NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अमिताभ कांत जैसे किसी भी व्यक्ति की ‘टू मच डेमोक्रेसी’ वाली बात पूरी तरह से कुतर्क है!
भारत दुनिया के उन 6 देशों में शामिल है जहां पर डेमोक्रेसी की हालत सबसे अधिक कमजोर हुई है। लोकतंत्र में गिरावट की शुरुआत साल 2014 के बाद सबसे अधिक हुई है।
अजय कुमार
10 Dec 2020
टू मच डेमोक्रेसी

स्कूल और कॉलेज के डिबेट याद कीजिए। आप सब ने यह तर्क खूब सुना होगा कि भारत को एक मजबूत सरकार चाहिए। एक ताकतवर नेता चाहिए। जो भारत को बहुत अधिक आगे ले जा सके। अगर आपने किसी एमबीए, इंजीनियरिंग या बड़े महंगे किसी कॉलेज में अपनी पढ़ाई की होगी तो आपने यह तर्क पक्का सुना होगा। इसलिए जब केंद्र सरकार के बहुत बड़े सरकारी अधिकारी और नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने यह कहां की हमारे यहां बहुत अधिक लोकतंत्र है इसलिए भारतीय संदर्भ में सुधार बहुत मुश्किल होता है, तो इसमें कोई अचरज भरी बात नहीं लगी। ऐसा लगा कि अमिताभ कांत भी भारत के उसी फौज का हिस्सा हैं जो बातचीत, सलाह मशवरा, तर्क से चलने वाले लोकतंत्र को सुधारों के लिहाज से बहुत बड़ी रुकावट की तौर पर देखते हैं। और थोड़े से देसी अंदाज में कहा जाए तो यह मानते हैं कि लोकतंत्र को अगर उखाड़ कर फेंक दिया जाए तो भारत में बहुत अधिक सुधार हो सकते हैं। यह केवल अमिताभ कांत की बात नहीं है बल्कि साल 2017 के प्यू रिसर्च के मुताबिक देशभर के तकरीबन 55% लोग सोचते हैं कि अगर भारत में एक ऐसा नेता हो जो संसदीय बहस और कोर्ट जैसी संस्थाओं को लांघते हुए फैसले ले सके तो अब भारत के लिए सबसे शानदार नेता होगा। देश मजबूती से प्रगति के पथ की तरफ बढ़ता चलेगा।

इसलिए असल सवाल यह है कि आखिर लोग ऐसा सोचते क्यों है? क्या ताकतवर तानाशाही किस्म का राजकाज समाज को आगे ले जाता है? लोकतंत्र के लिहाज से क्या भारत में वास्तव में बहुत अधिक लोकतंत्र है? चलिए इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं.

लोग ऐसा क्यों सोचते हैं? उसके मनोवैज्ञानिक और प्रबंधकीय कारण है। किसी एक व्यक्ति के हाथ में सारी सत्ता हो। ऐसा लोग इसलिए सोचते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर ऐसा होगा तो इसकी संभावना बहुत अधिक होगी फैसले लेने में देर ना हो। फैसले तेजी से हो जाए। यह विशुद्ध तौर पर प्रबंधकीय सोच है। जो बहुत छोटे स्तर पर तो प्रभावी होती है। लेकिन बहुत बड़े स्तर पर पूरी तरह से निष्प्रभावी। क्योंकि केवल लोग ही अलग नहीं होते हैं लोगों के बीच सही और गलत चुनने की विचारधारा भी पूरी तरह से अलग होती है। इसलिए अगर सोचा जाए कि एक देश की बागडोर का सारा जिम्मा केवल एक हाथ में हो तो यह पूरी तरह से गलत है। यही वजह है कि लोकतंत्र में हर तरह के कामों के लिए हर तरह की संस्थाएं होती हैं। हर तरह की संस्थाओं में हर तरह की विशेषज्ञता हासिल किए हुए लोग होते हैं। उन सबको साध कर फैसला करना होता है। और दुखद बात यह है कि अमूमन ऐसा नहीं होता। सत्ता और पूंजीपतियों का गठजोड़ चलता है और सारे फैसले हिसाब से ले लिए जाते हैं।

