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तेल की क़ीमतों में गिरावट का असली असर अभी दिखना बाक़ी है
अगर तेल की क़ीमतों में गिरावट का असर तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ने को रूप में सामने आता है, तो इसमें आश्चर्य की बात कोई नहीं होनी चाहिये।
राकेश सिंह
29 Apr 2020
oil
प्रतीकात्मक तस्वीर

किसी भी उत्पाद की क़ीमत नकारात्मक हो जाना काफी विचित्र लग सकता है। यानी बेचने वाला खरीदने वाले को खरीदने के लिए कुछ भुगतान कर रहा है। दुनिया के बाजार की सबसे बड़ी खपत वाली कमोडिटी तेल की क़ीमत नकारात्मक हो गई और इससे किसी को बहुत ज्यादा आश्चर्य भी नहीं हुआ। 20 अप्रैल को वेस्ट टेक्सॉस क्रूड (डब्लूटीआई) का मई का सौदा -40.32 डॉलर प्रति बैरल पर हुआ। ऐसा मांग में भारी गिरावट और ज्यादा आपूर्ति से पारंपरिक भंडारण सुविधाओं के भरने के कारण हुआ। यात्रा प्रतिबंधों के कारण 2019 के 100 मिलियन बैरल प्रतिदिन के स्तर से इस वर्ष तेल की मांग अभूतपूर्व रूप से गिरकर केवल 9.3 मिलियन बैरल प्रतिदिन रहने की उम्मीद है। इससे साफ पता लगता है कि कोरोनावायरस का प्रकोप कितना गहरा है।

मांग में भारी गिरावट और ज्यादा आपूर्ति से पारंपरिक भंडारण सुविधाओं के भरने के बाद दुनिया के बड़े तेल व्यापारी अब तेल के भंडारण के लिये खाली टैंकरों, रेलवे वैगनों, गुफाओं और पाइपलाइनों को किराये पर लेने में जुटे हैं। हाल के दिनों में जेट ईंधन, गैसोलीन और डीजल को समुद्र में स्टोर करने के लिए दर्जनों तेल टैंकर बुक किए गए हैं। दुनिया की कुल तेल भंडारण क्षमता का अनुमान लगाना कठिन है, लेकिन यह साफ संकेत मिलता है कि उनकी भंडारण सीमा खत्म हो रही है।

समुद्र में भंडारण बढ़ाना इसका एक संकेत है क्योंकि यह जमीन पर भंडारण से अधिक महंगा है और तकनीकी रूप से जटिल है। तेल उत्पादक, रिफाइनरी और व्यापारी उत्तर-पूर्वी अमेरिका में रेलवे के वैगनों और खाली पाइपलाइनों में कच्चे तेल और ईंधन का भंडारण कर रहे हैं। स्वीडन और अन्य स्कैंडिनेवियाई देशों में नमक की गुफाएं या तो पहले से भरी हैं या उनको पूरी तरह से बुक कर लिया गया है। मांग घटने के बावजूद कच्चे तेल का उत्पादन बंद नहीं करने का सबसे बड़ा कारण यह है कि एक बार बंद किये गये तेल कुओं से उत्पादन फिर शुरू करना और भी महंगा और जटिल काम होता है।
 
पश्चिमी दुनिया के लोग तेल के बारे में केवल तभी सोचते हैं, जब उसकी कीमतें बढ़ जाती हैं। ऐसा 1973 और 1979 में हो चुका है। लेकिन तेल की क़ीमतों का उतार-चढ़ाव केवल आर्थिक झटका नहीं होता है। एक ही दशक में तेल की क़ीमतों में दो बार भारी वृद्धि से विश्व अर्थव्यवस्था का शक्ति संतुलन विकसित देशों से विकासशील दुनिया की और स्थानांतरित होने लगा। ऐसा ही लेकिन धीरे-धीरे सन् 2000 से शुरू हुआ, जब तेल की कीमतें में तेजी आनी शुरू हुई और यह 2014 तक लगातार कमोबेश बढ़ती ही रहीं। हालांकि इस बार केवल पश्चिमी दुनिया ही नहीं बल्कि गरीब विकासशील देशों को भी तेल की बढ़ती क़ीमतों से बहुत ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा।

इसके दूसरी तरफ से तेल उत्पादक देशों में बहुत ज्यादा संपत्ति अर्जित की गई। उभरते हुई अर्थव्यवस्थाओं जैसे ब्राजील की पेट्रोबार्स और मलेशिया के पेट्रोनास ने विश्व के वित्तीय बाजारों में काफी साख बनाई। गैजप्रोम, ल्यूक ऑयल और रोजनेफ्ट की ताकत के बल पर व्लादीमीर पुतिन ने रूस को फिर से एक भू-राजनीतिक ताकत के रूप में खड़ा करने में सफलता हासिल की।

