत रानी मीनू,  डॉ. रजनी दिसोदिया, डॉ. सुमित्रा महरोल, कौशल पवार – सभी की रचनाओं में स्त्री विमर्श है। सभी हिंदी दलित स्त्री आत्मकथाओं में स्त्री विमर्श केन्द्रीय रूप में चित्रित हुआ है।

अतः इस सन्दर्भ में मेरा यह विचार है की नीरा परमार, कुसुम मेघवाल, कावेरी जी, रजनी तिलक, अनिता भारती, रजत रानी मीनू, डॉ. नीलम अर्जुन, डॉ. रेखा टी.,  प्रो. विमल थोरात, डॉ. सुरेखा अंतिम, मोहन, इंदु रवि, डॉ. आशा रानी, राधा वाल्मीकि, पूजा प्रजापति, उर्मिला हरित, रुपाली प्रीति  बौद्ध, अमिता महरोल डॉ. राजकुमारी आदि सभी वरिष्ठ और युवा वर्ग की दलित लेखिकाओं की कविताओं और अन्य रचनाओं में स्त्री विमर्श है। 

प्रश्न – आपने जब लिखना शुरू किया था तब हिंदी दलित लेखन के समक्ष क्या चुनौतियां थीं और आज 2022 में क्या चुनौतियाँ देखती हैं?

उत्तर – मेरा लिखना स्कूल के समय से ही शुरू था। तब मैं छोटी-छोटी कविताएँ लिखती थी। मैट्रिक से बी.ए. के बीच लिखी मेरी कविताएँ ‘स्वातिबूंद और खारे मोती’ काव्य संग्रह में संकलित की हैं। इस बीच लिखी कुछ कहानियों को सुधारित रूप देकर ‘अनुभूति के घेरे’ और ‘टूटता वहम’ कहानी  संग्रह में संकलित की हैं। 1975 में विवाह के बाद नागपुर आई तब मैंने यहाँ आने के बाद ही समझा था कि सवर्ण साहित्यकार हिंदी दलित साहित्य लेखन का विरोध करते हुए कहते हैं कि—क्या साहित्य भी कभी दलित होता है?”

दलित मुक्ति आन्दोलन और दलित विमर्श के कार्यक्रमों में दलित साहित्य के महत्व और उसकी आवश्यकता—पर हम तर्क-वितर्क के साथ बात करते थे। तब उन्हीं विचारों से मैं उन लोगों को जवाब दे रही थी, जो कहते थे कि दलित साहित्य के नाम पर हम साहित्य को बांट  रहे हैं। और उसके महत्व को कम कर रहे हैं। 1975 से 90 तक यही सुनते हुए मैंने साहित्य लेखन किया था। 1993-94 में मेरे दो कविता संग्रह छपे थे। 1993-95 में नागपुर में अम्बेडकर फुले साहित्य सम्मेलन डॉ. विमलकीर्ति जी ने आयोजित गया था। तब तक दलित साहित्य का विरोध भी कम हो गया था। मेरे दो काव्य संग्रह के बाद दो कहानी संग्रह ‘अनुभूति के घेरे’ और ‘टूटता वहम’ 1996-97 में छपे। 1997 में ‘परिवर्तन जरूरी है’ लेख संग्रह छपा। लेखन प्रकाशन के साथ मैं दलित साहित्य सम्मेलनों में लगातार जाती रही। उज्जैन, भोपाल, जबलपुर, दिल्ली, लखनऊ पूना, हैदराबाद –आदि अनेक  शहरों की सामाजिक संस्थाओं और शेक्षणिक संस्थाओं ने दलित विमर्श और नारी विमर्श के कार्यक्रमों में मुझे आमंत्रित  किया।

आज 2022 में स्थितियां ज्यादा सरल हैं। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और आदिवासी विमर्श पर सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षाणिक संस्थाएं कार्यक्रम आयोजित करके हमें आमंत्रित  करती हैं। लेखन प्रकाशन में भी अब पहले जैसी असुविधाएं और अवरोध नहीं हैं।

प्रश्न –  आजकल आप क्या लिख रहीं हैं? पाठकों से कुछ साझा करना चाहेंगी ?

उत्तर— अब आपसे क्या कहूँ? छिपाने वाली बात कुछ नहीं हैं। पिछले कुछ बरसों से घरेलू पारिवारिक परेशानियां चल रही हैं। 2014 में छोटी बेटी के विवाह के बाद उसकी ससुराल की तरफ से लगातार परेशान किया जाता रहा। पिछले कुछ बरसों में सुन्दरलाल टाकभौरे जी की तबीयत लगातार खराब रही। लगातार इलाज में खर्च किया। उनके लीवर के ओपरेशन में कई लाख रूपये खर्च हुए। लगातार अस्पताल, डॉक्टर, इलाज चलने से मेरा लिखना पढ़ना नहीं हो पाता था। थोड़ा समय निकालकर पिछली अधूरी पुस्तकों को ही प्रकाशित करा सकी। 2020 में ‘धन्यवाद के बहाने’ किताब छपी। 2021 में ‘प्रतिरोध के स्वर’ काव्य संग्रह छपा। 2021 में ही ‘संवाद जारी है’ साक्षात्कार की किताब छपी।