अब बात करते हैं मनोवैज्ञानिक कारण पर। परिवार का एक मुखिया होना चाहिए, समूह का एक नेता होना चाहिए, सब लोग मिलकर फैसले नहीं ले सकते। इस तरह की सारी बातें आम जनता के मन में ऐसी मानसिकता भर देती हैं कि वह अपनी सारी परेशानियों का हल एक इंसान के सहारे ढूंढने लगता है। और अगर इंसान लोकतांत्रिक ना हुआ तो देश का भी वही हाल होता है जो एक परिवार का होता है। जिसका मुखिया बिना एक दूसरे से बात किए केवल अपने फैसले परिवार पर लागू करता है। ऐसे परिवारों की क्या स्थिति होती है। इसकी संभावनाओं से हम सब लोग परिचित हैं। इक्का दुक्का लोग को छोड़ दिया जाए तो पूरा परिवार नाखुशी और अवसाद की जिंदगी जीता है। यही हाल इस समय देश का है। भाजपा जैसी ताकतवर पार्टी ने एक भी किसान संगठन से बात नहीं की और एक ऐसा कानून लागू कर दिया जिसके विरोध में आज पूरा देश खड़ा है। लेकिन फिर भी देश का मुखिया मान नहीं रहा।

भारत का बहुत बड़ा मिडिल क्लास यह सोचता है कि ताकतवर नेता होगा तो देश में आर्थिक विकास का रफ्तार बहुत अधिक तेज होगा। यह तर्क देते समय अधिकतर लोगों के दिमाग में चीन का उदाहरण होता है। लोग कहते हैं कि हमारे यहां मोदी जी आगे बढ़ते हैं तो दस उनके पैर खींचने वाले खड़े रहते हैं। ऐसे कैसे देश का विकास होगा? चीन ने ऐसी आवाजों को बंद कर विकास किया है। मोदी जी को भी ऐसा करना चाहिए। तो सबसे पहले बात कि यह तुलना ही गलत है। और ऐसी हर तुलनाएं पूरी तरह से गलत होती हैं जहां पर तुलना करने वाले विषय की पृष्ठभूमिया पूरी तरह से अलग हैं। जैसे यहां पर कि चीन जिस खांचे के अंदर खुद को आगे बढ़ा रहा है ठीक वैसे ही खांचे के अंदर भारतीय समाज नहीं रहता। इसलिए तुलना बेमानी है।

फिर भी यह सवाल तो बनता ही है कि क्या लोकतंत्र को पूरी तरह से अनदेखा कर एक तानाशाही व्यवस्था में आर्थिक विकास की रफ्तार बहुत तेज होती है? इस सवाल का जवाब देते हुए अपनी किताब 'टेन रूल्स फॉर सक्सेसफुल नेशन' में रुचिर शर्मा लिखते हैं कि जब उन्होंने साल 1950 के बाद 150 देशों की आर्थिक विकास के रफ्तार के आंकड़ों का अध्ययन किया तो उन्होंने पाया कि तकरीबन 43 मामले ऐसे आए जिसमें किसी देश ने 10 सालों से अधिक औसतन 7 फ़ीसदी या 7 फ़ीसदी से अधिक की आर्थिक वृद्धि दर्ज की। इन 43 मामलों में से तकरीबन 35 मामले ऐसे थे जहां पर तानाशाही सरकारें राजकाज का जिम्मा संभाल रही थी। लेकिन रुकिए यह सच का केवल एक ही पहलू है। पूरा सच यह है कि 1950 के बाद तकरीबन 138 ऐसे मामले आए जब देशों की 10 सालों से अधिक आर्थिक विकास की रफ्तार 3% से कम की थी। यानी मंदी की स्थिति थी। और इनमें से तकरीबन 100 मामले ऐसे देशों से जुड़े थे जहां पर तानाशाही सरकारें राजकाज का जिम्मा संभाल रही थी।

50 के दशक का घाना, 60 के दशक सऊदी अरब, 80 के दशक का रोमानिया, 90 के दशक का नाइजीरिया इसके उदाहरण हैं। कहने का मतलब यह है कि चीन का नाम लेने के बाद लोग जिंबाब्वे से लेकर अफ्रीका के कई देशों के तानाशाही रवैया को आर्थिक रफ्तार के फेर में पीछे छोड़ देते हैं। और आलस भरा तर्क सामने रखते हैं लोकतंत्र को भुला कर अगर आर्थिक विकास की तरफ ध्यान दिया जाए तो देश बहुत आगे बढ़ेगा।

कई तरह की बहुलता से पटा पड़ा हुआ हिंदुस्तान जो अपने मिजाज में दुनिया के दूसरे मुल्कों से पूरी तरह से अलग है अगर वहां पर लोकतंत्र न हो तो उस देश की क्या स्थिति होगी? इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं।