अगर तेल की बढ़ती कीमतें विश्व अर्थव्यवस्था को नये सिरे से संयोजित करती हैं तो तेल की  गिरती क़ीमतों का प्रभाव भी ठीक ऐसा ही करेगा। दुनिया के बहुसंख्यक देशों के लिये तेल की गिरती क़ीमत एक वरदान से कम नहीं है। इंडोनेशिया, फिलीपींस, भारत, अर्जेंटीना, तुर्की और दक्षिण अफ्रीका सहित सभी उभरते बाजारों वाले देश इससे लाभ हासिल करेंगे। जो तेल का एक बड़ा हिस्सा आयात करते हैं और इसके लिए बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च करते हैं।

तेल की सस्ती क़ीमत कोरोनावायरस से तबाह अर्थव्यवस्थाओं में नई जान डालने में मददगार हो सकती है लेकिन इससे तेल उत्पादक देशों को बहुत ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ेगा। तेल की क़ीमतों में ऐसी गिरावट पहली भी देखी जा चुकी है। सबसे पहले 1985 में सऊदी अरब ने एक क़ीमत युद्ध की शुरुआत की। ऐसा उसने अपनी बाजार हिस्सेदारी को फिर से बढ़ाने के लिए किया जो उसने एक समय ओपेक के सदस्य देशों के लिए छोड़ दी थी। दूसरी लहर 1997 में शुरू हुई  जब एशिया में वित्तीय संकट से मांग ध्वस्त हो गई।

तेल की क़ीमतों में तीसरी गिरावट 2014 में शुरू हुई, जब अमेरिका ने शेल गैस का उत्पादन बढ़ा दिया। इससे तेल की मांग और खपत में गिरावट आ गई। तेल की क़ीमतों में गिरावट को कम करने के लिए ओपेक और रूस ने 2016 में एक समझौता किया और तेल उत्पादन में कटौती की। कोरोनावायरस संकट के कारण मांग में कटौती को देखते हुए जब मार्च में ओपेक और रूस के बीच तेल कटौती पर कोई समझौता नहीं हो सका तो दोनों पक्षों ने तेल उत्पादन बढ़ा दिया। रूस ने भले ही तेल के उत्पादन में कटौती करने से इंकार किया है लेकिन तेल की गिरती क़ीमतों के असर से वह भी नहीं बचेगा।

जब हम तेल उत्पादक देशों के बारे में सोचते हैं तो हमारे दिमाग में सबसे पहले बहुत ज्यादा समृद्धि का चित्र आता है। यह छवि खाड़ी देशों के लिए सबसे सटीक बैठती है। हालांकि यह भी पूरी तरह सही नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कोरोनावायरस संकट का असर शुरू होने से पहले फरवरी में एक चेतावनी जारी करके कहा था कि 2034 तक सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दुनिया के लिए कर्जदाता नहीं रह जाएंगे।

यह भविष्यवाणी 2020 में 55 डॉलर प्रति बैरल के दाम पर आधारित थी। जब क़ीमत 30 डॉलर प्रति बैरल पर है, तब तो  भविष्यवाणी और कम समय में सही सिद्ध हो जाएगी। खाड़ी के दूसरे देशों की हालत तो और भी गंभीर है। बहरीन केवल सऊदी अरब के सहयोग से ही वित्तीय संकट से बच सका है। ओमान की वित्तीय स्थिति भी बहुत ठीक नहीं है। उसका सरकारी कर्ज बहुत ज्यादा हो चुका है और आने वाले समय में उसे आईएमएफ की मदद लेनी ही पड़ेगी।

दक्षिण अमेरिका में प्रमुख तेल उत्पादक देश वेनेजुएला को 2014 में तेल की कीमतें गिरने के कारण एक बड़े संकट का सामना करना पड़ा था। ह्यूगो शॉवेज के उत्तराधिकारी निकोलस मादुरो को भी ठीक वैसे ही संकट का सामना करना पड़ रहा है, जैसा शेल गैस का उत्पादन बढ़ने पर शॉवेज को करना पड़ा था। लैटिन अमेरिका के एक अन्य बड़े तेल उत्पादक देश ब्राजील की पेट्रोबार्स कंपनी पर 2019 के अंत तक 78.9  अरब डॉलर का कर्ज था। जो विश्व की सभी तेल कंपनियों में सबसे ज्यादा है।