7 जनवरी 2022 को टाकभौरे जी नहीं रहे। तब से अभी तक मेरी स्थिति संभल नहीं पाई है। आर्थिक दृष्टि से त्रस्त  होने के साथ, पारिवारिक दुःख का संताप भी साथ है। कोशिश कर रही हूँ कि फिर से अपने लेखन कार्य से जुडकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का कार्य करना शुरू करूँ।

फिलहाल अभी तो कुछ नया लिखना शुरू नहीं किया है। एम.फिल और पी.एच.डी. के शोधार्थी, जिन्होंने मेरी पुस्तकों पर शोध किया है, उन्हें उनके साक्षात्कार के प्रश्नों के उत्तर भेजना जरूरी  होता है, बस वही लिखना हो रहा है। कुछ लोगों को वह भी नहीं भेज सकी हूँ। मन बड़ा दुखी हो जाता है। अब पहले जैसी तन्मयता और लेखन की तेज गति भी नहीं आ पाती है। इस कारण चाहकर भी लिख नहीं पा रही हूँ। घर गृहस्थी और परिवार में रहकर सबकी जिम्मेदारी निभाते हुए, एक लेखिका के लिए यह कठिन ही होता है। फिर भी मन का अवसाद भी इसका कारण बन गया है। अब आशा यही है कि  निकट भविष्य में मैं अपनी कोई विशेष रचना लिखूंगी, तब यह पाठकों के साथ ज़रूर साझा करूंगी।

प्रश्न— आज लेखक पाठक और प्रकाशन के बीच कैसा रिश्ता है? क्या प्रकाशक लेखन- लेखिकाओं के साथ ईमानदारी बरतते हैं और न्याय करते हैं?

उत्तर- लेखक पाठक और प्रकाशक के बीच हमेशा अच्छे सम्बन्धों की कामना की जाती हैं। क्योंकि इनके रिश्ते एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। मेरे रिश्ते भी पाठको और प्रकाशनों के साथ अभी तक अच्छे ही रहे हैं। मेरी रचनाओं को पढ़ने के बाद पाठकों के फोन आते हैं, वे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त  करते हैं, तब मन को अच्छा लगता है। मेरी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ के पाठक बहुत बने हैं। ऐसे बहुत पाठको ने अपनी भावनाओं से पूर्ण बाते मुझे कही  हैं। शिकंजे का दर्द आत्मकथा  के सम्बन्ध में यह तो निश्चित है कि यह पुस्तक वाणी प्रकाशन वालों ने बड़ी संख्या में छापी है। इसके पांच  संस्करण छपे हैं। यह आल इंडिया में देश के सभी प्रांतो में बहुत बड़ी संख्या  में बिकी  है।

हालांकि रायल्टी को लेकर मेरा साथ काफी भेदभाव हुआ है। आमतौर पर किसी भी प्रकाशक ने कभी मुझे कोई रायल्टी नहीं दी है। सभी लेखक लेखिकाओं के साथ ऐसा नहीं होता है। अधिकाँश साहित्यकार नियमित रूप से रायल्टी लेते हैं। मगर मुझे अभी तक अपने लाभांश से वंचित रखना, मेरे साथ अन्याय है। इस सम्बन्ध में मैंने  फेसबुक पर वीडियों द्वारा अपनी बात कही है।

Sushila Takbhaure
Hindi Dalit Literature
Dalit literature
hindi literature
Women
Dalits

Related Stories

विचारों की लड़ाई: पीतल से बना अंबेडकर सिक्का बनाम लोहे से बना स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी

दलितों पर बढ़ते अत्याचार, मोदी सरकार का न्यू नॉर्मल!

बच्चों को कौन बता रहा है दलित और सवर्ण में अंतर?

मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?

#Stop Killing Us : सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का मैला प्रथा के ख़िलाफ़ अभियान

सिवनी मॉब लिंचिंग के खिलाफ सड़कों पर उतरे आदिवासी, गरमाई राजनीति, दाहोद में गरजे राहुल

बागपत: भड़ल गांव में दलितों की चमड़ा इकाइयों पर चला बुलडोज़र, मुआवज़ा और कार्रवाई की मांग

गुजरात: मेहसाणा कोर्ट ने विधायक जिग्नेश मेवानी और 11 अन्य लोगों को 2017 में ग़ैर-क़ानूनी सभा करने का दोषी ठहराया

मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में सैलून वाले आज भी नहीं काटते दलितों के बाल!

झारखंड: पंचायत चुनावों को लेकर आदिवासी संगठनों का विरोध, जानिए क्या है पूरा मामला


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License