अब अगर उन देशों की बात करें जहां पर लोकतंत्र को ध्यान में रखकर देश खुद को पाल पोस रहा है तो स्थिति और अधिक साफ हो जाती है। फ्रांस, स्वीडन, नॉर्वे, बेल्जियम जैसे देशों में साल 1950 के बाद केवल एक साल 7 फ़ीसदी से अधिक का आर्थिक विकास हुआ। लेकिन यहां के लोगों की औसतन आमदनी में 1950 के बाद तकरीबन पांच से छह गुनी तक की बढ़ोतरी हुई है। सब की आमदनी 30000 डॉलर से अधिक है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इन देशों ने लंबे समय में कभी भी मंदी का सामना नहीं किया। इनकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार कमोबेश ठीक-ठाक चलती रहे। मौजूदा समय में भी 10000 डॉलर से अधिक आमदनी वाले देशों में केवल चीन को छोड़कर कोई भी ऐसा देश नहीं है जिस पर तानाशाही का ठप्पा लगता हो।

यानी यह भी पूरी तरह से साफ है कि बिना लोकतंत्र के आर्थिक विकास ही नहीं होता है। आर्थिक विकास के नाम पर जो होता है उस रास्ते की मंजिल अंतिम तौर पर बर्बादी होती है। अपने दो सवालों का जवाब मिल जाने के बाद अब तीसरे सवाल पर बात करते हैं कि क्या वास्तव में भारत में बहुत अधिक लोकतंत्र है?

तो चलिए उसके लिए बिहार चुनाव के नतीजों की तरफ चलते है। बिहार के चुनावी नतीजों को कई तरह के से बतलाया जा सकता है। लेकिन इस चुनावी नतीजे की भारतीय लोकतंत्र के लिहाज से एक खूबसूरत व्याख्या भी हो सकती है कि इसमें सत्ता पक्ष को 125 और विपक्ष को 110 सीटें मिली। सत्ता और विपक्ष के बीच सीटों का इतना अधिक अंतर नहीं है कि सत्ता पक्ष पूरी तरह से तानाशाही रवैया अपना ले। संसदीय लोकतंत्र की संभावनाओं को बहुत अधिक कमजोर कर दे। लेकिन यही हाल साल 2019 के चुनावी नतीजों में नहीं है। भाजपा के पास 303 सीटों का आंकड़ा है और कांग्रेस के पास महज 52 सीटों का। और साल 2019 के बाद सत्ता पक्ष ने कानून बनाने के मसले पर विपक्ष को किस तरीके से बेदखल किया है। इसे हर कोई जानता है। कश्मीर से जुड़ा खास संवैधानिक अनुच्छेद 370 हटाने की बात हो, नागरिकता व कृषि कानून लागू करने की बात हो या कोई दूसरे भी कानून हो। इन सब पर हुई संसद की बहसों और कार्यवाहियों से एक बार फिर से गुजर कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में केंद्र सरकार कितनी अधिक मजबूत हैसियत में है और अपनी मजबूती में उसने लोकतंत्र की मर्यादाओं का कितना ख्याल रखा है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की परवाह किए बिना नोटबंदी लागू कर तो यहां तक साफ हो गया कि मौजूदा समय में पूरा देश एक व्यक्ति के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है।

यह तो एक नजरिया हुआ। जिस पर बहुत सारे विद्वानों का मत है कि भारत जैसे देश को संभालने के लिए और लोकतंत्र की संभावनाओं के साथ राह बनाने के लिए आंकड़ों के लिहाज से बहुत अधिक ताकतवर सरकारें बहुत कमजोर साबित होते हैं। इस नजरिए पर डेमोक्रेसी रिपोर्ट 2020 भी मुहर लगाता है। जिसके तहत पिछले 10 वर्षों में भारत में डेमोक्रेसी का माहौल बहुत ज्यादा नीचे गिरा है। भारत दुनिया के उन 6 देशों में शामिल है जहां पर डेमोक्रेसी की हालत सबसे अधिक कमजोर हुई है। लोकतंत्र में गिरावट की शुरुआत साल 2014 के बाद सबसे अधिक हुई है। नागरिक स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की आजादी और अकादमिक स्वतंत्रता के मामले में भारत में लोकतंत्र का माहौल इमरजेंसी के लोकतंत्र के माहौल से भी नीचे गिर चुका है। अब आप ही सोचिए कि क्यों अमिताभ कांत जैसे किसी भी व्यक्ति की ‘टू मच डेमोक्रेसी’ वाली बात भारत जैसे देश के लिए कुतर्क नहीं है।

democracy
Democracy Too Much
Too much
Amitabh Kant
Narendra modi
BJP
Fight against dictatorship
dictatorship

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License