घनी आबादी वाले मध्य आय वर्ग के देश बहुत ज्यादा तेल की आय पर निर्भर हैं। ईरान इसका एक विशेष उदाहरण है, जो अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से पहले ही जूझ रहा है। लेकिन उसका पड़ोसी देश इराक और भी ज्यादा संकट में है। 3.8  करोड़ की आबादी वाला इस देश के सरकारी बजट का 90% राजस्व तेल की बिक्री से ही आता है। कीमतें अगर इस तरह गिरीं तो वह सरकारी कर्मचारियों को वेतन भी नहीं दे सकता है। इस समय इराक वाशिंगटन और तेहरान के बीच एक युद्ध का मैदान बना हुआ है।
 
उत्तरी अफ्रीका में अल्जीरिया की आबादी 4.4  करोड़ है और वहां की अधिकारिक बेरोजगारी दर 15% है। उसके विदेशी मुद्रा राजस्व का 85% तेल और गैस के निर्यात से आता है। यहां पर 1991 से 2002 तक एक गृह युद्ध भी हो चुका है, जिसमें करीब 150,000   लोगों की जानें गईं थीं। तेल की क़ीमतों में 2000 के बाद से हो रही बढ़ोतरी ने अल्जीरिया में सामाजिक और राजनैतिक स्थिरता कायम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नाइजीरिया ने पिछले महीने ही अफ्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल किया है। एक विविध अर्थव्यवस्था होने के कारण इसकी हालत इराक और अल्जीरिया की तरह नहीं है। फिर भी देश की अधिकांश आर्थिक गतिविधियां अनौपचारिक क्षेत्र में है। इसकी विदेशी मुद्रा की आय का 90% तेल की बिक्री से आता है। 2014 में जब तेल की क़ीमत गिरी थी, तो नाइजीरिया को बहुत संकट का सामना करना पड़ा था।

मलेशिया की पेट्रोनास कंपनी तो पिछले 5 साल में सरकार के कुल राजस्व का 15% योगदान करती है। इस हालत में मलेशिया पर संकट बढ़ेगा। राजस्व के दूसरे बड़े स्रोत उत्पाद पॉम ऑयल पर भारत सरकार के प्रतिबंध लगाने से अभी मलेशिया ठीक जरह से संभला भी नहीं है।

अगर तेल की क़ीमतों में गिरावट का असर तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ने को रूप में सामने आता है, तो इसमें आश्चर्य की बात कोई नहीं होनी चाहिये। तेल व्यापार से आय में अचानक बड़ी गिरावट निर्यात राजस्व, बजट स्थिरता और विकास की संभावनाओं को दुष्प्रभावित करती है। गिरती क़ीमतों के कारण पैदा वित्तीय संकट सरकारों की कामकाज की क्षमता को सीमित करता है और कठोर राजनीतिक विकल्पों को अपनाने पर मजबूर करता है। सऊदी अरब और रूस जैसे देश तो संकट से बचाव के लिए अपनी क्षमता का उपयोग करेंगे। लेकिन कमजोर तेल उत्पादकों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है। जबकि इराक, अल्जीरिया, और अंगोला जैसे राज्यों के लिए यह खतरा अस्तित्व के संकट से कम नहीं है।

कोरोनावायरस संकट से पहले ही कई राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषक तेल उत्पादक देशों के बारे में चिंतित थे। तब सवाल तेल की नकारात्मक क़ीमतों से निपटने का नहीं बल्कि अक्षय ऊर्जा स्रोतों की और दुनिया के बढ़ते कदमों से जुड़ा था। एक ऐसी दुनिया में जहां ईंधन के लिये तेल का उपयोग नहीं होगा तो सबसे कमजोर तेल उत्पादक देशों की आर्थिक व्यवस्था कैसे चलेगी। यह सामान्य परिस्थितियों में होने की संभावना नहीं है, क्योंकि कम कीमतें आम तौर पर मांग को बढ़ाएंगी। लेकिन मांग में कमी अगर एक ठोस वैश्विक प्रयास का परिणाम है, तो आगे क्या होगा? ठीक वही होगा जो हम आज देख रहे हैं। कोरोनावायरस का झटका भविष्य की झलक पेश कर रहा है।

मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका, उप-सहारा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में वास्तव में कमजोर तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्थाओं में विविधता लाने की जरूरत है। अगर सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने इसको प्राथमिकता नहीं दी तो करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाले सामाजिक संकटों के लिए ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। कमजोर तेल उत्पादक देशों को कच्चे तेल के निर्यात पर अपनी निर्भरता को खत्म करने के लिए एक ठोस रणनीति की आवश्यकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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